Books - युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
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सूक्ष्म वातावरण के अनुकूलन की प्रचण्ड प्रक्रिया
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प्रखर व्यक्तित्वों से वातावरण प्रभावित होता है यह सच है। ओजस्वी, मनस्वी और तपस्वी स्तर की प्रतिभायें अपनी प्रचण्ड ऊर्जा से वातावरण को गरम करती हैं और गर्मी से परिस्थितियों के प्रवाह में असाधारण मोड़ आते और परिवर्तन होते देखे गये हैं। इस तथ्य से भिन्न प्रतीत होने वाला एक और भी सत्य है कि वातावरण से व्यक्ति प्रभावित होता है। समय के प्रवाह में तिनकों और पत्तों की तरह अगणित व्यक्ति बहते चले जाते हैं। आंधी के साथ धूलि से लेकर छत, छप्परों तक न जाने क्या-क्या उड़ता चला जाता है। आंधी का रुख जिधर होता है उधर ही पेड़ों की डालियां और पौधों की कमरे झुकीं दिखाई पड़ती हैं। इसे प्रवाह का दबाव ही कह सकते हैं।
युग परिवर्तन के दोनों ही पक्ष हैं। तपस्वी व्यक्ति अपनी प्रचण्ड आत्म शक्ति से वातावरण को प्रभावित करते हैं। और अभीष्ट परिवर्तन के लिए व्यापक अनुकूलता उत्पन्न करते हैं। दूसरा पक्ष यह है कि विशिष्ट उपायों के द्वारा वातावरण में गर्मी उत्पन्न की जाती है और उस व्यापक प्रखरता के दबाव से सब कुछ सहज ही बदलता चला जाता है। इन दोनों पक्षों में से कौन प्रधान है कौन गौण? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। हमें यही मानकर चलना होगा कि दोनों ही तथ्य अपने-अपने स्थान पर अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और दोनों की ही उपयोगिता है। दोनों को परस्पर पूरक भी कह सकते हैं। युग सृजेताओं को इन दोनों के ही परिपोषण में संलग्न रहना है।
युग परिवर्तन की ऊर्जा उत्पन्न करने वाले व्यक्तित्व का निर्माण तपश्चर्या के माध्यम से ही हो सकता है। भौतिक प्रतिभाओं के धनी भी कई प्रकार की सफलतायें उत्पन्न करते देखे गये हैं। किन्तु वे सभी होते पदार्थ परक ही हैं। मनुष्य की शारीरिक बौद्धिक क्षमतायें तथा साधनों की सुविधा सम्पदायें कितने ही महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करती देखी गई हैं, पर वे सभी होती जागतिक ही हैं। धन के आधार पर विशालकाय भवन और कल कारखाने खड़े किये जा सकते हैं। सुविधा साधन बढ़ाने के कितने ही अन्य आधारों का सरंजाम जुटाया जा सकता है। समस्याओं का सामयिक समाधान करने वाले दबाव भी शक्ति सामर्थ्य के सहारे उत्पन्न किये जाते हैं। विज्ञान अर्थ-साधन, बुद्धि कौशल एवं परिश्रम के सहारे सुविधा संवर्धन की व्यवस्था बनती आई है और यह क्रम भविष्य में भी चलता रहने वाला है। इस दृष्टि से भौतिक साधनों और सामर्थ्यों का महत्व सदा ही स्वीकार किया जाता रहेगा। इतने पर भी यह यथार्थता अपने स्थान पर ही बनी रहेगी कि मनुष्य की अन्तःचेतना का स्पर्श करने- विशेषतः उसे उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने की आवश्यकता साधन सामग्री के सहारे पूरी नहीं हो सकती। चेतना मात्र चेतना से ही प्रभावित होती है उसे प्रशिक्षित और उल्लसित करने के लिए भावनात्मक आधार चाहिए। साधनों से तो मस्तिष्क को प्रभावित और शरीर को उत्तेजित भर किया जा सकता है।
