Books - युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
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Language: HINDI
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युग शक्ति का अवतरण और प्रसार विस्तार
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गायत्री को युग शक्ति के रूप में अवतरित होने हुए हम सब प्रत्यक्ष देखते हैं। लगता है युग परिवर्तन की आवश्यकता पूरी करने के लिए वह अपनी निरन्तर शाश्वत परम्परा को यथावत् बनाये रहकर भी समय की आवश्यकता पूरी करने वाली कार्य-पद्धति अपना रही है।
भगवान को परिस्थितियों के अनुसार अपने अवतारों के स्वरूप और क्रिया-कलाप में हेर-फेर करना पड़ा है। हिरण्य कश्यप जब धरती की सम्पदा चुरा कर समुद्र में जा छिपा था तो वाराह रूप बनाने की आवश्यकता पड़ी ताकि उस दस्यु की स्थिति का सामना करना पड़ा। समुद्र मंथन का प्रयोजन पूरा करने के लिए कच्छप का रूप करना ही उपयुक्त था। हिरण्यकश्यपु को वरदान था कि वह मनुष्य या पशु में से किसी के द्वारा न मारा जा सकेगा तो आधा पशु और आधा मनुष्य का विचित्र स्वरूप बनाकर नृसिंह आये और अस्त्र-शस्त्र से न मरने के उसके वरदान को निरस्त करने के लिए नाखूनों को हथियार बनाया। आततायियों से जूझने के लिए परशुराम-मर्यादाओं को स्थापित करने के लिए राम-योग का कर्म प्रधान रूप प्रस्तुत करने के लिए कृष्ण और बौद्धिक क्रान्ति के उद्गाता बुद्ध के रूप में अवतरणों की श्रृंखला का पर्यवेक्षण करने से पता चलता है कि अवतरण प्रक्रिया में जड़ पुनरावृत्ति नहीं है। वरन् आवश्यकतानुसार गतिविधियां अपनाने का लचीलापन है। अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना का सन्तुलन लक्ष्य में ही स्थापित है। लीला प्रकरण तो परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहना उचित भी है और आवश्यक भी।
आज की असुरता का स्वरूप पूर्व कालीन घटनाक्रमों से सर्वथा भिन्न है। भूत काल में असुरता सीधे आक्रमण करती रही है और उसे शस्त्र युद्ध से पराजित किया जाता रहा है। अब की बार उसने छद्म नीति अपनाई है और जन-मानस पर अनास्था के रूप में अपना आधिपत्य जमाया है। अनास्था का मोटा अर्थ तो नास्तिकता होता है, पर उसे ईश्वर को न मानने तक सीमित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः नास्तिकता का स्वरूप है आदर्शों और मर्यादाओं की अवज्ञा। नीति-निष्ठा और समाज-निष्ठा का उल्लंघन। मानवी गरिमा की विस्मृति। संक्षेप में इसे उच्चस्तरीय आस्थाओं को ऐसा अभाव कह सकते हैं जिसके कारण आचरण में निकृष्टता की मात्रा बढ़ती ही चली जाती है। आज के संकट का यही स्वरूप है। इसे आस्थाओं का दुर्भिक्ष कह सकते हैं। उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धा की प्रौढ़ता ही अन्तःकरण में सद्भाव-मस्तिष्क में सद्ज्ञान और शरीर में सत्कर्म बनकर उभरती है। यदि आस्थाओं में निकृष्टतावादी तत्व घुस पड़ें तो फिर हर क्षेत्र में विकृतियां ही भर जायगी। आकांक्षाओं का स्तर वैसा होगा जैसा पशुओं और पिशाचों का होता है। विचारणा वैसी उठेगी जैसी कुचक्रियों और अपराधियों में पाई जाती है। कर्म ऐसे बन पड़ेंगे जो पतित और पराजितों से बन पड़ते हैं। आज की समस्त समस्याओं का स्वरूप समझना है, गहराई में उतर कर एक ही तथ्य सामने आता है—आस्थाओं का संकट। सड़ी कीचड़ों से जिस प्रकार चित्र-विचित्र कृमि-कीटक उत्पन्न होते हैं—उसी प्रकार व्यक्ति और समाज के सामने इसी कारण अगणित समस्याएं और विपत्तियां आतीं और आंख-मिचौनी खेलती हैं।
