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Books - सुख-शांति की साधना

Media: TEXT
Language: HINDI
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मनोरंजन—मानव जीवन की महती आवश्यकता

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First 28 30 Last
भोजन, वस्त्र की भांति जीवन में एक और भी वस्तु की नितान्त आवश्यकता है—और वह है मनोरंजन। मनोरंजन के अभाव में जीवन नीरस और शुष्क बन जाता है। जीवन में नई स्फूर्ति, नया उत्साह और नई शक्ति लाने के लिए कुछ न कुछ मनोरंजन की नित्य आवश्यकता है।

मनुष्य का मन सारी शक्तियों का केन्द्र है। उसके कुण्ठित और क्लांत रहने से मनुष्य की शक्ति भी शिथिल हो जाती है। मनोरंजन से मन की कुण्ठा और क्लांति दूर होती है। नई शक्ति का द्वार खुल जाता है। दिन भर काम करने के बाद यदि सायंकाल थोड़ा-सा मनोरंजन हो जाया करे तो दूसरे दिन के लिये मन फिर ताजा और शक्तियां नई हो जायें और कार्य में पूरी रुचि बनी रहे। अधिकतर लोग जीविका कमाने के लिये एक जैसा कार्य ही नित्य करते हैं। इस एक रास्ता के कारण मन बड़ा मलीन और जब-जब निषेधी हो जाया करते हैं। दो-चार दिन काम करने के बाद वह असहयोग करके और कंधा डालने लगता है। कार्य की गति कम हो जाती है, दक्षता जाने लगती है। यही तो कारण है कि हर विभाग और कारोबार में सप्ताह में एक दिन की छुट्टी अनिवार्य की गई है। इस अवकाश का यही आशय है कि छह दिन निरंतर काम करने के बाद एक दिन सब लोग अवकाश मनायें और मनोरंजन करें जिससे सप्ताह भर के लिए उनकी शक्ति फिर हरी और मन स्वस्थ हो जाये। जीवन में ताजगी, रुचि और प्रखरता के लिए मनोरंजन की नितान्त आवश्यकता है।

मनोरंजन से प्रसन्नता प्राप्त होती है। प्रसन्नता को दैवी वरदान की तरह फलदायक बतलाया गया है। उससे स्वास्थ्य बढ़ता और आरोग्य प्राप्त होता है। विवेक की वृद्धि होती है और दीर्घजीवन का लाभ होता है। प्रसिद्ध विद्वान् तथा दार्शनिक, नायर ने प्रसन्नता का महत्व बतलाते हुए कहा है—‘‘जब भी सम्भव हो सदा हंसो और प्रसन्न रहो, प्रसन्नता एक सर्वसुलभ, सुन्दर और सफल औषधि है जो जीवन के अनेक रोग दूर कर देती है।’’ डा. स्टर्क की भी ऐसी ही उक्ति है। वे कहते हैं—‘‘मुझे विश्वास है कि एक बार जब कोई व्यक्ति हंसता, मुस्काता है तो यह उसके साथ-साथ अपने जीवन में वृद्धि करता चलता है।’’ इसी प्रकार विश्व प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री डा. सेम्पसन ने अपना अनुभव बतलाते हुए एक स्थान पर लिखा है—

‘‘एक रोगी मेरे पास लाया गया। उसकी स्थिति चिन्ताजनक रूप से गंभीर थी, उसके बचने की उम्मीद छोड़ी जा चुकी थी। लेकिन मैं निराश न था। मेरे पास यह जानने का एक सफल प्रयोग था कि रोगी बच सकता है अथवा नहीं। निदान मैंने उससे विनोदपूर्ण ढंग से हाल पूछना प्रारम्भ किया। मेरे विनोद से उसके मुख पर प्रसन्नतापूर्ण मुस्कुराहट की रेखायें उभर आईं। बस मुझे विश्वास हो गया कि मृत्यु अभी इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। मैंने उसके साथ आये चिंतित सम्बन्धियों को गारन्टी के साथ बतला दिया कि चिन्ता करने की कोई बात नहीं है। आपका रोगी अवश्य बच जायेगा, क्योंकि उसमें अभी हंसने, मुस्काने की क्षमता शेष है और निश्चय ही कुछ समय की चिकित्सा के बाद वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया।’’

