Books - युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
देवत्व का अवतरण युग साधना गायत्री के माध्यम से
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
नवयुग की प्रधान प्रक्रिया है—‘मनुष्य में देवत्व का उदय।’ ‘दूसरी संभावना’ धरती पर स्वर्ग का अवतरण प्रमुख नहीं है उसे प्रतिक्रिया भर कहा जा सकता है। श्रेष्ठ सज्जनों की-समर्थ सत्प्रवृत्तियों की-समन्वित गतिविधियों का परिणाम और परिपाक मंगलमयी परिस्थितियों के रूप में सामने आना ही चाहिए। इन्हीं को धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा गया है। इसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। सक्रियता और सद्भावनाओं का संमिश्रण ही दो रंगों को मिला देने से तीसरा रंग बन जाने की तरह सुख शान्ति भरे वातावरण के रूप में परिलक्षित होता है। सतयुग और राम-राज्य में सुविधाओं की कमी न थी। क्योंकि लोगों के व्यक्तित्व और व्यवहार में उच्चस्तरीय आदर्शवादिता का समावेश था।
परिस्थितियां दृश्यमान तो होती हैं—अनुभव में भी वही आती हैं, पर वस्तुतः उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। जन मानस के आकाश में जब वर्षा के जल बिन्दु भरे रहते हैं तो उन पर चमकने वाली किरणें इन्द्र धनुष के रूप में प्रतिभाषित होती है। वैसा ही नयनाभिराम दीखने वाला, मनमोहक लगने वाला सतयुग के रूप में दृष्टिगोचर होता है। मनःस्थिति की प्रतिक्रिया ही परिस्थिति होती है। मनुष्य में देवत्व का उदय ही प्रधान है। धरती पर स्वर्ग का अवतरण अलग से दीखता भर है इसलिए उसका नाम भी पृथक देना पड़ता है। तत्वतः दोनों को क्रिया और प्रक्रिया के रूप में अविच्छिन्न ही माना जा सकता है।
अब पर्यवेक्षण मनुष्य में देवत्व के उदय का किया जाना चाहिए। देवताओं के व्यक्तित्व में अनेकों विशेषताएं होती हैं। वे सुन्दर होते हैं तरुण रहते हैं। प्रसन्न दीखते हैं। उदारता बरतते हैं। उनके पास समृद्धियों की कमी नहीं रहती। स्वयं तृप्त रहते हैं और दूसरों को तृप्त करते हैं। ऐसी ऐसी अनेकों विभूतियों से भरी पूरी सत्ता ‘देव’ कहलाती है। कल्पना क्षेत्र में ऐसे देवता किसी विशेष लोक में निवास करने वाले अदृश्य प्राणी भी माने जाते हैं और उनकी अभ्यर्थना से अनेकों वरदान मिलने के स्वप्न देखे जाते हैं। इसमें सचाई कम और अलंकारिक कल्पना अधिक है। इतने पर भी देवी सत्ता का अस्तित्व सुनिश्चित है। उसे प्रत्यक्ष देखना हो तो उत्कृष्ट व्यक्तित्वों में उस गरिमा का दर्शन प्रत्यक्ष किया जा सकता है।
जो विशेषताएं देवताओं की सत्ता में परिकल्पित की गई हैं। लगभग उन्हीं से महामानवों को सुसम्पन्न पाया जाता है। अलंकारिक प्रतिपादन तो थोड़ा सा ही बचा रहता है। उसमें लाक्षणिकता तो होती है, पर वास्तविकता का अंश भी इतना बढ़ा-चढ़ा होता है कि उस वर्णन को भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता है सदा तरुण और सदा अमर रहने वाली बात काया की दृष्टि से अवास्तविक होते हुए भी चेतना के स्तर को देखते हुए अक्षरशः सही है। उमंगों की दृष्टि से तरुणाई वयोवृद्ध होने पर यथावत् बनी रहती है। शरीरों के बदलते रहने पर भी आत्मा को अमरता का यथार्थ बोध प्रत्येक तत्वज्ञानी को सुनिश्चित रूप से होता रहता है। ब्राह्मणों को ‘भूसुर’ की पदवी परम्परागत प्रचलन के अनुसार सहज ही मिली है। देवमानवों का ही दूसरा नाम महामानव है। उन्हीं के तीन वर्ग सन्त, सुधारक और शहीदों के रूप में पाये जाते हैं। इन्हीं की यश गाथा का गुणानुवाद कथा पुराणों में—संस्मरण उद्धरणों में—उत्साहपूर्वक