Books - युग परिवर्तन कब और कैसे ?
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Language: HINDI
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वृक्ष न रहेंगे तो मनुष्य भी न रहेगा
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कुछ समय पूर्व इण्डोनेशिया में यूनेस्को के तत्वावधान में 150 वन विशेषज्ञों की एक अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी हुई थी, जिसमें विश्व की घटती हुई वन सम्पदा पर चिन्ता प्रकट की गई थी । आमतौर से लोग वृक्षों का महत्त्व नहीं समझते । लकड़ी का लोभ और खेती के लिए अधिक जगह मिलने के लालच में पेड़ों को काटते चले जाते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि इन तुच्छ लाभों की तुलना में वृक्ष विनाश से होने वाली हानि कितनी अधिक भयंकर है । उर्पयुक्त प्री-पैसिफिक साइन्स कान्फ्रेन्स ने संसार को चेतावनी दी कि यदि वृक्ष सम्पदा विनाश का वर्तमान क्रम चलता रहा तो उसके भयानक परिणाम भगतने पड़ेंगे ।
उर्पयुक्त गोष्ठी में जापान, आस्टे्रलिया, कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड, नीदरलैण्ड, भारत आदि 20 देशों के वन विज्ञानी उपस्थित थे । गोष्ठी में कनाडा के प्रतिनिधि डॉ. व्लादीमीर क्रजीना ने कहा- मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता सांस लेने के लिए शुद्ध वायु मिलना है । वृक्ष हमारी इस आवश्यकता को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं । संसार में बढ़ते हुए वायु प्रदूषण भूमिका प्रस्तुत करते हैं । संसार में बढ़ते हुए वायु प्रदुषण का समाधान करने के लिए वृक्षों की रक्षा की जानी चाहिए । यदि हम वन सम्पदा को गँवा बैठेंगे तो फिर शुद्ध सांस का अभाव इतना जटिल हो जायेगा कि उसका समाधान अन्य किसी उपाय से सम्भव न हो सकेगा ।''
अन्य देशों क प्रतिनिधियों ने भी जो विचार व्यक्त किये उनसे स्पष्ट था कि वृक्ष एवं अभिवर्धन का प्रश्न उतना उपेक्षणीय नहीं है जितना कि उसे समझा जा रहा है । उसे पशु पालन क स्तर पर रखा जाना चाहिए । सच तो यह है कि इससे भी अधिक महत्त्व उसे दिया जाना चाहिए । पशुओं को गँवाकर उनके द्वारा मिलने वाले श्रम, दूध, मांस, चमड़े से एवं गोबर से वंचित होना पड़ता है । वृक्षों को गँवाने की हानि उनसे भी अधिक है । वायु शोधन, वर्षा का सन्तुलन और पत्तों से मिलने वाली खाद, धरती के कटाव का बचाव, कीड़े खाकर फसल की रक्षा करने वाले पक्षियों के आश्र्ाय के अभाव में सफाया आदि कितने ही ऐसे संकट हैं जो वृक्षों के घटने के साथ-साथ बढ़ते ही चले जायेंगे ।
पिछले दिनों कल-कारखानों की वृद्धि को विकास का आधार माना जाता रहा है । खाद्य उत्पादन के लिए कृषि तथा सिंचाई पर भी जोर दिया जाता रहा है । बहुत हुआ तो यातायात के साधनों को बढ़ाने की बात भी आर्थिक प्रगति के लिए जोड़ दी गई । वन सम्पदा की महत्ता समझने की ओर जितना ध्यान देना आवश्यक था उतना दिया ही नहीं । सच तो यह है वनों को जमीन घेरने वाला माना जाता रहा और उन्हें काटकर कृषि करने की बात सोची जाती रही । जलाऊ लकड़ी तथा इमारती बरती जाती रही । आज हम वन सम्पदा की दृष्टि से निर्धन होते चले जा रहे हैं और उसके कितने ही परोक्ष दुष्परिणामों का प्रत्यक्ष हानि के रूप में सामने खड़ा देख रहे हैं ।