इतिहास साक्षी है कि आन्तरिक उत्कृष्टता के धनी व्यक्तित्वों ने अपनी अन्तः ऊर्जा के सहारे अपने समय के अगणित मनुष्यों को प्रभावित किया है। ईसा, बुद्ध, शंकराचार्य, विवेकानन्द, गांधी जैसे महामानवों ने अपने अन्तःकरणों को तोड़ा मरोड़ा और ढाला गलाया था। सामयिक विकृतियों के सुधारने में उन महान व्यक्तित्वों ने एक प्रकार से चमत्कार उपस्थित करके रख दिया था। एक अग्रगामी के पीछे अनुगामियों के जल्थे गतिशील होते रहे हैं। राणा प्रताप गुरुगोविन्द सिंह जैसी हस्तियां साधन हीन परिस्थितियों में भी साधन जुटाने में समर्थ होती रही हैं। यह व्यक्ति के अन्तराल में उभरने वाली आत्म शक्ति का वर्चस्व है। नवयुग के अवतरण में तपश्चर्या की ऐसी परम्परा को विकसित किया जाना है—जिसके सहारे आत्मबल के धनी महामानवों की संख्या बढ़ सके। जन मानस को उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत कर सकना केवल ऐसे लोगों का काम है। स्वार्थों की पूर्ति के लिए उत्तेजित और प्रशिक्षित कर सकना तो भौतिक प्रतिभाओं के लिए भी सरल है किन्तु आदर्शवादिता को व्यवहार में उतारना और उसके लिए त्याग बलिदान के लिए प्रबल प्रेरणा दे सकना तपःपूत आत्माओं के लिए ही सम्भव हो सकता है। युग विकृतियों से जूझने के लिए इन्हीं ऊर्जा—आयुधों की आवश्यकता पड़ेगी। अणु बमों के विस्फोट जैसी प्रचण्डता यदि सृजन प्रयोजनों के लिए अभीष्ट हो तो उसके लिए व्यक्तित्व को तपश्चर्या की शक्ति से सम्पन्न करने के—अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। सृजन के लिए भागीरथों को और ध्वंस के लिए दधीचियों की आवश्यकता पूरी करने का कोई भौतिक विकल्प है नहीं। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए गायत्री उपासना के सामान्य उपचारों से लेकर उच्चस्तरीय तप साधनों तक का विशालकाय आधार खड़ा किया जा रहा है।
तथ्यों के जानने वाले जानते हैं कि प्रस्तुत शताब्दी में रचे गये स्वतन्त्रता संग्राम के लिए सूक्ष्म वातावरण से आवश्यक रुचि उत्पन्न करने के लिए योगी अरविन्द जैसे तपस्वियों की कितनी बड़ी आर्य जात पृष्ठभूमि रही है। असहयोग, सत्याग्रह से लेकर करो और मरो तक के संघर्षों के लिए अगणित लोगों की प्राण हथेली पर रखकर बलिदानियों की सेनायें ला खड़ी करना एक चमत्कार ही कहा जा सकता है। हजार वर्ष से दबा-कुचला जनमानस एकाकी इतने आवेश के साथ आत्म गौरव की रक्षा के लिए आतुर हो उठे और संकल्प को पूरा करने के लिए बहुत कुछ कर गुजरे तो उसे अद्भुत ही कहा जायगा। एक ही समय में अनेकों महामानवों का उदय एक साथ हुआ हो ऐसे उदाहरण अन्यत्र ढूंढ़े नहीं मिलते। नेता और योद्धा तो एक साथ कितने ही हो सकते हैं, पर भारत माता ने उन्हीं दिनों ढेरों महामानव उत्पन्न करके रख दिये। इस उत्पादन के पीछे किन्हीं जादूगरों की करामात काम करती देखी जा सकती है। निश्चय ही वह उत्पादन ज्ञात और अविज्ञात तप साधनाओं का ही प्रतिफल था। ऊर्जा उत्पादन के वे स्रोत इन दिनों शिथिल हो गये तो राष्ट्र निर्माण के कार्य में वैसी ही तत्परता का परिचय देने वाली विभूतियों को ढूंढ़ निकालना भी कठिन हो रहा है। तप शक्ति का लोक चेतना को ऊंचा उछालने में कितना बड़ा योगदान हो सकता है, उसे आज नहीं तो कल एक सुनिश्चित तथ्य की तरह समझ सकना हम सभी के लिए सम्भव हो जायगा।