कहा और सुना जाता है। ऋषि इसी स्तर के मनुष्यों को कहते हैं। महर्षि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि इनकी श्रेणियां हैं। देवात्मा शब्द ऐसे ही महा मानवों के लिए प्रयुक्त होता है। चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता तथा व्यवहार में शालीनता और गतिविधियों में आदर्शवादिता भरी रहने के कारण इस समुदाय का जीवित एवं अवसान के उपरान्त निरन्तर वंदन अभिनन्दन होता रहता है। देव पूजन की परम्परा में इसी तथ्य को बार-बार उभारा जाता है। देव प्रतिमाओं की स्थापना और उनकी पूजा अभ्यर्थना के माध्यम से इसी लोक शिक्षण की पुण्य परम्परा को सजीव रखा जाता है कि देवत्व के प्रति साधना श्रद्धा बनाये रहने में ही लोक-कल्याण की समस्त संभावनाएं सन्निहित हैं।
जिस नवयुग के आगमन की आशा, अपेक्षा और प्रतीक्षा की जा रही है—जिसे धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा गया है उसे प्रकारान्तर से देव युग कहना भी कोई अत्युक्ति नहीं है। पुराणों में महा मानवों को देवताओं का अवतार सिद्ध करने वाले अनेकों उपाख्यान मौजूद हैं। भगवान जब राम के रूप में अवतार लेकर आये तो रीछ वानरों के रूप में देवताओं ने भी साथ-साथ ही अवतार लिया था। भगवान कृष्ण के साथ पांच पाण्डवों के रूप में पांचों प्रमुख देवता सहायक शक्ति बनकर धरती पर आये थे। इतना ही नहीं स्वयं भगवान ने मनुष्य आकृति में ही अनेकों बार अनेकों प्रयोजनों की पूर्ति के लिए अवतार लिये हैं। इन उपाख्यानों के माध्यम से यही तथ्य स्पष्ट होता है कि मानवी काया में देव सत्ता की रीति-नीति का, गतिविधियों का दर्शन हो सकना पूर्णतया शक्य है। किसी समय इस स्वर्गादपि गरीयसी भारत भूमि के तैंतीस कोटि निवासी-नागरिक संसार भर में तैंतीस कोटि देवताओं के नाम से प्रख्यात थे। उन्हें देवोपम श्रद्धा सम्मान धरती के इस छोर से उस छोर तक प्राप्त था। मनुष्य में देवत्व के उदय का यही स्वरूप है। सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव की त्रिविधि देव सम्पदा से सम्पन्न मनुष्यों को अध्यात्म की भाषा में देव मानव कहा जाता रहा है। इतिहासकार उन्हें ‘महामानव’ नाम देते रहे हैं। जिनमें शरीर एवं साधनों की दृष्टि से समर्थता—बौद्धिक दृष्टि से सजगता और अन्तःकरण की दृष्टि से आत्मभाव की सरस स्नेहशीलता विद्यमान है उन्हें नर नारायण की संज्ञा दी जाती रही है। उन्हें पुरुष पुरुषोत्तम भी कहते हैं। उत्कृष्टता सम्पन्न नर देह धारी आत्माएं ही देवात्मा और परमात्मा का परमपद प्राप्त करती है।
नव युग का उत्पादन यही है। स्वर्ग से धरती पर इसी गरिमामयी गंगा का अगले दिनों अवतरण होना है और इसी के लिए भागीरथ तप किया जाना है। यही है अपने युग साधना का स्वरूप जिसमें जागृत आत्माओं को संलग्न होने के लिए महाकाल की प्रबल प्रेरणा हुंकार भर रही है।
उज्ज्वल भविष्य के सपने प्रायः हर समर्थ क्षेत्र ने अपने-अपने ढंग से संजोये हैं। यह भी सभी को विदित है कि मात्र साधनों का संवर्धन ही सब कुछ नहीं है। व्यक्ति को भी अधिक सुयोग्य और समर्थ बनाना है। इसके लिए विभिन्न स्तर के उपाय भी सोचे अपनाये जा रहे हैं। स्वास्थ्य संवर्धन की-शिक्षा विस्तार की योजनाएं इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनती हैं। अर्थ साधनों के सहारे मनुष्य अधिक सुविकसित हो सके यही अर्थ विकास की योजनाओं का लक्ष्य है। समाज सुधारक और सेवा संगठन अपने ढंग से इसी प्रयोजन को लक्ष्य मानकर चल रहे हैं कि दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा प्राप्त करके मनुष्य सत्प्रवृत्तियों से सुसम्पन्न बन सके। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में सुसंस्कारिता और श्रद्धा के संवर्धन के लिए तत्व ज्ञान और साधन विधान को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रयास होते रहते हैं। यह सामान्य स्तर की सर्वविदित चेष्टाएं हैं जिनसे वैयक्तिक उत्थान की आशा की जाती है।