'सहारा कॉन्क्वेस्ट' ग्रन्थ के लेखक सेन्टवार्व वेकर ने सहारा रेगिस्तान की 20 लाख वर्ग मील भूमि के सम्बंध में लम्बा और गहरा सर्वेक्षण करके लिखा है- यह क्षेत्र किसी समय बहुत ही हरा-भरा था, पर लोगों ने नासमझी से उसे उजाड़ दिया । इससे क्रुद्ध हुई प्रकृति ने पूरा प्रतिशोध चुकाया । तेज हवा, सूर्य की सीधी धूप और पाले ने अच्छी खासी उपजाऊ मिट्टी को रेत बना दिया । तेज हवाएँ उस धूल को भी इधर से उधर उड़ाने लगी, सिर्फ ऊसर और पथरीली जमीन ही टिकी हुई है । यह रेगिस्तानी विशाल भूखण्ड अब निकटवर्ती हरी-भरी जमीन को भी महासर्प की तरह निगलता चला जा रहा है । हर साल तीस वर्ग मील हरी-भरी जमीन उस रेगिस्तान की चपेट में आकर सदासर्वदा के लिए मृतक बन जाती है ।
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट हवाई जहाज से मिस्र की भूमि से गुजरे, उन्होंने लेबनान के इतिहास प्रसिद्ध सिडार वृक्षों के वन्य प्रदेश की बड़ी प्रशंसा पढ़ी थी । पर जब उन्होंने नीचे झाँक कर देखा कि वहाँ नंगे पहाड़ खड़े हैं और जहाँ-तहाँ दस बीस वृक्ष दिख रहे हैं, तब उन्हें इसका बड़ा दुःख हुआ ।
संसार में अन्यत्र भी ऐसी ही मूर्खता बरती जा रही है, इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करके उन्हें और भी अधिक वेदना हुई उनके आदेश पर राष्ट्र संघ पर अमेरिकी प्रतिनिधियों ने दबाव डाला कि विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन में वन सम्पदा के संरक्षणों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए । वैसा हुआ भी । राष्ट्र संघ के तत्वावधान में संसार में वन सम्पदा बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न चल रहें हैं उन्हीं के अन्तर्गत एक बड़ी आर्थिक सहायता देकर लेबनान में नये सिरे से सिडार वन लगाये गये हैं और हजारों एकड़ जमीन फिर से हरी-भरी बनाई गई है । ऐसे ही प्रयास अन्यत्र भी हुए हैं । इस्राइल में हरा-भरा क्षेत्र एक-तिहाई और सूखा रेगिस्तान दो-तिहाई है । उन लोगों ने इस सूखे भू-खण्ड को हरा-भरा बनाने का संकल्प किया है और इन दिनों इस दिशा में अथक् परिश्रम किया जा रहा है । पिछले दिनों ही 10 करोड़ नये पौधे उन लोगों ने लगाये हैं ।
आइसलैण्ड वाले बहुत दिनों से अपनी वन सम्पदा उजाड़ते चले आ रहे थे । फलस्वरूप वे अपनी उपजाऊ भूमि में हाथ सो बैठे । सन् 1964 के बाद उनकी आँखें खुलीं और योजनाबद्ध रूप से 20 लाख नये पेड़ लगाये । टस्मानिया का भी यही हाल हुआ । उन लोगों ने वृक्ष सम्पदा गँवाई, फलस्वरूप रेतीली आँधियों का सर्वनाशी सिलसिला आरम्भ हो गया । घास-पता तक को उनने अपने पेट में निगल लिया । जब जीवन-मरण का सवाल पैदा हुआ तो उन्होंने ऊँचे चीड़ और देवदार के पेड़ लगाकर रेतीली हवाओं से रोकथाम की है और 1,500 एकड़ जमीन रेगिस्तान के मुँह में से उगलवाई है ।
स्कॉटलैण्ड में कुल्विन सेन्ड्स नामक छः मील लम्बा और दो मील चौड़ा-सा रेगिस्तान था । उन लोगों ने इस अजगर का मुँह कुचल कर रख दिया है और अब वहाँ हरे-भरे उद्यान लहलहा रहे हैं । लीबिया ने अपने रेगिस्तानों को छोटी झाड़ियों से पाट देने का निश्चय किया है और वे उस प्रयास में भली प्रकार सफल हो रहे हैं ।
