Books - युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
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Language: HINDI
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गायत्री ही गुरु मन्त्र है
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गुरु मन्त्र का सम्मान भारतीय धर्म में मात्र गायत्री को ही मिलता है।
गुरु तत्व के द्वारा मिलने वाली श्रद्धा और प्रेरणा का—भाव सम्वेदना एवं अनुशासन की उत्कृष्टता का—जो प्रकाश मिलता है वह बीज रूप से गायत्री मन्त्र में विद्यमान है। इसकी शब्द श्रृंखला में 24 अक्षरों के मणिमुक्तक गुथे हुए हैं। उनमें से प्रत्येक में अपने-अपने ढंग का शक्ति तत्व वर्चस् भरा पड़ा है। साधना द्वारा इस पक्ष को विकसित करने वाला सर्व समर्थ बन सकता है। इन्हीं अक्षरों में वह आलोक भी विद्यमान है जिसका अनुगमन करते हुए जीवन रथ आत्मिक प्रगति के मार्ग पर सुनिश्चित गति से चलता रह सकता है। महामानव, ऋषिकल्प, देव वर्ग की त्रिविधि कक्षाओं को उत्तीर्ण करता हुआ पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंच सकता है।
गायत्री में प्रज्ञा और प्रखरता के दोनों तत्व भरे होने से उसे ‘ब्रह्म वर्चस्’ कहा गया है। ब्रह्म वर्चस् की सृजनात्मक शक्ति को ब्रह्म विद्या कहते हैं और ध्वंसात्मक शक्ति को ब्रह्मास्त्र। परशुराम का फरसा, राम का धनुष, कृष्ण का चक्र, शिव का त्रिशूल, दुर्गा का खड्ग—प्रकारान्तर से ब्रह्मास्त्र ही हैं। ऋषियों की शाप शक्ति यही है। दधीचि की अस्थियों से बना ब्रह्म वज्र तत्कालीन वृत्तासुरी सत्ता का ध्वंस करने में अमोघ सिद्ध हुआ था। उसी के सहारे देव संकट टला और असुरता का साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो सका।
ऋषि रक्त का संचय घड़े में भरने के रूप में किया गया, नियोजन ब्रह्मास्त्र का ही उपक्रम था। सीता उसी से जन्मी और रावण परिकर के विनाश की भूमिका-प्रस्तुत करने में समर्थ सिद्ध हुई। अनुसूइया के अभिशाप से ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र अपनी क्षमता को गंवा बैठे और बालकों जैसा आचरण करने लग गये थे। चाणक्य के शाप से नंद वंश का जिस तरह विध्वंस हुआ वह सर्वविदित है। गौतम ऋषि के शाप से साठ हजार सगर सुतों की दुर्गति होना प्रसिद्ध है। मेघदूत के नायक यक्ष को शाप से प्रताड़ित होकर कितनी विरह-वेदना सहनी पड़ी, इसकी एक झांकी उस महाकाव्य के पढ़ने वाले को सहज ही मिल जाती है। पुराण, साहित्य के पन्ने-पन्ने पर भरी पड़ी ऐसी असंख्यों घटनाएं बताती हैं कि ब्रह्म वर्चस् का प्रहार कितना शक्तिशाली होता है। यह आत्म-शक्ति के ध्वंसात्मक पक्ष का परिचय है। यों इसका प्रयोग आपत्तिकालीन समस्याओं को हल करने के लिए यदा-कदा ही करना पड़ता है फिर भी उसकी क्षमता तो स्वीकार ही करनी होगी।
