Books - युग परिवर्तन कब और कैसे ?
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Language: HINDI
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युद्ध और अणु आयुद्ध -विनाश कि दिशा में बढ़ते कदम
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युद्ध सभ्यता का नही असभ्यता का परिचायक है । सभ्यता की समृद्धि के साथ-साथ युद्ध व शस्त्रों का मूल्य कम होना चाहिए । इसके विपरीत आज का सभ्य कहलाने वाला मनुष्य शस्त्रास्त्रों की होड लगा रहा है । यह होड़ दिनों दिन बढ़ रही है घटने का नाम नहीं लेती ।
पहले जब आमने-सामने युद्ध होते थे तो इसकी भयंकरता इतनी नहीं थी । जो बहुसंख्यक, बलवान, चतुर तथा साहसी होते थे वे ही जीतते थे । दूसरों को पराजय का मुँह देखना पड़ता था । आज तथ्य उससे विपरीत हो गये हैं । परमाणु बमों के द्वारा व्यक्ति एक स्थान पर ही बैठा हुआ विश्व के किसी भी स्थान पर बम गिरा सकता है । ये बम इतने विनाशकारी होते हैं कि थोड़े से बमों से सारी मनुष्य जाति समाप्त हो सकती है । यह सब विज्ञान की ही देन है ।
मानवता के विनाश की सामग्री तथा सैनिक व्यय पर इन दिनों खरबों रुपया व्यय होता है । अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति अनुसन्धान केन्द्र ने पिछले दिनों एक पुस्तक प्रकाशित की है । जिसमें विविध राष्ट्रों के सैनिक व्यय का ब्यौरा दिया गया है । यह ब्यौरा चौंका देने वाला है । इस पुस्तक के अनुसार 1970 में विश्व भर के देशों ने अपनी शस्त्रास्त्रों पर दो सौ अरब डालर खर्च किये हैं । इतनी ही राशि सारे विश्व के राष्ट्र, चिकित्सा तथा शिक्षा जैसे मानव कल्याण के कार्यों में लगाते हैं ।
इतनी राशि सेना तथा अफसरों पर व्यय की जाती है । इसका बीसवाँ भाग भी यदि विकासशील राष्ट्रों की सहायता करने पर व्यय किया जाता तो उनके लिये यह दस वर्ष तक पर्याप्त हो सकता था । यह राशि सारे विश्व की आय का 6 प्रतिशत है ।
शस्त्रास्त्रों पर होने वाला यह व्यय निरन्तर बढ़ ही रहा है । इस वृद्धि का कारण भयंकरतम अस्त्रों की होड़ ही है इनके अनुसंधान तथा निर्माण पर ही सर्वाधिक खर्च बैठता है।
मृत्यु का यह साज सामान बढ़ता ही जा रहा है । यह वृद्धि बड़े राष्ट्रों के कारण ही होती है । ये देश नये-नये शस्त्रास्त्रों का निर्माण करते हैं । अविकसित राष्ट्रों तथा विकासशील देशों को भी अपनी सुरक्षा के लिये शस्त्रास्त्र खरीदने पड़ते हैं । इसके लिये उन्हें अपने विकास तथा जन मंगल के कार्यों पर होने वाले व्यय में कमी करनी पड़ती है ।
अमेरिका की निरस्त्रीकरण तथा आयुध नियन्त्रण समिति रिपोर्ट के अनुसार 1969 में सैन्य शक्ति की मद में विश्व के 120 राष्ट्रों में 182 अरब डालर (936, 500 करोड़ रुपये) तक पहुँच चुका था । 1970 में बढ़कर 200 अरब डालर हो गया । इसका अभिप्राय यही हुआ कि सभी पुरुष व बच्चे पर प्रति वर्श शस्त्रास्त्रों की मद में 420 रुपया व्यय होने लगा है । भारतवर्ष की प्रति व्यक्ति आय 1970 में इसमें कम ही थी । केवल भारत ही नहीं 29 ऐसे विकासशील देश हैं जिनकी प्रति व्यक्ति आय इससे बहुत कम है ।
अस्त्र-शस्त्रों पर व्यय किया जाने वाला यह धन इसी गति से बढ़ता रहा तो अगले दस वर्षों में यह राशि तीन सौ खरब रुपये हो जायेगी । यह रकम इतनी बड़ी होगी कि हजार रुपये के नोटों की लड़ी पृथ्वी से चन्द्रमा तक की दूरी को साढ़े सात बार तय करना पड़ेगा ।
जितनी राशि आर्थिक असमानता दूर करने में की जाती है उसका बीस गुना शस्त्रास्त्रों पर खर्च होती है । स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय से यह तीन गुना थी 1970 में जितना व्यय इन पर सारे विश्व में हुआ उस धन को यदि मानव कल्याण में लगाया गया होता तो दो करोड़ व्यक्तियों को सुन्दर मकान उपलब्ध किये जा सकते थे । जिसकी आज विश्व को आवश्यता है, युद्ध सामग्री की नहीं ।
इतना सारा धन इसलिये खर्च किया जाता है कि एक देश दूसरे देश पर आक्रमण कर दे तो अपनी सुरक्षा की जा सके । सभ्य होने का दावा करने वाली मनुष्य की सभ्यता का मान दण्ड क्या यही है कि वह एक दूसरे पर आधिपत्य जमायें?
