Books - युग परिवर्तन कब और कैसे ?
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Language: HINDI
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ध्रुव केन्द्रों पर छेड़छाड़ रोकी जाय
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इकोलॉजी के विशेषज्ञों का मत है कि पृथ्वी को अन्यान्य ग्रहों से जो अनुदान मिलते हैं वे उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव के माध्यम से अवतरित होते हैं । अदृश्य जगत से, अन्य ग्रह नक्षत्रों से, ध्रुव प्रदेशों का किस तरह का सम्बंध है, यह रहस्य तो अभी अविज्ञात है । पर विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिक यह स्वीकार करने लगे हैं कि भू-मण्डल पर उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव का महत्त्व सर्वाधिक है तथा वे अपने में कितने ही ऐसे रहस्यों को छिपाये हुए हैं जिनका रहस्योद्घाटन सम्भव हो सके तो मानव जाति की भौतिक परिस्थितियाँ अनुकूल बनाने में असाधारण सहयोग लिया जा सकता है ।
ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी के मौसम एवं वातावरण का स्वसंचालित नियंत्रण इन केन्द्रों से होता है । मौसम में होने वाला गतिरोध उत्तरी एव दक्षिणी ध्रुव के सन्तुलन व्यतिरेक का ही परिचायक है । ये क्षेत्र जितने विलक्षण, भौतिक दृष्टि से समृद्ध एंव रहस्यमय हैं उतने ही संवेदनशील भी । शरीर संस्थान में मस्तिष्क और मूलाधार जनन केन्द्र जितने अधिक सामर्थ्यवान होते हैं उतने ही सुकोमल भी । इन केन्द्रों पर यदि व्यतिरेक उत्पन्न हो जाय तो शरीर से स्वस्थ दिखते हुए भी मनुष्य पागल तथा विक्षिप्त बनते देखे जाते हैं । अस्तु सर्वाधिक ध्यान इन केन्द्रों को स्वस्थ और संतुलित रखने के लिए देना पड़ता है । लगभग यही स्थिति पृथ्वी रूपी विराट शरीर में उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव की है ।
इनकी कोमलता के विषय में एक विचित्र अविश्वसनीय पर रहस्यमय सत्य यह है कि ''यदि उत्तरी ध्रुव के मध्यबिन्दु पर एक घूँसा कस कर मार दिया जाय तो समस्त पृथ्वी का सन्तुलन डगमगा सकता है ।'' एक विशेषज्ञ का यह निष्कर्ष प्रयोगों की कसौटी पर भले ही न कसा जा सके हो पर इन केन्द्रों की असामान्य कोमलता पर प्रकाश डालता है तथा यह संकेत देता है कि इनके साथ थोड़ी भी छेड़छाड़ की गई तो भयंकर परिणाम निकलने की संभावना होगी ।
पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों का ध्यान उत्तरी एंव दक्षिणी ध्रुवों की ओर अधिक आकर्षित हुआ है । ध्रुव प्रदेशों में पहुँचने एवं सम्बन्धित जानकारियों को प्राप्त करने के लिए कितने ही दुस्साहसिक यात्राएँ भी सम्पन्न हुई हैं । अनेकों प्रकार की दुर्लभ जानकारियाँ भी प्राप्त हुई हैं । अभी-अभी पिछले दिनों भारत ने भी अपने कदम दक्षिणी ध्रुव पर रख दिये हैं । इसके लिए उन दुस्साहसियों की प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने प्रकृति की प्रतिकूलताओं से लोहा लेते हुए सघन हिमाच्छादित प्रदेशों की यात्राएँ कीं तथा उपयोगी तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया । परन्तु अन्य क्षेत्रों की भाँति यदि यह क्षेत्र भी ऐसे वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षणों का केन्द्र बनता है जो निरापद नहीं हैं तो उससे समूचे भू-मण्डल के प्रभावित होने की आशंका है ।