आस्थाओं के क्षेत्र का युद्ध उसी क्षेत्र में लड़ा जायगा। वायुयानों की लड़ाई आकाश में—पनडुब्बियों की लड़ाई समुद्र में लड़ी जाती है। थल की लड़ाई में पैदलों और वाहनों का उपयोग होता है। आस्थाओं के क्षेत्र में घुसी असुरता से जूझने के लिये युग अवतार को भी तद्नुसार योजना बनानी और कार्य-पद्धति अपनानी पड़ रही है, युग शक्ति गायत्री का कार्य क्षेत्र आस्थाओं का परिशोधन है। इसी की जन-मानस का परिष्कार कहा गया है। विचार क्रान्ति की लाल मशाल में इसी तत्व-दर्शन की झांकी होती है। ज्ञान-यज्ञ का स्वरूप भी यही है। युगान्तरीय चेतना का अवतरण इन दिनों इन्हीं आधारों के सहारे होता है। समस्त भूमण्डल में बसे हुए मानव समाज के अन्तराल में अनास्था के असुर का साम्राज्य छाया दीखता है। शासक का स्वरूप क्षेत्रों की परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का होने पर भी आस्था संकट का कुहासा सर्वत्र छाया हुआ है। उसकी सघनता में जहां-तहां न्यूनाधिकता भले ही रह रही है। अतएव परिष्कार का क्षेत्र भी अति व्यापक है। यह धर्म युद्ध—सचमुच ही धर्म क्षेत्र में—अन्तःकरण में गहराई में उतर कर लड़ा जाना है। इसी के सरंजाम सर्वत्र खड़े होते दिखाई पड़ रहे हैं, अवतरण चेतना इसी के सांचे और ढांचे खड़े करने में लगी हुई है। शिल्पी इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रयोजन पूरे करने में इन दिनों जुटे हुए देखे जा सकते हैं। जागृत आत्माओं की गतिविधियां इसी एक दिशा में चलती दीख पड़ती हैं। गायत्री महाशक्ति का उपयोग सामान्य समय में उपासना, आराधना द्वारा आत्म-कल्याण का प्रयोजन पूरा करने—प्रसुप्त शक्तियों को जगा कर बढ़े हुए आत्म-बल का लाभ ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में लेने—जैसा रहता है। किन्तु युग क्रान्ति में स्वभावतः उसका कार्य क्षेत्र बढ़ेगा। अभीष्ट प्रखरता और प्रचण्डता उत्पन्न करने वाले विशिष्ट क्रिया-कलापों का निर्धारण होगा। वैसा ही इन दिनों हो भी रहा है।
इस सन्दर्भ में गायत्री तत्व-ज्ञान की जानकारी जन-जन को कराया जाना प्रथम चरण है। इसी आधार पर उसकी आवश्यकता, उपयोगिता, क्षमता एवं गरिमा को समझ सकना सम्भव होगा। उपासना के रूप में उसे ठीक तरह अपनाये जाने की बात तो इसके बाद ही बनती है। समुचित जानकारी के अभाव में थोपी गई उपासना में न तो आस्था उत्पन्न होगी और न उसे तन्मयता, तत्परता के साथ अपनाया ही जा सकेगा। जादुई लाभ बताकर तो कुछ समय के लिए किसी को ललचाया भर जा सकता है, पर हथेली पर सरसों न जमने से उस बल-उत्साह को पानी के बबूले की तरह फूटने में भी देर नहीं लगेगी। स्थायित्व तो तथ्य को ठीक तरह समझने के बाद ही आ सकता है। युग शक्ति गायत्री का तत्व-ज्ञान जन-जन को समझाया जाना चाहिए और हर किसी की समझ में यह आना चाहिए कि समस्त समस्याओं का अत्यान्तिक हल वही है जो गायत्री मन्त्र के बीजाक्षरों से कूट-कूट कर भरा हुआ है।
इस प्रचारात्मक प्रथम चरण की पूर्ति इन दिनों लेखनी और वाणी के माध्यम से हो रही है। उसकी गतिशीलता निरन्तर बढ़ती जा रही है। उस आलोक से व्यापक क्षेत्र को प्रकाशित होने का अवसर मिल रहा है। नगण्य से व्यक्ति इस सन्दर्भ में कितनी बड़ी सफलताएं प्राप्त कर रहे हैं, उसे देखकर ग्वाल-बालों का गोवर्धन उठाना और रीछ-वानरों का समुद्र पुल बांधना स्मरण हो आता है। ऐसी चमत्कारी सफलताओं में निश्चित रूप से दैवी इच्छा और सहायता का ही परोक्ष योगदान काम करता रहा है। गायत्री उपासना में सामूहिकता का समावेश अपने युग की नवीनता और विशेषता है। सामान्य काल में उसे नित्य नियम के रूप में अथवा विशेष योगाभ्यास के रूप में उसे अपनाया जाता है। यह व्यक्तिगत प्रयोग हुआ। इन दिनों उसमें सामूहिकता का नया प्रयास जुड़ गया है। गायत्री परिवार की संगठन और उसके तत्वावधान—मार्ग दर्शन में चल रही एक रूपता ही नहीं एकात्मता भी जुट रही है। बिखरे हुए मणि-माणिक एक धागे में पिरो कर बहुमूल्य हार बनने जैसा ही यह प्रयोजन है। संघ शक्ति का सामूहिक प्रयासों का महत्व जिन्हें विदित है वे जानते हैं कि इस स्तर के प्रयत्न कितने बहुमूल्य सत्परिणाम प्रस्तुत करते हैं। देवताओं की संयुक्त शक्ति से दुर्गावतरण की—ऋषि रक्त के संचय सी सीता जन्मने की—समुद्र मंथन की कथाएं जिन्हें विदित हैं वे जानते हैं कि सदुद्देश्य के लिए मिल जुलकर किये गये काम कितने प्रभावी होते हैं। यों दुष्ट प्रयोजनों में भी ‘गिरोह’ बहुत हद तक—बहुत दिनों तक सफल होते रहते हैं।
