Books - युग परिवर्तन कब और कैसे ?
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
निराकरण और समाधान -प्रत्यक्ष ही नहीं परोक्ष को भी समझे
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह जगत दो हिस्सों में बँटा है ।। एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष ।। दूसरा पदार्थों के भीतर एक प्रेरक शक्ति काम करती है जिसे आँखों से नहीं देखा जाता, उसकी क्षमता एवं गति को देखकर अनुमान लगाया जाता है कि प्रकृति के अन्तराल में शब्द, ताप और प्रकाश की तरंगें काम करती हैं, उन्हें परोक्ष ही कहा जा सकता है ।। शरीर सारे काम करता है ।।
भूमण्डल के संबंध में भी यही बात है ।। वह जल- थल और नभ के तीन भागों में विभक्त है ।। किन्तु उसका थोड़ा- सा भाग ही दृष्टिगोचर होता है ।। भूगर्भ में क्या हलचलें चल रहीं हैं ।। समुद्र तल से क्या हो रहा है? आकाश में कितना पदार्थ वायु- भूत होकर उड़ रहा है? इसकी जानकारी सामान्य बुद्धि या साधनों से प्राप्त नहीं होती वह सभी एक प्रकार से परोक्ष या अदृश्य है ।।
प्रत्यक्ष के संबंध में ही हमें हल्की- फुल्की जानकारी होती है ।। इतने पर भी प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष की क्षमता असंख्य गुनी है ।। एक चुटकी धूलि का कोई महत्त्व नहीं किन्तु एक परमाणु की परोक्ष शक्ति का विस्फोट गजब ढा देता है ।। समुद्र के खारे जल में ज्वारभाटे मात्र उठते हैं पर इसे बहुत कम लोग जानते हैं कि धरातल के कोने- कोने में जल पहुँचाने के लिए उसकी अदृश्य प्रकृति एवं हलचल ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।। यही बात आकाश के संबंध में भी है ।। वह पोला, खाली दृष्टिगोचर होता है किन्तु पवन, पर्जन्य, प्राण जैसे अति महत्त्वपूर्ण तत्व प्रचुर परिणाम में उसी में भरे पड़े हैं ।। यदि उनका लाभ प्राणियों को न मिले तो किसी का भी जीवन संकट एक कदम आगे न बढ़े ।।
चर्चा परोक्ष जगत की हो रही है ।। प्रत्येक प्रयोजन के लिए यों हमें प्रत्यक्ष से ही पाला पड़ता है और उसी को सब कुछ मानने तथा बढ़ाने- बदलने का अभ्यास रहता है फिर भी विचारशील यह भी भूलते नहीं कि परोक्ष की सत्ता असाधारण है और उसकी उपेक्षा करके खिलौने से खेलने की तरह मात्र छोटे बच्चों जैसी स्थिति हमारी बनी रहती है ।। एक अविकसित वनवासी मात्र घास- पात की सम्पदा पर ही निर्भर रहता है किन्तु एक वैज्ञानिक प्रकृति पर आधिपत्य जमाता और असीम शक्ति का अधिष्ठाता बनता है ।। इसे परोक्ष सामर्थ्य की जानकारी एवं उपलब्धि का चमत्कार ही कह सकते हैं ।।
यहाँ चर्चा अदृश्य जगत की हो रही है ।। धरातल के पदार्थों, प्राणियों की हलचलों, सम्पदाओं, सुविधाओं को हम देखते हैं ।। उस क्षेत्र की प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं के बदलने के लिए प्रयत्न भी करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि प्रत्यक्ष के पीछे परोक्ष कारण भी महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न कर रहे होते हैं और उन्हें समझने और निपटने के लिए भी कुछ किया जाना चाहिए ।। इस भूल का परिणाम है कि निरर्थक चला जाता है ।। थकान, निराशा और खीज ही पल्ले पड़ती है ।।