ब्रह्म विद्या की सृजनात्मक शक्ति का परिचय तो पग-पग पर मिलता है। जीवन के प्रत्यक्ष पक्ष को सुखी समुन्नत बनाने में उसका असाधारण योगदान है। धन के आधार पर मिलने वाली सुविधाएं सर्वविदित हैं। उस माध्यम से उन्नति करने वालों के उदाहरण अपने आस-पास ही असंख्यों देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार बुद्धि बल से, शरीर बल से, कुशलता, प्रतिभा और साहसिकता जैसे गुणों से—उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुंचने वालों के उदाहरण भी पढ़ने पर सर्वत्र, मिल जाते हैं। आत्मबल का चमत्कार इन भौतिक सामर्थ्यों की तुलना में असंख्य गुना बढ़ा-चढ़ा है। उससे व्यक्ति की आत्म-सत्ता का निखार होता है और बढ़ी हुई आन्तरिक प्रखरता संसार की सर्वोच्च सामर्थ्य सिद्ध होती है। इतिहास को धन्य बनाने वाले—समय के प्रवाह को मोड़ने वाले महामानव, परिस्थितियों की दृष्टि से विपन्न रहते हुए भी आन्तरिक प्रखरता के सहारे ही अपनी विशिष्टता सिद्ध कर सके और समय की समस्याओं का समाधान करने में महान् योगदान दे सके। इसे आत्म-शक्ति का सृजनात्मक पक्ष कह सकते हैं। ब्रह्म विद्या के तत्व-दर्शन में इसी का प्रावधान है।
गायत्री महामन्त्र की इन उभय-पक्षीय क्षमताओं से सुसम्पन्न साधक की तुलना राजहंस से की गई है। उसके उपरोक्त दोनों पक्ष—दोनों पंखों की तरह खुलते हैं और उस पर गायत्री महा शक्ति आरूढ़ होती तथा समस्त ब्रह्माण्ड में विचरण करती है। साधक की सहायता के लिए जा पहुंचाने में यह राजहंस ही प्रमुख माध्यम होता है। इस अलंकारिक प्रतीक प्रतिपादन में इसी तथ्य का निरूपण किया गया है कि गायत्री महाशक्ति के दो ही उपयोग हैं—कल्याणकारी श्रेय साधन में और दुःखदायी विघ्न विदारण में उसकी सामर्थ्य अपने अद्भुत प्रभाव का परिचय देती है।
गायत्री को गुरु मन्त्र क्यों कहा गया इसकी संगति उपरोक्त विवेचन से ठीक बैठ जाती है। ‘गु’ का अर्थ है ज्ञान वर्धन। ‘रु’ का अर्थ है अशुभ निवारण। दोनों कार्य जो सत्ता सम्पन्न कर सकती है उसे ‘गुरु’ कहते हैं। व्यक्ति उसके प्रतीक हो सकते हैं, पर वस्तुतः यह ईश्वरीय शक्ति है और हर अन्तरात्मा के अन्तराल में विद्यमान रहकर ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधित्व करती रहती है। गायत्री मन्त्र में इसका प्रत्यक्ष परिचय मिलता है। दीक्षा गुरु शिष्य के लिए दो कार्य करते हैं। श्रद्धा सम्वर्धन और उपयोगी अनुशासन नियन्त्रण। आत्मिक प्रगति के यही दो मूल भूत आधार हैं, जिनके सहारे व्यक्ति क्रमशः ऊंचा, अधिक ऊंचा, असीम ऊंचा उठता चला जाता है। श्रद्धा का तात्पर्य है—अन्तरात्मा की सृजन शक्ति। अनुशासन का अभिप्राय है काट-छांट, तपाना, सुधारना, ढालना और परिवर्तित परिष्कृत करना। यह दोनों प्रयोजन गायत्री में सन्निहित प्रेरणा और समर्थता के सहारे सम्पन्न होते हैं। गुरु मन्त्र का उच्चस्तरीय सम्मान गायत्री को क्यों मिला? इसका समाधान इस तथ्य को समझने पर हो जाता है कि उसमें ज्ञान और विज्ञान की—अभिवर्धन और नियन्त्रण की दोनों ही शक्तियां प्रचुर परिमाण में भरी पड़ी हैं। गुरु से जो आशा अपेक्षा की जाती है उसका आधार गायत्री मन्त्र में मौजूद होने से उसे परोक्ष गुरु तत्व का उद्गम स्रोत माल लिया गया है।