यह व्यक्ति की आत्म ऊर्जा को विकसित करने और उसके द्वारा वातावरण को परिष्कृत करने का एक पक्ष हुआ। युग-परिवर्तन के लिए इन प्रयत्नों में तत्परतापूर्वक संलग्न रहने की आवश्यकता रहेगी। युग सृजेताओं को उस उपार्जन उत्पादन के लिए तत्परतापूर्वक प्रयत्नरत रहना होगा। दूसरा पक्ष है वातावरण को सामूहिक प्रयत्नों से प्रभावित करना और उसके तूफानी प्रवाह में सामान्यजनों को भी असामान्य भूमिका संपादन करने के लिए उत्तेजित करना। यह पक्ष सामूहिक प्रयत्नों से ही सम्पन्न हो सकता है। एकाकी व्यक्तिगत प्रयत्नों से तो कार्य सीमित क्षेत्र में—सीमित मात्रा में और सीमित समय तक के लिए ही सम्पन्न हो सकता है। व्यापक परिमाण में बड़े प्रयत्न चिरस्थाई उद्देश्य के लिए करने हों तो उसके लिए ऐसे सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होगी जो आध्यात्मिकता की उमंगों से सूक्ष्म जगत को भर सकने में समर्थ हो सके।
प्राचीन काल में यह प्रयोजन सप्त ऋषियों की सुगठित मण्डली द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं। उनके शरीर तो अलग-अलग थे, पर रहते साथ-साथ थे। जो सोचते थे, जो योजना बनाते थे और जो करते थे उसमें सघन एकता रहती थी। वैसे ही जैसे कि सप्त धातुओं के सम्मिलन से काय कलेवर का ढांचा खड़ा होता और गतिशील रहता है। अभी वे आकाश में एक साथ एक मण्डली के रूप में चमकते और कदम मिलाकर साथ-साथ चलते हैं। दिवंगत होने पर भी उनकी एकता में कोई शिथिलता नहीं आई है। सामूहिक सत्प्रयत्नों का मूल्य और महत्व वे भली प्रकार समझते हैं। इसमें किसी प्रकार का—व्यतिरेक कभी न आने देने के लिए वे कृत संकल्प हैं।
देवताओं का सहकार उनकी पूजा के लिए स्थापित की गई उपचार वेदियों को देखकर जाना जा सकता है। सर्वतो भद्र आदि स्थापनाओं में सह निवास की उनकी मूल प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। एक ही जल कलश में उन सब का आह्वान और प्रतिष्ठापन सम्पन्न हो जाता है। भगवती दुर्गा तो देवताओं की संघ शक्ति का प्रतीक परिचय ही मानी जाती है।
देव प्रयोजनों में सामूहिकता का ही प्राविधान है। यज्ञ प्रक्रिया सनातन है। देवाराधन के समस्त तत्वों का उसमें समावेश है प्रत्यक्ष है कि यज्ञ का समूचा क्रिया-कलाप सामूहिकता पर अवलंबित है। ब्रह्मा, आचार्य, अध्वर्यु, उद्गाता, यजमान, ऋत्विक् आदि पदाधिकारियों की मण्डली उसका सूत्र संचालन करती है। आहुति देने वाले, परिक्रमा करने वाले, श्रमदानी, संयोजक सहयोगी, व्यवस्थापक आदि जितना बड़ा समुदाय होगा आयोजन की उतनी ही बड़ी सफलता मानी जाती है। राजनैतिक उद्देश्यों के लिए वाजपेय यज्ञों की परम्परा रही है। अश्वमेध, राजसूर्य और गायत्रीयज्ञ जैसे आयोजन वाजपेय कहलाते रहे हैं। इनमें राजनेताओं एवं धर्मचेताओं को संख्या में एकत्रित करके उनकी विचारणाओं एवं धर्म चेताओं को संख्या में एकत्रित करके उनकी विचारणाओं एवं गतिविधियों में सामयिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में एकता एकरूपता लाने का प्रयोजन पूरा किया जाता रहा है। नैमिषारण्य आदि आरण्यकों में सूत शौनिक कथा प्रसंगों जैसे विशालकाय ज्ञान सत्र सम्पन्न होते थे और उनमें हजारों ऋषि आत्माएं श्रद्धा पूर्वक भाग लेती थीं।
कुम्भ जैसे महा पर्वों के समय होने वाले विशालकाय धर्म सम्मेलनों का उद्देश्य भी एक ही था। श्रेष्ठ व्यक्तित्वों का सत्प्रयोजनों के लिए सघन सहकार और सामूहिक प्रयत्न। कथा-कीर्तन, पर्व संस्कार, सत्र सत्संग, परिक्रमा, तीर्थयात्रा जैसे धर्मानुष्ठानों में अन्य उद्देश्यों के साथ-साथ एक अति महत्वपूर्ण प्रयोजन यह भी सम्मिलित है कि सदाशयता को संघबद्ध होने और एक दिशा धारा में चल पड़ने की व्यवस्था बन सके।
