Books - युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
गायत्री अभियान से व्यक्ति और समाज का अभिनव निर्माण
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
उपासनाओं में गायत्री साधना का स्थान सर्वोपरि माना जाने का एक कारण यह भी है कि वह अपने आप में समग्र सर्वांगपूर्ण है। अन्य उपासनाओं को मत सम्प्रदाय एवं परम्परागत मान्यताओं के कारण ख्याति भले ही मिल गई हो पर इनमें समग्रता के तत्व कम ही पाये जाते हैं। दूध तो अन्य पशुओं का भी उपयोगी ही होता है; पर गाये के दूध में लगभग वे ही विशेषताएं पाई जाती हैं जो नारी के दूध में होती हैं। इसलिए किसी पक्ष-पात के कारण नहीं, गुणों के कारण ही गौ दुग्ध को प्रमुखता दी जाती है। गायत्री उपासना के सम्बन्ध में भी यही बात है। इसलिए अन्यान्य उपासनाओं में रूचि लेने वाले साधकों तक के लिए शास्त्र का परामर्श यह है कि वे गायत्री उपासना को तो अपनाये ही रहें इसके अतिरिक्त अन्यान्य देवोपासना भी कर सकते हैं।
भूमि को जोतना तो हर हालत में आवश्यक है। इसके उपरान्त बीज बोने में भिन्नता भी रखी जा सकती है। गायत्री उपासना को भूमि शोधन-आत्म शोधन का प्रथम प्रयोजन पूर्ण करने वाली माना गया है। धुलाई तो रंगने से पहले की ही जानी चाहिए। रंगते समय यह भी सोचा जा सकता है कि किस रंग से कपड़े रंगे, धुलाई के सन्दर्भ में कोई मतभेद नहीं उसकी प्राथमिकता तो सदा ही बनी रहेगी। गायत्री उपासना को मनःसंस्थान की आरम्भिक आवश्यकता पूर्ण करने वाली प्रक्रिया माना गया है। यही है उसकी समग्रता और सर्वांग पूर्णता का कारण।
उपासना का बाह्य स्वरूप ऐसा है जिससे कभी-कभी यह भ्रम होने लगता है कि यह किसी देवी-देवता से कुछ याचना करने के लिए गिड़-गिड़ाहट जैसी कोई क्रिया है। साथ ही यह भी भ्रम होता है कि सम्भवतः देवताओं की मनोवृत्ति प्रशंसा और उपहार पा कर प्रसन्न हो जाने और बदले में उपासक का मनचाहा देने लगने जैसी होगी। यह दोनों ही मान्यताएं भ्रम पूर्ण हैं। तथ्य यह है कि उपासना का उपचार व्यक्तित्व के अन्तराल की गहरी परतों को प्रभावित करता है और भाव संस्थान में उत्कृष्ट तत्वों का आरोपण अभिवर्धन करते हुए साधक की आत्म सत्ता में प्रखरता भर देता है। यह प्रखरता ही मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति है। उसी के आधार पर व्यवहार में शालीनता और कुशलता बढ़ती है। दूसरों की दृष्टि इसी प्रखरता की न्यूनाधिकता के आधार पर किसी का मूल्यांकन करती और उसे महत्व एवं सहयोग प्रदान करती है। उपासना किसी दूसरे की नहीं वस्तुतः अपने ही अन्तराल की की जाती है। भीतर से सन्त उगता है तो बाहर उसका विस्तार सिद्ध रूप में परिलक्षित होता है। संयोग में आत्म-परिष्कार की तथ्य पूर्ण साधना ही उपासना के विभिन्न उपचारों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस प्रयोजन को पूर्ण करने में अपेक्षाकृत अधिक समर्थता युक्त होने के कारण गायत्री विद्या को उपासना क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान दिया गया है।
दैनिक संध्या वन्दन तो आत्मोत्कर्ष का नित्य कर्म है। उससे आगे जब उच्चस्तरीय साधनाओं की प्रक्रिया आरम्भ होती है तो उसमें दो धाराएं उभरती हैं। इन्हें अन्तराल के हिमालय से निकलने वाली गंगा-यमुना कहा गया है। इनका नाम है- (1) योग (2) तप। इनका समागम जिस बिन्दु पर होता है वहां एक नई अव्यक्त एवं अविज्ञात धारा सरस्वती के रूप में प्रकट होती है और तीर्थराज प्रयाग का माहात्म्य प्रत्यक्ष होने लगता है। बिजली के दो तार मिलते ही चिनगारियां छूटने लगती हैं। दो रंगों को मिलाने से तीसरा रंग बन जाता है। नर और नारी के संयोग से बालक उत्पन्न होता है। दो के मिलन से तीसरा बनने की बात रसायन शास्त्र के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। योग और तप की दिव्य धाराओं का मिलन जहां भी हो रहा होगा वहां सिद्धियों की अधिष्ठात्री आत्म-शक्ति का नया उपहार उपलब्ध होगा। गायत्री साधना के द्वारा जिन आत्मिक विभूतियों और भौतिक सिद्धियों के उपलब्ध होने का माहात्म्य बताया गया है उन्हें तत्वतः योग और तप के मिलन से उत्पन्न विशिष्टताएं एवं सफलताएं ही कहा जा सकता है।