प्रसन्नता में अनन्त जीवनी शक्ति का निवास रहता है सदा प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति कभी असफल नहीं होता। संसार के किसी भी महापुरुष का जीवन देख लिया जाये, उनमें अन्य गुणों के साथ प्रसन्नता का गुण प्रधान रूप से जुड़ा हुआ मिलेगा। हर स्थिति एवं परिस्थिति में एक रस, प्रसन्न रहना महापुरुषों की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य है। प्रसन्नता मनुष्य की कार्य क्षमता को कई गुना बढ़ा देती है। प्रसन्न मन व्यक्ति एक घन्टे में जितना काम कर लेता है, खिन्न मन और व्यग्र मस्तिष्क वाला व्यक्ति उतना काम एक दिन में भी नहीं कर पाता। इसके अतिरिक्त प्रसन्नता की स्थिति में जो कार्य कुशलता आती है, वह क्लान्त मनःस्थिति में नहीं। जो कार्य प्रसन्नतापूर्ण उत्साह के साथ प्रारम्भ किया जाता है वह अवश्य पूर्ण और सफल होता है। कार्यारम्भ की प्रसन्नता उसकी सफलता की पूर्व सूचना है। जो काम रोते, झींकते और खिन्न मन से प्रारम्भ किया जाता है, उसका पूर्ण तथा सफल होना संदिग्ध ही रहता है। ऐसी स्थिति में किये हुए काम बहुधा असफल ही रहते हैं। प्रसन्नता का स्थान जीवन में अमृत के समान है।

अब विचार यह करना है कि जीवन की इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हम कहां तक करते हैं। भोजन, वस्त्र तथा घर-बार के प्रबन्ध में तो दिन-रात लगे रहते हैं किन्तु इस मानसिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए कितना और क्या प्रबन्ध करते हैं? अस्सी प्रतिशत व्यक्तियों के पास इसका उत्तर नकारात्मक होगा। ऐसा क्यों है? इसलिये कि हम सब जीवन में मनोरंजन तथा प्रसन्नता का महत्व नहीं समझते। बल्कि यह धारणा बनाये बैठे हैं कि हंसना, खेलना और मनोरंजन, मनोविनोद करना बड़े आदमियों के चोचले हैं।

सोचकर खेद होता है कि यह धारणा कितनी गलत और हानिकारक है। हम स्वयं ही अपने आप अपनी प्रसन्नता का निसर्ग सिद्ध अधिकार अस्वीकृत कर देते हैं। मनोरंजन, मनोविनोद अथवा हंसी खुशी पर न तो अमीरों का एकाधिकार है और न यह धन अथवा साधनों पर ही निर्भर है। पशु-पक्षी जो खुले मैदानों और विस्तृत आकाश में कूदते, उड़ते और गाते फिरते हैं, तरह-तरह का क्रीड़ा और कौतुक करते हैं, अमीर और तालेवर नहीं होते। न इनके मिल चलते हैं और न बड़ी-बड़ी फर्में। न तो इनके तिजोरियां होती हैं, न बैंकों में बड़े-बड़े खाते। इतना ही नहीं उनके पास मनोरंजन तथा मनोविनोद के वैसे साधन भी नहीं होते जैसे कि मनुष्य को प्राप्त हैं। तब भी वे मनोविनोद करते हैं और प्रसन्न रहते हैं। क्या मनुष्य इन सबसे भी गया-गुजरा है जो इस प्रकार की निराशा तथा मृत भावना तथा धारणा बनाए बैठा है।