गायत्री परिवार द्वारा गायत्री तत्व ज्ञान का शिक्षण और उपासना क्रम का अवधारण कराने के लिए व्यक्तिगत क्षेत्र में भी भारी काम किया है और सफलता पाई है। पर उसका उल्लेखनीय प्रयास इस सन्दर्भ की सामूहिक गतिविधियों के रूप में ही किया जा सकता है। साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष में एक लाख नैष्ठिक साधकों ने एक वर्ष की संकल्पित साधना में 2400 करोड़ गायत्री जप सम्पन्न किये। उसके अनेकों ज्ञात और अविज्ञात सत्परिणाम सामने आये। इनमें से बंगला देश की विजय और आपत्तिकालीन स्थिति का अन्त जैसी कई घटनाओं का नाम प्रायः लिया जाता है। गायत्री यज्ञों के आयोजन जहां भी होते हैं वहां पहले सामूहिक गायत्री पुरश्चरणों के संकल्प लेने और निर्धारित संख्या पूरी करने की व्यवस्था की जाती है। आहुतियां इसके बाद पड़ती हैं। सामूहिक जपों की सुनियन्त्रित प्रक्रिया उस परिवार के समस्त सदस्य प्रायः एक रूपता के अनुसार ही चलाते हैं। मथुरा के शत कुण्डी—सहस्र कुण्डी यज्ञों के अवसर पर भी ऐसे ही करोड़ों की संख्या में सामूहिक जप सम्पन्न होते रहे हैं। इस प्रक्रिया के आधार पर प्रत्येक उपासक को सामूहिकता का वैसा ही लाभ मिलता है जैसा कि सेना का हर सदस्य गौरवान्वित होता है। सिपाही अलग-अलग छितराते रहें तो उनकी क्षमता नगण्य ही बनी रहेगी। सामूहिक जप अनुष्ठानों का प्रभाव जन-मानस को परिष्कृत करने के लिए सूक्ष्म रूप में अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होता है और उससे समग्र वातावरण को विश्व शान्ति के अनुकूल बनाने में भी भारी सहायता मिलती है।
युग शक्ति गायत्री का व्यक्ति निर्माण की दृष्टि से चल रहे प्रयत्न की अपनी महत्ता है। उसमें सामूहिकता का समावेश हो जाने से सूक्ष्म जगत में ऐसी परिस्थितियां बनती हैं जिससे व्यक्ति और समाज के समान रूप से लाभान्वित होने का अवसर मिले। अवतरण प्रक्रिया का तीसरा चरण है—परिवार क्षेत्र में प्रवेश और परिष्कार। इस दिशा में इन दिनों विशिष्ट प्रयत्न चल रहे हैं और उन्हें क्रमबद्ध सुनियोजित किया जा रहा है। गायत्री परिवार के सदस्यों के घरों में यह प्रयास इन्हीं दिनों आरम्भ किया गया है कि उनके यहां पूजा कक्ष की विधिवत् प्रतिष्ठापना रहे और परिवार का प्रत्येक सदस्य कम से कम पांच मिनट नमन वंदन की अभ्यर्थना का नियम निवाहें, काम पर लगने—भोजन करने से पूर्व यह न्यूनतम अभिवन्दन कृत्य कर लेने के लिए छोटे-बड़े सभी को समझाया-मनाया जाय। इतना बन पड़ने के उपरान्त घरों में सामूहिक आरती, प्रार्थना, सहगान का प्रातः सायं या एक बार का क्रम चलाया जाय। रात्रि को कथा, कहानियों के कहने सुनने की नियमित व्यवस्था बनाई जाय।
परिवार में आस्थाओं के आरोपण और अभिवर्धन का यह प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करने वाला अभिनव प्रयास है। परिवारों में भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन, सज्जा, आतिथ्य, उत्सव आदि की आवश्यकताओं को पूरा करने का तो ध्यान रहता है, पर यह भुला दिया जाता है कि इस समुदाय में आस्थाओं की उत्कृष्टता भी आवश्यक है। घरों में गायत्री माता की प्रतीक स्थापना-अभ्यर्थना के क्रिया-कृत्यों के उपरोक्त प्रक्रिया इस आवश्यकता को पूरा करती है। इन कृत्यों की दार्शनिक विवेचना करने के नाम पर आध्यात्मिकता के वे समस्त सिद्धान्त भली प्रकार समझाये जा सकते हैं जो गायत्री अभियान में सन्निहित हैं। इस प्रकार परिवार का आस्था परक निर्माण इन उपक्रमों के साथ-साथ चलते रहने से ज्ञान और कर्म के समन्वय की विधा बन जाती है और उसके दूरगामी परिणाम उत्पन्न होते हैं।