दक्षिणी ध्रुव पर विश्व की कुल बर्फ का 90 प्रतिशत है । यह बर्फीला प्रदेश 135 लाख वर्ग किमी. के सुविस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है जबकि उत्तरी ध्रुव के बर्फीले महासागर का क्षेत्रफल 14 लाख वर्ग किमी है । उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए तीन बार अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष मनाये गये हैं ।
इंटरनेशलन जियोफिजिकल ईयर के नाम से विख्यात ये वर्ष थे 1882-83, 1932-23, 1957-58 । पोलर रिसर्च बोर्ड के चेयरमैन, नेशनल रिसर्च कौसिंल, वाशिंगठन के डी. टी. वाटमैन तथा वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेन्ट ऑफ जियोलाजिकल साइंस एण्ड क्वार्टरनरी रिसर्च सेण्टर के प्रोफेसर ए.एल. बासवोर्न ने विस्तृत शोध निष्कर्ष के आधार पर घोषणा की है कि ध्रुव प्रदेशों का पृथ्वी के सन्तुलन-असन्तुलन में भारी योगदान है क्योंकि प्रायः देखा यह गया है कि सूर्य फलकों के माध्यम से आने वाले चुम्बकीय तूफानों का सबसे अधिक प्रभाव ध्रुव प्रदेशों पर पड़ता है । ऐसी स्थिति में उसकी प्रतिक्रिया सारे विश्व पर होती है ।
इन विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव केन्द्रों पर किसी भी प्रकार का विस्फोटक परीक्षण नहीं किया जाना चाहिए, अन्यथा समूची मानव जाति को प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ सकता है । एंटार्कटिक ग्लेशियर हिस्ट्री एंड वल्र्ड पोलियो एनवायरमेण्ट पुस्तक के लेखक हैं जे.डी. हेस और ई. एम. वान जिडरेन बेकर । इनके अनुसार अगले दशकों में दक्षिणी ध्रुव के वायुमण्डल का सारे विश्व क पर्यावरण पर विस्मयकारी प्रभाव पड़ने वाला है । इसका कारण उन्होंने यह बताया कि विभिन्न प्रकार के प्रदूषण एवं आण्विक परीक्षणों के विकिरण के फलस्वरूप पृथ्वी के पर्यावरण में अप्रत्याशित परिवर्तन के कारण दक्षिणी ध्रुव का तापमान क्रमशः बढ़ता जा रहा है ।
'नेचर' पत्रिका के एक लेख में प्रो. ए.टी. विल्सन ने एक चौंकाने वाला तथ्य प्रकाशित किया है कि बहुत बड़ी मात्रा में हम प्रखण्ड दक्षिणी महासागर की ओर दक्षिणी ध्रुव की ओर से धीरे-धीरे सरक रहा है । फलस्वरूप विश्व का तापक्रम गिर रहा है और उत्तरार्द्ध गोलार्द्ध में बर्फ का जमाव अधिक हो रहा है । इस तरह दक्षिणी एवं उत्तरी ध्रुव प्रदेशों के तापक्रम में अप्रत्याशित हेर-फेर सारे विश्व के वातावरण को प्रभावित कर रहा है । 'वल्र्ड क्लाइमेट कांफ्रेस डिक्लेरेशन एण्ड सपोर्टिंग डॉक्युमेण्ट्स के अनुसार प्रौद्योगिकी के व्यापक विस्तार के कारण हवा में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ रही है ।
ऐसी सम्भावना है कि यदि वृद्धि की रफ्तार यही रही तो ध्रुवो का तापमान भी 2 डिग्री से लेकर 7 डिग्री तक कुछ ही दशकों में बढ़ जायेगा । इस तापमान वृद्धि के कारण अत्यधिक गर्मी पाकर ध्रुवों प्रदेशों में लाखों मील तक फैली बर्फ पिघलकर बड़ी मात्रा में समुद्र में आने लगेगी । फलतः समुद्र की सारी पृथ्वी पर सतह छः मीटर से लेकर दस मीटर तक ऊपर उठ जायेगी । ऐसी स्थिति में जल-प्रलय की विभीषिका भी उत्पन्न हो सकती है । उर्पयुक्त अनुसंधानकत्ताओं ने आगाह किया कि वायु में बढ़ती हुई कार्बन डाईऑक्साइड तथा परमाणु विस्फोटों से होने वाले विकिरण के उच्चतम तापक्रम की रोकथाम की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए ।