आस्ट्रेलिया ने अपने 7 इंच जितनी स्वल्प वर्षा वाले क्षेत्र में संसार भर से 83 जाति के ऐसे पौधे मँगवाकर वहाँ रोपे हैं जो सूखे आवहवा में भी पनप सकते हैं । आग की तरह तपने वाले बूमेटा रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब वृक्षारोपण के अभिनव प्रयासों से हरा-भरा बनाया जा चुका है । उस क्षेत्र के एक किसान डेस्मांड फाइलिस ने अपने एकाकी प्रयत्न से 6,000 वृक्ष लगाये हैं जो अब 20 फुट से भी ऊँचे हो गये हैं । इन वृक्षों ने उस क्षेत्र की भंयकर खुश्की को मनुष्यों और पशुओं के रहने योग्य बना दिया है ।
मोरक्को ने अपनी कुम्भकर्णी नींद त्यागकर अपनी नष्ट होती वन सम्पदा को सम्भाला है । इन्हीं दिनों उन लोगों ने 65 हजार जैतून के, 2,700 बादाम के और 13,100 सदाबहार के बड़े वृक्ष लगाये हैं । इस कार्य के लिए उसे राष्ट्र संघ से भी अनुदान मिला है ।
चीन अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए फ्रांस की प्रसिद्ध लौह प्राचीर की तरह वृक्षों की हरी दीवार खड़ी कर रहा है । यह दीवार 6,000 मील लम्बी और कई मील चौड़ी होगी । वहाँ बंजर प्रदेशों को वृक्षों से पाट देने का कार्यक्रम चल रहा है ।
अब संसार का हर देश समझ गया है कि मनुष्य जीवन के लिए पशु सम्पदा से बढ़कर वन सम्पदा का महत्त्व है, इसलिए उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति में उच्च स्थान दिया जा रहा है और इसे बढ़ने के प्रयास को खाद्य उत्पादन स्तर का महत्त्व दिया जा रहा है ।
स्कॉटलैण्ड के वनस्पति विज्ञानी रॉबर्ट चेम्बर्स ने लिखा है-वन नष्ट होंगे तो पानी का अकाल पड़ेगा । भूमि की उर्वरा शक्ति घटेगी और फसलों की पैदावार कम होती चलेगी । पशु नष्ट होंगे । पक्षी घटेंगे और मछली प्राप्त करना कठिन हो जायेगा । वन विनाश का अभिशाप जिन पाँच पुराने प्रेतों की भयंकर विभीषिका बनाकर सामने खड़ा कर देगा वे हैं बाढ़, सूखा, गर्मी, अकाल और बीमारी । हम जाने और अनजाने में वन सम्पदा नष्ट करते हैं और उससे जो पाते हैं उसकी तुलना में कहीं अधिक गँवाते हैं ।
धर्मशास्त्रों में वट, पीपल, आंवला आदि वृक्षों को देव संज्ञा में गिना गया है । उनके प्रति किसी समय कितनी गहरी श्रद्धा रही है इसका परिचय इस बात से मिलता है कि अभी भी वृक्षों के साथ लड़कियों का विवाह होने की प्रथा जहाँ-तहाँ पाई जाती है ।
तिरहुत में मंगली लड़की का विवाह पीपल के पेड़ के साथ कर दिया जाता है ताकि नक्षत्र दोष का अनष्टि पीपल पर पड़े और मनुष्य वर को किसी विपत्ति का सामना न करना पड़े ।
आन्ध्र के कुडप वंशी ग्रामीणों में कन्या का विवाह बारह वर्ष तक कर देने का रिवाज था, पर यदि किसी कारणवश विवाह न हो सका तो किसी फलदार पेड़ से उसका विवाह कर देते हैं और उसे सुहाग के सभी प्रतीक धारण करा देते हैं । इसके पश्चात् उसका 'पुनर्विवाह' किसी भी आयु में हो सकता है । यदि विवाह न हो तो भी उस सुहागिन के सभी सामाजिक अधिकार मिल जाते हैं और विरादरी के लोग विवाह न होने का लांछन नहीं लगाते ।
नेपाल की नेवार जाति के लोग अपनी लड़कियों का विवाह विल्व वृक्ष के साथ करते हैं । इसके पश्चात् जब किसी पुरुष के साथ विवाह होता है तो वह उपपति कहलाता है । उपपति को कोई स्त्री कभी भी बहिष्कृत कर देती है, उसे भृत्य जितने ही अधिकार प्राप्त होते हैं ।