इसमें गहराई से उतरने की आदत डालनी चाहिए और समझना चाहिए कि मोती बटोरने के लिए गहरी डुबकी लगाने क अतिरिक्त और कोई चारा नहीं किनारे पर भटकते रहने से सीप और घोघें के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ सकता ।।
रोग प्रत्यक्ष है और औषधि भी; दोनों आपस में सुलझते समझते भी रहते हैं ।। एक दूसरे को चुनौती चिरकाल से देते आ रहे हैं किन्तु औषधियों हारती और बीमारी जीतती चली आ रही हैं ।। यह क्रम तब तक चलता ही रहेगा जब तक कि असंयम से शक्तियों के अपव्यय और विषाक्तता के उद्भव अदृश्य का कारण न समझा जाय और उसके निवारण के लिए चटोरेपन की आदत परिमार्जन न किया जाय ।। यह बात अर्थ संकट मानसिक तनाव, परिवार विग्रह, समाज विक्षोभ जैसी समस्याओं के संबंध में भी लागू होती है ।। मनःस्थिति बदलने से परिस्थिति बदलती है, इस सूत्र की जब तक उपेक्षा होती रहेगी झंझट, संकट, अभाव एवं विग्रह अपने स्थान पर यथावत जड़ जमाये रहेंगे ।। हटने का नाम नहीं होगे ।।
इन दिनों प्रत्यक्ष जगत में वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में पतन पराभव का माहौल है ।। पिछले दिनों आर्थिक, बौद्धिक एवं वैज्ञानिक क्षेत्र में असाधारण प्रगति हुई है ।। उस आधार पर सुविधा साधनों की इतनी अभिवृद्धि हुयीं है ।। कि सृष्टि के इतिहास में अद्यावधि कभी भी नहीं हुई ।। इतने पर भी व्यक्ति हर दृष्टि से घटता और घुटता जा रहा है ।। समाज का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जिसमें गतिरोध न अड़ गये हों ।। संकटों के चक्रवात न मचल रहे हो ।। मिल- जुलकर समाधान खोजने की प्रवृत्ति को तिलाञ्जलि दी जा रही है, आस्तीनें ऊँची करने ताल ठोकने, घूँसा दिखाने के अतिरिक्त और किसी को कुछ सूझता ही नहीं ।।
अपराधों का आश्रय लेने और अन्यान्यों को नीचा दिखाने के अतिरिक्त चिन्तन और प्रचलन में कही कोई तत्व दिखाई नहीं पड़ते जिसमें व्यक्ति को सुखी, सुसंस्कृत एवं समाज को समृद्ध समर्थ बनाने की आशा बंध सके ।। बुद्धिमान को कमी नहीं ।। मूर्धन्य प्रतिभायें भी हर क्षेत्र में विद्यमान और सक्रिय है फिर भी दो गज जुड़ने के साथ- साथ चार गज टूटने जैसी विपन्नता बढ़ती जा रही है ।। मनुष्य कृत उत्पातों का प्रतिफल किसी भी दिन विश्व विनाश की स्थिति उत्पन्न कर सकता है ।।
युद्धोन्माद किसी भी दिन मनुष्य समुदाय को सामूहिक आत्म- हत्या के लिए विवश कर सकता है ।। जनसंख्या की अनियन्त्रित अभिवृद्धि, प्रदूषणों और विकिरणों के घटाटोप- अपराधों को तूफानी चक्रवात, सन्धिपात जैसा युद्धोन्माद ऐसा है, जिसके कारण सर्वनाश की घटायें घुमड़ती दिखती है ।।