योग और तप के क्रिया-कृत्यों को देखने पर यों मोटी दृष्टि आमतौर से भ्रमग्रस्त होती है और उन्हें कोई जादुई खिलवाड़ जैसी कौतूहलवर्धक हरकत मान बैठती है। इन प्रयोजनों के लिए किये जाने वाले कृत्यों को ही सब कुछ समझ लिया जाता है और उन्हें ही सीखने-सिखाने पर सारा ध्यान केन्द्रित किया जाता है। तथ्य को न समझने वाले गहराई तक उतर नहीं पाते और यह जानने में असमर्थ रहते हैं कि योग और तप के नाम से प्रचलित क्रिया-कृत्यों के पीछे तत्व दर्शन क्यों छिपा पड़ा है और उनकी चमत्कारी शक्ति का उद्गम स्रोत कहां है? उथले शारीरिक प्रयत्न ही साधना बनकर रह जाते हैं। फलतः उनकी स्थिति प्राण रहित शरीर जैसी—तेल रहित मोटर जैसी उपहासास्पद बनकर रह जाती है। जो परिणाम कहे सुने गये थे वे न मिल पाने से उस क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को निराशा ही हाथ लगती है। उनका उत्साह कुछ ही दिनों में ठण्डा पड़ जाता है। किन्तु जो वास्तविकता समझते हैं और साधना विज्ञान को आत्म-परिष्कार की सुनिश्चित पद्धति मानते हैं, वे अपने प्रयत्नों में अन्तराल को प्रभावित और परिष्कृत करने का उपक्रम जोड़े रहते हैं। ऐसी समग्र साधना प्रायः निष्फल होती नहीं देखी जाती।
गायत्री उपासना के याग पक्ष में स्वाध्याय, मनन, चिन्तन एवं ध्यान के आधार पर किये जाने वाले सभी उपचार सम्मिलित हैं जो विचार तन्त्र द्वारा किये जाते हैं और आस्थाओं को प्रभावित करते हैं। तप पक्ष में उन क्रिया-कलापों की गणना होती है और जिसमें शरीर के विभिन्न अवयवों को अनभ्यस्त रीति-नीति अपनाने के लिये अभ्यस्त कराया जाता है, इस प्रयत्न को तितीक्षा भी कह सकते हैं।
संक्षेप में इन दोनों प्रयोजनों के—मन तथा शरीर को उत्कृष्टता का स्तर अपनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। साधारणतया पानी की तरह मनुष्य का स्वभाव भी निम्नगामी रहता है। पशु प्रवृत्तियों का अभ्यास ही जीव की चिरसंचित सम्पदा है। उसी में रमण करने, रस लेने की सहज रुचि रहती है। वासना, तृष्णा और अहंता की खुमारी ही चढ़ी रहती है। और उन्हीं में निमग्न रहने की आदत काम करती है। इस स्थिति को उलटने से ही उत्कृष्टता की ओर उभरना, उछलना सम्भव हो सकता है। इन्हीं प्रयोजन के लिए योग एवं तप की समूची विधि व्यवस्था, क्रिया-प्रक्रिया, रीति-नीति का निर्माण निर्धारण किया गया है। योग से मनःसंस्थान को और तप से शरीर तंत्र को उच्चस्तरीय गतिविधियों में रुचि और उस प्रकार की गतिविधियों में रस लेने के लिए सहमत कर लेना ही साधना विज्ञान का एक मात्र लक्ष्य है।
इस प्रयोजन में जिसे जितनी सफलता मिलती है वह उसी अनुपात से दिव्य शक्तियों और सफलताओं से लाभान्वित होने लगता है। देवता अन्तरिक्ष में भी रहते हैं और दैवी शक्तियों का आधिपत्य सूक्ष्म जगत में भी छाया हुआ है, पर उनके साथ सम्पर्क बनाने की क्षमता अपने ही परिष्कृत अन्तःकरण में होती है। इसके बिना और किसी तरह उनसे सम्पर्क साधना सम्भव ही नहीं है। व्यक्तित्व में निकृष्टता के भरे रहने पर दैवी अनुग्रह उपलब्ध होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। किसी प्रकार किसी को अन्धे के हाथ बटेर लग भी जाय तो निकृष्टता के द्वारा उसका दुरुपयोग ही होता है। फलतः साधना के बल पर मिली हुई सफलताएं अपने और दूसरों के लिए हानिकारक ही सिद्ध होती है। रावण, कुम्भकरण, मारीच, सहस्रबाहु, भस्मासुर, हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर आदि दुर्दान्त दस्युओं के उदाहरण सामने हैं। उन्होंने किसी प्रकार साधना से उथली सिद्धियां प्राप्त तो करलीं, पर उनका सदुपयोग न कर पाने के कारण उलटे संकट, विपत्ति एवं अपकीर्ति के ही भागी बन सके। साधना का विज्ञान विशुद्ध रूप से आत्म विकास की विधि-व्यवस्था से भरा पड़ा है।
