Books - युग परिवर्तन कब और कैसे ?
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Language: HINDI
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मानवी बुद्धि और आस्था संकट - यदि अब न चेते तो महा विनाश हो कर रहेगा
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पर्यावरण सन्तुलन में वृक्ष वनस्पतियों का जितना योगदान है उतना प्रकृति के अन्य किसी भी घटक का नहीं है ।। दिन- प्रतिदिन वातावरण में घुलते जहर के परिशोधन तथा जीवन के परिपोषण के लिए उपयोगी तत्वों के अभिवर्धन में ये मूक पर सजीव संरक्षक की भूमिका निभाते हैं ।। इनके महत्त्वपूर्ण उदात्त अनुदानों को देखकर ही पुरातन काल में दृष्टा ऋषियों ने वृक्ष- वनस्पतियों के पोषण और संरक्षण को देव आराधना जितना पुण्य फल देने वाला माना था ।। वृक्षारोपण को दान, पुण्य, तीर्थ, उपासना और साधना के समकक्ष माना जाता था ।। यह मान्यता अकारण नहीं थी ।। वृक्ष- वनस्पतियों के असंख्य अनुदानों के कारण ही उन्हें इतना अधिक महत्त्व मिला हुआ था ।।
मनुष्य की भौतिक समृद्धि में असाधारण सहयोग करने वाली वृक्ष सम्पदा का तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अंधाधुन्ध कटाई का एक दौर शुरू हुआ ।। उसके दूरवर्ती किन्तु महत्त्वपूर्ण परिणामों की उपेक्षा हुई ।। फलतः सम्पूर्ण इकॉलॉजिकल चक्र ही डगमगा गया जिसकी परिणति अनेकों प्रकार की विभीषिकाओं के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही हैं ।। मौसम में असामयिक हेर- फेर, अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसे कितने ही प्रकृति प्रकोप सन्तुलन के लिए अनिवार्य वृक्ष सम्पदा के नष्ट करने के ही दुष्परिणाम हैं ।।
प्रकृति विक्षोपों की श्रृंखला में एक भयंकर कड़ी जुड़ी है भूस्खलन एवं भूक्षरण की ।। जिससे प्रतिवर्ष उपजाऊ भूसम्पदा का एक बड़ा भाग गँवाना पड़ रहा है ।। साथ ही असंख्यों व्यक्तियों को अपने जीवन से प्रति वर्ष हाथ धोना पड़ रहा है ।। विगत कुछ वर्षों से हिमालय के निकटवर्ती क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाओं में निरन्तर अभिवृद्धि हो रही है ।। 16 अगस्त 1979 की रात को चमोली जिले के कोथा गाँव में मूसलाधार वर्षा हुई ।। वर्षा के साथ हुए भूस्खलन से पूरा गाँव ही नीचे दब गया ।। श्मशान जैसी स्थिति बन गई ।। अगस्त 1978 में हिमाचल प्रदेश में हुए एक भूस्खलन से लगभग तेरह सौ व्यक्ति मारे गये और सैकड़ों घायल हुए ।। इसी माह जन्माष्टमी की मध्य रात्रि को पिथौरागढ़ जिले के शिशना गाँव के तीन सौ व्यक्ति जमीन के अचानक धँसने से भीतर दब गये ।। सैकड़ों पशु भी इस चपेट में मारे गये ।। उसी रात निकटवर्ती एक अन्य गाँव गाशिला में भी भूस्खलन में असंख्यों जानें गई ।। गाँव की खेती और बने घर बर्बाद हो गये ।। इस प्रकार 15 अगस्त 1977 को तवाधार क्षेत्र में पृथ्वी में दरार पड़ने से सैकड़ों व्यक्तियों की अकाल मृत्यु हुई ।।