कहा जा चुका है कि ध्रुव प्रदेश जितने रहस्यमय एवं सम्पदा सम्पन्न हैं, उतने ही संवेदनशील भी । इन केन्द्रों पर छेड़छाड़ का अर्थ होगा अकल्पनीय प्राकृतिक विपदाओं को आमंत्रित करना । दुर्भाग्वश इन क्षेत्रों को तकनीकी दृष्टि से सुसम्पन्न प्रगतिशील राष्ट्रों ने अपने शोध का केन्द्र बनाया है । बाज जानकारियाँ एकत्रित करने भर तक सीमित रहती तो कोई खतरा नहीं था, पर सामरिक दृष्टि से वर्चस्व प्राप्त करने के लिए विस्फोटक प्रयोग परीक्षणों का परोक्ष क्रम भी इन देशों द्वारा चलाया जा रहा है ।
आर्कटिक आइस डायनेमिक्स ज्वाइण्ट एक्सपेरिमेण्ट इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्नो एण्ड आइस सिम्पोजियम ग्रंथ के लेखक आर. एस. प्रिचार्ड के अनुसार ''उत्तरी ध्रुव पर समुद्र और अटलांटिक महासागर के बीच ग्रीनलैण्ड और फ्रांस स्टेट में शीत प्रवाह का 1970 से अध्ययन हो रहा है । इसमें कनाडा, स्वीडेन, नार्वे, फ्रांस और अमेरिका के मूर्धन्य वैज्ञानिक लगे हुये हैं । पुस्तक के लेखक का कहना है कि इन देशों के वैज्ञानिकों ने यहाँ परमाणु संयन्त्र से संचालित यंत्रों के माध्यम से प्रयोग आरम्भ कर दिये हैं जो खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं । उल्लेखनीय है कि इंटरनेशनल जियोफिजिकल ईयर में यह घोषणा की गई थी कि ध्रुव प्रदेशों को कभी भी सामरिक प्रयोगों का निमित्त नहीं बनाया जायेगा तथा किसी भी परमाणुशक्ति चालित यंत्रों का प्रयोग नहीं किया जायेगा । उपर्युक्त देशों द्वारा उठाया गया कदम सम्पूर्ण विश्व के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है ।
सन् 1979 प्रकाशित पुस्तक ग्रीनलैण्ड एण्ड दि आर्कटिक रिजन के लेखक एच.सी.वाख और जे. टागोल्ड का कथन है कि आर्कटिक समुद्र का सामरिक दृष्टि से भी अधिक महत्त्व है । उत्तरी समुद्र के सतह पर जमी बर्फ के नीचे से अणु संचालित पनडुब्बियाँ आसानी से चल सकती है । इसी प्रकार दक्षिण ध्रुव में एण्टार्कटिक सरकम्पोलर करेण्ट जिसे वेस्टविण्ड डि्रफ्ट कहते हैं, दुनिया का सबसे बड़ा समुद्री प्रवाह है । इसकी धारा को मोड़कर किसी भी प्रदेश में विप्लव की स्थिति लायी जा सकती है ।
उर्पयुक्त विशेषज्ञों ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि अमेरिका तथा रूस की परमाणु चलित पनडुब्बियाँ इन क्षेत्रों में चलने लगी हैं तथा ये दोनों ही देश इन केन्द्रों पर ऐसे प्रयोग परीक्षण कर रहे हैं जिससे मौसम पर नियत्रंण प्राप्त किया जा सकेगा । ऐसा भी अनुमान है कि अगले युद्धों में इन केन्द्रों से मौसम में व्यतिरेक उत्पन्न करके किसी भी देश के वातावरण में अभीष्ट प्रकार का परिवर्तन उत्पन्न कर सकना सम्भव होगा ।
ब्रिटेन के भौतिक विज्ञानी आर्थर मेकिंग का मत है कि सारे विश्व में प्राकृतिक विपदाओं में भारी वृद्धि हुई है । इसके लिए मनुष्य ही उत्तरदायी है ।