गुत्थियों को सुलझाने के लिए कडुये- मीठे प्रयत्न न हो रहे हों सो बात नहीं ।। विनाश से बचाव और उत्कर्ष के आधार ढूँढ़ने के लिए अपने- अपने ढंग से सभी प्रयत्नशील हैं पर समाधान निकट आने के स्थान पर दूर ही हटते जा रहे हैं ।। इन परिस्थितियों में कई बार तो वह निराशा सिर पर सवार होती है कि मनुष्य नियति के सम्मुख असहाय जैसा है ।। पुरुषार्थों का माहात्म्य अतिश्योक्तिपूर्ण है ।।
यहाँ सहज ही परोक्ष पर दृष्टि जाती है और लगता है कि कोई किसी मर्मस्थल में ऐसा काँटा तो नहीं घुसा बैठा है जो नासूर बनकर रिसते रहने की स्थिति बनाये रहे ।। किसी उपचार को सफल न होने दे ।। तत्त्वज्ञानी इस दृष्टि से सदैव भावनाशील रहे हैं पर प्रत्यक्ष को जड़ एवम् आवरण मानते हैं ।। परोक्ष को उन्होंने चेतन प्रेरणा माना है और चेतना को ही वातावरण का, मनःस्थिति को ही परिस्थिति का जन्मदाता कहा है ।। तथ्य यह प्रतिपादन शत प्रतिशत सच है ।।
मानवी चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को प्रभावित करने वाली आस्था विकृत हो जाने से हर क्षेत्र में अनेकानेक संकट खड़े हुये है ।। आत्यंतिक समाधान के लिए तब तक प्रतीक्षा ही करती रहनी पड़नी पड़ेगी जब तक कि आस्था संकट से निपटने के लिए कारगर प्रयत्न नहीं किये जाते ।। इस सम्बन्ध में एक छोटे से पर्यत्न अँधेरे में टिमटिमाते दीपकों की तरह प्रज्ञा अभियान का मूल्यांकन भी किया जा सकता है ।।
परोक्ष जगत की परिधि में मानवी आस्था को महत्त्व तो दिया जा सकता है ।। फिर भी वह समग्र नहीं हैं ।। दृश्य जगत की पीठ पर एक अदृश्य जगत भी है और उसमें चल रही हलचलों और गतिविधियों से प्रत्यक्ष जगत पूरी तरह प्रभावित होता है ।। देखना यह भी है कि अदृश्य जगत में कही अवांछनीय तत्व तो नहीं घुस पड़े हैं और उनके प्रभाव से प्रत्यक्ष जगत का वातावरण विषाक्त नहीं हो रहा है ।।
ऋतुओं के प्रभाव को सर्दी, गर्मी, नमी क रूप में अनुभव किया जाता है किन्तु वस्तुतः वे सूर्य और पृथ्वी के परिभ्रमण से उत्पन्न होने वाली परिणतियाँ भर हो ।। इसे समझे बिना ऋतु परिवर्तन के रहस्य से अपरिचित ही बने रहना पड़ता है ।। अन्तरिक्ष से इतना कुछ बरसता है जिस जल और थल की संयुक्त उपलब्धियों की तुलना में भी कहीं अधिक कहा जा सके ।। अदृश्य की शक्ति पर कभी तथाकथित प्रत्यक्षवादी अविश्वास करते थे पर बढ़ते हुए विज्ञान का समूचा आधार ही अप्रत्यक्ष को समझने और हस्तगत करने में केन्द्रीभूत हो रहा है ।।
पदार्थ विज्ञान के साथ अध्यात्म विज्ञान को जोड़ने से ही समग्र तत्व ज्ञान का सृजन होता है ।। उसी समन्वय के आधार पर जो जानने योग्य है उसे जाना जा सकता है और जो पाने योग्य है, उसे पाया जा सकता है ।। इन दिनों की विकट समस्याओं में यदि परोक्ष जगत की विकृतियों को समझने- सुधारने की प्रयत्न किया जाय तो उसे दूरदर्शी विवेकशीलता ही कहा जायेगा ।। फुन्सियाँ अच्छी न हो रही हों तो रक्त विकार खोजने तक दृष्टि दौड़नी चाहिए ।। मच्छरों को भगाने न बन रहा हो तो सड़ी कीचड़ के खोजने और हटाने का प्रयत्न करना चाहिए ।। पतन और पराभव वस्तुतः भ्रान्तियों और विकृतियों को परोक्ष गड़बड़ का ही प्रतिफल होता है ।।