धार्मिक क्रिया-कृत्यों में संध्या-वन्दन नित्य कर्म है। उसमें अर्थ परम्परा के अनुसार गायत्री का उपयोग अनिवार्य है। विद्यारम्भ के समय उपनयन होता है। उस समय शिक्षण का शुभारम्भ गायत्री मन्त्र की दीक्षा के साथ होता है और गुरु मन्त्र के रूप में समस्त शास्त्र परम्पराओं के अनुसार छात्र को गायत्री मन्त्र ही दिया जाता है। यज्ञोपवीत गायत्री की प्रतीक प्रतिमा है जिसे हर घड़ी शरीर के महत्वपूर्ण अंगों पर धारण किये रहने का व्रत धारण करना होता है। यही व्रत बंध है। कन्धे पर उत्तरदायित्व, हृदय में श्रद्धा, कलेजे में साहस, पीठ पर कर्म-निष्ठा का समावेश माना गया है। इन सभी महत्वपूर्ण अंगों पर यज्ञोपवीत लपेट देने का तात्पर्य है—मानवी परिकर को पूरी तरह गायत्री मन्त्र में सन्निहित उत्कृष्टता से—भाव-प्रेरणा से लपेट देना-जकड़ देना। गायत्री की प्रतीक प्रतिमा को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करना प्रकारान्तर से जीवन सत्ता को इसी महाशक्ति के आलोक से भर लेना है। विद्यारंभ संस्कार इन्हीं आस्थाओं की प्रतिष्ठापना छात्र के अन्तराल में करने की दृष्टि से होता है। शुभारम्भ में गायत्री मन्त्र की ही प्रत्यक्ष और परोक्ष अवधारणा है। गुरु मन्त्र गायत्री को क्यों कहा गया इसका आभास इस विवेचन तक पहुंचने वाले को सहज ही लग जाता है। कथा है कि महर्षि दत्तात्रेय अपनी ज्ञान पिपासा जब कहीं तृप्त न कर सके तो सीधे प्रजापति के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने उनकी आकांक्षा जानी और बताया कि सद्गुरु के अतिरिक्त ज्ञान पिपासा को तृप्त करने की सामर्थ्य और किसी में नहीं है। यह सद्गुरु अन्तःकरण की गहराई में विद्यमान है और वहां तक पहुंच कर की उसका अनुग्रह पाया जा सकता है। दत्तात्रेय ने प्रजापति का परामर्श शिरोधार्य किया और अपने अन्तराल का गुरुतत्व खोज निकाला। उस गुरु कृपा से सुसम्पन्न होकर उनने जिस भी पदार्थ या प्राणी पर दृष्टि डाली उसी में से सद्ज्ञान का स्रोत उमड़ने लगा, निर्झर बहने लगा।
कथा में ऐसी 24 घटनाओं का वर्णन किया गया है जो थीं तो सामान्य पर उन्हीं से महर्षि को आत्मबोध के समस्त रहस्य उपलब्ध हो गये। इन रहस्यों का उल्लेख महर्षि दत्तात्रेय प्रणीत ‘गुरु गीता’ में हुआ है। जिन पदार्थों और प्राणियों से महर्षि ने प्रकाश प्राप्त किया उन्हें गुरु माना और दत्तात्रेय के 24 गुरु प्रख्यात हुए। पुराणकारों ने उन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। गुरुओं की संख्या 24 ही क्यों? इससे न्यूनाधिक क्यों नहीं? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है—गायत्री के चौबीस अक्षर ही वे तथ्य हैं, जिन्हें अध्यात्म जगत में ‘गुरु’ एवं सद्गुरु की संज्ञा दी गई है। गुरु माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि—‘निगुरा की गति नहीं होती।’ अर्थात् गुरु विहीन को आत्मिक प्रगति में सफलता नहीं मिलती। इस शास्त्र वचन में जिस गुरु तत्व की महानता का प्रतिपादन है उसे गुरु मन्त्र गायत्री में ही सन्निहित समझा जा सकता है।
इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए दैनिक संध्या वन्दन में गायत्री को अनिवार्य रूप से जुड़ा रखा गया है। संध्या नित्य कर्म है। संध्या प्रकारान्तर से गायत्री का ही विस्तृत और व्यवस्थित कर्मकाण्ड है। इसे दैनिक-गुरु पूजा या गुरु भक्ति भी कह सकते हैं। गायत्री मन्त्र की दीक्षा गुरु मुख से लेने का अभियान यह है कि प्रतीक के माध्यम से तथ्य को हृदयंगम किया जाय। शरीर धारी गुरु की सहायता से अन्तरंग में ब्रह्म सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले सद्गुरु तक पहुंचा जाय।