इसी सन्दर्भ का एक और उपचार है कि चौके से भोजन परोसना आरम्भ करने से पूर्व बने हुए आहार की पांच आहुति चूल्हे की अग्नि पर हवन कर दी जायं। गायत्री मन्त्र के साथ दी हुई इन आहुतियों में दो मिनट का समय और एक छदाम का सामान खर्च होता है। भौतिक दृष्टि से उसका कुछ भी मूल्य नहीं, पर तत्व दर्शन और प्रेरणा की दृष्टि से यह भी समझने और समझाने की दृष्टि से बहुत बड़ा आधार है। यज्ञ, भाव जगत का उच्चस्तरीय विज्ञान है। उसमें जीवन को यज्ञमय बनाने और समाज में यज्ञीय परम्पराएं अपनाये जाने की प्रेरणा है। इस उपक्रम को दैनिक जीवन में स्थान मिलता रहे, उसे आहार से भी अधिक प्राथमिकता मिलती रहे, यह प्रशिक्षण समय-समय पर पूरे परिवार को दिया जाता रहे उस प्रचलन का प्रतीक इस दैनिक यज्ञ को माना जाता रहे। भारतीय संस्कृति में दैनिक नित्य नियम से संध्या-वन्दन की तरह ही पांच यज्ञों का विधान है। इनमें पांच पारिवारिक कर्तव्यों के परिपालन का उद्बोधन है। उस प्राचीन नित्य कर्म का संक्षिप्त यह हो सकता है कि चूल्हे की अग्नि पर पांच छोटे-छोटे अन्न ग्रासों का हवन किया जाता रहे। हर व्यक्ति यज्ञ भगवान का भोगप्रसाद-यज्ञावशिष्ट ग्रहण करे और उस धर्म भावना को हृदयंगम करे जिसमें यज्ञ से बचा हुआ ही खाने का—सत्प्रयोजन को उपयोग से भी पहले प्राथमिकता देने का—प्रतिपादन किया गया है। गायत्री संस्कृति की जननी और यज्ञ को धर्म पिता कहा गया है। दोनों का प्रतीक पूजन हर घर में चलते रहना चाहिए, इससे युग शक्ति गायत्री का कार्य क्षेत्र हर परिवार में विस्तृत होता है और परिवार संस्था में आदर्शवादिता के तत्व-दर्शन की जड़ जमाने का अवसर मिलता है।
परिवार निर्माण में आस्थाओं का आरोपण अति महत्वपूर्ण अंश माना जाना चाहिए। इसके लिए परिवार के हर सदस्य का जन्म-दिवस मनाये जाने की परम्परा चलाई जा रही है। उस अवसर पर हर्षोत्सव रूप में छोटा-सा गायत्री यज्ञ तो अनिवार्य रूप से होता है। साथ ही मनुष्य जीवन का गौरव, उत्तरदायित्व, लक्ष्य और सदुपयोग समझाने के लिए प्रवचन परामर्श रूप से वह सब कुछ कहा जा सकता है जो उत्कृष्टता का जीवन-क्रम में समावेश कराने के लिए कहा जाना आवश्यक है। यह आयोजन पारिवारिक भी है और वैयक्तिक भी। इसलिए उसमें व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण के सभी आधार सम्मिलित समझे जा सकते हैं। जिसका जन्म-दिन मनता है उसे न्यूनतम एक सद्गुण बढ़ाने और एक दुर्गुण घटाने की भी प्रतिज्ञा करनी पड़ती है। इसमें धर्म की स्थापना और अधर्म के उन्मूलन वाला अवतरण उद्देश्य झांकता देखा जा सकता है। षोडश संस्कार और पर्व त्यौहार मनाने की प्रक्रिया को भी यदि गायत्री अभियान से जोड़ लिया जाय तो उसमें व्यक्ति और परिवार को समुन्नत सुसंस्कृत बनाने के समस्त सूत्र बीज रूप में विद्यमान देखे जा सकते हैं। उन्हें विकसित किया जा सके तो कल्पवृक्ष जैसे सज्जनों से हर परिवार भरा-पूरा दीखेगा और वह उद्यान स्वर्ग लोक के चन्दन वन की तुलना करेगा।
युग शक्ति गायत्री का व्यापक विस्तार गायत्री यज्ञों के माध्यम से होता है। उसमें विज्ञान सम्मत और भाव-संगत ऐसे तथ्य भरे पड़े हैं जो जन-समाज की भौतिक और आत्मिक प्रगति में असाधारण रूप से सहायक होते हैं। गायत्री उत्कृष्ट चिन्तन की अधिष्ठात्री है और यज्ञ आदर्श कर्तृत्व का अधिष्ठता। दोनों के समन्वय से ऐसा वातावरण बनता है जो व्यक्ति और समाज दोनों के ही लिए परम श्रेयस्कर सिद्ध हो सके। गायत्री परिवार द्वारा युग शक्ति गायत्री के अवतरण का आलोक व्यापक बनाने के लिए इन दिनों इन्हीं उपायों का अवलम्बन लिया गया है। निकट भविष्य में और भी महत्वपूर्ण उपचार हाथ में लिये जायेंगे। गायत्री विद्या का उच्चस्तरीय शिक्षण, प्रयोग और अन्वेषण करने के लिए ‘ब्रह्म वर्चस्’ आरण्यक की प्रयोगशाला ऐसे आधार खड़े कर रही है जिससे युग अवतरण के लिए अभीष्ट शक्ति प्रचुर परिमाण में जुटाई जा सके।