पदार्थ परोक्ष परिदृश्य पर विश्वास कर सकने योग्य समझ मिल सकी है उन्हें वर्तमान की सुलझाने योग्य गुत्थियों के पीछे अदृश्य में संव्याप्त विषाक्तता खोजनी होगी ।। इसी प्रभाव है कि लोक चिन्तन में अवांछनीयता बढ़ रही है और प्रकृति प्रकोप का दौड़ चल पड़ा है ।। वर्षा होती है तो धरती पर हरी चादर बिछाती है ।। जल- जंगल एक होते हैं ।। सर्दी पतझड़ और गर्मी की जलन का सामना करते समय उसका कारण अदृश्य में ही खोजना पड़ता है ।। दृश्य के प्रत्यक्ष से निपटने की सामर्थ्य जब कुण्ठित हो चले तो परोक्ष की ओर दृष्टि डालनी चाहिए ।। रिसते नासूर के मूल में घुसे हुए काँटे को कुरेदना चाहिए ।। कठपुतली स्वयं कहाँ नाचती है ।। उनसे कौतूहल कराने मे बाजीगर की उँगलियाँ ही चमत्कार दिखाती रहती है ।।
इन दिनों के प्रकृति एवं पतन- पराभव विनाश- विग्रह के पीछे अदृष्य जगत की स्थिति को समझने का प्रयत्न होना चाहिए ।। साथ ही उसे सुधारने- सन्तुलन करने का भी व्यक्ति का स्तर और सृष्टि का भविष्य जिस प्रकार चिन्तनीय बनता जा रहा है उसे महामारी प्रवाह की तरह किसी अदृश्य विष वमन का परिणाम समझा जा सकता है ।।
अच्छा हो प्रत्यक्ष को ही सब कुछ न समझकर परोक्ष की ओर भी दृष्टि दौड़ाई जाय और उस क्षेत्र में संव्याप्त अशुभ से निपटने तथा शुभ का परिपोषण करने के लिए उपाय सोचे और प्रयास किये जाएँ ।। न सुलझने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए हमारा ध्यान परोक्ष की ओर मुड़े और अदृश्य के सन्तुलन का प्रयास चले तो उसे यथार्थ का अवलम्बन ही कहा जायेगा ।।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ. 6.10)
भूमण्डल के संबंध में भी यही बात है ।। वह जल- थल और नभ के तीन भागों में विभक्त है ।। किन्तु उसका थोड़ा- सा भाग ही दृष्टिगोचर होता है ।। भूगर्भ में क्या हलचलें चल रहीं हैं ।। समुद्र तल से क्या हो रहा है? आकाश में कितना पदार्थ वायु- भूत होकर उड़ रहा है? इसकी जानकारी सामान्य बुद्धि या साधनों से प्राप्त नहीं होती वह सभी एक प्रकार से परोक्ष या अदृश्य है ।।
प्रत्यक्ष के संबंध में ही हमें हल्की- फुल्की जानकारी होती है ।। इतने पर भी प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष की क्षमता असंख्य गुनी है ।। एक चुटकी धूलि का कोई महत्त्व नहीं किन्तु एक परमाणु की परोक्ष शक्ति का विस्फोट गजब ढा देता है ।। समुद्र के खारे जल में ज्वारभाटे मात्र उठते हैं पर इसे बहुत कम लोग जानते हैं कि धरातल के कोने- कोने में जल पहुँचाने के लिए उसकी अदृश्य प्रकृति एवं हलचल ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।। यही बात आकाश के संबंध में भी है ।। वह पोला, खाली दृष्टिगोचर होता है किन्तु पवन, पर्जन्य, प्राण जैसे अति महत्त्वपूर्ण तत्व प्रचुर परिणाम में उसी में भरे पड़े हैं ।। यदि उनका लाभ प्राणियों को न मिले तो किसी का भी जीवन संकट एक कदम आगे न बढ़े ।।