ऋषियों ने रावण कालीन अनाचार से जूझने के लिए सूक्ष्म शक्ति उत्पन्न करने के लिए सामूहिक अध्यात्म उपचार किया था सबने मिल-जुलकर अपना-अपना रक्त संचय किया और उसे एक घड़े में बन्द करके भूमि में गाढ़ दिया। उसी से सीता उत्पन्न हुई और उनकी भूमिका के फलस्वरूप तत्कालीन अनाचारों का निराकरण सम्भव हो सका। महत्व तो व्यक्तिगत उपासना का भी है और वैयक्तिक परिष्कार के लिए अलग-अलग एकान्त उपासना की भी—आवश्यकता रहती ही है। किन्तु समष्टिगत व्यापक प्रयोजनों के लिए सम्मिलित उपासना के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति भौतिक साधनों से हो सकती है किन्तु सूक्ष्म जगत् को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। वह एकाकी तो चलना ही चाहिए पर उसे सामूहिक स्तर का भी बनाया जाना चाहिए।
आये दिन देखा जाता है कि एकाकी और सम्मिलित शक्ति में कितना अन्तर पड़ता है। बुहारी की अलग-अलग सींकें चाहे हजारों लाखों ही क्यों न हों अलग रहकर किसी भवन को बुहार न सकेंगी। अलग-अलग रहकर हजारों लाखों धागे परिधान न बन सकेंगे। सींकें सम्मिलित हों तो समर्थ झाड़ू बनेगी। धागे परस्पर गुथे तो कपड़ा बनेगा और तन ढकेगा। अलग दीपक तो सदा हो जलते हैं, जब वे योजना बद्ध रूप में नियत समय पर पंक्तिबद्ध प्रकाशित होते हैं तो दीपावली का उत्सव दृष्टिगोचर होता है। अलग-अलग रहकर शूरवीर योद्धा भी कोई बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं कर पाते। उनका सम्मिलित स्वरूप—सेना का प्रदर्शन भी प्रभावशाली होता है और पराक्रम भी सफल होता है। सामूहिक और सुगठित उपासना के विशालकाय आयोजन वातावरण को बदलने और सुधारने का सुविस्तृत उद्देश्य पूरा करते हैं। युग परिवर्तन जैसे महान कार्य में सूक्ष्म जगत का परिशोधन—वातावरण अनुकूलन भी एक बड़ा तथ्य है इसके लिए युग शक्ति का उदय आवश्यक है। यह सामूहिक उपासना के सुनियोजित सुसंस्कारित साधना अनुष्ठानों से ही सम्भव हो सकता है।
तत्वदर्शी ऋषियों ने उपासना विज्ञान के निर्धारण में इस तथ्य का भी ध्यान रखा है कि नियत समय, नियत क्रम से नियत विधि व्यवस्था और निर्धारित मनोभूमि की व्यवस्था में उपासना की जाती है और उससे सूक्ष्म में जगत का उद्देश्य पूरा होता रहेगा सूर्योदय और सूर्यास्त काल को ही संध्या वंदन के लिए क्यों निर्धारित किया गया? उसका एक ही उत्तर है कि संयुक्त शक्ति की अत्यन्त प्रभावशाली प्रचण्ड धारा उत्पन्न होती है।
किसी भारी वजन को उठाने के लिए मजदूरों की बड़ी संख्या भी अलग-अलग स्तर की खींचतान करती रहें तो बोझ उठाना, पहिया घुमाना कठिन पड़ता है, पर जब एक साथ आवाज के साथ—एक प्रोत्साहन देकर, एक जोश उत्पन्न करके ‘‘जोर लगाओ हे ईशा’’ जैसे नारे जगाते हुए सब का बल एक ही समय एक ही कार्य पर नियोजित कर दिया जाता है तो शक्ति का यह केन्द्रीकरण चमत्कारी परिणाम दिखाता है और रुकी गाड़ी सहज ही आगे बढ़ जाती है।
सामूहिक नियोजन के परिणाम पग-पग पर परिलक्षित होते हैं। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने से उत्पन्न ताल यों लगती तो साधारण सी है, पर उसका वास्तविक प्रभाव तब दिखाई पड़ता है जब वे सैनिक किसी पुल पर कदम मिलाकर चलें। उस पदचाप की आवाज में संयुक्त ताल होने के कारण ध्वनि तरंगों की प्रचण्डता असाधारण बन पड़ती है। उससे पुलों के फट जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