भगवान को परिस्थितियों के अनुसार अपने अवतारों के स्वरूप और क्रिया-कलाप में हेर-फेर करना पड़ा है। हिरण्य कश्यप जब धरती की सम्पदा चुरा कर समुद्र में जा छिपा था तो वाराह रूप बनाने की आवश्यकता पड़ी ताकि उस दस्यु की स्थिति का सामना करना पड़ा। समुद्र मंथन का प्रयोजन पूरा करने के लिए कच्छप का रूप करना ही उपयुक्त था। हिरण्यकश्यपु को वरदान था कि वह मनुष्य या पशु में से किसी के द्वारा न मारा जा सकेगा तो आधा पशु और आधा मनुष्य का विचित्र स्वरूप बनाकर नृसिंह आये और अस्त्र-शस्त्र से न मरने के उसके वरदान को निरस्त करने के लिए नाखूनों को हथियार बनाया। आततायियों से जूझने के लिए परशुराम-मर्यादाओं को स्थापित करने के लिए राम-योग का कर्म प्रधान रूप प्रस्तुत करने के लिए कृष्ण और बौद्धिक क्रान्ति के उद्गाता बुद्ध के रूप में अवतरणों की श्रृंखला का पर्यवेक्षण करने से पता चलता है कि अवतरण प्रक्रिया में जड़ पुनरावृत्ति नहीं है। वरन् आवश्यकतानुसार गतिविधियां अपनाने का लचीलापन है। अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना का सन्तुलन लक्ष्य में ही स्थापित है। लीला प्रकरण तो परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहना उचित भी है और आवश्यक भी।
आज की असुरता का स्वरूप पूर्व कालीन घटनाक्रमों से सर्वथा भिन्न है। भूत काल में असुरता सीधे आक्रमण करती रही है और उसे शस्त्र युद्ध से पराजित किया जाता रहा है। अब की बार उसने छद्म नीति अपनाई है और जन-मानस पर अनास्था के रूप में अपना आधिपत्य जमाया है। अनास्था का मोटा अर्थ तो नास्तिकता होता है, पर उसे ईश्वर को न मानने तक सीमित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः नास्तिकता का स्वरूप है आदर्शों और मर्यादाओं की अवज्ञा। नीति-निष्ठा और समाज-निष्ठा का उल्लंघन। मानवी गरिमा की विस्मृति। संक्षेप में इसे उच्चस्तरीय आस्थाओं को ऐसा अभाव कह सकते हैं जिसके कारण आचरण में निकृष्टता की मात्रा बढ़ती ही चली जाती है। आज के संकट का यही स्वरूप है। इसे आस्थाओं का दुर्भिक्ष कह सकते हैं। उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धा की प्रौढ़ता ही अन्तःकरण में सद्भाव-मस्तिष्क में सद्ज्ञान और शरीर में सत्कर्म बनकर उभरती है। यदि आस्थाओं में निकृष्टतावादी तत्व घुस पड़ें तो फिर हर क्षेत्र में विकृतियां ही भर जायगी। आकांक्षाओं का स्तर वैसा होगा जैसा पशुओं और पिशाचों का होता है। विचारणा वैसी उठेगी जैसी कुचक्रियों और अपराधियों में पाई जाती है। कर्म ऐसे बन पड़ेंगे जो पतित और पराजितों से बन पड़ते हैं। आज की समस्त समस्याओं का स्वरूप समझना है, गहराई में उतर कर एक ही तथ्य सामने आता है—आस्थाओं का संकट। सड़ी कीचड़ों से जिस प्रकार चित्र-विचित्र कृमि-कीटक उत्पन्न होते हैं—उसी प्रकार व्यक्ति और समाज के सामने इसी कारण अगणित समस्याएं और विपत्तियां आतीं और आंख-मिचौनी खेलती हैं।