उपासना में चिन्तन को ईश्वर के समीप पहुंचाने एवं घनिष्ठ बनाने के लिए भक्ति भावना को विकसित करना होता है। इस घनिष्ठता को ही योग कहते हैं। मोटे अर्थों में योग का अर्थ होता है-जोड़ना। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना ही योग है।
ध्यान के समय किसी शरीरधारी या प्रकाश प्रतिमा आदि के रूप में भी परमात्मा की धारणा की जाती है। वह एक सामयिक प्रयोजन है। वस्तुतः परमात्मा की अनुभूति अन्तःकरण में एक दिव्य सम्वेदना के रूप में ही होती है और उस सम्वेदना की व्याख्या वैयक्तिक उत्कृष्टता एवं सामाजिक उदारता के रूप में ही की जा सकती है। देवताओं की आकृतियां भी सद्गुणों के समुच्चय के रूप में ही गढ़ी गई हैं। उनके साथ घनिष्ठता बनाने का तात्पर्य है दैवी गुणों से अपने व्यक्तित्व की गहराई में समाविष्ट करना। जिसकी आस्थाओं में उत्कृष्टता का जितना अधिक समावेश हो सके, समझना चाहिए कि वह उतने ही परिमाण में—भक्ति साधना की—योग साधना की—ईश्वर प्राप्ति की मंजिल पूरी करली गई। ईश्वर के ढांचे में ढल जाना उसके आदेशों का—नीति मर्यादाओं का—पालन करना ही वह आत्म समर्पण है, जिसे योग दर्शन में अनेक प्रकार से समझाया जाता है। समस्त योग साधनाओं का मूल उद्देश्य एक है कि ईश्वर को-अर्थात् उत्कृष्टता को इतना आत्मसात कर लिया जाय कि व्यक्तित्व में उसी की प्रधानता परिलक्षित होने लगे। उपासना का विवेचन करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि साधक को अपनी चेतना के चारों उपकरणों को—मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को उच्चस्तरीय आस्थाओं के रंग में रंग देना पड़ता है। इसका सामान्य विवेचन किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि यह अन्तर्जगत में उत्कृष्टता भर देने और व्यक्ति को आदर्शवादी बनाने का ही एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग है।
उपासना के विभिन्न क्रिया-कलापों पर—कर्म काण्डों पर—विधि-विधानों पर—गम्भीर दृष्टि डाली जाय और उनका विवेचन वर्गीकरण किया जाय तो प्रतीत होता है कि वे सभी क्रियाओं के माध्यम से सदाशयता का अन्तःकरण को प्रशिक्षण देने का ही प्रयोजन पूरा करती हैं। दृश्य एवं कृत्य के मध्य से समझना और समझाना सरल पड़ता है। विभिन्न प्रकार के अभिनय इसी उद्देश्य के लिए होते हैं। बाल कक्षा के शिशुओं को खिलौनों, वस्तुओं एवं दृश्यों के माध्यम से ही ज्ञान वृद्धि का आरम्भ कराया जाता है। बड़े लोगों को भी अनेक प्रकार के प्रदर्शनों एवं अभिनयों के द्वारा किसी जानकारी को हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया जाता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों के पीछे भी इसी उद्देश्य को पूरा करने का उद्देश्य छिपा हुआ है। पूजा उपचार में काम आने वाली अनेक प्रक्रियाएं प्रकारान्तर से साधक की चेतना पर यही संस्कार डालती हैं कि उसके चिन्तन एवं अभ्यास को आदर्शवादिता की दिशा धारा में ही बहना और बढ़ना चाहिए।
तप साधना में उन तितीक्षाओं का समावेश है जिनमें ऊंचे उद्देश्यों के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक कष्ट सहना पड़ता है। कर्मफल प्रकृति क्रम एवं दूसरों के व्यवहार में आये दिन अनेकों कष्ट सहने पड़ते हैं किन्तु आदर्शों के प्रतिपालन में जो थोड़ी बहुत कठिनाइयां आती हैं उन्हें स्वेच्छा और प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने का साहस बन नहीं पड़ता है, जबकि वह उत्कृष्टता का उपार्जन करने के लिए नितान्त आवश्यक है। महानता के मार्ग पर चलने वाले हर व्यक्ति को आदर्शवादी निष्ठा का प्रमाण देने के लिए जीवन भर तरह-तरह की कठिनाइयों से जूझना पड़ा है। इसी कसौटी पर खरे उतरने के उपरान्त ही किसी को श्रेष्ठता का आत्म-सन्तोष और लोक-सम्मान मिल सका है। तप तितीक्षा की साधना में अनेक प्रकार के संयम बरतने पड़ते हैं और सत्प्रयोजनों के लिए बढ़-चढ़ कर अंशदान करने पड़ते हैं। विरोध सहने का भी साहस दिखाना पड़ता है। यह समस्त प्रयोग क्रम तप साधना कहलाता है। इसे प्रकारान्तर से आत्मबल के अभिवर्धन का अभ्यास ही कहा जा सकता है।