उच्चस्तरीय स्तर पर इसी प्रयोजन के लिए दूसरे प्रयत्न चल रहे हैं। वैज्ञानिकों का एक वर्ग गुण सूत्रों की सूक्ष्म इकाइयों में हेर फेर करने और ऐसी सफलता पाने के लिए प्रयत्न शील है जिसके आधार पर नई पीढ़ियों के रूप में अधिक अच्छी फसल हाथ लग सके। पेड़ पौधों के स्वरूप और उनके फल फूलों को विकसित करने के लिए कलम लगाने जैसी पद्धतियां अपनाई गई हैं। पशु प्रजनन के लिए कृत्रिम उपाय सोचे गये हैं और सफल भी हुए हैं। रजवीर्य के स्तर एवं निसनेचन क्रम में उलट पुलट करके वर्तमान लोगों को न सही अगली पीढ़ी की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को अपेक्षाकृत अधिक समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न चल रहे हैं।
मनोवैज्ञानिकों के प्रयत्न इससे भी अधिक उच्चस्तरीय हैं। वे व्यक्ति को काय कलेवर और साधन सामग्री से बहुत आगे की सत्ता मानते हैं और उसका निरूपण ‘मनस्’ तत्व के रूप में करते हैं। शरीरगत दुर्बलता और रुग्णता के लिए वे मानसिक विकृतियों को ही उत्तरदायी मानते हैं। चिन्तन की अस्त व्यस्तताओं और दृष्टिकोण की निकृष्टता के कारण मनुष्य का निजी और सामाजिक जीवन कितना दुर्गतिग्रस्त होता है इसके पक्ष में पर्वत जितने प्रमाण मिलते जाते हैं। खिन्नता और उद्विग्नता से ग्रसित रहना परिस्थितियों के कारण नहीं चिन्तन की अव्यवस्था के कारण ही होता है। मनःशास्त्री पूरा बल देकर कहते हैं कि व्यक्ति को सही सोचने का तरीका समझाने और वातावरण बनाकर उसके लिए अभ्यस्त करने का प्रयत्न ही मानवी कल्याण का प्रधान उपाय है। पैरा साइकोलॉजी—मैटाफिजिक्स—न्यूरोलॉजी आदि मनोविज्ञान की धाराओं का प्रयोग, प्रतिपादन इसी दृष्टि से चल रहा है कि अगले दिनों व्यक्तित्वों को अधिक समर्थ समुन्नत और सुसंस्कृत बनाया जा सके।
दार्शनिक दृष्टि से भी इस दिशा में कम काम नहीं हुआ है। नीत्से आदि दार्शनिकों द्वारा अति मानव की कल्पना दी गई कहा—मनोबल सम्पन्न महत्वाकांक्षाएं अपनाकर कोई व्यक्ति या वर्ग असाधारण बन सकता है और उस वर्चस के आधार पर साधारणों को नियंत्रण में रखने और इच्छित दिशा में चलने के लिए विवश कर सकता है। ऐसे अति मानवों का समुदाय स्वयं गौरवशाली रह सकता है और जन समुदाय को अभीष्ट प्रगति की दिशा में घसीटता, धकेलता, खदेड़ता चल सकता है। इस प्रतिपादन का वर्तमान शताब्दी के आरम्भ में बड़ा जोर-शोर से प्रचार हुआ। महत्वाकांक्षी लोगों को यह रुचा भी बहुत और उनने इसे कार्यान्वित करने के लिए आतुर प्रयास भी किये।
अधिनायकवाद इसी प्रतिपादन की देन है। जर्मनी में इसका प्रयोग राजकीय स्तर पर पूरे जोश खरोश के साथ हुआ। नाजीवाद उभरा। हिटलर ने इस विचारधारा का अपने देश में पूरी तरह प्रयोग किया और जर्मन नागरिकों को उसी रंग में सराबोर कर दिया। जातीय श्रेष्ठता की मदिरा पीकर एक बड़ा समाज महत्वाकांक्षाओं के उन्माद से इस बुरी तरह आवेश ग्रस्त हो चला कि पड़ौसी देशों को अकारण कुचलते हुए समूचे यूरेशिया को उदरस्थ कर जाने के लिए लोभ संवरण कर सकना सम्भव ही न रहा। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर—द्वितीय महा युद्ध तक के रोमांचकारी आक्रमणों में संलग्न जर्मनी की गति विधियां इसी अतिमानव वाद की देने थे। उसे दैत्य दर्शन के सामयिक प्रयोग की संज्ञा दी जा सकती है। यह हवा इटली, रूस, चीन आदि अनेक देशों को न्यूनाधिक रूप में प्रभावित करती रही है और उसके उद्धत प्रदर्शन समय-समय पर सामने आते रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका से लेकर अमेरिकी गोरों तक के अनेक समुदाय अपने-अपने ढंग से जातीय श्रेष्ठता का अहमन्यता से बेहिचक उत्पीड़न करते रहे हैं। वर्ग लिंग जाति, समाज, राष्ट्र के नाम पुराना सामन्तवाद अब नये फासिज्म का रूप इन्हीं दार्शनिक सिद्धान्तों को उत्साहपूर्वक अपनाने लगा है और उसे तर्क संगत सिद्ध कर रहा है।
अधिनायकवाद फासिज्म वर्ग विशेष को अति मानव बनाने की एक दार्शनिक चेष्टा है। उससे उत्पन्न लाभ-हानि का उचित-अनुचित का विवेचन यहां नहीं हो रहा है। इन पंक्तियों में तो इतना ही कहा जा रहा है कि अति मानव बनाने की उत्तेजनाएं दार्शनिक क्षेत्र में भी उत्पन्न की जाती रही है। मौन वहां भी नहीं हैं।
उपरोक्त स्तर के सभी प्रयत्न मनुष्य के बहिरंग पक्ष का स्पर्श करते हैं और उसे भौतिक सामर्थ्यों से सुसज्जित करके उसी प्रकार की प्रगति की अपेक्षा करते हैं। विचारणीय यह है कि क्या इन सामर्थ्य साधनों की आज भी कमी है? अन्तर इतना ही है कि इन दिनों साधन और शक्ति अलग से विद्यमान है उसी को इन प्रयत्नों के द्वारा शरीर के अन्तर्गत प्राप्त कर लिया जायगा, इससे क्या बना, लाठी का प्रहार किया जाय या घूंसे का अन्तर थोड़ा-सा ही है। जो कार्य आज लाठी के माध्यम से पूरा होता है। वही कल घूंसे से होने लगा तो भी स्थिति तो लगभग यथावत् ही बनी रही। भौतिक प्रगति आज भी कम कहां है? उसे बाह्य साधनों के सहारे न सही शरीर के अवयवों के माध्यम से उपलब्ध और प्रयुक्त किया जाने लगा तो भी स्थिति में कोई विशेष अन्तर आने वाला नहीं है।
हमें अति मानव नहीं अति मानस चाहिए। दैत्य नहीं हमें देव अपेक्षित हैं। पदार्थों में दैत्य और भावनाओं में देव रहता है। मानवी प्रगति की वास्तविकता उसके अन्तर्जगत की सुसम्पन्न बनाने में है। अन्तःकरण में स्नेहिल सद्भावना उभरे-ममता और करुणा का निर्झर उछले तो ही समझा जाना चाहिए कि व्यक्ति ने देवत्व की दिशा में चल पड़ने का साहस संजोया है। चरित्र निष्ठा आदर्शवादिता और परमार्थ परायणता की आस्थाएं जब त्रिवेणी संगम का रूप धारण करें तो समझना चाहिए कि उस देवत्व का आविर्भाव हो चला जिसे अति मानस की, दैवी अन्तःकरण की-संज्ञा दी जा सकती है। योगी अरविन्द के पूर्णयोग प्रतिपादन में यह अति मानस ही लक्ष्य है। इसी स्तर के व्यक्ति जीवन मुक्त, परम हंस, देव मानव, सिद्ध पुरुष, ऋषि कल्प कहलाते हैं। जीवन लक्ष्य की पूर्णता इसी स्थिति में पहुंचने पर होती है। दैवी शक्तियों के अवतरण जिस भूमि पर होते हैं वह यह अति मानस का ही कैलाश पर्वत है। इसी को क्षीर सागर, मान सरोवर आदि का नाम दिया गया है। गायत्री का प्राण-प्रिय वाहन राज हंस इसी ब्रह्म लोक में विचरण करता है।
नव युग का अवतरण इसी अति मानस के विकास-विस्तार की व्यापक संभावना साथ लेकर अपनी इसी धरती पर प्रकट होने ही वाला है। इसका माध्यम क्या होगा? इस प्रश्न के उत्तर में गायत्री महा शक्ति की उदीयमान किरणों का दर्शन किया जा सकता है। चौबीस अक्षरों के शब्द गुंथन से भरा पूरा यह नन्हा से मंत्र अपने अन्तराल में ऐसे तत्व-सूत्र और बीज छिपाये हुए है जो मानवी अन्तरात्मा के गहन गह्वर तक अपना प्रभाव पहुंचाता है। पशु को मनुष्य और मनुष्य को देव बनाने की क्षमता उसमें विद्यमान है। गायत्री का तत्वज्ञान उच्चस्तरीय विवेक को जागृत करने की—तृतीय नेत्र-दिव्य दृष्टि खोलने की कुंजी है। उसकी उच्चस्तरीय साधना भागीरथी तप के समतुल्य है। अन्तःकरणों की सीपों में गायत्री महाशक्ति की अमृत वर्षा से ऐसे मोती उत्पन्न होंगे जिन्हें नव युग के नर रत्न कहा जा सके। इन दिनों विश्व मानव को अति मानस को उपलब्ध करने के लिए जिस दिव्य शक्ति की अभ्यर्थना-आराधना करनी पड़ रही है; उसे युग शक्ति गायत्री के नाम से जाना जा सकता है।