उनके अनुसार अदूरदर्शी समृद्धि एवं प्रगति के प्रयासों एवं आण्विक परिक्षण से पूरे विश्व का 'इकोलॉजिकल सन्तुलन' डगमगा गया है । उसमें सबसे दुर्भाग्यपूर्ण कड़ी जुड़ी है ध्रुव प्रदेशों को सामरिक केन्द्र बनाया जाना । भू-मण्डल के इन नाजुक स्थलों पर परमाण्विक गतिविधियों को बढ़ावा देना अत्यन्त खतरनाक सिद्ध हो सकता है । अभी हाल में भारतीय वैज्ञानिकों का एक दल तैंतीस दिन की लम्बी यात्रा के बाद जानकारियाँ प्राप्त करने दक्षिणी ध्रुव स्थित अंटार्कटिक पहुँचा । यह देखकर उन्हें भारी अचरज हुआ कि उस दुर्गम प्रदेश में विभिन्न देशों के खेमे पूर्व से गढ़े हुए हैं । कितने ही रहस्मय यंत्रों से सुसज्जित छोटी-छोटी सामरिक प्रयोगशालाएँ भी वहाँ स्थापित हैं ।
उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव की परिस्थितियों का ऐसा अध्ययन उपयोगी हो सकता है जो निरापद हो । पृथ्वी के वातावरण को ये ध्रुव केन्द्र किस प्रकार प्रभावित करते हैं ये जानकारियाँ महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं पर इन्हें यदि सामरिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया गया ता समस्त मानव जाति को अनेकों प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ सकता है । कनाडा के एक वैज्ञानिक ने आश़ंका व्यक्त की है कि इन दिनों सम्पूर्ण विश्व के वातावरण में भारी व्यतिरेक उत्पन्न हुआ है । एक ही दिन में प्रचण्ड ठंड, गर्मी तथा बरसात तीनों ही प्रकार के मौसमों का क्रमिक रूप से आना असाधारण पर्यावरण असन्तुलन का परिचय देता है ।
इसके लिए बढ़ता हुआ विभिन्न प्रकार का प्रदूषण का दुष्प्रभाव तो जिम्मेदार है ही, उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव पर किये जाने वाले खतरनाक प्रयोग-परीक्षणों का भी योगदान है ।
निस्संदेह पृथ्वी के इन मर्मस्थलों को छेड़ा गया तो ठीक उसी तरह के संकटों का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि पगलाये मस्तिष्क द्वारा पूरे शरीर को करना पड़ता है । विचारशीलता की माँग है कि ऐसे अदूरदर्शीता-पूर्ण प्रयासों की, जो समस्त मानव जाति कि लिए विभीषिकाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं, अविलम्ब रोकथाम होनी चाहिए । इन केन्द्रों पर छेड़छाड़ रोकने के लिए कठोर अन्तर्राष्ट्रीय अंकुश लगाये जाने की आवश्यकता है ।
( युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ. 3.28)
ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी के मौसम एवं वातावरण का स्वसंचालित नियंत्रण इन केन्द्रों से होता है । मौसम में होने वाला गतिरोध उत्तरी एव दक्षिणी ध्रुव के सन्तुलन व्यतिरेक का ही परिचायक है । ये क्षेत्र जितने विलक्षण, भौतिक दृष्टि से समृद्ध एंव रहस्यमय हैं उतने ही संवेदनशील भी । शरीर संस्थान में मस्तिष्क और मूलाधार जनन केन्द्र जितने अधिक सामर्थ्यवान होते हैं उतने ही सुकोमल भी । इन केन्द्रों पर यदि व्यतिरेक उत्पन्न हो जाय तो शरीर से स्वस्थ दिखते हुए भी मनुष्य पागल तथा विक्षिप्त बनते देखे जाते हैं । अस्तु सर्वाधिक ध्यान इन केन्द्रों को स्वस्थ और संतुलित रखने के लिए देना पड़ता है । लगभग यही स्थिति पृथ्वी रूपी विराट शरीर में उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव की है ।
इनकी कोमलता के विषय में एक विचित्र अविश्वसनीय पर रहस्यमय सत्य यह है कि ''यदि उत्तरी ध्रुव के मध्यबिन्दु पर एक घूँसा कस कर मार दिया जाय तो समस्त पृथ्वी का सन्तुलन डगमगा सकता है ।'' एक विशेषज्ञ का यह निष्कर्ष प्रयोगों की कसौटी पर भले ही न कसा जा सके हो पर इन केन्द्रों की असामान्य कोमलता पर प्रकाश डालता है तथा यह संकेत देता है कि इनके साथ थोड़ी भी छेड़छाड़ की गई तो भयंकर परिणाम निकलने की संभावना होगी ।
पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों का ध्यान उत्तरी एंव दक्षिणी ध्रुवों की ओर अधिक आकर्षित हुआ है । ध्रुव प्रदेशों में पहुँचने एवं सम्बन्धित जानकारियों को प्राप्त करने के लिए कितने ही दुस्साहसिक यात्राएँ भी सम्पन्न हुई हैं । अनेकों प्रकार की दुर्लभ जानकारियाँ भी प्राप्त हुई हैं । अभी-अभी पिछले दिनों भारत ने भी अपने कदम दक्षिणी ध्रुव पर रख दिये हैं । इसके लिए उन दुस्साहसियों की प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने प्रकृति की प्रतिकूलताओं से लोहा लेते हुए सघन हिमाच्छादित प्रदेशों की यात्राएँ कीं तथा उपयोगी तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया । परन्तु अन्य क्षेत्रों की भाँति यदि यह क्षेत्र भी ऐसे वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षणों का केन्द्र बनता है जो निरापद नहीं हैं तो उससे समूचे भू-मण्डल के प्रभावित होने की आशंका है ।
दक्षिणी ध्रुव पर विश्व की कुल बर्फ का 90 प्रतिशत है । यह बर्फीला प्रदेश 135 लाख वर्ग किमी. के सुविस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है जबकि उत्तरी ध्रुव के बर्फीले महासागर का क्षेत्रफल 14 लाख वर्ग किमी है । उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए तीन बार अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष मनाये गये हैं ।
इंटरनेशलन जियोफिजिकल ईयर के नाम से विख्यात ये वर्ष थे 1882-83, 1932-23, 1957-58 । पोलर रिसर्च बोर्ड के चेयरमैन, नेशनल रिसर्च कौसिंल, वाशिंगठन के डी. टी. वाटमैन तथा वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेन्ट ऑफ जियोलाजिकल साइंस एण्ड क्वार्टरनरी रिसर्च सेण्टर के प्रोफेसर ए.एल. बासवोर्न ने विस्तृत शोध निष्कर्ष के आधार पर घोषणा की है कि ध्रुव प्रदेशों का पृथ्वी के सन्तुलन-असन्तुलन में भारी योगदान है क्योंकि प्रायः देखा यह गया है कि सूर्य फलकों के माध्यम से आने वाले चुम्बकीय तूफानों का सबसे अधिक प्रभाव ध्रुव प्रदेशों पर पड़ता है । ऐसी स्थिति में उसकी प्रतिक्रिया सारे विश्व पर होती है ।
इन विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव केन्द्रों पर किसी भी प्रकार का विस्फोटक परीक्षण नहीं किया जाना चाहिए, अन्यथा समूची मानव जाति को प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ सकता है । एंटार्कटिक ग्लेशियर हिस्ट्री एंड वल्र्ड पोलियो एनवायरमेण्ट पुस्तक के लेखक हैं जे.डी. हेस और ई. एम. वान जिडरेन बेकर । इनके अनुसार अगले दशकों में दक्षिणी ध्रुव के वायुमण्डल का सारे विश्व क पर्यावरण पर विस्मयकारी प्रभाव पड़ने वाला है । इसका कारण उन्होंने यह बताया कि विभिन्न प्रकार के प्रदूषण एवं आण्विक परीक्षणों के विकिरण के फलस्वरूप पृथ्वी के पर्यावरण में अप्रत्याशित परिवर्तन के कारण दक्षिणी ध्रुव का तापमान क्रमशः बढ़ता जा रहा है ।