तप के दो प्रतिफल बताये हैं—कषाय-कल्मषों का परिशोधन और आत्मबल का अभिवर्धन। तप का शब्दार्थ होता है—तपाना-गरम करना। तपाने से जमीन से निकलने वाली मिट्टी मिली धातुओं का परिशोधन किया जाता है। ताप के प्रभाव से रोग कीटाणुओं को मारने की प्रक्रिया चिकित्सकों द्वारा अपनाई जाती है। तपाने से कच्ची मिट्टी पक्की ईंटों के रूप में मजबूत बनती है। तपाने से पानी को भाप के रूप में प्रचण्ड शक्ति सम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। धातुओं को गला कर उपकरण औजार बनते हैं। भोजन-पकाने से लेकर कारखाने तक में गर्मी की शक्ति ही काम करती है। अपनी भीतर की विशेषताओं एवं विभूतियों के उभारने के लिए भी श्रमशीलता, तन्मयता, उमंग भरी आशा सुनिश्चित संकल्प शीलता जैसी सद्वृत्तियों को अपनाने से ही काम चलता है। इसी मार्ग पर चलने का अभ्यास तप साधना में करना पड़ता है। प्रकारान्तर से उसे सदुद्देश्यों की पूर्ति में काम आने वाले शौर्य, साहस एवं त्याग, बलिदान का अभ्यास ही कहा जा सकता है।
उपासनाओं में गायत्री उपासना प्रमुख है। उसके कितने ही प्रयोग एवं प्रकार हैं। इस समस्त समुच्चय का वर्गीकरण, विश्लेषण, विवेचन करने पर दो तथ्य सामने आते हैं—मन को योगी और शरीर को तपस्वी बनाना। अर्थात् दोनों को उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रशिक्षित करना—अनुकूल बनाना और रुचि लेने की स्थिति तक पहुंचना। यह व्यक्तित्व में सत्प्रवृत्तियों का समावेश करने की साधना है। भौतिक समृद्धियां और आत्मिक विभूतियां मिलने का यह समग्र उत्कर्ष ही एक मात्र उपाय है। उपासना की समूची प्रक्रिया इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए तत्वदर्शियों द्वारा विनिर्मित की गई है। भ्रान्तियों में उलझ जाया जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा उपासना के तत्वज्ञान को सही रूप से समझने और समझाने की व्यवस्था बना सके तो निश्चित रूप में इस दिशा में किया गया परिश्रम हर दृष्टि से—हर किसी के लिए उपयोगी ही सिद्ध होता है। उपासना का वातावरण जहां भी बनेगा वहां शालीनता की दिशा में अन्तःप्रवृत्तियों के ढलने का और सज्जनता की परम्परा चल पड़ने का क्रम निश्चित रूप से चल पड़ेगा।
कहा जा चुका है कि उपासना विज्ञान में—सर्वांगपूर्ण साधना गायत्री मन्त्र के माध्यम से जैसी अच्छी तरह बन पड़ती है उसे अनुपम ही कहा जा सकता है। इस तत्व ज्ञान और साधना विधान को लोक रुचि का अंग बनाया जा सके तो उसकी प्रतिक्रिया व्यक्तित्वों का स्तर उत्कृष्टता की ऊंचाई में उछाल देने जैसा ही हो सकता है। कहना न होगा कि मनःस्थिति के सुधरते ही परिस्थितियां सुधरती हैं। व्यक्तियों का समूह ही समाज है। व्यक्तिगत निकृष्टता की परिणिति ही अनेकों समस्याओं और विपत्तियों के रूप में सामने आती है। तात्कालिक सुधार के लिए—अन्य उपाय भी हो सकते हैं किन्तु विपन्नता की जड़ काटने का एक ही मार्ग है कि जन-समाज में शालीनता की परम्पराएं चल पड़ें, पर प्रचलन व्यक्तिगत जीवन में श्रेष्ठता का सम्वर्धन होने से ही हो सकता है। वैयक्तिक श्रेष्ठता बढ़ाने के लिए सुविधा सम्वर्धन और बौद्धिक प्रशिक्षण की बात सोची जाती है। सो है तो वह भी ठीक किन्तु इन प्रयत्नों में तब तक अधूरापन ही बना रहेगा जब तक कि अन्तःकरण की गहराई में उतर कर आस्थाओं को उत्कृष्ट बनाने को भी अनिवार्य न माना जाय। आस्था रहित सम्पन्नता अन्ततः वैसी ही अनिष्टकर हो सकती है जैसी कि बढ़ती हुई सुविधाएं और शिक्षा के साथ-साथ बढ़ती हुई विपत्ति की विभीषिका इन दिनों सामने खड़ी है।