चर्चा परोक्ष जगत की हो रही है ।। प्रत्येक प्रयोजन के लिए यों हमें प्रत्यक्ष से ही पाला पड़ता है और उसी को सब कुछ मानने तथा बढ़ाने- बदलने का अभ्यास रहता है फिर भी विचारशील यह भी भूलते नहीं कि परोक्ष की सत्ता असाधारण है और उसकी उपेक्षा करके खिलौने से खेलने की तरह मात्र छोटे बच्चों जैसी स्थिति हमारी बनी रहती है ।। एक अविकसित वनवासी मात्र घास- पात की सम्पदा पर ही निर्भर रहता है किन्तु एक वैज्ञानिक प्रकृति पर आधिपत्य जमाता और असीम शक्ति का अधिष्ठाता बनता है ।। इसे परोक्ष सामर्थ्य की जानकारी एवं उपलब्धि का चमत्कार ही कह सकते हैं ।।
यहाँ चर्चा अदृश्य जगत की हो रही है ।। धरातल के पदार्थों, प्राणियों की हलचलों, सम्पदाओं, सुविधाओं को हम देखते हैं ।। उस क्षेत्र की प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं के बदलने के लिए प्रयत्न भी करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि प्रत्यक्ष के पीछे परोक्ष कारण भी महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न कर रहे होते हैं और उन्हें समझने और निपटने के लिए भी कुछ किया जाना चाहिए ।। इस भूल का परिणाम है कि निरर्थक चला जाता है ।। थकान, निराशा और खीज ही पल्ले पड़ती है ।।
इसमें गहराई से उतरने की आदत डालनी चाहिए और समझना चाहिए कि मोती बटोरने के लिए गहरी डुबकी लगाने क अतिरिक्त और कोई चारा नहीं किनारे पर भटकते रहने से सीप और घोघें के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ सकता ।।
रोग प्रत्यक्ष है और औषधि भी; दोनों आपस में सुलझते समझते भी रहते हैं ।। एक दूसरे को चुनौती चिरकाल से देते आ रहे हैं किन्तु औषधियों हारती और बीमारी जीतती चली आ रही हैं ।। यह क्रम तब तक चलता ही रहेगा जब तक कि असंयम से शक्तियों के अपव्यय और विषाक्तता के उद्भव अदृश्य का कारण न समझा जाय और उसके निवारण के लिए चटोरेपन की आदत परिमार्जन न किया जाय ।। यह बात अर्थ संकट मानसिक तनाव, परिवार विग्रह, समाज विक्षोभ जैसी समस्याओं के संबंध में भी लागू होती है ।। मनःस्थिति बदलने से परिस्थिति बदलती है, इस सूत्र की जब तक उपेक्षा होती रहेगी झंझट, संकट, अभाव एवं विग्रह अपने स्थान पर यथावत जड़ जमाये रहेंगे ।। हटने का नाम नहीं होगे ।।
इन दिनों प्रत्यक्ष जगत में वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में पतन पराभव का माहौल है ।। पिछले दिनों आर्थिक, बौद्धिक एवं वैज्ञानिक क्षेत्र में असाधारण प्रगति हुई है ।। उस आधार पर सुविधा साधनों की इतनी अभिवृद्धि हुयीं है ।। कि सृष्टि के इतिहास में अद्यावधि कभी भी नहीं हुई ।। इतने पर भी व्यक्ति हर दृष्टि से घटता और घुटता जा रहा है ।। समाज का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जिसमें गतिरोध न अड़ गये हों ।। संकटों के चक्रवात न मचल रहे हो ।। मिल- जुलकर समाधान खोजने की प्रवृत्ति को तिलाञ्जलि दी जा रही है, आस्तीनें ऊँची करने ताल ठोकने, घूँसा दिखाने के अतिरिक्त और किसी को कुछ सूझता ही नहीं ।।