उपासना प्रयोजन में अनेक मन्त्रों का उपयोग होता है। अनेक देवताओं की अभ्यर्थना के लिए किये जाने वाले विधि-विधानों में तद्नुरूप मन्त्रों के उपयोग की परम्परा है। इन्हें साधना मन्त्र—देव मन्त्र—सम्प्रदाय मन्त्र आदि की संज्ञा दी जा सकती है। पर गुरु मन्त्र भारतीय धर्म में एक ही है—गायत्री। उस सर्वोच्च पद पर आसीन होने की अधिकारी मात्र वेदमाता को ही ऋषि मान्यता मिली है। इसी में शास्त्र परम्परा का समर्थन है। मुसलमान धर्म में एक ही ‘कलमा’ मन्त्र की प्रमुखता है। ईसाई धर्म में ‘बपतिस्मा’ मन्त्र की ही प्रधानता है। भारतीय धर्म में गुरु मन्त्र के ज्ञान से मात्र गायत्री मन्त्र को ही मान्यता दी गई है। यह अकारण नहीं। इस महा मन्त्र की साधनात्मक और शिक्षात्मक विशेषताओं को—ज्ञान-विज्ञान की दिव्य धाराओं को—ध्यान में रखते हुए ही अनादि काल से गुरु मन्त्र के रूप में मान्यता दी गई है।
गायत्री मन्त्र तात्विक और दार्शनिक दृष्टि से अपने आप में पूर्ण है। उसमें ज्ञान और विज्ञान की समस्त दिव्य धाराओं से साधक को लाभान्वित करने की सामर्थ्य मौजूद है। महत्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान के तथ्यों को छात्र ठीक तरह समझ सके और लाभान्वित हो सके इसके लिए अध्यापक का सहयोग आवश्यक माना जाता है। ठीक इसी प्रकार गायत्री मन्त्र का उपयोग व्यक्ति विशेष को किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार करना चाहिए, इसकी सही जानकारी प्राप्त करने के लिए दीक्षा गुरु की आवश्यकता पड़ती है। इसी से गायत्री साधना की सफलता के लिए अपने विषय के निष्णात एवं अनुभवी गुरु की आवश्यकता बताई गई है। सही चिकित्सक की तरह सही शिक्षक भी सुनिश्चित सफलता के लिए आवश्यक है। इसी दृष्टि से आत्मिक प्रगति के पथ पर चलने वाले-गायत्री उपासकों के लिए उपयुक्त गुरु का मार्ग दर्शन एवं सहयोग आवश्यक माना गया है।
गुरु तत्व के द्वारा मिलने वाली श्रद्धा और प्रेरणा का—भाव सम्वेदना एवं अनुशासन की उत्कृष्टता का—जो प्रकाश मिलता है वह बीज रूप से गायत्री मन्त्र में विद्यमान है। इसकी शब्द श्रृंखला में 24 अक्षरों के मणिमुक्तक गुथे हुए हैं। उनमें से प्रत्येक में अपने-अपने ढंग का शक्ति तत्व वर्चस् भरा पड़ा है। साधना द्वारा इस पक्ष को विकसित करने वाला सर्व समर्थ बन सकता है। इन्हीं अक्षरों में वह आलोक भी विद्यमान है जिसका अनुगमन करते हुए जीवन रथ आत्मिक प्रगति के मार्ग पर सुनिश्चित गति से चलता रह सकता है। महामानव, ऋषिकल्प, देव वर्ग की त्रिविधि कक्षाओं को उत्तीर्ण करता हुआ पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंच सकता है।
गायत्री में प्रज्ञा और प्रखरता के दोनों तत्व भरे होने से उसे ‘ब्रह्म वर्चस्’ कहा गया है। ब्रह्म वर्चस् की सृजनात्मक शक्ति को ब्रह्म विद्या कहते हैं और ध्वंसात्मक शक्ति को ब्रह्मास्त्र। परशुराम का फरसा, राम का धनुष, कृष्ण का चक्र, शिव का त्रिशूल, दुर्गा का खड्ग—प्रकारान्तर से ब्रह्मास्त्र ही हैं। ऋषियों की शाप शक्ति यही है। दधीचि की अस्थियों से बना ब्रह्म वज्र तत्कालीन वृत्तासुरी सत्ता का ध्वंस करने में अमोघ सिद्ध हुआ था। उसी के सहारे देव संकट टला और असुरता का साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो सका।