परिस्थितियां दृश्यमान तो होती हैं—अनुभव में भी वही आती हैं, पर वस्तुतः उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। जन मानस के आकाश में जब वर्षा के जल बिन्दु भरे रहते हैं तो उन पर चमकने वाली किरणें इन्द्र धनुष के रूप में प्रतिभाषित होती है। वैसा ही नयनाभिराम दीखने वाला, मनमोहक लगने वाला सतयुग के रूप में दृष्टिगोचर होता है। मनःस्थिति की प्रतिक्रिया ही परिस्थिति होती है। मनुष्य में देवत्व का उदय ही प्रधान है। धरती पर स्वर्ग का अवतरण अलग से दीखता भर है इसलिए उसका नाम भी पृथक देना पड़ता है। तत्वतः दोनों को क्रिया और प्रक्रिया के रूप में अविच्छिन्न ही माना जा सकता है।
अब पर्यवेक्षण मनुष्य में देवत्व के उदय का किया जाना चाहिए। देवताओं के व्यक्तित्व में अनेकों विशेषताएं होती हैं। वे सुन्दर होते हैं तरुण रहते हैं। प्रसन्न दीखते हैं। उदारता बरतते हैं। उनके पास समृद्धियों की कमी नहीं रहती। स्वयं तृप्त रहते हैं और दूसरों को तृप्त करते हैं। ऐसी ऐसी अनेकों विभूतियों से भरी पूरी सत्ता ‘देव’ कहलाती है। कल्पना क्षेत्र में ऐसे देवता किसी विशेष लोक में निवास करने वाले अदृश्य प्राणी भी माने जाते हैं और उनकी अभ्यर्थना से अनेकों वरदान मिलने के स्वप्न देखे जाते हैं। इसमें सचाई कम और अलंकारिक कल्पना अधिक है। इतने पर भी देवी सत्ता का अस्तित्व सुनिश्चित है। उसे प्रत्यक्ष देखना हो तो उत्कृष्ट व्यक्तित्वों में उस गरिमा का दर्शन प्रत्यक्ष किया जा सकता है।
जो विशेषताएं देवताओं की सत्ता में परिकल्पित की गई हैं। लगभग उन्हीं से महामानवों को सुसम्पन्न पाया जाता है। अलंकारिक प्रतिपादन तो थोड़ा सा ही बचा रहता है। उसमें लाक्षणिकता तो होती है, पर वास्तविकता का अंश भी इतना बढ़ा-चढ़ा होता है कि उस वर्णन को भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता है सदा तरुण और सदा अमर रहने वाली बात काया की दृष्टि से अवास्तविक होते हुए भी चेतना के स्तर को देखते हुए अक्षरशः सही है। उमंगों की दृष्टि से तरुणाई वयोवृद्ध होने पर यथावत् बनी रहती है। शरीरों के बदलते रहने पर भी आत्मा को अमरता का यथार्थ बोध प्रत्येक तत्वज्ञानी को सुनिश्चित रूप से होता रहता है। ब्राह्मणों को ‘भूसुर’ की पदवी परम्परागत प्रचलन के अनुसार सहज ही मिली है। देवमानवों का ही दूसरा नाम महामानव है। उन्हीं के तीन वर्ग सन्त, सुधारक और शहीदों के रूप में पाये जाते हैं। इन्हीं की यश गाथा का गुणानुवाद कथा पुराणों में—संस्मरण उद्धरणों में—उत्साहपूर्वक कहा और सुना जाता है। ऋषि इसी स्तर के मनुष्यों को कहते हैं। महर्षि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि इनकी श्रेणियां हैं। देवात्मा शब्द ऐसे ही महा मानवों के लिए प्रयुक्त होता है। चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता तथा व्यवहार में शालीनता और गतिविधियों में आदर्शवादिता भरी रहने के कारण इस समुदाय का जीवित एवं अवसान के उपरान्त निरन्तर वंदन अभिनन्दन होता रहता है। देव पूजन की परम्परा में इसी तथ्य को बार-बार उभारा जाता है। देव प्रतिमाओं की स्थापना और उनकी पूजा अभ्यर्थना के माध्यम से इसी लोक शिक्षण की पुण्य परम्परा को सजीव रखा जाता है कि देवत्व के प्रति साधना श्रद्धा बनाये रहने में ही लोक-कल्याण की समस्त संभावनाएं सन्निहित हैं।