मौत का खेल निरंतर महँगा होता जा रहा है । किसी जमाने में एक शत्रु सैनिक को मारने के लिये अत्यल्प व्यय आता था । प्रथम विश्व युद्ध में बढ़कर यह कई सौ गुना हो गया और अब तो उससे दस गुना व्यय सामान्य बात है । इसका कारण भयंकरतम और अत्यन्त व्यय साध्य शस्त्रास्त्रों का निर्माण ही है । कोई इस होड़ में पिछड़ न जाय इसलिये नये-नये भयंकरतम आयुधों का निर्माण हो रहा है नये-नये अनुसंधान केन्द्र खुल रहे हैं । मिसाइल, एन्टी-मिसाइल, एन्टी-एन्टी-मिसाइल, एन्टी-पन्टी-ऐन्टी मिसाइल आदि ऐसे अस्त्र है । जिनके द्वारा ये एक दूसरे को कई-कई बार नष्ट कर सकते हैं ।
हथियारों का यह व्यापार विकासशील देशों में भी परस्पर तनाव उत्पन्न करता है । इन देशों में से कुछ देश ऐसे हैं जो आर्थिक विकास की ओर ध्यान नहीं देकर केवल सैन्य शक्ति को बढ़ाने में ही अपनी भलाई समझते हैं । पाकिस्तान इसी प्रकार का देश है । ऐसे युद्ध प्रिय देश दूसरों के लिये भी सिरदर्द बनते हैं ।
सैनिक सन्धियों तथा शस्त्रास्त्र व्यापार का विकासशील देशों पर बड़ा कुप्रभाव पड़ता है । वे अपने देशवासियों को रोजी-रोटी की समस्या में उलझे हुए हैं, और उनकी पीठ पर युद्ध का अतिरिक्त भार पड़ जाता है । जो विकासशील देश स्वेच्छा से यह भार लाद लेते हैं उनकी पाकिस्तान की तरह दुर्गति होती है ।
शस्त्रास्त्र निर्माण की इस होड़ ने मानव जाति के विनाश की आशंका तो उत्पन्न की ही है, साथ ही साथ आणविक परीक्षणों तथा आणविक अविशिष्टों का विसर्जन एक समस्या बन गया है । अणु विकीरण के कारण नई-नई बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं । सागर के गर्भ में किये जाने वाले आणविक परीक्षण तथा बम विस्फोट सामुद्रिक जल, वनस्पति तथा जीव जन्तुओं पर विषाक्त प्रभाव डालते हैं ।
समुद्र में परीक्षण तथा विस्फोट किये जाते हैं । अणु अवशिष्ट सागर में डाले जाते हैं । जल में परमाणु विकीरण का बुरा प्रभाव पड़ता है । एसे सागरों से उठने वाले मानसून उस दुष्प्रभाव को धरती पर बरसा देते हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य नाश का कारण बनता है ।
इस प्रकार के आयुधों के द्वारा होने वाली हानि नई नहीं है । उसे अलंकारिक भाषा व कथानक के माध्यम से महाभारत में मूसल चूण्र के रूप में दर्शाया गया है । जिसने द्वापर में समस्त यादव वंश का ही सर्वनाश कर दिया था । यही कारण है कि भारत में इस प्रकार की वैज्ञानिक प्रगति पर अध्यात्म की विवेकशीलता का अंकुश रहा था ।
विनाश के इस कगार पर खड़े हुए मानव को बचाने का एक ही मार्ग है वह यह है कि संकुचित राष्ट्रीय वृत्ति को भुलाकर विश्व-स्तर पर ऐसी सांस्कृतिक चेतना जगाई जाये जिससे शस्त्रास्त्रों की होड ही निरुत्साहित न हो वरन मनुष्य का हृदय इतना विशाल हो कि समस्त प्राणियों में एकात्म स्थापित किया जा सके । भारतीय संस्कृति ही विश्व मानव के इस विकास का सोपान बन सकती है । ऐसे समय में भारतवासी पीड़ित मानवता को यही अनुदान देने को कृत संकल्प हो जायँ तो अभीष्ट परिणाम दृष्टिगोचर हो सकेंगे ।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब पृ. 5.3)