संयुक्त उपासना की प्रचण्ड प्रतिक्रिया का तथ्य तत्वदर्शियों के ध्यान में सदा ही रहा है। विभिन्न धर्मों में प्रचलित उपासनाओं को सामूहिकता की श्रृंखला में बांधा गया है। मुसलमानों की नमाज के समय यही नियम है और उन्हें कड़ाई के साथ पालन करने पर जोर दिया गया है। अन्यान्य धर्मों में भी यह व्यवस्था अपने-अपने ढंग से मौजूद है। युग परिवर्तन के लिए गायत्री उपासना को सामूहिक रूप से नियत समय और नियत क्रम से करने की जो विधि व्यवस्था एक नियत नियन्त्रण और समर्थ मार्ग दर्शन में चल रही है उसे युग शक्ति का प्रचण्ड उत्पादन समझा जा सकता है और और उसके आधार पर सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण के अनुकूलन की अपेक्षा की जा सकती है।
युग परिवर्तन के दोनों ही पक्ष हैं। तपस्वी व्यक्ति अपनी प्रचण्ड आत्म शक्ति से वातावरण को प्रभावित करते हैं। और अभीष्ट परिवर्तन के लिए व्यापक अनुकूलता उत्पन्न करते हैं। दूसरा पक्ष यह है कि विशिष्ट उपायों के द्वारा वातावरण में गर्मी उत्पन्न की जाती है और उस व्यापक प्रखरता के दबाव से सब कुछ सहज ही बदलता चला जाता है। इन दोनों पक्षों में से कौन प्रधान है कौन गौण? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। हमें यही मानकर चलना होगा कि दोनों ही तथ्य अपने-अपने स्थान पर अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और दोनों की ही उपयोगिता है। दोनों को परस्पर पूरक भी कह सकते हैं। युग सृजेताओं को इन दोनों के ही परिपोषण में संलग्न रहना है।
युग परिवर्तन की ऊर्जा उत्पन्न करने वाले व्यक्तित्व का निर्माण तपश्चर्या के माध्यम से ही हो सकता है। भौतिक प्रतिभाओं के धनी भी कई प्रकार की सफलतायें उत्पन्न करते देखे गये हैं। किन्तु वे सभी होते पदार्थ परक ही हैं। मनुष्य की शारीरिक बौद्धिक क्षमतायें तथा साधनों की सुविधा सम्पदायें कितने ही महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करती देखी गई हैं, पर वे सभी होती जागतिक ही हैं। धन के आधार पर विशालकाय भवन और कल कारखाने खड़े किये जा सकते हैं। सुविधा साधन बढ़ाने के कितने ही अन्य आधारों का सरंजाम जुटाया जा सकता है। समस्याओं का सामयिक समाधान करने वाले दबाव भी शक्ति सामर्थ्य के सहारे उत्पन्न किये जाते हैं। विज्ञान अर्थ-साधन, बुद्धि कौशल एवं परिश्रम के सहारे सुविधा संवर्धन की व्यवस्था बनती आई है और यह क्रम भविष्य में भी चलता रहने वाला है। इस दृष्टि से भौतिक साधनों और सामर्थ्यों का महत्व सदा ही स्वीकार किया जाता रहेगा। इतने पर भी यह यथार्थता अपने स्थान पर ही बनी रहेगी कि मनुष्य की अन्तःचेतना का स्पर्श करने- विशेषतः उसे उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने की आवश्यकता साधन सामग्री के सहारे पूरी नहीं हो सकती। चेतना मात्र चेतना से ही प्रभावित होती है उसे प्रशिक्षित और उल्लसित करने के लिए भावनात्मक आधार चाहिए। साधनों से तो मस्तिष्क को प्रभावित और शरीर को उत्तेजित भर किया जा सकता है।
इतिहास साक्षी है कि आन्तरिक उत्कृष्टता के धनी व्यक्तित्वों ने अपनी अन्तः ऊर्जा के सहारे अपने समय के अगणित मनुष्यों को प्रभावित किया है। ईसा, बुद्ध, शंकराचार्य, विवेकानन्द, गांधी जैसे महामानवों ने अपने अन्तःकरणों को तोड़ा मरोड़ा और ढाला गलाया था। सामयिक विकृतियों के सुधारने में उन महान व्यक्तित्वों ने एक प्रकार से चमत्कार उपस्थित करके रख दिया था। एक अग्रगामी के पीछे अनुगामियों के जल्थे गतिशील होते रहे हैं। राणा प्रताप गुरुगोविन्द सिंह जैसी हस्तियां साधन हीन परिस्थितियों में भी साधन जुटाने में समर्थ होती रही हैं। यह व्यक्ति के अन्तराल में उभरने वाली आत्म शक्ति का वर्चस्व है। नवयुग के अवतरण में तपश्चर्या