हमें स्वयं प्रसन्न रहना और पूरे परिवार को प्रसन्नता का अवसर देते रहना चाहिये। प्रसन्नता यों ही बहुत-सी चिन्ताओं तथा व्यग्रताओं को कम कर देती है। यदि आज से ही हम और हमारा परिवार नियमित रूप से प्रसन्न रहने लगे तो कल से ही उसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन होता दिखलाई देने लगे। जो स्त्रियां कुण्ठित और विषण्ण बनी रहती हैं, उनके चेहरे खिल उठें, उनके मन सरस और मधुर हो जायें। उनकी पारस्परिक कलह जिसका कारण खिन्नता होती है, दूर होने लगे और उनके कर्कश स्वभाव में सरसता का समावेश हो जाये। वे बच्चे जो दिन-रात रें-रें करते रहते हैं, मां को जोंक की तरह चिपटे या रोते हुए हर समय उसका पल्लू पकड़े पीछे लगे रहते हैं। हंसते, खेलते और आत्मोल्लसित होते दीखने लगे, उनके हाथ-पांव खुल जायें और मन खिल उठे। घर में हर ओर सुन्दरता तथा स्वास्थ्य का वातावरण दिखलाई दे। परिवार को प्रसन्न देखकर ऐसा कौर होगा, जो खुद भी प्रसन्न न हो उठे और जिसकी मानसिक कटुता अथवा कुण्ठा कम न हो जाये। प्रसन्न रहना और पूरे परिवार को प्रसन्न रखना प्रत्येक गृहस्थ का आवश्यक कर्तव्य है, जिसे पूरा करना ही चाहिये।

प्रसन्न रहने के लिए किन्हीं विशेष साधनों की आवश्यकता नहीं होती और न अधिक पैसे की। परिवार के लिये थोड़ा-सा मनोरंजन जुटा देना ही काफी होगा। इस मनोरंजन के साधन के रूप में यदि कोई बजा सके तो कोई छोटा-सा वाद्य लाया जा सकता है। यह वीणा, सितार, ढोल, ढपली कुछ भी हो सकता है। सायंकाल सब कामों से निबट कर सारे सदस्य एक स्थान पर बैठें और बजाने वाला वाद्य बजाये और सारे लोग भजन कीर्तन के साथ उसकी संगत करें। एक घण्टे ऐसा कर लेने से पर्याप्त मनोरंजन हो जायेगा और सारा परिवार ताजा तथा स्फूर्तिवान् बन जायेगा। काम की थकान और मानसिक तनाव दूर हो जायेगा। गहरी नींद आयेगी दूसरे दिन काम में खूब जी लगेगा। यदि कोई बजाने वाला न हो तो भी कोई हर्ज नहीं। बिना वाद्य के भी भजन कीर्तन अथवा सुन्दर कविता का पाठ चल सकता है। बच्चे याद की हुई कोई कविता अथवा प्रार्थना सम्मिलित रूप से भी गा सकते हैं और अलग-अलग भी। भजन कीर्तन के अतिरिक्त पठन-पाठन का भी कार्यक्रम चलाया जा सकता है। किसी धर्म पुस्तक गीता, रामायण, महाभारत अथवा भागवत्, प्रेम-सागर आदि ग्रन्थों को पढ़ा सुना जा सकता है। कहानी अथवा पहेली बुझौबल भी चल सकता है और उससे भी मनोरंजन हो सकता है।

रोना-गाना थोड़ा बहुत सभी को आता है। किन्तु इसमें इतना ध्यान अवश्य रखना है कि गाना अश्लील, अवांछित अथवा अनर्गल न हो। वे भाव, भक्ति अथवा सद्-विचारों से ही भरे हों। गन्दे गानों द्वारा मनोरंजन करने से मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य पर ही नहीं, आचरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसका विचार न रखने से हित में अहित होगा और मनोरंजन का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा।

छुट्टी के दिन अथवा अवकाश के समय बाहर किसी वन-वाटिका में जाकर प्राकृतिक संसर्ग में मनोरंजन कर सकते हैं। भोजन साथ लेते जायें अथवा वहीं बनायें तो और भी अच्छा रहे। गरमी के दिनों में नदी तालाब में स्नान और जाड़ों के दिनों में धूप स्नान के लिये बाहर निकल जाना भी कम मनोरंजक नहीं है। बरसात के दिनों में किसी दिन हरे-भरे मैदान में घूमना और बरसते पानी में नहाना, खेलना और मौज मनाना भी अच्छा मनोरंजन है। इस प्रकार के न जाने छोटे-छोटे कितने कार्यक्रम हो सकते हैं, जिनके द्वारा पूरा परिवार मनोरंजन का आनन्द प्राप्त कर सकता है।