पहले जब आमने-सामने युद्ध होते थे तो इसकी भयंकरता इतनी नहीं थी । जो बहुसंख्यक, बलवान, चतुर तथा साहसी होते थे वे ही जीतते थे । दूसरों को पराजय का मुँह देखना पड़ता था । आज तथ्य उससे विपरीत हो गये हैं । परमाणु बमों के द्वारा व्यक्ति एक स्थान पर ही बैठा हुआ विश्व के किसी भी स्थान पर बम गिरा सकता है । ये बम इतने विनाशकारी होते हैं कि थोड़े से बमों से सारी मनुष्य जाति समाप्त हो सकती है । यह सब विज्ञान की ही देन है ।
मानवता के विनाश की सामग्री तथा सैनिक व्यय पर इन दिनों खरबों रुपया व्यय होता है । अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति अनुसन्धान केन्द्र ने पिछले दिनों एक पुस्तक प्रकाशित की है । जिसमें विविध राष्ट्रों के सैनिक व्यय का ब्यौरा दिया गया है । यह ब्यौरा चौंका देने वाला है । इस पुस्तक के अनुसार 1970 में विश्व भर के देशों ने अपनी शस्त्रास्त्रों पर दो सौ अरब डालर खर्च किये हैं । इतनी ही राशि सारे विश्व के राष्ट्र, चिकित्सा तथा शिक्षा जैसे मानव कल्याण के कार्यों में लगाते हैं ।
इतनी राशि सेना तथा अफसरों पर व्यय की जाती है । इसका बीसवाँ भाग भी यदि विकासशील राष्ट्रों की सहायता करने पर व्यय किया जाता तो उनके लिये यह दस वर्ष तक पर्याप्त हो सकता था । यह राशि सारे विश्व की आय का 6 प्रतिशत है ।
शस्त्रास्त्रों पर होने वाला यह व्यय निरन्तर बढ़ ही रहा है । इस वृद्धि का कारण भयंकरतम अस्त्रों की होड़ ही है इनके अनुसंधान तथा निर्माण पर ही सर्वाधिक खर्च बैठता है।
मृत्यु का यह साज सामान बढ़ता ही जा रहा है । यह वृद्धि बड़े राष्ट्रों के कारण ही होती है । ये देश नये-नये शस्त्रास्त्रों का निर्माण करते हैं । अविकसित राष्ट्रों तथा विकासशील देशों को भी अपनी सुरक्षा के लिये शस्त्रास्त्र खरीदने पड़ते हैं । इसके लिये उन्हें अपने विकास तथा जन मंगल के कार्यों पर होने वाले व्यय में कमी करनी पड़ती है ।
अमेरिका की निरस्त्रीकरण तथा आयुध नियन्त्रण समिति रिपोर्ट के अनुसार 1969 में सैन्य शक्ति की मद में विश्व के 120 राष्ट्रों में 182 अरब डालर (936, 500 करोड़ रुपये) तक पहुँच चुका था । 1970 में बढ़कर 200 अरब डालर हो गया । इसका अभिप्राय यही हुआ कि सभी पुरुष व बच्चे पर प्रति वर्श शस्त्रास्त्रों की मद में 420 रुपया व्यय होने लगा है । भारतवर्ष की प्रति व्यक्ति आय 1970 में इसमें कम ही थी । केवल भारत ही नहीं 29 ऐसे विकासशील देश हैं जिनकी प्रति व्यक्ति आय इससे बहुत कम है ।
अस्त्र-शस्त्रों पर व्यय किया जाने वाला यह धन इसी गति से बढ़ता रहा तो अगले दस वर्षों में यह राशि तीन सौ खरब रुपये हो जायेगी । यह रकम इतनी बड़ी होगी कि हजार रुपये के नोटों की लड़ी पृथ्वी से चन्द्रमा तक की दूरी को साढ़े सात बार तय करना पड़ेगा ।
जितनी राशि आर्थिक असमानता दूर करने में की जाती है उसका बीस गुना शस्त्रास्त्रों पर खर्च होती है । स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय से यह तीन गुना थी 1970 में जितना व्यय इन पर सारे विश्व में हुआ उस धन को यदि मानव कल्याण में लगाया गया होता तो दो करोड़ व्यक्तियों को सुन्दर मकान उपलब्ध किये जा सकते थे । जिसकी आज विश्व को आवश्यता है, युद्ध सामग्री की नहीं ।
इतना सारा धन इसलिये खर्च किया जाता है कि एक देश दूसरे देश पर आक्रमण कर दे तो अपनी सुरक्षा की जा सके । सभ्य होने का दावा करने वाली मनुष्य की सभ्यता का मान दण्ड क्या यही है कि वह एक दूसरे पर आधिपत्य जमायें?