हिसार जिले की घुमकूड बावरिया जाति में और सरगुजा के भीलों में यह प्रथा है कि विवाह की अनिच्छुक लड़कियों का विवाह पीपल के वृक्ष से कर देते हैं और यह मान लेते हैं कि उसका कुमारी रहने का 'दोष' निपट गया ।
हरियाली को मनुष्य जीवन सहचरी का स्थान मिलना चाहिए और उसके परिपोषण के लिए प्रत्येक नागरिकों में व्यक्गित रूप से दिलचस्पी उत्पन्न की जानी चाहिए ।
महाकवि अलेग्जेण्डर स्मिथ प्रकृति को असीम प्यार करते थे और विचारशील लोगों को सम्बोधन करके कहते थे-अपनी स्मृति पीछे के लिए छोड़ जाना चाहते हो तो भवन बनाने और पदक प्राप्त करने की अपेक्षा वृक्ष लगाने पर ध्यान दो, वे इन दोनों की अपेक्षा वृक्ष लगाने पर ध्यान दो, व इन दोनों की अपेक्षा अधिक चिरस्थायी होते हैं ।
संसार में सबसे पुराना वट वृक्ष ताइवन में ढूँढ़ निकाला गया है । ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर अब उसकी आयु 4,128 वर्ष है । वह 48 मीटर ऊँचा है । तने की मोटाई का व्यास 40 फीट से अधिक है । चिजायी प्रान्त के मिएन युएह ग्राम के पास पहाड़ी पर यह उगा हुआ है । वहाँ के निवासियों ने उस महावृक्ष का नाम 'चेनी पौरिस' रखा है ।
यह वृक्ष वृद्ध होने पर भी अभी सैकड़ों वर्षों तक मजे में अपना अस्तित्व बनाये रहने योग्य सुदृढ़ है ।
इससे अधिक सस्ता, अच्छा, ऊँचा, चिरस्थायी एवं अतीव उपयोगी स्मारक और क्या हो सकता है । मनुष्य अपना नाम चाहने की दृष्टि से ही सही वृक्षारोपण को महत्त्व दे तो भी उससे बहुत हित साधन हो सकता है । बिहार के हजारीबाग जिले का नामकरण इसी आधार पर हुआ है कि उस क्षेत्र के हजारी किसान ने अनवरत श्रम करके उस क्षेत्र में हजार बाग लगवाने में सफलता प्राप्त की थी ।
वृक्ष मनुष्य परिवार के ही अंग हैं । वे हमें प्राणवायु प्रदान करके जीवित रखते हैं । इतने अधिक मार्गों से हमारी सहायता करते हैं जिनका मूल्यांकन करना कठिन है । यह तथ्य स्मरण रखने योग्य है कि यदि वृक्ष न रहेंगे तो मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी पर शेष न रहेगा ।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ.3.41)
उर्पयुक्त गोष्ठी में जापान, आस्टे्रलिया, कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड, नीदरलैण्ड, भारत आदि 20 देशों के वन विज्ञानी उपस्थित थे । गोष्ठी में कनाडा के प्रतिनिधि डॉ. व्लादीमीर क्रजीना ने कहा- मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता सांस लेने के लिए शुद्ध वायु मिलना है । वृक्ष हमारी इस आवश्यकता को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं । संसार में बढ़ते हुए वायु प्रदूषण भूमिका प्रस्तुत करते हैं । संसार में बढ़ते हुए वायु प्रदुषण का समाधान करने के लिए वृक्षों की रक्षा की जानी चाहिए । यदि हम वन सम्पदा को गँवा बैठेंगे तो फिर शुद्ध सांस का अभाव इतना जटिल हो जायेगा कि उसका समाधान अन्य किसी उपाय से सम्भव न हो सकेगा ।''