भरक्षण विशेषज्ञ एरिक एकहोम ने भूस्खलन की इन घटनाओं का कारण पवर्तीय क्षेत्र में वृक्षों की कटाई को माना है ।। उनका कहना है कि भारत की समृद्धि का महत्त्वपूर्ण स्रोत हिमालय बीमार है ।। उसकी बीमारी भूस्खलनों के रूप में अपना परियच दे रही है ।। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि हिमालय की वृक्ष सम्पदा की कटाई रोकी न गई तो देश को गम्भीर संकटों का सामना करना पड़ सकता है ।। गंगा के पानी से लाखों हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि सिंचित होती है ।। अनुमानतः तीन सौ करोड़ रुपये प्रति वर्ष का गंगा जल से लाभ होता है ।। भूस्खलन के कारणों को स्पष्ट करते हुए वैज्ञानिकों ने बताया कि तेरह हजार की ऊँचाई पर हिमालय की वृक्ष सम्पदा को बुरी तरह नष्ट किया जा रहा है ।। वनों के काटे जाने से पर्वतीय क्षेत्र में जल रोकने की क्षमता नष्ट हो जाती है ।। मिट्टी, पत्थर की पकड़ वृक्षों के कारण बनी रहती है ।। उनके कटते ही जमीन पर कृत्रिम नाले एवं झीलें बन जाती हैं तथा भूस्खलन की घटनाएँ आरम्भ हो जाती है ।।
कुमायूँ विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान के अध्यक्ष ने विस्तृत सर्वेक्षण एवं अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा है कि हिमालय के मध्यवर्तीय सन्धि स्थान पर कमजोर चट्टानों की पट्टी है ।। पिछले दशक के अधिकांश भूस्खलन इसी पट्टी के क्षेत्र में आते रहे हैं ।। वर्तमान समय में इस क्षेत्र में भूस्खलनों के निरन्तर बढ़ने के प्रमुख कारण हैं- वनों का विनाश तथा विस्फोटक पदार्थों का चट्टानों को तोड़ने के लिए उपयोग ।। सर्वेक्षण करने वाले इन विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में हरे पेड़ों की कटाई पर कड़ाई से प्रतिबन्ध लगाना चाहिए ।। साथ ही किसी भी तरह के विस्फोटक पदार्थों का कभी उपयोग न किया जाय ।। यदि इन बातों की उपेक्षा हुई तो महाविनाश की स्थिति कभी भी उत्पन्न हो सकती है ।।
भू- वैज्ञानिकों का मत है कि भारत प्रतिवर्ष 8 हजार हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि गँवाता जा रहा है क्योंकि पहाड़ों पर जंगल कट जाने से तेजी से दौड़ता वर्षा का पानी खड्ड और दरारें बनाता है ।। नदियों में रेत मिट्टी अधिक जम जाने से उनकी चौड़ाई और प्रवाह का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है ।। पिछले तीस वर्षों में वनों की कटाई अत्यधिक हुई है एक आँकड़े के अनुसार छः हजार टन उपजाऊ मिट्टी प्रतिवर्ष बहकर नदियों में चली जाती है ।। गंगा क्षेत्र में लगभग 4 करोड़ 50 लाख एकड़ भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने जितनी उर्वरा मिट्टी का प्रतिवर्ष ह्रास हो रहा है ।। अब तक पूरे देश से 42 करोड़ लाख एकड़ भूमि भूक्षरण से बर्बाद हो चुकी है ।। 1 करोड़ 75 लाख एकड़ भूमि अम्ल एवं क्षार की मात्रा बढ़ने से बेकार पड़ी है ।। नदियों की सतह ऊपर उठ आने से प्रतिवर्ष 5 करोड़ एकड़ जमीन बाढ़ की चपेट में आती है और पानी के निकास की व्यवस्था न बन पाने से बेकार पड़ी रहती है ।। कृषि योग्य मिट्टी की सतह लगभग 20 से.मी. तक होती है ।। इसमें पोषक तत्वों- नाइट्रोजन, पोटैशियम, फॉस्फोरस की बहुलता होती है ।। 13 अन्य प्रकार के पोषक तत्व तथा ऐसे जीवाणु पाये जाते हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं ।। भूक्षरण से उपजाऊ परत नष्ट हो जाती है जिसकी आपूर्ति किसी भी कृत्रिम खाद से नहीं हो सकती है ।।
भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि वन सम्पदा को विनष्ट होने से रोका न गया तो देश की कुछ ही वर्षों में उपजाऊ योग्य भूमि का एक बड़ा भाग गँवाना पड़ेगा ।। प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़े मानसून की नहीं प्रकृति विक्षोभ की परिचायक हैं ।। मानसून तो प्रकृति की वह देन है जिस पर फसलें जीवित रहती हैं ।। वृक्षों के कटने से बाढ़ों में वृद्धि हुई है ।। फलतः प्रतिर्वष कृषि योग्य भूपरतों को बाढ़ें बहा ले जातीं तथा अपनी विनाश लीला रच जाती है ।। पर्यावरण सन्तुलन के लिये भूभाग के एक तिहाई हिस्से में वृक्षों का होना अनिवार्य माना गया है ।। जबकि भारत में एक- चौथाई से भी कम- लगभग 22 प्रतिशत भू- भाग में वन हैं ।। प्रकृति के प्रकोपों बाढ़, सूखा, भूस्खलन, भूक्षरण, भूकम्प, ज्वालामुखी की घटनाओं में इसी कारण वृद्धि होती जा रही है ।।
(युग परिवर्तन कैसे ? और कब? पृ. 2.7)
मनुष्य की भौतिक समृद्धि में असाधारण सहयोग करने वाली वृक्ष सम्पदा का तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अंधाधुन्ध कटाई का एक दौर शुरू हुआ ।। उसके दूरवर्ती किन्तु महत्त्वपूर्ण परिणामों की उपेक्षा हुई ।। फलतः सम्पूर्ण इकॉलॉजिकल चक्र ही डगमगा गया जिसकी परिणति अनेकों प्रकार की विभीषिकाओं के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही हैं ।। मौसम में असामयिक हेर- फेर, अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसे कितने ही प्रकृति प्रकोप सन्तुलन के लिए अनिवार्य वृक्ष सम्पदा के नष्ट करने के ही दुष्परिणाम हैं ।।
प्रकृति विक्षोपों की श्रृंखला में एक भयंकर कड़ी जुड़ी है भूस्खलन एवं भूक्षरण की ।। जिससे प्रतिवर्ष उपजाऊ भूसम्पदा का एक बड़ा भाग गँवाना पड़ रहा है ।। साथ ही असंख्यों व्यक्तियों को अपने जीवन से प्रति वर्ष हाथ धोना पड़ रहा है ।। विगत कुछ वर्षों से हिमालय के निकटवर्ती क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाओं में निरन्तर अभिवृद्धि हो रही है ।। 16 अगस्त 1979 की रात को चमोली जिले के कोथा गाँव में मूसलाधार वर्षा हुई ।। वर्षा के साथ हुए भूस्खलन से पूरा गाँव ही नीचे दब गया ।। श्मशान जैसी स्थिति बन गई ।। अगस्त 1978 में हिमाचल प्रदेश में हुए एक भूस्खलन से लगभग तेरह सौ व्यक्ति मारे गये और सैकड़ों घायल हुए ।। इसी माह जन्माष्टमी की मध्य रात्रि को पिथौरागढ़ जिले के शिशना गाँव के तीन सौ व्यक्ति जमीन के अचानक धँसने से भीतर दब गये ।। सैकड़ों पशु भी इस चपेट में मारे गये ।। उसी रात निकटवर्ती एक अन्य गाँव गाशिला में भी भूस्खलन में असंख्यों जानें गई ।। गाँव की खेती और बने घर बर्बाद हो गये ।। इस प्रकार 15 अगस्त 1977 को तवाधार क्षेत्र में पृथ्वी में दरार पड़ने से सैकड़ों व्यक्तियों की अकाल मृत्यु हुई ।।
भरक्षण विशेषज्ञ एरिक एकहोम ने भूस्खलन की इन घटनाओं का कारण पवर्तीय क्षेत्र में वृक्षों की कटाई को माना है ।। उनका कहना है कि भारत की समृद्धि का महत्त्वपूर्ण स्रोत हिमालय बीमार है ।। उसकी बीमारी भूस्खलनों के रूप में अपना परियच दे रही है ।। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि हिमालय की वृक्ष सम्पदा की कटाई रोकी न गई तो देश को गम्भीर संकटों का सामना करना पड़ सकता है ।। गंगा के पानी से लाखों हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि सिंचित होती है ।। अनुमानतः तीन सौ करोड़ रुपये प्रति वर्ष का गंगा जल से लाभ होता है ।। भूस्खलन के कारणों को स्पष्ट करते हुए वैज्ञानिकों ने बताया कि तेरह हजार की ऊँचाई पर हिमालय की वृक्ष सम्पदा को बुरी तरह नष्ट किया जा रहा है ।। वनों के काटे जाने से पर्वतीय क्षेत्र में जल रोकने की क्षमता नष्ट हो जाती है ।। मिट्टी, पत्थर की पकड़ वृक्षों के कारण बनी रहती है ।। उनके कटते ही जमीन पर कृत्रिम नाले एवं झीलें बन जाती हैं तथा भूस्खलन की घटनाएँ आरम्भ हो जाती है ।।