ऋषि रक्त का संचय घड़े में भरने के रूप में किया गया, नियोजन ब्रह्मास्त्र का ही उपक्रम था। सीता उसी से जन्मी और रावण परिकर के विनाश की भूमिका-प्रस्तुत करने में समर्थ सिद्ध हुई। अनुसूइया के अभिशाप से ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र अपनी क्षमता को गंवा बैठे और बालकों जैसा आचरण करने लग गये थे। चाणक्य के शाप से नंद वंश का जिस तरह विध्वंस हुआ वह सर्वविदित है। गौतम ऋषि के शाप से साठ हजार सगर सुतों की दुर्गति होना प्रसिद्ध है। मेघदूत के नायक यक्ष को शाप से प्रताड़ित होकर कितनी विरह-वेदना सहनी पड़ी, इसकी एक झांकी उस महाकाव्य के पढ़ने वाले को सहज ही मिल जाती है। पुराण, साहित्य के पन्ने-पन्ने पर भरी पड़ी ऐसी असंख्यों घटनाएं बताती हैं कि ब्रह्म वर्चस् का प्रहार कितना शक्तिशाली होता है। यह आत्म-शक्ति के ध्वंसात्मक पक्ष का परिचय है। यों इसका प्रयोग आपत्तिकालीन समस्याओं को हल करने के लिए यदा-कदा ही करना पड़ता है फिर भी उसकी क्षमता तो स्वीकार ही करनी होगी।
ब्रह्म विद्या की सृजनात्मक शक्ति का परिचय तो पग-पग पर मिलता है। जीवन के प्रत्यक्ष पक्ष को सुखी समुन्नत बनाने में उसका असाधारण योगदान है। धन के आधार पर मिलने वाली सुविधाएं सर्वविदित हैं। उस माध्यम से उन्नति करने वालों के उदाहरण अपने आस-पास ही असंख्यों देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार बुद्धि बल से, शरीर बल से, कुशलता, प्रतिभा और साहसिकता जैसे गुणों से—उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुंचने वालों के उदाहरण भी पढ़ने पर सर्वत्र, मिल जाते हैं। आत्मबल का चमत्कार इन भौतिक सामर्थ्यों की तुलना में असंख्य गुना बढ़ा-चढ़ा है। उससे व्यक्ति की आत्म-सत्ता का निखार होता है और बढ़ी हुई आन्तरिक प्रखरता संसार की सर्वोच्च सामर्थ्य सिद्ध होती है। इतिहास को धन्य बनाने वाले—समय के प्रवाह को मोड़ने वाले महामानव, परिस्थितियों की दृष्टि से विपन्न रहते हुए भी आन्तरिक प्रखरता के सहारे ही अपनी विशिष्टता सिद्ध कर सके और समय की समस्याओं का समाधान करने में महान् योगदान दे सके। इसे आत्म-शक्ति का सृजनात्मक पक्ष कह सकते हैं। ब्रह्म विद्या के तत्व-दर्शन में इसी का प्रावधान है।
गायत्री महामन्त्र की इन उभय-पक्षीय क्षमताओं से सुसम्पन्न साधक की तुलना राजहंस से की गई है। उसके उपरोक्त दोनों पक्ष—दोनों पंखों की तरह खुलते हैं और उस पर गायत्री महा शक्ति आरूढ़ होती तथा समस्त ब्रह्माण्ड में विचरण करती है। साधक की सहायता के लिए जा पहुंचाने में यह राजहंस ही प्रमुख माध्यम होता है। इस अलंकारिक प्रतीक प्रतिपादन में इसी तथ्य का निरूपण किया गया है कि गायत्री महाशक्ति के दो ही उपयोग हैं—कल्याणकारी श्रेय साधन में और दुःखदायी विघ्न विदारण में उसकी सामर्थ्य अपने अद्भुत प्रभाव का परिचय देती है।