मौत का खेल निरंतर महँगा होता जा रहा है । किसी जमाने में एक शत्रु सैनिक को मारने के लिये अत्यल्प व्यय आता था । प्रथम विश्व युद्ध में बढ़कर यह कई सौ गुना हो गया और अब तो उससे दस गुना व्यय सामान्य बात है । इसका कारण भयंकरतम और अत्यन्त व्यय साध्य शस्त्रास्त्रों का निर्माण ही है । कोई इस होड़ में पिछड़ न जाय इसलिये नये-नये भयंकरतम आयुधों का निर्माण हो रहा है नये-नये अनुसंधान केन्द्र खुल रहे हैं । मिसाइल, एन्टी-मिसाइल, एन्टी-एन्टी-मिसाइल, एन्टी-पन्टी-ऐन्टी मिसाइल आदि ऐसे अस्त्र है । जिनके द्वारा ये एक दूसरे को कई-कई बार नष्ट कर सकते हैं ।
हथियारों का यह व्यापार विकासशील देशों में भी परस्पर तनाव उत्पन्न करता है । इन देशों में से कुछ देश ऐसे हैं जो आर्थिक विकास की ओर ध्यान नहीं देकर केवल सैन्य शक्ति को बढ़ाने में ही अपनी भलाई समझते हैं । पाकिस्तान इसी प्रकार का देश है । ऐसे युद्ध प्रिय देश दूसरों के लिये भी सिरदर्द बनते हैं ।
सैनिक सन्धियों तथा शस्त्रास्त्र व्यापार का विकासशील देशों पर बड़ा कुप्रभाव पड़ता है । वे अपने देशवासियों को रोजी-रोटी की समस्या में उलझे हुए हैं, और उनकी पीठ पर युद्ध का अतिरिक्त भार पड़ जाता है । जो विकासशील देश स्वेच्छा से यह भार लाद लेते हैं उनकी पाकिस्तान की तरह दुर्गति होती है ।
शस्त्रास्त्र निर्माण की इस होड़ ने मानव जाति के विनाश की आशंका तो उत्पन्न की ही है, साथ ही साथ आणविक परीक्षणों तथा आणविक अविशिष्टों का विसर्जन एक समस्या बन गया है । अणु विकीरण के कारण नई-नई बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं । सागर के गर्भ में किये जाने वाले आणविक परीक्षण तथा बम विस्फोट सामुद्रिक जल, वनस्पति तथा जीव जन्तुओं पर विषाक्त प्रभाव डालते हैं ।
समुद्र में परीक्षण तथा विस्फोट किये जाते हैं । अणु अवशिष्ट सागर में डाले जाते हैं । जल में परमाणु विकीरण का बुरा प्रभाव पड़ता है । एसे सागरों से उठने वाले मानसून उस दुष्प्रभाव को धरती पर बरसा देते हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य नाश का कारण बनता है ।
इस प्रकार के आयुधों के द्वारा होने वाली हानि नई नहीं है । उसे अलंकारिक भाषा व कथानक के माध्यम से महाभारत में मूसल चूण्र के रूप में दर्शाया गया है । जिसने द्वापर में समस्त यादव वंश का ही सर्वनाश कर दिया था । यही कारण है कि भारत में इस प्रकार की वैज्ञानिक प्रगति पर अध्यात्म की विवेकशीलता का अंकुश रहा था ।
विनाश के इस कगार पर खड़े हुए मानव को बचाने का एक ही मार्ग है वह यह है कि संकुचित राष्ट्रीय वृत्ति को भुलाकर विश्व-स्तर पर ऐसी सांस्कृतिक चेतना जगाई जाये जिससे शस्त्रास्त्रों की होड ही निरुत्साहित न हो वरन मनुष्य का हृदय इतना विशाल हो कि समस्त प्राणियों में एकात्म स्थापित किया जा सके । भारतीय संस्कृति ही विश्व मानव के इस विकास का सोपान बन सकती है । ऐसे समय में भारतवासी पीड़ित मानवता को यही अनुदान देने को कृत संकल्प हो जायँ तो अभीष्ट परिणाम दृष्टिगोचर हो सकेंगे ।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब पृ. 5.3)