आस्थाओं के क्षेत्र का युद्ध उसी क्षेत्र में लड़ा जायगा। वायुयानों की लड़ाई आकाश में—पनडुब्बियों की लड़ाई समुद्र में लड़ी जाती है। थल की लड़ाई में पैदलों और वाहनों का उपयोग होता है। आस्थाओं के क्षेत्र में घुसी असुरता से जूझने के लिये युग अवतार को भी तद्नुसार योजना बनानी और कार्य-पद्धति अपनानी पड़ रही है, युग शक्ति गायत्री का कार्य क्षेत्र आस्थाओं का परिशोधन है। इसी की जन-मानस का परिष्कार कहा गया है। विचार क्रान्ति की लाल मशाल में इसी तत्व-दर्शन की झांकी होती है। ज्ञान-यज्ञ का स्वरूप भी यही है। युगान्तरीय चेतना का अवतरण इन दिनों इन्हीं आधारों के सहारे होता है। समस्त भूमण्डल में बसे हुए मानव समाज के अन्तराल में अनास्था के असुर का साम्राज्य छाया दीखता है। शासक का स्वरूप क्षेत्रों की परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का होने पर भी आस्था संकट का कुहासा सर्वत्र छाया हुआ है। उसकी सघनता में जहां-तहां न्यूनाधिकता भले ही रह रही है। अतएव परिष्कार का क्षेत्र भी अति व्यापक है। यह धर्म युद्ध—सचमुच ही धर्म क्षेत्र में—अन्तःकरण में गहराई में उतर कर लड़ा जाना है। इसी के सरंजाम सर्वत्र खड़े होते दिखाई पड़ रहे हैं, अवतरण चेतना इसी के सांचे और ढांचे खड़े करने में लगी हुई है। शिल्पी इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रयोजन पूरे करने में इन दिनों जुटे हुए देखे जा सकते हैं। जागृत आत्माओं की गतिविधियां इसी एक दिशा में चलती दीख पड़ती हैं। गायत्री महाशक्ति का उपयोग सामान्य समय में उपासना, आराधना द्वारा आत्म-कल्याण का प्रयोजन पूरा करने—प्रसुप्त शक्तियों को जगा कर बढ़े हुए आत्म-बल का लाभ ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में लेने—जैसा रहता है। किन्तु युग क्रान्ति में स्वभावतः उसका कार्य क्षेत्र बढ़ेगा। अभीष्ट प्रखरता और प्रचण्डता उत्पन्न करने वाले विशिष्ट क्रिया-कलापों का निर्धारण होगा। वैसा ही इन दिनों हो भी रहा है।
इस सन्दर्भ में गायत्री तत्व-ज्ञान की जानकारी जन-जन को कराया जाना प्रथम चरण है। इसी आधार पर उसकी आवश्यकता, उपयोगिता, क्षमता एवं गरिमा को समझ सकना सम्भव होगा। उपासना के रूप में उसे ठीक तरह अपनाये जाने की बात तो इसके बाद ही बनती है। समुचित जानकारी के अभाव में थोपी गई उपासना में न तो आस्था उत्पन्न होगी और न उसे तन्मयता, तत्परता के साथ अपनाया ही जा सकेगा। जादुई लाभ बताकर तो कुछ समय के लिए किसी को ललचाया भर जा सकता है, पर हथेली पर सरसों न जमने से उस बल-उत्साह को पानी के बबूले की तरह फूटने में भी देर नहीं लगेगी। स्थायित्व तो तथ्य को ठीक तरह समझने के बाद ही आ सकता है। युग शक्ति गायत्री का तत्व-ज्ञान जन-जन को समझाया जाना चाहिए और हर किसी की समझ में यह आना चाहिए कि समस्त समस्याओं का अत्यान्तिक हल वही है जो गायत्री मन्त्र के बीजाक्षरों से कूट-कूट कर भरा हुआ है।
इस प्रचारात्मक प्रथम चरण की पूर्ति इन दिनों लेखनी और वाणी के माध्यम से हो रही है। उसकी गतिशीलता निरन्तर बढ़ती जा रही है। उस आलोक से व्यापक क्षेत्र को प्रकाशित होने का अवसर मिल रहा है। नगण्य से व्यक्ति इस सन्दर्भ में कितनी बड़ी सफलताएं प्राप्त कर रहे हैं, उसे देखकर ग्वाल-बालों का गोवर्धन उठाना और रीछ-वानरों का समुद्र पुल बांधना स्मरण हो आता है। ऐसी चमत्कारी सफलताओं में निश्चित रूप से दैवी इच्छा और सहायता का ही परोक्ष योगदान काम करता रहा है। गायत्री उपासना में सामूहिकता का समावेश अपने युग की नवीनता और विशेषता है। सामान्य काल में उसे नित्य नियम के रूप में अथवा विशेष योगाभ्यास के रूप में उसे अपनाया जाता है। यह व्यक्तिगत प्रयोग हुआ। इन दिनों उसमें सामूहिकता का नया प्रयास जुड़ गया है। गायत्री परिवार की संगठन और उसके तत्वावधान—मार्ग दर्शन में चल रही एक रूपता ही नहीं एकात्मता भी जुट रही है। बिखरे हुए मणि-माणिक एक धागे में पिरो कर बहुमूल्य हार बनने जैसा ही यह प्रयोजन है। संघ शक्ति का सामूहिक प्रयासों का महत्व जिन्हें विदित है वे जानते हैं कि इस स्तर के प्रयत्न कितने बहुमूल्य सत्परिणाम प्रस्तुत करते हैं। देवताओं की संयुक्त शक्ति से दुर्गावतरण की—ऋषि रक्त के संचय सी सीता जन्मने की—समुद्र मंथन की कथाएं जिन्हें विदित हैं वे जानते हैं कि सदुद्देश्य के लिए मिल जुलकर किये गये काम कितने प्रभावी होते हैं। यों दुष्ट प्रयोजनों में भी ‘गिरोह’ बहुत हद तक—बहुत दिनों तक सफल होते रहते हैं।