जिस नवयुग के आगमन की आशा, अपेक्षा और प्रतीक्षा की जा रही है—जिसे धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा गया है उसे प्रकारान्तर से देव युग कहना भी कोई अत्युक्ति नहीं है। पुराणों में महा मानवों को देवताओं का अवतार सिद्ध करने वाले अनेकों उपाख्यान मौजूद हैं। भगवान जब राम के रूप में अवतार लेकर आये तो रीछ वानरों के रूप में देवताओं ने भी साथ-साथ ही अवतार लिया था। भगवान कृष्ण के साथ पांच पाण्डवों के रूप में पांचों प्रमुख देवता सहायक शक्ति बनकर धरती पर आये थे। इतना ही नहीं स्वयं भगवान ने मनुष्य आकृति में ही अनेकों बार अनेकों प्रयोजनों की पूर्ति के लिए अवतार लिये हैं। इन उपाख्यानों के माध्यम से यही तथ्य स्पष्ट होता है कि मानवी काया में देव सत्ता की रीति-नीति का, गतिविधियों का दर्शन हो सकना पूर्णतया शक्य है। किसी समय इस स्वर्गादपि गरीयसी भारत भूमि के तैंतीस कोटि निवासी-नागरिक संसार भर में तैंतीस कोटि देवताओं के नाम से प्रख्यात थे। उन्हें देवोपम श्रद्धा सम्मान धरती के इस छोर से उस छोर तक प्राप्त था। मनुष्य में देवत्व के उदय का यही स्वरूप है। सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव की त्रिविधि देव सम्पदा से सम्पन्न मनुष्यों को अध्यात्म की भाषा में देव मानव कहा जाता रहा है। इतिहासकार उन्हें ‘महामानव’ नाम देते रहे हैं। जिनमें शरीर एवं साधनों की दृष्टि से समर्थता—बौद्धिक दृष्टि से सजगता और अन्तःकरण की दृष्टि से आत्मभाव की सरस स्नेहशीलता विद्यमान है उन्हें नर नारायण की संज्ञा दी जाती रही है। उन्हें पुरुष पुरुषोत्तम भी कहते हैं। उत्कृष्टता सम्पन्न नर देह धारी आत्माएं ही देवात्मा और परमात्मा का परमपद प्राप्त करती है।
नव युग का उत्पादन यही है। स्वर्ग से धरती पर इसी गरिमामयी गंगा का अगले दिनों अवतरण होना है और इसी के लिए भागीरथ तप किया जाना है। यही है अपने युग साधना का स्वरूप जिसमें जागृत आत्माओं को संलग्न होने के लिए महाकाल की प्रबल प्रेरणा हुंकार भर रही है।
उज्ज्वल भविष्य के सपने प्रायः हर समर्थ क्षेत्र ने अपने-अपने ढंग से संजोये हैं। यह भी सभी को विदित है कि मात्र साधनों का संवर्धन ही सब कुछ नहीं है। व्यक्ति को भी अधिक सुयोग्य और समर्थ बनाना है। इसके लिए विभिन्न स्तर के उपाय भी सोचे अपनाये जा रहे हैं। स्वास्थ्य संवर्धन की-शिक्षा विस्तार की योजनाएं इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनती हैं। अर्थ साधनों के सहारे मनुष्य अधिक सुविकसित हो सके यही अर्थ विकास की योजनाओं का लक्ष्य है। समाज सुधारक और सेवा संगठन अपने ढंग से इसी प्रयोजन को लक्ष्य मानकर चल रहे हैं कि दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा प्राप्त करके मनुष्य सत्प्रवृत्तियों से सुसम्पन्न बन सके। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में सुसंस्कारिता और श्रद्धा के संवर्धन के लिए तत्व ज्ञान और साधन विधान को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रयास होते रहते हैं। यह सामान्य स्तर की सर्वविदित चेष्टाएं हैं जिनसे वैयक्तिक उत्थान की आशा की जाती है।