अपराधों का आश्रय लेने और अन्यान्यों को नीचा दिखाने के अतिरिक्त चिन्तन और प्रचलन में कही कोई तत्व दिखाई नहीं पड़ते जिसमें व्यक्ति को सुखी, सुसंस्कृत एवं समाज को समृद्ध समर्थ बनाने की आशा बंध सके ।। बुद्धिमान को कमी नहीं ।। मूर्धन्य प्रतिभायें भी हर क्षेत्र में विद्यमान और सक्रिय है फिर भी दो गज जुड़ने के साथ- साथ चार गज टूटने जैसी विपन्नता बढ़ती जा रही है ।। मनुष्य कृत उत्पातों का प्रतिफल किसी भी दिन विश्व विनाश की स्थिति उत्पन्न कर सकता है ।।
युद्धोन्माद किसी भी दिन मनुष्य समुदाय को सामूहिक आत्म- हत्या के लिए विवश कर सकता है ।। जनसंख्या की अनियन्त्रित अभिवृद्धि, प्रदूषणों और विकिरणों के घटाटोप- अपराधों को तूफानी चक्रवात, सन्धिपात जैसा युद्धोन्माद ऐसा है, जिसके कारण सर्वनाश की घटायें घुमड़ती दिखती है ।।
गुत्थियों को सुलझाने के लिए कडुये- मीठे प्रयत्न न हो रहे हों सो बात नहीं ।। विनाश से बचाव और उत्कर्ष के आधार ढूँढ़ने के लिए अपने- अपने ढंग से सभी प्रयत्नशील हैं पर समाधान निकट आने के स्थान पर दूर ही हटते जा रहे हैं ।। इन परिस्थितियों में कई बार तो वह निराशा सिर पर सवार होती है कि मनुष्य नियति के सम्मुख असहाय जैसा है ।। पुरुषार्थों का माहात्म्य अतिश्योक्तिपूर्ण है ।।
यहाँ सहज ही परोक्ष पर दृष्टि जाती है और लगता है कि कोई किसी मर्मस्थल में ऐसा काँटा तो नहीं घुसा बैठा है जो नासूर बनकर रिसते रहने की स्थिति बनाये रहे ।। किसी उपचार को सफल न होने दे ।। तत्त्वज्ञानी इस दृष्टि से सदैव भावनाशील रहे हैं पर प्रत्यक्ष को जड़ एवम् आवरण मानते हैं ।। परोक्ष को उन्होंने चेतन प्रेरणा माना है और चेतना को ही वातावरण का, मनःस्थिति को ही परिस्थिति का जन्मदाता कहा है ।। तथ्य यह प्रतिपादन शत प्रतिशत सच है ।।
मानवी चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को प्रभावित करने वाली आस्था विकृत हो जाने से हर क्षेत्र में अनेकानेक संकट खड़े हुये है ।। आत्यंतिक समाधान के लिए तब तक प्रतीक्षा ही करती रहनी पड़नी पड़ेगी जब तक कि आस्था संकट से निपटने के लिए कारगर प्रयत्न नहीं किये जाते ।। इस सम्बन्ध में एक छोटे से पर्यत्न अँधेरे में टिमटिमाते दीपकों की तरह प्रज्ञा अभियान का मूल्यांकन भी किया जा सकता है ।।
परोक्ष जगत की परिधि में मानवी आस्था को महत्त्व तो दिया जा सकता है ।। फिर भी वह समग्र नहीं हैं ।। दृश्य जगत की पीठ पर एक अदृश्य जगत भी है और उसमें चल रही हलचलों और गतिविधियों से प्रत्यक्ष जगत पूरी तरह प्रभावित होता है ।। देखना यह भी है कि अदृश्य जगत में कही अवांछनीय तत्व तो नहीं घुस पड़े हैं और उनके प्रभाव से प्रत्यक्ष जगत का वातावरण विषाक्त नहीं हो रहा है ।।