गायत्री का तत्व-ज्ञान और विधि-विधान योग परक चिन्तन और तप परक अभ्यास की भली प्रकार पूर्ति कर देता है। इसका जितना अधिक विस्तार होगा उसी अनुपात से व्यक्ति की श्रेष्ठता और समाज की सुव्यवस्था बढ़ती चली जायगी। युग परिवर्तन का अभियान इसी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए है। मोटी दृष्टि से देखने पर पूजा पाठ की बात छोटी-सी प्रतीत होती है किन्तु यदि उसकी विशिष्टता और सम्भावना की दूर दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि युग समस्याओं के समाधान की—उज्ज्वल भविष्य के निर्माण की आवश्यकता पूरी कर सकने की क्षमता आस्थाओं के स्पर्श करने वाली युग क्रान्ति से ही अभीष्ट परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। यह समस्त सम्भावनाएं गायत्री अभियान में पूरी तरह सन्निहित हैं।
भूमि को जोतना तो हर हालत में आवश्यक है। इसके उपरान्त बीज बोने में भिन्नता भी रखी जा सकती है। गायत्री उपासना को भूमि शोधन-आत्म शोधन का प्रथम प्रयोजन पूर्ण करने वाली माना गया है। धुलाई तो रंगने से पहले की ही जानी चाहिए। रंगते समय यह भी सोचा जा सकता है कि किस रंग से कपड़े रंगे, धुलाई के सन्दर्भ में कोई मतभेद नहीं उसकी प्राथमिकता तो सदा ही बनी रहेगी। गायत्री उपासना को मनःसंस्थान की आरम्भिक आवश्यकता पूर्ण करने वाली प्रक्रिया माना गया है। यही है उसकी समग्रता और सर्वांग पूर्णता का कारण।
उपासना का बाह्य स्वरूप ऐसा है जिससे कभी-कभी यह भ्रम होने लगता है कि यह किसी देवी-देवता से कुछ याचना करने के लिए गिड़-गिड़ाहट जैसी कोई क्रिया है। साथ ही यह भी भ्रम होता है कि सम्भवतः देवताओं की मनोवृत्ति प्रशंसा और उपहार पा कर प्रसन्न हो जाने और बदले में उपासक का मनचाहा देने लगने जैसी होगी। यह दोनों ही मान्यताएं भ्रम पूर्ण हैं। तथ्य यह है कि उपासना का उपचार व्यक्तित्व के अन्तराल की गहरी परतों को प्रभावित करता है और भाव संस्थान में उत्कृष्ट तत्वों का आरोपण अभिवर्धन करते हुए साधक की आत्म सत्ता में प्रखरता भर देता है। यह प्रखरता ही मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति है। उसी के आधार पर व्यवहार में शालीनता और कुशलता बढ़ती है। दूसरों की दृष्टि इसी प्रखरता की न्यूनाधिकता के आधार पर किसी का मूल्यांकन करती और उसे महत्व एवं सहयोग प्रदान करती है। उपासना किसी दूसरे की नहीं वस्तुतः अपने ही अन्तराल की की जाती है। भीतर से सन्त उगता है तो बाहर उसका विस्तार सिद्ध रूप में परिलक्षित होता है। संयोग में आत्म-परिष्कार की तथ्य पूर्ण साधना ही उपासना के विभिन्न उपचारों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस प्रयोजन को पूर्ण करने में अपेक्षाकृत अधिक समर्थता युक्त होने के कारण गायत्री विद्या को उपासना क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान दिया गया है।
दैनिक संध्या वन्दन तो आत्मोत्कर्ष का नित्य कर्म है। उससे आगे जब उच्चस्तरीय साधनाओं की प्रक्रिया आरम्भ होती है तो उसमें दो धाराएं उभरती हैं। इन्हें अन्तराल के हिमालय से निकलने वाली गंगा-यमुना कहा गया है। इनका नाम है- (1) योग (2) तप। इनका समागम जिस बिन्दु पर होता है वहां एक नई अव्यक्त एवं अविज्ञात धारा सरस्वती के रूप में प्रकट होती है और तीर्थराज प्रयाग का माहात्म्य प्रत्यक्ष होने लगता है। बिजली के दो तार मिलते ही चिनगारियां छूटने लगती हैं। दो रंगों को मिलाने से तीसरा रंग बन जाता है। नर और नारी के संयोग से बालक उत्पन्न होता है। दो के मिलन से तीसरा बनने की बात रसायन शास्त्र के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। योग और तप की दिव्य धाराओं का मिलन जहां भी हो रहा होगा वहां सिद्धियों की अधिष्ठात्री आत्म-शक्ति का नया उपहार उपलब्ध होगा। गायत्री साधना के द्वारा जिन आत्मिक विभूतियों और भौतिक सिद्धियों के उपलब्ध होने का माहात्म्य बताया गया है उन्हें तत्वतः योग और तप के मिलन से उत्पन्न विशिष्टताएं एवं सफलताएं ही कहा जा सकता है।