गायत्री को गुरु मन्त्र क्यों कहा गया इसकी संगति उपरोक्त विवेचन से ठीक बैठ जाती है। ‘गु’ का अर्थ है ज्ञान वर्धन। ‘रु’ का अर्थ है अशुभ निवारण। दोनों कार्य जो सत्ता सम्पन्न कर सकती है उसे ‘गुरु’ कहते हैं। व्यक्ति उसके प्रतीक हो सकते हैं, पर वस्तुतः यह ईश्वरीय शक्ति है और हर अन्तरात्मा के अन्तराल में विद्यमान रहकर ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधित्व करती रहती है। गायत्री मन्त्र में इसका प्रत्यक्ष परिचय मिलता है। दीक्षा गुरु शिष्य के लिए दो कार्य करते हैं। श्रद्धा सम्वर्धन और उपयोगी अनुशासन नियन्त्रण। आत्मिक प्रगति के यही दो मूल भूत आधार हैं, जिनके सहारे व्यक्ति क्रमशः ऊंचा, अधिक ऊंचा, असीम ऊंचा उठता चला जाता है। श्रद्धा का तात्पर्य है—अन्तरात्मा की सृजन शक्ति। अनुशासन का अभिप्राय है काट-छांट, तपाना, सुधारना, ढालना और परिवर्तित परिष्कृत करना। यह दोनों प्रयोजन गायत्री में सन्निहित प्रेरणा और समर्थता के सहारे सम्पन्न होते हैं। गुरु मन्त्र का उच्चस्तरीय सम्मान गायत्री को क्यों मिला? इसका समाधान इस तथ्य को समझने पर हो जाता है कि उसमें ज्ञान और विज्ञान की—अभिवर्धन और नियन्त्रण की दोनों ही शक्तियां प्रचुर परिमाण में भरी पड़ी हैं। गुरु से जो आशा अपेक्षा की जाती है उसका आधार गायत्री मन्त्र में मौजूद होने से उसे परोक्ष गुरु तत्व का उद्गम स्रोत माल लिया गया है।
धार्मिक क्रिया-कृत्यों में संध्या-वन्दन नित्य कर्म है। उसमें अर्थ परम्परा के अनुसार गायत्री का उपयोग अनिवार्य है। विद्यारम्भ के समय उपनयन होता है। उस समय शिक्षण का शुभारम्भ गायत्री मन्त्र की दीक्षा के साथ होता है और गुरु मन्त्र के रूप में समस्त शास्त्र परम्पराओं के अनुसार छात्र को गायत्री मन्त्र ही दिया जाता है। यज्ञोपवीत गायत्री की प्रतीक प्रतिमा है जिसे हर घड़ी शरीर के महत्वपूर्ण अंगों पर धारण किये रहने का व्रत धारण करना होता है। यही व्रत बंध है। कन्धे पर उत्तरदायित्व, हृदय में श्रद्धा, कलेजे में साहस, पीठ पर कर्म-निष्ठा का समावेश माना गया है। इन सभी महत्वपूर्ण अंगों पर यज्ञोपवीत लपेट देने का तात्पर्य है—मानवी परिकर को पूरी तरह गायत्री मन्त्र में सन्निहित उत्कृष्टता से—भाव-प्रेरणा से लपेट देना-जकड़ देना। गायत्री की प्रतीक प्रतिमा को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करना प्रकारान्तर से जीवन सत्ता को इसी महाशक्ति के आलोक से भर लेना है। विद्यारंभ संस्कार इन्हीं आस्थाओं की प्रतिष्ठापना छात्र के अन्तराल में करने की दृष्टि से होता है। शुभारम्भ में गायत्री मन्त्र की ही प्रत्यक्ष और परोक्ष अवधारणा है। गुरु मन्त्र गायत्री को क्यों कहा गया इसका आभास इस विवेचन तक पहुंचने वाले को सहज ही लग जाता है। कथा है कि महर्षि दत्तात्रेय अपनी ज्ञान पिपासा जब कहीं तृप्त न कर सके तो सीधे प्रजापति के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने उनकी आकांक्षा जानी और बताया कि सद्गुरु के अतिरिक्त ज्ञान पिपासा को तृप्त करने की सामर्थ्य और किसी में नहीं है। यह सद्गुरु अन्तःकरण की गहराई में विद्यमान है और वहां तक पहुंच कर की उसका अनुग्रह पाया जा सकता है। दत्तात्रेय ने प्रजापति का परामर्श शिरोधार्य किया और अपने अन्तराल का गुरुतत्व खोज निकाला। उस गुरु कृपा से सुसम्पन्न होकर उनने जिस भी पदार्थ या प्राणी पर दृष्टि डाली उसी में से सद्ज्ञान का स्रोत उमड़ने लगा, निर्झर बहने लगा।