उच्चस्तरीय स्तर पर इसी प्रयोजन के लिए दूसरे प्रयत्न चल रहे हैं। वैज्ञानिकों का एक वर्ग गुण सूत्रों की सूक्ष्म इकाइयों में हेर फेर करने और ऐसी सफलता पाने के लिए प्रयत्न शील है जिसके आधार पर नई पीढ़ियों के रूप में अधिक अच्छी फसल हाथ लग सके। पेड़ पौधों के स्वरूप और उनके फल फूलों को विकसित करने के लिए कलम लगाने जैसी पद्धतियां अपनाई गई हैं। पशु प्रजनन के लिए कृत्रिम उपाय सोचे गये हैं और सफल भी हुए हैं। रजवीर्य के स्तर एवं निसनेचन क्रम में उलट पुलट करके वर्तमान लोगों को न सही अगली पीढ़ी की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को अपेक्षाकृत अधिक समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न चल रहे हैं।
मनोवैज्ञानिकों के प्रयत्न इससे भी अधिक उच्चस्तरीय हैं। वे व्यक्ति को काय कलेवर और साधन सामग्री से बहुत आगे की सत्ता मानते हैं और उसका निरूपण ‘मनस्’ तत्व के रूप में करते हैं। शरीरगत दुर्बलता और रुग्णता के लिए वे मानसिक विकृतियों को ही उत्तरदायी मानते हैं। चिन्तन की अस्त व्यस्तताओं और दृष्टिकोण की निकृष्टता के कारण मनुष्य का निजी और सामाजिक जीवन कितना दुर्गतिग्रस्त होता है इसके पक्ष में पर्वत जितने प्रमाण मिलते जाते हैं। खिन्नता और उद्विग्नता से ग्रसित रहना परिस्थितियों के कारण नहीं चिन्तन की अव्यवस्था के कारण ही होता है। मनःशास्त्री पूरा बल देकर कहते हैं कि व्यक्ति को सही सोचने का तरीका समझाने और वातावरण बनाकर उसके लिए अभ्यस्त करने का प्रयत्न ही मानवी कल्याण का प्रधान उपाय है। पैरा साइकोलॉजी—मैटाफिजिक्स—न्यूरोलॉजी आदि मनोविज्ञान की धाराओं का प्रयोग, प्रतिपादन इसी दृष्टि से चल रहा है कि अगले दिनों व्यक्तित्वों को अधिक समर्थ समुन्नत और सुसंस्कृत बनाया जा सके।
दार्शनिक दृष्टि से भी इस दिशा में कम काम नहीं हुआ है। नीत्से आदि दार्शनिकों द्वारा अति मानव की कल्पना दी गई कहा—मनोबल सम्पन्न महत्वाकांक्षाएं अपनाकर कोई व्यक्ति या वर्ग असाधारण बन सकता है और उस वर्चस के आधार पर साधारणों को नियंत्रण में रखने और इच्छित दिशा में चलने के लिए विवश कर सकता है। ऐसे अति मानवों का समुदाय स्वयं गौरवशाली रह सकता है और जन समुदाय को अभीष्ट प्रगति की दिशा में घसीटता, धकेलता, खदेड़ता चल सकता है। इस प्रतिपादन का वर्तमान शताब्दी के आरम्भ में बड़ा जोर-शोर से प्रचार हुआ। महत्वाकांक्षी लोगों को यह रुचा भी बहुत और उनने इसे कार्यान्वित करने के लिए आतुर प्रयास भी किये।
अधिनायकवाद इसी प्रतिपादन की देन है। जर्मनी में इसका प्रयोग राजकीय स्तर पर पूरे जोश खरोश के साथ हुआ। नाजीवाद उभरा। हिटलर ने इस विचारधारा का अपने देश में पूरी तरह प्रयोग किया और जर्मन नागरिकों को उसी रंग में सराबोर कर दिया। जातीय श्रेष्ठता की मदिरा पीकर एक बड़ा समाज महत्वाकांक्षाओं के उन्माद से इस बुरी तरह आवेश ग्रस्त हो चला कि पड़ौसी देशों को अकारण कुचलते हुए समूचे यूरेशिया को उदरस्थ कर जाने के लिए लोभ संवरण कर सकना सम्भव ही न रहा। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर—द्वितीय महा युद्ध तक के रोमांचकारी आक्रमणों में संलग्न जर्मनी की गति विधियां इसी अतिमानव वाद की देने थे। उसे दैत्य दर्शन के सामयिक प्रयोग की संज्ञा दी जा सकती है। यह हवा इटली, रूस, चीन आदि अनेक देशों को न्यूनाधिक रूप में प्रभावित करती रही है और उसके उद्धत प्रदर्शन समय-समय पर सामने आते रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका से लेकर अमेरिकी गोरों तक के अनेक समुदाय अपने-अपने ढंग से जातीय श्रेष्ठता का अहमन्यता से बेहिचक उत्पीड़न करते रहे हैं। वर्ग लिंग जाति, समाज, राष्ट्र के नाम पुराना सामन्तवाद अब नये फासिज्म का रूप इन्हीं दार्शनिक सिद्धान्तों को उत्साहपूर्वक अपनाने लगा है और उसे तर्क संगत सिद्ध कर रहा है।