गायत्री परिवार द्वारा गायत्री तत्व ज्ञान का शिक्षण और उपासना क्रम का अवधारण कराने के लिए व्यक्तिगत क्षेत्र में भी भारी काम किया है और सफलता पाई है। पर उसका उल्लेखनीय प्रयास इस सन्दर्भ की सामूहिक गतिविधियों के रूप में ही किया जा सकता है। साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष में एक लाख नैष्ठिक साधकों ने एक वर्ष की संकल्पित साधना में 2400 करोड़ गायत्री जप सम्पन्न किये। उसके अनेकों ज्ञात और अविज्ञात सत्परिणाम सामने आये। इनमें से बंगला देश की विजय और आपत्तिकालीन स्थिति का अन्त जैसी कई घटनाओं का नाम प्रायः लिया जाता है। गायत्री यज्ञों के आयोजन जहां भी होते हैं वहां पहले सामूहिक गायत्री पुरश्चरणों के संकल्प लेने और निर्धारित संख्या पूरी करने की व्यवस्था की जाती है। आहुतियां इसके बाद पड़ती हैं। सामूहिक जपों की सुनियन्त्रित प्रक्रिया उस परिवार के समस्त सदस्य प्रायः एक रूपता के अनुसार ही चलाते हैं। मथुरा के शत कुण्डी—सहस्र कुण्डी यज्ञों के अवसर पर भी ऐसे ही करोड़ों की संख्या में सामूहिक जप सम्पन्न होते रहे हैं। इस प्रक्रिया के आधार पर प्रत्येक उपासक को सामूहिकता का वैसा ही लाभ मिलता है जैसा कि सेना का हर सदस्य गौरवान्वित होता है। सिपाही अलग-अलग छितराते रहें तो उनकी क्षमता नगण्य ही बनी रहेगी। सामूहिक जप अनुष्ठानों का प्रभाव जन-मानस को परिष्कृत करने के लिए सूक्ष्म रूप में अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होता है और उससे समग्र वातावरण को विश्व शान्ति के अनुकूल बनाने में भी भारी सहायता मिलती है।
युग शक्ति गायत्री का व्यक्ति निर्माण की दृष्टि से चल रहे प्रयत्न की अपनी महत्ता है। उसमें सामूहिकता का समावेश हो जाने से सूक्ष्म जगत में ऐसी परिस्थितियां बनती हैं जिससे व्यक्ति और समाज के समान रूप से लाभान्वित होने का अवसर मिले। अवतरण प्रक्रिया का तीसरा चरण है—परिवार क्षेत्र में प्रवेश और परिष्कार। इस दिशा में इन दिनों विशिष्ट प्रयत्न चल रहे हैं और उन्हें क्रमबद्ध सुनियोजित किया जा रहा है। गायत्री परिवार के सदस्यों के घरों में यह प्रयास इन्हीं दिनों आरम्भ किया गया है कि उनके यहां पूजा कक्ष की विधिवत् प्रतिष्ठापना रहे और परिवार का प्रत्येक सदस्य कम से कम पांच मिनट नमन वंदन की अभ्यर्थना का नियम निवाहें, काम पर लगने—भोजन करने से पूर्व यह न्यूनतम अभिवन्दन कृत्य कर लेने के लिए छोटे-बड़े सभी को समझाया-मनाया जाय। इतना बन पड़ने के उपरान्त घरों में सामूहिक आरती, प्रार्थना, सहगान का प्रातः सायं या एक बार का क्रम चलाया जाय। रात्रि को कथा, कहानियों के कहने सुनने की नियमित व्यवस्था बनाई जाय।
परिवार में आस्थाओं के आरोपण और अभिवर्धन का यह प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करने वाला अभिनव प्रयास है। परिवारों में भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन, सज्जा, आतिथ्य, उत्सव आदि की आवश्यकताओं को पूरा करने का तो ध्यान रहता है, पर यह भुला दिया जाता है कि इस समुदाय में आस्थाओं की उत्कृष्टता भी आवश्यक है। घरों में गायत्री माता की प्रतीक स्थापना-अभ्यर्थना के क्रिया-कृत्यों के उपरोक्त प्रक्रिया इस आवश्यकता को पूरा करती है। इन कृत्यों की दार्शनिक विवेचना करने के नाम पर आध्यात्मिकता के वे समस्त सिद्धान्त भली प्रकार समझाये जा सकते हैं जो गायत्री अभियान में सन्निहित हैं। इस प्रकार परिवार का आस्था परक निर्माण इन उपक्रमों के साथ-साथ चलते रहने से ज्ञान और कर्म के समन्वय की विधा बन जाती है और उसके दूरगामी परिणाम उत्पन्न होते हैं।