की ऐसी परम्परा को विकसित किया जाना है—जिसके सहारे आत्मबल के धनी महामानवों की संख्या बढ़ सके। जन मानस को उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत कर सकना केवल ऐसे लोगों का काम है। स्वार्थों की पूर्ति के लिए उत्तेजित और प्रशिक्षित कर सकना तो भौतिक प्रतिभाओं के लिए भी सरल है किन्तु आदर्शवादिता को व्यवहार में उतारना और उसके लिए त्याग बलिदान के लिए प्रबल प्रेरणा दे सकना तपःपूत आत्माओं के लिए ही सम्भव हो सकता है। युग विकृतियों से जूझने के लिए इन्हीं ऊर्जा—आयुधों की आवश्यकता पड़ेगी। अणु बमों के विस्फोट जैसी प्रचण्डता यदि सृजन प्रयोजनों के लिए अभीष्ट हो तो उसके लिए व्यक्तित्व को तपश्चर्या की शक्ति से सम्पन्न करने के—अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। सृजन के लिए भागीरथों को और ध्वंस के लिए दधीचियों की आवश्यकता पूरी करने का कोई भौतिक विकल्प है नहीं। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए गायत्री उपासना के सामान्य उपचारों से लेकर उच्चस्तरीय तप साधनों तक का विशालकाय आधार खड़ा किया जा रहा है।
तथ्यों के जानने वाले जानते हैं कि प्रस्तुत शताब्दी में रचे गये स्वतन्त्रता संग्राम के लिए सूक्ष्म वातावरण से आवश्यक रुचि उत्पन्न करने के लिए योगी अरविन्द जैसे तपस्वियों की कितनी बड़ी आर्य जात पृष्ठभूमि रही है। असहयोग, सत्याग्रह से लेकर करो और मरो तक के संघर्षों के लिए अगणित लोगों की प्राण हथेली पर रखकर बलिदानियों की सेनायें ला खड़ी करना एक चमत्कार ही कहा जा सकता है। हजार वर्ष से दबा-कुचला जनमानस एकाकी इतने आवेश के साथ आत्म गौरव की रक्षा के लिए आतुर हो उठे और संकल्प को पूरा करने के लिए बहुत कुछ कर गुजरे तो उसे अद्भुत ही कहा जायगा। एक ही समय में अनेकों महामानवों का उदय एक साथ हुआ हो ऐसे उदाहरण अन्यत्र ढूंढ़े नहीं मिलते। नेता और योद्धा तो एक साथ कितने ही हो सकते हैं, पर भारत माता ने उन्हीं दिनों ढेरों महामानव उत्पन्न करके रख दिये। इस उत्पादन के पीछे किन्हीं जादूगरों की करामात काम करती देखी जा सकती है। निश्चय ही वह उत्पादन ज्ञात और अविज्ञात तप साधनाओं का ही प्रतिफल था। ऊर्जा उत्पादन के वे स्रोत इन दिनों शिथिल हो गये तो राष्ट्र निर्माण के कार्य में वैसी ही तत्परता का परिचय देने वाली विभूतियों को ढूंढ़ निकालना भी कठिन हो रहा है। तप शक्ति का लोक चेतना को ऊंचा उछालने में कितना बड़ा योगदान हो सकता है, उसे आज नहीं तो कल एक सुनिश्चित तथ्य की तरह समझ सकना हम सभी के लिए सम्भव हो जायगा।
यह व्यक्ति की आत्म ऊर्जा को विकसित करने और उसके द्वारा वातावरण को परिष्कृत करने का एक पक्ष हुआ। युग-परिवर्तन के लिए इन प्रयत्नों में तत्परतापूर्वक संलग्न रहने की आवश्यकता रहेगी। युग सृजेताओं को उस उपार्जन उत्पादन के लिए तत्परतापूर्वक प्रयत्नरत रहना होगा। दूसरा पक्ष है वातावरण को सामूहिक प्रयत्नों से प्रभावित करना और उसके तूफानी प्रवाह में सामान्यजनों को भी असामान्य भूमिका संपादन करने के लिए उत्तेजित करना। यह पक्ष सामूहिक प्रयत्नों से ही सम्पन्न हो सकता है। एकाकी व्यक्तिगत प्रयत्नों से तो कार्य सीमित क्षेत्र में—सीमित मात्रा में और सीमित समय तक के लिए ही सम्पन्न हो सकता है। व्यापक परिमाण में बड़े प्रयत्न चिरस्थाई उद्देश्य के लिए करने हों तो उसके लिए ऐसे सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होगी जो आध्यात्मिकता की उमंगों से सूक्ष्म जगत को भर सकने में समर्थ हो सके।