योग और तप के क्रिया-कृत्यों को देखने पर यों मोटी दृष्टि आमतौर से भ्रमग्रस्त होती है और उन्हें कोई जादुई खिलवाड़ जैसी कौतूहलवर्धक हरकत मान बैठती है। इन प्रयोजनों के लिए किये जाने वाले कृत्यों को ही सब कुछ समझ लिया जाता है और उन्हें ही सीखने-सिखाने पर सारा ध्यान केन्द्रित किया जाता है। तथ्य को न समझने वाले गहराई तक उतर नहीं पाते और यह जानने में असमर्थ रहते हैं कि योग और तप के नाम से प्रचलित क्रिया-कृत्यों के पीछे तत्व दर्शन क्यों छिपा पड़ा है और उनकी चमत्कारी शक्ति का उद्गम स्रोत कहां है? उथले शारीरिक प्रयत्न ही साधना बनकर रह जाते हैं। फलतः उनकी स्थिति प्राण रहित शरीर जैसी—तेल रहित मोटर जैसी उपहासास्पद बनकर रह जाती है। जो परिणाम कहे सुने गये थे वे न मिल पाने से उस क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को निराशा ही हाथ लगती है। उनका उत्साह कुछ ही दिनों में ठण्डा पड़ जाता है। किन्तु जो वास्तविकता समझते हैं और साधना विज्ञान को आत्म-परिष्कार की सुनिश्चित पद्धति मानते हैं, वे अपने प्रयत्नों में अन्तराल को प्रभावित और परिष्कृत करने का उपक्रम जोड़े रहते हैं। ऐसी समग्र साधना प्रायः निष्फल होती नहीं देखी जाती।
गायत्री उपासना के याग पक्ष में स्वाध्याय, मनन, चिन्तन एवं ध्यान के आधार पर किये जाने वाले सभी उपचार सम्मिलित हैं जो विचार तन्त्र द्वारा किये जाते हैं और आस्थाओं को प्रभावित करते हैं। तप पक्ष में उन क्रिया-कलापों की गणना होती है और जिसमें शरीर के विभिन्न अवयवों को अनभ्यस्त रीति-नीति अपनाने के लिये अभ्यस्त कराया जाता है, इस प्रयत्न को तितीक्षा भी कह सकते हैं।
संक्षेप में इन दोनों प्रयोजनों के—मन तथा शरीर को उत्कृष्टता का स्तर अपनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। साधारणतया पानी की तरह मनुष्य का स्वभाव भी निम्नगामी रहता है। पशु प्रवृत्तियों का अभ्यास ही जीव की चिरसंचित सम्पदा है। उसी में रमण करने, रस लेने की सहज रुचि रहती है। वासना, तृष्णा और अहंता की खुमारी ही चढ़ी रहती है। और उन्हीं में निमग्न रहने की आदत काम करती है। इस स्थिति को उलटने से ही उत्कृष्टता की ओर उभरना, उछलना सम्भव हो सकता है। इन्हीं प्रयोजन के लिए योग एवं तप की समूची विधि व्यवस्था, क्रिया-प्रक्रिया, रीति-नीति का निर्माण निर्धारण किया गया है। योग से मनःसंस्थान को और तप से शरीर तंत्र को उच्चस्तरीय गतिविधियों में रुचि और उस प्रकार की गतिविधियों में रस लेने के लिए सहमत कर लेना ही साधना विज्ञान का एक मात्र लक्ष्य है।
इस प्रयोजन में जिसे जितनी सफलता मिलती है वह उसी अनुपात से दिव्य शक्तियों और सफलताओं से लाभान्वित होने लगता है। देवता अन्तरिक्ष में भी रहते हैं और दैवी शक्तियों का आधिपत्य सूक्ष्म जगत में भी छाया हुआ है, पर उनके साथ सम्पर्क बनाने की क्षमता अपने ही परिष्कृत अन्तःकरण में होती है। इसके बिना और किसी तरह उनसे सम्पर्क साधना सम्भव ही नहीं है। व्यक्तित्व में निकृष्टता के भरे रहने पर दैवी अनुग्रह उपलब्ध होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। किसी प्रकार किसी को अन्धे के हाथ बटेर लग भी जाय तो निकृष्टता के द्वारा उसका दुरुपयोग ही होता है। फलतः साधना के बल पर मिली हुई सफलताएं अपने और दूसरों के लिए हानिकारक ही सिद्ध होती है। रावण, कुम्भकरण, मारीच, सहस्रबाहु, भस्मासुर, हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर आदि दुर्दान्त दस्युओं के उदाहरण सामने हैं। उन्होंने किसी प्रकार साधना से उथली सिद्धियां प्राप्त तो करलीं, पर उनका सदुपयोग न कर पाने के कारण उलटे संकट, विपत्ति एवं अपकीर्ति के ही भागी बन सके। साधना का विज्ञान विशुद्ध रूप से आत्म विकास की विधि-व्यवस्था से भरा पड़ा है।
उपासना में चिन्तन को ईश्वर के समीप पहुंचाने एवं घनिष्ठ बनाने के लिए भक्ति भावना को विकसित करना होता है। इस घनिष्ठता को ही योग कहते हैं। मोटे अर्थों में योग का अर्थ होता है-जोड़ना। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना ही योग है।