कथा में ऐसी 24 घटनाओं का वर्णन किया गया है जो थीं तो सामान्य पर उन्हीं से महर्षि को आत्मबोध के समस्त रहस्य उपलब्ध हो गये। इन रहस्यों का उल्लेख महर्षि दत्तात्रेय प्रणीत ‘गुरु गीता’ में हुआ है। जिन पदार्थों और प्राणियों से महर्षि ने प्रकाश प्राप्त किया उन्हें गुरु माना और दत्तात्रेय के 24 गुरु प्रख्यात हुए। पुराणकारों ने उन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। गुरुओं की संख्या 24 ही क्यों? इससे न्यूनाधिक क्यों नहीं? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है—गायत्री के चौबीस अक्षर ही वे तथ्य हैं, जिन्हें अध्यात्म जगत में ‘गुरु’ एवं सद्गुरु की संज्ञा दी गई है। गुरु माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि—‘निगुरा की गति नहीं होती।’ अर्थात् गुरु विहीन को आत्मिक प्रगति में सफलता नहीं मिलती। इस शास्त्र वचन में जिस गुरु तत्व की महानता का प्रतिपादन है उसे गुरु मन्त्र गायत्री में ही सन्निहित समझा जा सकता है।
इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए दैनिक संध्या वन्दन में गायत्री को अनिवार्य रूप से जुड़ा रखा गया है। संध्या नित्य कर्म है। संध्या प्रकारान्तर से गायत्री का ही विस्तृत और व्यवस्थित कर्मकाण्ड है। इसे दैनिक-गुरु पूजा या गुरु भक्ति भी कह सकते हैं। गायत्री मन्त्र की दीक्षा गुरु मुख से लेने का अभियान यह है कि प्रतीक के माध्यम से तथ्य को हृदयंगम किया जाय। शरीर धारी गुरु की सहायता से अन्तरंग में ब्रह्म सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले सद्गुरु तक पहुंचा जाय।
उपासना प्रयोजन में अनेक मन्त्रों का उपयोग होता है। अनेक देवताओं की अभ्यर्थना के लिए किये जाने वाले विधि-विधानों में तद्नुरूप मन्त्रों के उपयोग की परम्परा है। इन्हें साधना मन्त्र—देव मन्त्र—सम्प्रदाय मन्त्र आदि की संज्ञा दी जा सकती है। पर गुरु मन्त्र भारतीय धर्म में एक ही है—गायत्री। उस सर्वोच्च पद पर आसीन होने की अधिकारी मात्र वेदमाता को ही ऋषि मान्यता मिली है। इसी में शास्त्र परम्परा का समर्थन है। मुसलमान धर्म में एक ही ‘कलमा’ मन्त्र की प्रमुखता है। ईसाई धर्म में ‘बपतिस्मा’ मन्त्र की ही प्रधानता है। भारतीय धर्म में गुरु मन्त्र के ज्ञान से मात्र गायत्री मन्त्र को ही मान्यता दी गई है। यह अकारण नहीं। इस महा मन्त्र की साधनात्मक और शिक्षात्मक विशेषताओं को—ज्ञान-विज्ञान की दिव्य धाराओं को—ध्यान में रखते हुए ही अनादि काल से गुरु मन्त्र के रूप में मान्यता दी गई है।
गायत्री मन्त्र तात्विक और दार्शनिक दृष्टि से अपने आप में पूर्ण है। उसमें ज्ञान और विज्ञान की समस्त दिव्य धाराओं से साधक को लाभान्वित करने की सामर्थ्य मौजूद है। महत्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान के तथ्यों को छात्र ठीक तरह समझ सके और लाभान्वित हो सके इसके लिए अध्यापक का सहयोग आवश्यक माना जाता है। ठीक इसी प्रकार गायत्री मन्त्र का उपयोग व्यक्ति विशेष को किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार करना चाहिए, इसकी सही जानकारी प्राप्त करने के लिए दीक्षा गुरु की आवश्यकता पड़ती है। इसी से गायत्री साधना की सफलता के लिए अपने विषय के निष्णात एवं अनुभवी गुरु की आवश्यकता बताई गई है। सही चिकित्सक की तरह सही शिक्षक भी सुनिश्चित सफलता के लिए आवश्यक है। इसी दृष्टि से आत्मिक प्रगति के पथ पर चलने वाले-गायत्री उपासकों के लिए उपयुक्त गुरु का मार्ग दर्शन एवं सहयोग आवश्यक माना गया है।