अन्य देशों क प्रतिनिधियों ने भी जो विचार व्यक्त किये उनसे स्पष्ट था कि वृक्ष एवं अभिवर्धन का प्रश्न उतना उपेक्षणीय नहीं है जितना कि उसे समझा जा रहा है । उसे पशु पालन क स्तर पर रखा जाना चाहिए । सच तो यह है कि इससे भी अधिक महत्त्व उसे दिया जाना चाहिए । पशुओं को गँवाकर उनके द्वारा मिलने वाले श्रम, दूध, मांस, चमड़े से एवं गोबर से वंचित होना पड़ता है । वृक्षों को गँवाने की हानि उनसे भी अधिक है । वायु शोधन, वर्षा का सन्तुलन और पत्तों से मिलने वाली खाद, धरती के कटाव का बचाव, कीड़े खाकर फसल की रक्षा करने वाले पक्षियों के आश्र्ाय के अभाव में सफाया आदि कितने ही ऐसे संकट हैं जो वृक्षों के घटने के साथ-साथ बढ़ते ही चले जायेंगे ।
पिछले दिनों कल-कारखानों की वृद्धि को विकास का आधार माना जाता रहा है । खाद्य उत्पादन के लिए कृषि तथा सिंचाई पर भी जोर दिया जाता रहा है । बहुत हुआ तो यातायात के साधनों को बढ़ाने की बात भी आर्थिक प्रगति के लिए जोड़ दी गई । वन सम्पदा की महत्ता समझने की ओर जितना ध्यान देना आवश्यक था उतना दिया ही नहीं । सच तो यह है वनों को जमीन घेरने वाला माना जाता रहा और उन्हें काटकर कृषि करने की बात सोची जाती रही । जलाऊ लकड़ी तथा इमारती बरती जाती रही । आज हम वन सम्पदा की दृष्टि से निर्धन होते चले जा रहे हैं और उसके कितने ही परोक्ष दुष्परिणामों का प्रत्यक्ष हानि के रूप में सामने खड़ा देख रहे हैं ।
'सहारा कॉन्क्वेस्ट' ग्रन्थ के लेखक सेन्टवार्व वेकर ने सहारा रेगिस्तान की 20 लाख वर्ग मील भूमि के सम्बंध में लम्बा और गहरा सर्वेक्षण करके लिखा है- यह क्षेत्र किसी समय बहुत ही हरा-भरा था, पर लोगों ने नासमझी से उसे उजाड़ दिया । इससे क्रुद्ध हुई प्रकृति ने पूरा प्रतिशोध चुकाया । तेज हवा, सूर्य की सीधी धूप और पाले ने अच्छी खासी उपजाऊ मिट्टी को रेत बना दिया । तेज हवाएँ उस धूल को भी इधर से उधर उड़ाने लगी, सिर्फ ऊसर और पथरीली जमीन ही टिकी हुई है । यह रेगिस्तानी विशाल भूखण्ड अब निकटवर्ती हरी-भरी जमीन को भी महासर्प की तरह निगलता चला जा रहा है । हर साल तीस वर्ग मील हरी-भरी जमीन उस रेगिस्तान की चपेट में आकर सदासर्वदा के लिए मृतक बन जाती है ।
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट हवाई जहाज से मिस्र की भूमि से गुजरे, उन्होंने लेबनान के इतिहास प्रसिद्ध सिडार वृक्षों के वन्य प्रदेश की बड़ी प्रशंसा पढ़ी थी । पर जब उन्होंने नीचे झाँक कर देखा कि वहाँ नंगे पहाड़ खड़े हैं और जहाँ-तहाँ दस बीस वृक्ष दिख रहे हैं, तब उन्हें इसका बड़ा दुःख हुआ ।
संसार में अन्यत्र भी ऐसी ही मूर्खता बरती जा रही है, इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करके उन्हें और भी अधिक वेदना हुई उनके आदेश पर राष्ट्र संघ पर अमेरिकी प्रतिनिधियों ने दबाव डाला कि विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन में वन सम्पदा के संरक्षणों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए । वैसा हुआ भी । राष्ट्र संघ के तत्वावधान में संसार में वन सम्पदा बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न चल रहें हैं उन्हीं के अन्तर्गत एक बड़ी आर्थिक सहायता देकर लेबनान में नये सिरे से सिडार वन लगाये गये हैं और हजारों एकड़ जमीन फिर से हरी-भरी बनाई गई है । ऐसे ही प्रयास अन्यत्र भी हुए हैं । इस्राइल में हरा-भरा क्षेत्र एक-तिहाई और सूखा रेगिस्तान दो-तिहाई है । उन लोगों ने इस सूखे भू-खण्ड को हरा-भरा बनाने का संकल्प किया है और इन दिनों इस दिशा में अथक् परिश्रम किया जा रहा है । पिछले दिनों ही 10 करोड़ नये पौधे उन लोगों ने लगाये हैं ।