इसी सन्दर्भ का एक और उपचार है कि चौके से भोजन परोसना आरम्भ करने से पूर्व बने हुए आहार की पांच आहुति चूल्हे की अग्नि पर हवन कर दी जायं। गायत्री मन्त्र के साथ दी हुई इन आहुतियों में दो मिनट का समय और एक छदाम का सामान खर्च होता है। भौतिक दृष्टि से उसका कुछ भी मूल्य नहीं, पर तत्व दर्शन और प्रेरणा की दृष्टि से यह भी समझने और समझाने की दृष्टि से बहुत बड़ा आधार है। यज्ञ, भाव जगत का उच्चस्तरीय विज्ञान है। उसमें जीवन को यज्ञमय बनाने और समाज में यज्ञीय परम्पराएं अपनाये जाने की प्रेरणा है। इस उपक्रम को दैनिक जीवन में स्थान मिलता रहे, उसे आहार से भी अधिक प्राथमिकता मिलती रहे, यह प्रशिक्षण समय-समय पर पूरे परिवार को दिया जाता रहे उस प्रचलन का प्रतीक इस दैनिक यज्ञ को माना जाता रहे। भारतीय संस्कृति में दैनिक नित्य नियम से संध्या-वन्दन की तरह ही पांच यज्ञों का विधान है। इनमें पांच पारिवारिक कर्तव्यों के परिपालन का उद्बोधन है। उस प्राचीन नित्य कर्म का संक्षिप्त यह हो सकता है कि चूल्हे की अग्नि पर पांच छोटे-छोटे अन्न ग्रासों का हवन किया जाता रहे। हर व्यक्ति यज्ञ भगवान का भोगप्रसाद-यज्ञावशिष्ट ग्रहण करे और उस धर्म भावना को हृदयंगम करे जिसमें यज्ञ से बचा हुआ ही खाने का—सत्प्रयोजन को उपयोग से भी पहले प्राथमिकता देने का—प्रतिपादन किया गया है। गायत्री संस्कृति की जननी और यज्ञ को धर्म पिता कहा गया है। दोनों का प्रतीक पूजन हर घर में चलते रहना चाहिए, इससे युग शक्ति गायत्री का कार्य क्षेत्र हर परिवार में विस्तृत होता है और परिवार संस्था में आदर्शवादिता के तत्व-दर्शन की जड़ जमाने का अवसर मिलता है।
परिवार निर्माण में आस्थाओं का आरोपण अति महत्वपूर्ण अंश माना जाना चाहिए। इसके लिए परिवार के हर सदस्य का जन्म-दिवस मनाये जाने की परम्परा चलाई जा रही है। उस अवसर पर हर्षोत्सव रूप में छोटा-सा गायत्री यज्ञ तो अनिवार्य रूप से होता है। साथ ही मनुष्य जीवन का गौरव, उत्तरदायित्व, लक्ष्य और सदुपयोग समझाने के लिए प्रवचन परामर्श रूप से वह सब कुछ कहा जा सकता है जो उत्कृष्टता का जीवन-क्रम में समावेश कराने के लिए कहा जाना आवश्यक है। यह आयोजन पारिवारिक भी है और वैयक्तिक भी। इसलिए उसमें व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण के सभी आधार सम्मिलित समझे जा सकते हैं। जिसका जन्म-दिन मनता है उसे न्यूनतम एक सद्गुण बढ़ाने और एक दुर्गुण घटाने की भी प्रतिज्ञा करनी पड़ती है। इसमें धर्म की स्थापना और अधर्म के उन्मूलन वाला अवतरण उद्देश्य झांकता देखा जा सकता है। षोडश संस्कार और पर्व त्यौहार मनाने की प्रक्रिया को भी यदि गायत्री अभियान से जोड़ लिया जाय तो उसमें व्यक्ति और परिवार को समुन्नत सुसंस्कृत बनाने के समस्त सूत्र बीज रूप में विद्यमान देखे जा सकते हैं। उन्हें विकसित किया जा सके तो कल्पवृक्ष जैसे सज्जनों से हर परिवार भरा-पूरा दीखेगा और वह उद्यान स्वर्ग लोक के चन्दन वन की तुलना करेगा।
युग शक्ति गायत्री का व्यापक विस्तार गायत्री यज्ञों के माध्यम से होता है। उसमें विज्ञान सम्मत और भाव-संगत ऐसे तथ्य भरे पड़े हैं जो जन-समाज की भौतिक और आत्मिक प्रगति में असाधारण रूप से सहायक होते हैं। गायत्री उत्कृष्ट चिन्तन की अधिष्ठात्री है और यज्ञ आदर्श कर्तृत्व का अधिष्ठता। दोनों के समन्वय से ऐसा वातावरण बनता है जो व्यक्ति और समाज दोनों के ही लिए परम श्रेयस्कर सिद्ध हो सके। गायत्री परिवार द्वारा युग शक्ति गायत्री के अवतरण का आलोक व्यापक बनाने के लिए इन दिनों इन्हीं उपायों का अवलम्बन लिया गया है। निकट भविष्य में और भी महत्वपूर्ण उपचार हाथ में लिये जायेंगे। गायत्री विद्या का उच्चस्तरीय शिक्षण, प्रयोग और अन्वेषण करने के लिए ‘ब्रह्म वर्चस्’ आरण्यक की प्रयोगशाला ऐसे आधार खड़े कर रही है जिससे युग अवतरण के लिए अभीष्ट शक्ति प्रचुर परिमाण में जुटाई जा सके।