'नेचर' पत्रिका के एक लेख में प्रो. ए.टी. विल्सन ने एक चौंकाने वाला तथ्य प्रकाशित किया है कि बहुत बड़ी मात्रा में हम प्रखण्ड दक्षिणी महासागर की ओर दक्षिणी ध्रुव की ओर से धीरे-धीरे सरक रहा है । फलस्वरूप विश्व का तापक्रम गिर रहा है और उत्तरार्द्ध गोलार्द्ध में बर्फ का जमाव अधिक हो रहा है । इस तरह दक्षिणी एवं उत्तरी ध्रुव प्रदेशों के तापक्रम में अप्रत्याशित हेर-फेर सारे विश्व के वातावरण को प्रभावित कर रहा है । 'वल्र्ड क्लाइमेट कांफ्रेस डिक्लेरेशन एण्ड सपोर्टिंग डॉक्युमेण्ट्स के अनुसार प्रौद्योगिकी के व्यापक विस्तार के कारण हवा में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ रही है ।
ऐसी सम्भावना है कि यदि वृद्धि की रफ्तार यही रही तो ध्रुवो का तापमान भी 2 डिग्री से लेकर 7 डिग्री तक कुछ ही दशकों में बढ़ जायेगा । इस तापमान वृद्धि के कारण अत्यधिक गर्मी पाकर ध्रुवों प्रदेशों में लाखों मील तक फैली बर्फ पिघलकर बड़ी मात्रा में समुद्र में आने लगेगी । फलतः समुद्र की सारी पृथ्वी पर सतह छः मीटर से लेकर दस मीटर तक ऊपर उठ जायेगी । ऐसी स्थिति में जल-प्रलय की विभीषिका भी उत्पन्न हो सकती है । उर्पयुक्त अनुसंधानकत्ताओं ने आगाह किया कि वायु में बढ़ती हुई कार्बन डाईऑक्साइड तथा परमाणु विस्फोटों से होने वाले विकिरण के उच्चतम तापक्रम की रोकथाम की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए ।
कहा जा चुका है कि ध्रुव प्रदेश जितने रहस्यमय एवं सम्पदा सम्पन्न हैं, उतने ही संवेदनशील भी । इन केन्द्रों पर छेड़छाड़ का अर्थ होगा अकल्पनीय प्राकृतिक विपदाओं को आमंत्रित करना । दुर्भाग्वश इन क्षेत्रों को तकनीकी दृष्टि से सुसम्पन्न प्रगतिशील राष्ट्रों ने अपने शोध का केन्द्र बनाया है । बाज जानकारियाँ एकत्रित करने भर तक सीमित रहती तो कोई खतरा नहीं था, पर सामरिक दृष्टि से वर्चस्व प्राप्त करने के लिए विस्फोटक प्रयोग परीक्षणों का परोक्ष क्रम भी इन देशों द्वारा चलाया जा रहा है ।
आर्कटिक आइस डायनेमिक्स ज्वाइण्ट एक्सपेरिमेण्ट इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्नो एण्ड आइस सिम्पोजियम ग्रंथ के लेखक आर. एस. प्रिचार्ड के अनुसार ''उत्तरी ध्रुव पर समुद्र और अटलांटिक महासागर के बीच ग्रीनलैण्ड और फ्रांस स्टेट में शीत प्रवाह का 1970 से अध्ययन हो रहा है । इसमें कनाडा, स्वीडेन, नार्वे, फ्रांस और अमेरिका के मूर्धन्य वैज्ञानिक लगे हुये हैं । पुस्तक के लेखक का कहना है कि इन देशों के वैज्ञानिकों ने यहाँ परमाणु संयन्त्र से संचालित यंत्रों के माध्यम से प्रयोग आरम्भ कर दिये हैं जो खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं । उल्लेखनीय है कि इंटरनेशनल जियोफिजिकल ईयर में यह घोषणा की गई थी कि ध्रुव प्रदेशों को कभी भी सामरिक प्रयोगों का निमित्त नहीं बनाया जायेगा तथा किसी भी परमाणुशक्ति चालित यंत्रों का प्रयोग नहीं किया जायेगा । उपर्युक्त देशों द्वारा उठाया गया कदम सम्पूर्ण विश्व के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है ।
सन् 1979 प्रकाशित पुस्तक ग्रीनलैण्ड एण्ड दि आर्कटिक रिजन के लेखक एच.सी.वाख और जे. टागोल्ड का कथन है कि आर्कटिक समुद्र का सामरिक दृष्टि से भी अधिक महत्त्व है । उत्तरी समुद्र के सतह पर जमी बर्फ के नीचे से अणु संचालित पनडुब्बियाँ आसानी से चल सकती है । इसी प्रकार दक्षिण ध्रुव में एण्टार्कटिक सरकम्पोलर करेण्ट जिसे वेस्टविण्ड डि्रफ्ट कहते हैं, दुनिया का सबसे बड़ा समुद्री प्रवाह है । इसकी धारा को मोड़कर किसी भी प्रदेश में विप्लव की स्थिति लायी जा सकती है ।