प्राचीन काल में यह प्रयोजन सप्त ऋषियों की सुगठित मण्डली द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं। उनके शरीर तो अलग-अलग थे, पर रहते साथ-साथ थे। जो सोचते थे, जो योजना बनाते थे और जो करते थे उसमें सघन एकता रहती थी। वैसे ही जैसे कि सप्त धातुओं के सम्मिलन से काय कलेवर का ढांचा खड़ा होता और गतिशील रहता है। अभी वे आकाश में एक साथ एक मण्डली के रूप में चमकते और कदम मिलाकर साथ-साथ चलते हैं। दिवंगत होने पर भी उनकी एकता में कोई शिथिलता नहीं आई है। सामूहिक सत्प्रयत्नों का मूल्य और महत्व वे भली प्रकार समझते हैं। इसमें किसी प्रकार का—व्यतिरेक कभी न आने देने के लिए वे कृत संकल्प हैं।
देवताओं का सहकार उनकी पूजा के लिए स्थापित की गई उपचार वेदियों को देखकर जाना जा सकता है। सर्वतो भद्र आदि स्थापनाओं में सह निवास की उनकी मूल प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। एक ही जल कलश में उन सब का आह्वान और प्रतिष्ठापन सम्पन्न हो जाता है। भगवती दुर्गा तो देवताओं की संघ शक्ति का प्रतीक परिचय ही मानी जाती है।
देव प्रयोजनों में सामूहिकता का ही प्राविधान है। यज्ञ प्रक्रिया सनातन है। देवाराधन के समस्त तत्वों का उसमें समावेश है प्रत्यक्ष है कि यज्ञ का समूचा क्रिया-कलाप सामूहिकता पर अवलंबित है। ब्रह्मा, आचार्य, अध्वर्यु, उद्गाता, यजमान, ऋत्विक् आदि पदाधिकारियों की मण्डली उसका सूत्र संचालन करती है। आहुति देने वाले, परिक्रमा करने वाले, श्रमदानी, संयोजक सहयोगी, व्यवस्थापक आदि जितना बड़ा समुदाय होगा आयोजन की उतनी ही बड़ी सफलता मानी जाती है। राजनैतिक उद्देश्यों के लिए वाजपेय यज्ञों की परम्परा रही है। अश्वमेध, राजसूर्य और गायत्रीयज्ञ जैसे आयोजन वाजपेय कहलाते रहे हैं। इनमें राजनेताओं एवं धर्मचेताओं को संख्या में एकत्रित करके उनकी विचारणाओं एवं धर्म चेताओं को संख्या में एकत्रित करके उनकी विचारणाओं एवं गतिविधियों में सामयिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में एकता एकरूपता लाने का प्रयोजन पूरा किया जाता रहा है। नैमिषारण्य आदि आरण्यकों में सूत शौनिक कथा प्रसंगों जैसे विशालकाय ज्ञान सत्र सम्पन्न होते थे और उनमें हजारों ऋषि आत्माएं श्रद्धा पूर्वक भाग लेती थीं।
कुम्भ जैसे महा पर्वों के समय होने वाले विशालकाय धर्म सम्मेलनों का उद्देश्य भी एक ही था। श्रेष्ठ व्यक्तित्वों का सत्प्रयोजनों के लिए सघन सहकार और सामूहिक प्रयत्न। कथा-कीर्तन, पर्व संस्कार, सत्र सत्संग, परिक्रमा, तीर्थयात्रा जैसे धर्मानुष्ठानों में अन्य उद्देश्यों के साथ-साथ एक अति महत्वपूर्ण प्रयोजन यह भी सम्मिलित है कि सदाशयता को संघबद्ध होने और एक दिशा धारा में चल पड़ने की व्यवस्था बन सके।
ऋषियों ने रावण कालीन अनाचार से जूझने के लिए सूक्ष्म शक्ति उत्पन्न करने के लिए सामूहिक अध्यात्म उपचार किया था सबने मिल-जुलकर अपना-अपना रक्त संचय किया और उसे एक घड़े में बन्द करके भूमि में गाढ़ दिया। उसी से सीता उत्पन्न हुई और उनकी भूमिका के फलस्वरूप तत्कालीन अनाचारों का निराकरण सम्भव हो सका। महत्व तो व्यक्तिगत उपासना का भी है और वैयक्तिक परिष्कार के लिए अलग-अलग एकान्त उपासना की भी—आवश्यकता रहती ही है। किन्तु समष्टिगत व्यापक प्रयोजनों के लिए सम्मिलित उपासना के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति भौतिक साधनों से हो सकती है किन्तु सूक्ष्म जगत् को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। वह एकाकी तो चलना ही चाहिए पर उसे सामूहिक स्तर का भी बनाया जाना चाहिए।