जो लोग मनोरंजन के लिए नाच, स्वांग, नौटंकी अथवा सिनेमा देखने जाते हैं, वे ठीक नहीं करते। यह मनोरंजन स्वस्थ नहीं होते, इससे मानव वृत्तियों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पैसा भी ज्यादा खर्च होता है। इसके स्थान पर यह पैसा बचाकर किसी-किसी दिन घर में उत्सव मनाया जा सकता है। इसके लिए जन्म-दिवस, विवाह दिवस अथवा कोई मंगल दिवस नियुक्त किया जा सकता है। वैसे भी भारतीय संस्कृति में नित्य ही कोई न कोई पर्व-त्यौहार लगा ही रहता है। मनोरंजन के लिये शराब, भंग, ठंडाई अथवा और कोई नशीला कार्यक्रम बनाना तो बहुत ही घातक है। ऐसा मनोरंजन करने वाले अपने तथा अपने परिवार के लिए विनाश की भूमिका तैयार करते हैं। खाली दिनों में यार-दोस्तों के साथ गन्दी गप्प मारना भी अनुचित मनोरंजन है। अवकाश के समय में किसी पुस्तकालय अथवा वाचनालय में जाकर समाचार तथा पत्र-पत्रिकाओं का आनन्द उठाया जा सकता है। मोहल्ले-बस्ती के पढ़े-लिखे लोग एक गोष्ठी बनाकर नित्य प्रति रामायण अथवा किसी पुराण का कथा वार्ता का कार्यक्रम चला सकते हैं, उसमें अनपढ़ लोग भी शामिल होकर मनोरंजन तथा ज्ञान पा सकते हैं। ऐसी ही गोष्ठियां समाचार-पत्र पढ़ने और सुनाने के लिए बनाई जा सकती हैं जिनमें समाचार-पत्रों का पढ़ना और समाचारों की विवेचना की जा सकती है। इससे लोगों का मनोरंजन तो होगा ही, साथ ही विश्व चेतना की भी वृद्धि होगी। तात्पर्य यह कि दैनिक जीवन की सामान्य गति से तथा वातावरण से अलग होकर कुछ ऐसा कार्यक्रम चलाया जाना चाहिये जिससे मन को प्रसन्नता मिले और उतनी देर के लिए चिन्ताओं से मुक्त रहा जा सके।

मनोरंजन दो प्रकार का होता है। एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। शारीरिक श्रम करने वाले—मजदूर, किसान, दुकानदार, कारीगर, फेरी वाले आदि लोगों को मानसिक मनोरंजन करना चाहिए और बैठकर लिखने, पढ़ने, क्लर्की करने वाले अथवा कोई और बौद्धिक श्रम करने वालों के लिए शारीरिक मनोरंजन ठीक रहेगा। ऐसे लोग कोई भी हाकी, फुटबाल, बॉलीवाल, क्रिकेट, बैडमिंटन का खेल खेल सकते हैं। नित्य प्रति घूमने जा सकते हैं। नदी तालाब में यदि तैर सकें तो तैरा भी जा सकता है।

मनोरंजन जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। इसकी पूर्ति न करने से जीवन में नीरसता, शुष्कता तथा कुण्ठाओं की बहुतायत हो जाती है। दिन भर के काम के बाद यदि थोड़ा-सा मनोरंजन कर लिया जाये तो निश्चय ही चिन्तायें तथा कुण्ठायें कम होती हैं और शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य के साथ आयु में भी वृद्धि होती है। कार्य क्षमता बढ़ती है और जीवन के प्रति मांगलिक रुचि बनी रहती है। इसलिये सभी को कुछ-न-कुछ मनोरंजन करना ही चाहिये।
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