ध्यान के समय किसी शरीरधारी या प्रकाश प्रतिमा आदि के रूप में भी परमात्मा की धारणा की जाती है। वह एक सामयिक प्रयोजन है। वस्तुतः परमात्मा की अनुभूति अन्तःकरण में एक दिव्य सम्वेदना के रूप में ही होती है और उस सम्वेदना की व्याख्या वैयक्तिक उत्कृष्टता एवं सामाजिक उदारता के रूप में ही की जा सकती है। देवताओं की आकृतियां भी सद्गुणों के समुच्चय के रूप में ही गढ़ी गई हैं। उनके साथ घनिष्ठता बनाने का तात्पर्य है दैवी गुणों से अपने व्यक्तित्व की गहराई में समाविष्ट करना। जिसकी आस्थाओं में उत्कृष्टता का जितना अधिक समावेश हो सके, समझना चाहिए कि वह उतने ही परिमाण में—भक्ति साधना की—योग साधना की—ईश्वर प्राप्ति की मंजिल पूरी करली गई। ईश्वर के ढांचे में ढल जाना उसके आदेशों का—नीति मर्यादाओं का—पालन करना ही वह आत्म समर्पण है, जिसे योग दर्शन में अनेक प्रकार से समझाया जाता है। समस्त योग साधनाओं का मूल उद्देश्य एक है कि ईश्वर को-अर्थात् उत्कृष्टता को इतना आत्मसात कर लिया जाय कि व्यक्तित्व में उसी की प्रधानता परिलक्षित होने लगे। उपासना का विवेचन करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि साधक को अपनी चेतना के चारों उपकरणों को—मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को उच्चस्तरीय आस्थाओं के रंग में रंग देना पड़ता है। इसका सामान्य विवेचन किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि यह अन्तर्जगत में उत्कृष्टता भर देने और व्यक्ति को आदर्शवादी बनाने का ही एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग है।
उपासना के विभिन्न क्रिया-कलापों पर—कर्म काण्डों पर—विधि-विधानों पर—गम्भीर दृष्टि डाली जाय और उनका विवेचन वर्गीकरण किया जाय तो प्रतीत होता है कि वे सभी क्रियाओं के माध्यम से सदाशयता का अन्तःकरण को प्रशिक्षण देने का ही प्रयोजन पूरा करती हैं। दृश्य एवं कृत्य के मध्य से समझना और समझाना सरल पड़ता है। विभिन्न प्रकार के अभिनय इसी उद्देश्य के लिए होते हैं। बाल कक्षा के शिशुओं को खिलौनों, वस्तुओं एवं दृश्यों के माध्यम से ही ज्ञान वृद्धि का आरम्भ कराया जाता है। बड़े लोगों को भी अनेक प्रकार के प्रदर्शनों एवं अभिनयों के द्वारा किसी जानकारी को हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया जाता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों के पीछे भी इसी उद्देश्य को पूरा करने का उद्देश्य छिपा हुआ है। पूजा उपचार में काम आने वाली अनेक प्रक्रियाएं प्रकारान्तर से साधक की चेतना पर यही संस्कार डालती हैं कि उसके चिन्तन एवं अभ्यास को आदर्शवादिता की दिशा धारा में ही बहना और बढ़ना चाहिए।
तप साधना में उन तितीक्षाओं का समावेश है जिनमें ऊंचे उद्देश्यों के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक कष्ट सहना पड़ता है। कर्मफल प्रकृति क्रम एवं दूसरों के व्यवहार में आये दिन अनेकों कष्ट सहने पड़ते हैं किन्तु आदर्शों के प्रतिपालन में जो थोड़ी बहुत कठिनाइयां आती हैं उन्हें स्वेच्छा और प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने का साहस बन नहीं पड़ता है, जबकि वह उत्कृष्टता का उपार्जन करने के लिए नितान्त आवश्यक है। महानता के मार्ग पर चलने वाले हर व्यक्ति को आदर्शवादी निष्ठा का प्रमाण देने के लिए जीवन भर तरह-तरह की कठिनाइयों से जूझना पड़ा है। इसी कसौटी पर खरे उतरने के उपरान्त ही किसी को श्रेष्ठता का आत्म-सन्तोष और लोक-सम्मान मिल सका है। तप तितीक्षा की साधना में अनेक प्रकार के संयम बरतने पड़ते हैं और सत्प्रयोजनों के लिए बढ़-चढ़ कर अंशदान करने पड़ते हैं। विरोध सहने का भी साहस दिखाना पड़ता है। यह समस्त प्रयोग क्रम तप साधना कहलाता है। इसे प्रकारान्तर से आत्मबल के अभिवर्धन का अभ्यास ही कहा जा सकता है।