आये दिन देखा जाता है कि एकाकी और सम्मिलित शक्ति में कितना अन्तर पड़ता है। बुहारी की अलग-अलग सींकें चाहे हजारों लाखों ही क्यों न हों अलग रहकर किसी भवन को बुहार न सकेंगी। अलग-अलग रहकर हजारों लाखों धागे परिधान न बन सकेंगे। सींकें सम्मिलित हों तो समर्थ झाड़ू बनेगी। धागे परस्पर गुथे तो कपड़ा बनेगा और तन ढकेगा। अलग दीपक तो सदा हो जलते हैं, जब वे योजना बद्ध रूप में नियत समय पर पंक्तिबद्ध प्रकाशित होते हैं तो दीपावली का उत्सव दृष्टिगोचर होता है। अलग-अलग रहकर शूरवीर योद्धा भी कोई बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं कर पाते। उनका सम्मिलित स्वरूप—सेना का प्रदर्शन भी प्रभावशाली होता है और पराक्रम भी सफल होता है। सामूहिक और सुगठित उपासना के विशालकाय आयोजन वातावरण को बदलने और सुधारने का सुविस्तृत उद्देश्य पूरा करते हैं। युग परिवर्तन जैसे महान कार्य में सूक्ष्म जगत का परिशोधन—वातावरण अनुकूलन भी एक बड़ा तथ्य है इसके लिए युग शक्ति का उदय आवश्यक है। यह सामूहिक उपासना के सुनियोजित सुसंस्कारित साधना अनुष्ठानों से ही सम्भव हो सकता है।
तत्वदर्शी ऋषियों ने उपासना विज्ञान के निर्धारण में इस तथ्य का भी ध्यान रखा है कि नियत समय, नियत क्रम से नियत विधि व्यवस्था और निर्धारित मनोभूमि की व्यवस्था में उपासना की जाती है और उससे सूक्ष्म में जगत का उद्देश्य पूरा होता रहेगा सूर्योदय और सूर्यास्त काल को ही संध्या वंदन के लिए क्यों निर्धारित किया गया? उसका एक ही उत्तर है कि संयुक्त शक्ति की अत्यन्त प्रभावशाली प्रचण्ड धारा उत्पन्न होती है।
किसी भारी वजन को उठाने के लिए मजदूरों की बड़ी संख्या भी अलग-अलग स्तर की खींचतान करती रहें तो बोझ उठाना, पहिया घुमाना कठिन पड़ता है, पर जब एक साथ आवाज के साथ—एक प्रोत्साहन देकर, एक जोश उत्पन्न करके ‘‘जोर लगाओ हे ईशा’’ जैसे नारे जगाते हुए सब का बल एक ही समय एक ही कार्य पर नियोजित कर दिया जाता है तो शक्ति का यह केन्द्रीकरण चमत्कारी परिणाम दिखाता है और रुकी गाड़ी सहज ही आगे बढ़ जाती है।
सामूहिक नियोजन के परिणाम पग-पग पर परिलक्षित होते हैं। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने से उत्पन्न ताल यों लगती तो साधारण सी है, पर उसका वास्तविक प्रभाव तब दिखाई पड़ता है जब वे सैनिक किसी पुल पर कदम मिलाकर चलें। उस पदचाप की आवाज में संयुक्त ताल होने के कारण ध्वनि तरंगों की प्रचण्डता असाधारण बन पड़ती है। उससे पुलों के फट जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
संयुक्त उपासना की प्रचण्ड प्रतिक्रिया का तथ्य तत्वदर्शियों के ध्यान में सदा ही रहा है। विभिन्न धर्मों में प्रचलित उपासनाओं को सामूहिकता की श्रृंखला में बांधा गया है। मुसलमानों की नमाज के समय यही नियम है और उन्हें कड़ाई के साथ पालन करने पर जोर दिया गया है। अन्यान्य धर्मों में भी यह व्यवस्था अपने-अपने ढंग से मौजूद है। युग परिवर्तन के लिए गायत्री उपासना को सामूहिक रूप से नियत समय और नियत क्रम से करने की जो विधि व्यवस्था एक नियत नियन्त्रण और समर्थ मार्ग दर्शन में चल रही है उसे युग शक्ति का प्रचण्ड उत्पादन समझा जा सकता है और और उसके आधार पर सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण के अनुकूलन की अपेक्षा की जा सकती है।