ऋतुओं के प्रभाव को सर्दी, गर्मी, नमी क रूप में अनुभव किया जाता है किन्तु वस्तुतः वे सूर्य और पृथ्वी के परिभ्रमण से उत्पन्न होने वाली परिणतियाँ भर हो ।। इसे समझे बिना ऋतु परिवर्तन के रहस्य से अपरिचित ही बने रहना पड़ता है ।। अन्तरिक्ष से इतना कुछ बरसता है जिस जल और थल की संयुक्त उपलब्धियों की तुलना में भी कहीं अधिक कहा जा सके ।। अदृश्य की शक्ति पर कभी तथाकथित प्रत्यक्षवादी अविश्वास करते थे पर बढ़ते हुए विज्ञान का समूचा आधार ही अप्रत्यक्ष को समझने और हस्तगत करने में केन्द्रीभूत हो रहा है ।।
पदार्थ विज्ञान के साथ अध्यात्म विज्ञान को जोड़ने से ही समग्र तत्व ज्ञान का सृजन होता है ।। उसी समन्वय के आधार पर जो जानने योग्य है उसे जाना जा सकता है और जो पाने योग्य है, उसे पाया जा सकता है ।। इन दिनों की विकट समस्याओं में यदि परोक्ष जगत की विकृतियों को समझने- सुधारने की प्रयत्न किया जाय तो उसे दूरदर्शी विवेकशीलता ही कहा जायेगा ।। फुन्सियाँ अच्छी न हो रही हों तो रक्त विकार खोजने तक दृष्टि दौड़नी चाहिए ।। मच्छरों को भगाने न बन रहा हो तो सड़ी कीचड़ के खोजने और हटाने का प्रयत्न करना चाहिए ।। पतन और पराभव वस्तुतः भ्रान्तियों और विकृतियों को परोक्ष गड़बड़ का ही प्रतिफल होता है ।।
पदार्थ परोक्ष परिदृश्य पर विश्वास कर सकने योग्य समझ मिल सकी है उन्हें वर्तमान की सुलझाने योग्य गुत्थियों के पीछे अदृश्य में संव्याप्त विषाक्तता खोजनी होगी ।। इसी प्रभाव है कि लोक चिन्तन में अवांछनीयता बढ़ रही है और प्रकृति प्रकोप का दौड़ चल पड़ा है ।। वर्षा होती है तो धरती पर हरी चादर बिछाती है ।। जल- जंगल एक होते हैं ।। सर्दी पतझड़ और गर्मी की जलन का सामना करते समय उसका कारण अदृश्य में ही खोजना पड़ता है ।। दृश्य के प्रत्यक्ष से निपटने की सामर्थ्य जब कुण्ठित हो चले तो परोक्ष की ओर दृष्टि डालनी चाहिए ।। रिसते नासूर के मूल में घुसे हुए काँटे को कुरेदना चाहिए ।। कठपुतली स्वयं कहाँ नाचती है ।। उनसे कौतूहल कराने मे बाजीगर की उँगलियाँ ही चमत्कार दिखाती रहती है ।।
इन दिनों के प्रकृति एवं पतन- पराभव विनाश- विग्रह के पीछे अदृष्य जगत की स्थिति को समझने का प्रयत्न होना चाहिए ।। साथ ही उसे सुधारने- सन्तुलन करने का भी व्यक्ति का स्तर और सृष्टि का भविष्य जिस प्रकार चिन्तनीय बनता जा रहा है उसे महामारी प्रवाह की तरह किसी अदृश्य विष वमन का परिणाम समझा जा सकता है ।।
अच्छा हो प्रत्यक्ष को ही सब कुछ न समझकर परोक्ष की ओर भी दृष्टि दौड़ाई जाय और उस क्षेत्र में संव्याप्त अशुभ से निपटने तथा शुभ का परिपोषण करने के लिए उपाय सोचे और प्रयास किये जाएँ ।। न सुलझने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए हमारा ध्यान परोक्ष की ओर मुड़े और अदृश्य के सन्तुलन का प्रयास चले तो उसे यथार्थ का अवलम्बन ही कहा जायेगा ।।
(युग परिवर्तन कैसे? और कब? पृ. 6.10)