तप के दो प्रतिफल बताये हैं—कषाय-कल्मषों का परिशोधन और आत्मबल का अभिवर्धन। तप का शब्दार्थ होता है—तपाना-गरम करना। तपाने से जमीन से निकलने वाली मिट्टी मिली धातुओं का परिशोधन किया जाता है। ताप के प्रभाव से रोग कीटाणुओं को मारने की प्रक्रिया चिकित्सकों द्वारा अपनाई जाती है। तपाने से कच्ची मिट्टी पक्की ईंटों के रूप में मजबूत बनती है। तपाने से पानी को भाप के रूप में प्रचण्ड शक्ति सम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। धातुओं को गला कर उपकरण औजार बनते हैं। भोजन-पकाने से लेकर कारखाने तक में गर्मी की शक्ति ही काम करती है। अपनी भीतर की विशेषताओं एवं विभूतियों के उभारने के लिए भी श्रमशीलता, तन्मयता, उमंग भरी आशा सुनिश्चित संकल्प शीलता जैसी सद्वृत्तियों को अपनाने से ही काम चलता है। इसी मार्ग पर चलने का अभ्यास तप साधना में करना पड़ता है। प्रकारान्तर से उसे सदुद्देश्यों की पूर्ति में काम आने वाले शौर्य, साहस एवं त्याग, बलिदान का अभ्यास ही कहा जा सकता है।
उपासनाओं में गायत्री उपासना प्रमुख है। उसके कितने ही प्रयोग एवं प्रकार हैं। इस समस्त समुच्चय का वर्गीकरण, विश्लेषण, विवेचन करने पर दो तथ्य सामने आते हैं—मन को योगी और शरीर को तपस्वी बनाना। अर्थात् दोनों को उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रशिक्षित करना—अनुकूल बनाना और रुचि लेने की स्थिति तक पहुंचना। यह व्यक्तित्व में सत्प्रवृत्तियों का समावेश करने की साधना है। भौतिक समृद्धियां और आत्मिक विभूतियां मिलने का यह समग्र उत्कर्ष ही एक मात्र उपाय है। उपासना की समूची प्रक्रिया इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए तत्वदर्शियों द्वारा विनिर्मित की गई है। भ्रान्तियों में उलझ जाया जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा उपासना के तत्वज्ञान को सही रूप से समझने और समझाने की व्यवस्था बना सके तो निश्चित रूप में इस दिशा में किया गया परिश्रम हर दृष्टि से—हर किसी के लिए उपयोगी ही सिद्ध होता है। उपासना का वातावरण जहां भी बनेगा वहां शालीनता की दिशा में अन्तःप्रवृत्तियों के ढलने का और सज्जनता की परम्परा चल पड़ने का क्रम निश्चित रूप से चल पड़ेगा।
कहा जा चुका है कि उपासना विज्ञान में—सर्वांगपूर्ण साधना गायत्री मन्त्र के माध्यम से जैसी अच्छी तरह बन पड़ती है उसे अनुपम ही कहा जा सकता है। इस तत्व ज्ञान और साधना विधान को लोक रुचि का अंग बनाया जा सके तो उसकी प्रतिक्रिया व्यक्तित्वों का स्तर उत्कृष्टता की ऊंचाई में उछाल देने जैसा ही हो सकता है। कहना न होगा कि मनःस्थिति के सुधरते ही परिस्थितियां सुधरती हैं। व्यक्तियों का समूह ही समाज है। व्यक्तिगत निकृष्टता की परिणिति ही अनेकों समस्याओं और विपत्तियों के रूप में सामने आती है। तात्कालिक सुधार के लिए—अन्य उपाय भी हो सकते हैं किन्तु विपन्नता की जड़ काटने का एक ही मार्ग है कि जन-समाज में शालीनता की परम्पराएं चल पड़ें, पर प्रचलन व्यक्तिगत जीवन में श्रेष्ठता का सम्वर्धन होने से ही हो सकता है। वैयक्तिक श्रेष्ठता बढ़ाने के लिए सुविधा सम्वर्धन और बौद्धिक प्रशिक्षण की बात सोची जाती है। सो है तो वह भी ठीक किन्तु इन प्रयत्नों में तब तक अधूरापन ही बना रहेगा जब तक कि अन्तःकरण की गहराई में उतर कर आस्थाओं को उत्कृष्ट बनाने को भी अनिवार्य न माना जाय। आस्था रहित सम्पन्नता अन्ततः वैसी ही अनिष्टकर हो सकती है जैसी कि बढ़ती हुई सुविधाएं और शिक्षा के साथ-साथ बढ़ती हुई विपत्ति की विभीषिका इन दिनों सामने खड़ी है।
गायत्री का तत्व-ज्ञान और विधि-विधान योग परक चिन्तन और तप परक अभ्यास की भली प्रकार पूर्ति कर देता है। इसका जितना अधिक विस्तार होगा उसी अनुपात से व्यक्ति की श्रेष्ठता और समाज की सुव्यवस्था बढ़ती चली जायगी। युग परिवर्तन का अभियान इसी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए है। मोटी दृष्टि से देखने पर पूजा पाठ की बात छोटी-सी प्रतीत होती है किन्तु यदि उसकी विशिष्टता और सम्भावना की दूर दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि युग समस्याओं के समाधान की—उज्ज्वल भविष्य के निर्माण की आवश्यकता पूरी कर सकने की क्षमता आस्थाओं के स्पर्श करने वाली युग क्रान्ति से ही अभीष्ट परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। यह समस्त सम्भावनाएं गायत्री अभियान में पूरी तरह सन्निहित हैं।