आइसलैण्ड वाले बहुत दिनों से अपनी वन सम्पदा उजाड़ते चले आ रहे थे । फलस्वरूप वे अपनी उपजाऊ भूमि में हाथ सो बैठे । सन् 1964 के बाद उनकी आँखें खुलीं और योजनाबद्ध रूप से 20 लाख नये पेड़ लगाये । टस्मानिया का भी यही हाल हुआ । उन लोगों ने वृक्ष सम्पदा गँवाई, फलस्वरूप रेतीली आँधियों का सर्वनाशी सिलसिला आरम्भ हो गया । घास-पता तक को उनने अपने पेट में निगल लिया । जब जीवन-मरण का सवाल पैदा हुआ तो उन्होंने ऊँचे चीड़ और देवदार के पेड़ लगाकर रेतीली हवाओं से रोकथाम की है और 1,500 एकड़ जमीन रेगिस्तान के मुँह में से उगलवाई है ।
स्कॉटलैण्ड में कुल्विन सेन्ड्स नामक छः मील लम्बा और दो मील चौड़ा-सा रेगिस्तान था । उन लोगों ने इस अजगर का मुँह कुचल कर रख दिया है और अब वहाँ हरे-भरे उद्यान लहलहा रहे हैं । लीबिया ने अपने रेगिस्तानों को छोटी झाड़ियों से पाट देने का निश्चय किया है और वे उस प्रयास में भली प्रकार सफल हो रहे हैं ।
आस्ट्रेलिया ने अपने 7 इंच जितनी स्वल्प वर्षा वाले क्षेत्र में संसार भर से 83 जाति के ऐसे पौधे मँगवाकर वहाँ रोपे हैं जो सूखे आवहवा में भी पनप सकते हैं । आग की तरह तपने वाले बूमेटा रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब वृक्षारोपण के अभिनव प्रयासों से हरा-भरा बनाया जा चुका है । उस क्षेत्र के एक किसान डेस्मांड फाइलिस ने अपने एकाकी प्रयत्न से 6,000 वृक्ष लगाये हैं जो अब 20 फुट से भी ऊँचे हो गये हैं । इन वृक्षों ने उस क्षेत्र की भंयकर खुश्की को मनुष्यों और पशुओं के रहने योग्य बना दिया है ।
मोरक्को ने अपनी कुम्भकर्णी नींद त्यागकर अपनी नष्ट होती वन सम्पदा को सम्भाला है । इन्हीं दिनों उन लोगों ने 65 हजार जैतून के, 2,700 बादाम के और 13,100 सदाबहार के बड़े वृक्ष लगाये हैं । इस कार्य के लिए उसे राष्ट्र संघ से भी अनुदान मिला है ।
चीन अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए फ्रांस की प्रसिद्ध लौह प्राचीर की तरह वृक्षों की हरी दीवार खड़ी कर रहा है । यह दीवार 6,000 मील लम्बी और कई मील चौड़ी होगी । वहाँ बंजर प्रदेशों को वृक्षों से पाट देने का कार्यक्रम चल रहा है ।
अब संसार का हर देश समझ गया है कि मनुष्य जीवन के लिए पशु सम्पदा से बढ़कर वन सम्पदा का महत्त्व है, इसलिए उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति में उच्च स्थान दिया जा रहा है और इसे बढ़ने के प्रयास को खाद्य उत्पादन स्तर का महत्त्व दिया जा रहा है ।
स्कॉटलैण्ड के वनस्पति विज्ञानी रॉबर्ट चेम्बर्स ने लिखा है-वन नष्ट होंगे तो पानी का अकाल पड़ेगा । भूमि की उर्वरा शक्ति घटेगी और फसलों की पैदावार कम होती चलेगी । पशु नष्ट होंगे । पक्षी घटेंगे और मछली प्राप्त करना कठिन हो जायेगा । वन विनाश का अभिशाप जिन पाँच पुराने प्रेतों की भयंकर विभीषिका बनाकर सामने खड़ा कर देगा वे हैं बाढ़, सूखा, गर्मी, अकाल और बीमारी । हम जाने और अनजाने में वन सम्पदा नष्ट करते हैं और उससे जो पाते हैं उसकी तुलना में कहीं अधिक गँवाते हैं ।