उर्पयुक्त विशेषज्ञों ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि अमेरिका तथा रूस की परमाणु चलित पनडुब्बियाँ इन क्षेत्रों में चलने लगी हैं तथा ये दोनों ही देश इन केन्द्रों पर ऐसे प्रयोग परीक्षण कर रहे हैं जिससे मौसम पर नियत्रंण प्राप्त किया जा सकेगा । ऐसा भी अनुमान है कि अगले युद्धों में इन केन्द्रों से मौसम में व्यतिरेक उत्पन्न करके किसी भी देश के वातावरण में अभीष्ट प्रकार का परिवर्तन उत्पन्न कर सकना सम्भव होगा ।
ब्रिटेन के भौतिक विज्ञानी आर्थर मेकिंग का मत है कि सारे विश्व में प्राकृतिक विपदाओं में भारी वृद्धि हुई है । इसके लिए मनुष्य ही उत्तरदायी है ।
उनके अनुसार अदूरदर्शी समृद्धि एवं प्रगति के प्रयासों एवं आण्विक परिक्षण से पूरे विश्व का 'इकोलॉजिकल सन्तुलन' डगमगा गया है । उसमें सबसे दुर्भाग्यपूर्ण कड़ी जुड़ी है ध्रुव प्रदेशों को सामरिक केन्द्र बनाया जाना । भू-मण्डल के इन नाजुक स्थलों पर परमाण्विक गतिविधियों को बढ़ावा देना अत्यन्त खतरनाक सिद्ध हो सकता है । अभी हाल में भारतीय वैज्ञानिकों का एक दल तैंतीस दिन की लम्बी यात्रा के बाद जानकारियाँ प्राप्त करने दक्षिणी ध्रुव स्थित अंटार्कटिक पहुँचा । यह देखकर उन्हें भारी अचरज हुआ कि उस दुर्गम प्रदेश में विभिन्न देशों के खेमे पूर्व से गढ़े हुए हैं । कितने ही रहस्मय यंत्रों से सुसज्जित छोटी-छोटी सामरिक प्रयोगशालाएँ भी वहाँ स्थापित हैं ।
उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव की परिस्थितियों का ऐसा अध्ययन उपयोगी हो सकता है जो निरापद हो । पृथ्वी के वातावरण को ये ध्रुव केन्द्र किस प्रकार प्रभावित करते हैं ये जानकारियाँ महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं पर इन्हें यदि सामरिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया गया ता समस्त मानव जाति को अनेकों प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ सकता है । कनाडा के एक वैज्ञानिक ने आश़ंका व्यक्त की है कि इन दिनों सम्पूर्ण विश्व के वातावरण में भारी व्यतिरेक उत्पन्न हुआ है । एक ही दिन में प्रचण्ड ठंड, गर्मी तथा बरसात तीनों ही प्रकार के मौसमों का क्रमिक रूप से आना असाधारण पर्यावरण असन्तुलन का परिचय देता है ।
इसके लिए बढ़ता हुआ विभिन्न प्रकार का प्रदूषण का दुष्प्रभाव तो जिम्मेदार है ही, उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव पर किये जाने वाले खतरनाक प्रयोग-परीक्षणों का भी योगदान है ।
निस्संदेह पृथ्वी के इन मर्मस्थलों को छेड़ा गया तो ठीक उसी तरह के संकटों का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि पगलाये मस्तिष्क द्वारा पूरे शरीर को करना पड़ता है । विचारशीलता की माँग है कि ऐसे अदूरदर्शीता-पूर्ण प्रयासों की, जो समस्त मानव जाति कि लिए विभीषिकाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं, अविलम्ब रोकथाम होनी चाहिए । इन केन्द्रों पर छेड़छाड़ रोकने के लिए कठोर अन्तर्राष्ट्रीय अंकुश लगाये जाने की आवश्यकता है ।
( युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ. 3.28)