अधिनायकवाद फासिज्म वर्ग विशेष को अति मानव बनाने की एक दार्शनिक चेष्टा है। उससे उत्पन्न लाभ-हानि का उचित-अनुचित का विवेचन यहां नहीं हो रहा है। इन पंक्तियों में तो इतना ही कहा जा रहा है कि अति मानव बनाने की उत्तेजनाएं दार्शनिक क्षेत्र में भी उत्पन्न की जाती रही है। मौन वहां भी नहीं हैं।
उपरोक्त स्तर के सभी प्रयत्न मनुष्य के बहिरंग पक्ष का स्पर्श करते हैं और उसे भौतिक सामर्थ्यों से सुसज्जित करके उसी प्रकार की प्रगति की अपेक्षा करते हैं। विचारणीय यह है कि क्या इन सामर्थ्य साधनों की आज भी कमी है? अन्तर इतना ही है कि इन दिनों साधन और शक्ति अलग से विद्यमान है उसी को इन प्रयत्नों के द्वारा शरीर के अन्तर्गत प्राप्त कर लिया जायगा, इससे क्या बना, लाठी का प्रहार किया जाय या घूंसे का अन्तर थोड़ा-सा ही है। जो कार्य आज लाठी के माध्यम से पूरा होता है। वही कल घूंसे से होने लगा तो भी स्थिति तो लगभग यथावत् ही बनी रही। भौतिक प्रगति आज भी कम कहां है? उसे बाह्य साधनों के सहारे न सही शरीर के अवयवों के माध्यम से उपलब्ध और प्रयुक्त किया जाने लगा तो भी स्थिति में कोई विशेष अन्तर आने वाला नहीं है।
हमें अति मानव नहीं अति मानस चाहिए। दैत्य नहीं हमें देव अपेक्षित हैं। पदार्थों में दैत्य और भावनाओं में देव रहता है। मानवी प्रगति की वास्तविकता उसके अन्तर्जगत की सुसम्पन्न बनाने में है। अन्तःकरण में स्नेहिल सद्भावना उभरे-ममता और करुणा का निर्झर उछले तो ही समझा जाना चाहिए कि व्यक्ति ने देवत्व की दिशा में चल पड़ने का साहस संजोया है। चरित्र निष्ठा आदर्शवादिता और परमार्थ परायणता की आस्थाएं जब त्रिवेणी संगम का रूप धारण करें तो समझना चाहिए कि उस देवत्व का आविर्भाव हो चला जिसे अति मानस की, दैवी अन्तःकरण की-संज्ञा दी जा सकती है। योगी अरविन्द के पूर्णयोग प्रतिपादन में यह अति मानस ही लक्ष्य है। इसी स्तर के व्यक्ति जीवन मुक्त, परम हंस, देव मानव, सिद्ध पुरुष, ऋषि कल्प कहलाते हैं। जीवन लक्ष्य की पूर्णता इसी स्थिति में पहुंचने पर होती है। दैवी शक्तियों के अवतरण जिस भूमि पर होते हैं वह यह अति मानस का ही कैलाश पर्वत है। इसी को क्षीर सागर, मान सरोवर आदि का नाम दिया गया है। गायत्री का प्राण-प्रिय वाहन राज हंस इसी ब्रह्म लोक में विचरण करता है।
नव युग का अवतरण इसी अति मानस के विकास-विस्तार की व्यापक संभावना साथ लेकर अपनी इसी धरती पर प्रकट होने ही वाला है। इसका माध्यम क्या होगा? इस प्रश्न के उत्तर में गायत्री महा शक्ति की उदीयमान किरणों का दर्शन किया जा सकता है। चौबीस अक्षरों के शब्द गुंथन से भरा पूरा यह नन्हा से मंत्र अपने अन्तराल में ऐसे तत्व-सूत्र और बीज छिपाये हुए है जो मानवी अन्तरात्मा के गहन गह्वर तक अपना प्रभाव पहुंचाता है। पशु को मनुष्य और मनुष्य को देव बनाने की क्षमता उसमें विद्यमान है। गायत्री का तत्वज्ञान उच्चस्तरीय विवेक को जागृत करने की—तृतीय नेत्र-दिव्य दृष्टि खोलने की कुंजी है। उसकी उच्चस्तरीय साधना भागीरथी तप के समतुल्य है। अन्तःकरणों की सीपों में गायत्री महाशक्ति की अमृत वर्षा से ऐसे मोती उत्पन्न होंगे जिन्हें नव युग के नर रत्न कहा जा सके। इन दिनों विश्व मानव को अति मानस को उपलब्ध करने के लिए जिस दिव्य शक्ति की अभ्यर्थना-आराधना करनी पड़ रही है; उसे युग शक्ति गायत्री के नाम से जाना जा सकता है।