कुमायूँ विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान के अध्यक्ष ने विस्तृत सर्वेक्षण एवं अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा है कि हिमालय के मध्यवर्तीय सन्धि स्थान पर कमजोर चट्टानों की पट्टी है ।। पिछले दशक के अधिकांश भूस्खलन इसी पट्टी के क्षेत्र में आते रहे हैं ।। वर्तमान समय में इस क्षेत्र में भूस्खलनों के निरन्तर बढ़ने के प्रमुख कारण हैं- वनों का विनाश तथा विस्फोटक पदार्थों का चट्टानों को तोड़ने के लिए उपयोग ।। सर्वेक्षण करने वाले इन विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में हरे पेड़ों की कटाई पर कड़ाई से प्रतिबन्ध लगाना चाहिए ।। साथ ही किसी भी तरह के विस्फोटक पदार्थों का कभी उपयोग न किया जाय ।। यदि इन बातों की उपेक्षा हुई तो महाविनाश की स्थिति कभी भी उत्पन्न हो सकती है ।।
भू- वैज्ञानिकों का मत है कि भारत प्रतिवर्ष 8 हजार हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि गँवाता जा रहा है क्योंकि पहाड़ों पर जंगल कट जाने से तेजी से दौड़ता वर्षा का पानी खड्ड और दरारें बनाता है ।। नदियों में रेत मिट्टी अधिक जम जाने से उनकी चौड़ाई और प्रवाह का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है ।। पिछले तीस वर्षों में वनों की कटाई अत्यधिक हुई है एक आँकड़े के अनुसार छः हजार टन उपजाऊ मिट्टी प्रतिवर्ष बहकर नदियों में चली जाती है ।। गंगा क्षेत्र में लगभग 4 करोड़ 50 लाख एकड़ भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने जितनी उर्वरा मिट्टी का प्रतिवर्ष ह्रास हो रहा है ।। अब तक पूरे देश से 42 करोड़ लाख एकड़ भूमि भूक्षरण से बर्बाद हो चुकी है ।। 1 करोड़ 75 लाख एकड़ भूमि अम्ल एवं क्षार की मात्रा बढ़ने से बेकार पड़ी है ।। नदियों की सतह ऊपर उठ आने से प्रतिवर्ष 5 करोड़ एकड़ जमीन बाढ़ की चपेट में आती है और पानी के निकास की व्यवस्था न बन पाने से बेकार पड़ी रहती है ।। कृषि योग्य मिट्टी की सतह लगभग 20 से.मी. तक होती है ।। इसमें पोषक तत्वों- नाइट्रोजन, पोटैशियम, फॉस्फोरस की बहुलता होती है ।। 13 अन्य प्रकार के पोषक तत्व तथा ऐसे जीवाणु पाये जाते हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं ।। भूक्षरण से उपजाऊ परत नष्ट हो जाती है जिसकी आपूर्ति किसी भी कृत्रिम खाद से नहीं हो सकती है ।।
भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि वन सम्पदा को विनष्ट होने से रोका न गया तो देश की कुछ ही वर्षों में उपजाऊ योग्य भूमि का एक बड़ा भाग गँवाना पड़ेगा ।। प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़े मानसून की नहीं प्रकृति विक्षोभ की परिचायक हैं ।। मानसून तो प्रकृति की वह देन है जिस पर फसलें जीवित रहती हैं ।। वृक्षों के कटने से बाढ़ों में वृद्धि हुई है ।। फलतः प्रतिर्वष कृषि योग्य भूपरतों को बाढ़ें बहा ले जातीं तथा अपनी विनाश लीला रच जाती है ।। पर्यावरण सन्तुलन के लिये भूभाग के एक तिहाई हिस्से में वृक्षों का होना अनिवार्य माना गया है ।। जबकि भारत में एक- चौथाई से भी कम- लगभग 22 प्रतिशत भू- भाग में वन हैं ।। प्रकृति के प्रकोपों बाढ़, सूखा, भूस्खलन, भूक्षरण, भूकम्प, ज्वालामुखी की घटनाओं में इसी कारण वृद्धि होती जा रही है ।।
(युग परिवर्तन कैसे ? और कब? पृ. 2.7)