धर्मशास्त्रों में वट, पीपल, आंवला आदि वृक्षों को देव संज्ञा में गिना गया है । उनके प्रति किसी समय कितनी गहरी श्रद्धा रही है इसका परिचय इस बात से मिलता है कि अभी भी वृक्षों के साथ लड़कियों का विवाह होने की प्रथा जहाँ-तहाँ पाई जाती है ।
तिरहुत में मंगली लड़की का विवाह पीपल के पेड़ के साथ कर दिया जाता है ताकि नक्षत्र दोष का अनष्टि पीपल पर पड़े और मनुष्य वर को किसी विपत्ति का सामना न करना पड़े ।
आन्ध्र के कुडप वंशी ग्रामीणों में कन्या का विवाह बारह वर्ष तक कर देने का रिवाज था, पर यदि किसी कारणवश विवाह न हो सका तो किसी फलदार पेड़ से उसका विवाह कर देते हैं और उसे सुहाग के सभी प्रतीक धारण करा देते हैं । इसके पश्चात् उसका 'पुनर्विवाह' किसी भी आयु में हो सकता है । यदि विवाह न हो तो भी उस सुहागिन के सभी सामाजिक अधिकार मिल जाते हैं और विरादरी के लोग विवाह न होने का लांछन नहीं लगाते ।
नेपाल की नेवार जाति के लोग अपनी लड़कियों का विवाह विल्व वृक्ष के साथ करते हैं । इसके पश्चात् जब किसी पुरुष के साथ विवाह होता है तो वह उपपति कहलाता है । उपपति को कोई स्त्री कभी भी बहिष्कृत कर देती है, उसे भृत्य जितने ही अधिकार प्राप्त होते हैं ।
हिसार जिले की घुमकूड बावरिया जाति में और सरगुजा के भीलों में यह प्रथा है कि विवाह की अनिच्छुक लड़कियों का विवाह पीपल के वृक्ष से कर देते हैं और यह मान लेते हैं कि उसका कुमारी रहने का 'दोष' निपट गया ।
हरियाली को मनुष्य जीवन सहचरी का स्थान मिलना चाहिए और उसके परिपोषण के लिए प्रत्येक नागरिकों में व्यक्गित रूप से दिलचस्पी उत्पन्न की जानी चाहिए ।
महाकवि अलेग्जेण्डर स्मिथ प्रकृति को असीम प्यार करते थे और विचारशील लोगों को सम्बोधन करके कहते थे-अपनी स्मृति पीछे के लिए छोड़ जाना चाहते हो तो भवन बनाने और पदक प्राप्त करने की अपेक्षा वृक्ष लगाने पर ध्यान दो, वे इन दोनों की अपेक्षा वृक्ष लगाने पर ध्यान दो, व इन दोनों की अपेक्षा अधिक चिरस्थायी होते हैं ।
संसार में सबसे पुराना वट वृक्ष ताइवन में ढूँढ़ निकाला गया है । ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर अब उसकी आयु 4,128 वर्ष है । वह 48 मीटर ऊँचा है । तने की मोटाई का व्यास 40 फीट से अधिक है । चिजायी प्रान्त के मिएन युएह ग्राम के पास पहाड़ी पर यह उगा हुआ है । वहाँ के निवासियों ने उस महावृक्ष का नाम 'चेनी पौरिस' रखा है ।
यह वृक्ष वृद्ध होने पर भी अभी सैकड़ों वर्षों तक मजे में अपना अस्तित्व बनाये रहने योग्य सुदृढ़ है ।
इससे अधिक सस्ता, अच्छा, ऊँचा, चिरस्थायी एवं अतीव उपयोगी स्मारक और क्या हो सकता है । मनुष्य अपना नाम चाहने की दृष्टि से ही सही वृक्षारोपण को महत्त्व दे तो भी उससे बहुत हित साधन हो सकता है । बिहार के हजारीबाग जिले का नामकरण इसी आधार पर हुआ है कि उस क्षेत्र के हजारी किसान ने अनवरत श्रम करके उस क्षेत्र में हजार बाग लगवाने में सफलता प्राप्त की थी ।
वृक्ष मनुष्य परिवार के ही अंग हैं । वे हमें प्राणवायु प्रदान करके जीवित रखते हैं । इतने अधिक मार्गों से हमारी सहायता करते हैं जिनका मूल्यांकन करना कठिन है । यह तथ्य स्मरण रखने योग्य है कि यदि वृक्ष न रहेंगे तो मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी पर शेष न रहेगा ।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ.3.41)