Books - युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
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Language: HINDI
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गायत्री की तृतीय प्रेरणा—एकता, समता, सहकारिता
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गायत्री मन्त्र का तीसरा चरण है—धियो योनः प्रचोदयात्। धी-सद्बुद्धि, प्रज्ञा। यो-समता। नः-हम सब, सहकारिता। इन तीनों ही विशेषताओं की प्रचण्ड प्रेरणा के लिए दिव्य शक्ति की प्रार्थना की गई है। संक्षिप्त में यह है—तीसरे चरण का सार और प्रकाश, जिसे इस तत्व ज्ञान के समर्थक को हृदयंगम करना ही चाहिए। इन प्रेरणाओं को सामयिक प्रयोग की दृष्टि से (1) एकता (2) समता (3) सहकारिता कह सकते हैं। धियः शब्द में जिस सद्बुद्धि की गरिमा बताई गई है उसका व्यावहारिक स्वरूप आत्मीयता या एकता ही हो सकता है। वसुधैव कुटुम्बकम् का-आत्मवत् सर्वभूतेषु का-दर्शन जिस मान्यता और रीति-नीति में चरितार्थ होता है उसे एकता ही कहना चाहिए।
शरीर शक्ति के सदुपयोग की शिक्षा गायत्री के प्रथम चरण में सन्निहित सिद्धान्तों पर अवलम्बित है। इसे समृद्धि सम्वर्धक कर्मयोग कहना चाहिए। दूसरे चरण में मानसिक क्षमता के अभिवर्धन और उसका श्रेष्ठता के लिए नियोजन करने के सिद्धान्तों का समावेश है। इसे ज्ञानयोग कह सकते हैं। गायत्री का तीसरा चरण है—भक्तियोग। भक्ति अर्थात् प्रेम। प्रेम अर्थात् करुणा, आत्मीयता, उदारता, सेवा। इसी दर्शन की समाज निष्ठा कहते हैं। इस विश्व को विराट ब्रह्म की मान्यता देकर लोक-मंगल की साधना को ईश्वर भक्ति का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप बताया गया है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को—राम ने काक भुसुंडि और कौशल्या को इसी विराट् का दर्शन कराया था। ईश्वर भक्ति का दर्शन परमार्थ परायणता की ही पृष्ठभूमि बनाता है।
समाज निर्माण के, विश्व निर्माण के, युग परिवर्तन के-तीन आदर्श ऐसे हैं, जिन्हें गौरवास्पद अतीत की तरह उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अनिवार्य रूप से अपनाना पड़ेगा। इन तीनों सिद्धान्तों का स्वरूप और प्रयोग जन-जन को समझाना चाहिए। गायत्री तत्व ज्ञान का समाज रचना पक्ष इन्हीं आदर्शों के साथ जुड़ा हुआ माना जाना चाहिए। एकता, समता और सहकारिता का दर्शन ही नव-निर्माण प्रयोजनों का आधार होना चाहिए।
एकता का तात्पर्य है विभिन्नताओं और प्रथकताओं का यथासम्भव घटाते जाने के लिए प्रयत्न आरम्भ करना और उस स्थिति तक जा पहुंचना जिसमें कौटुम्बिक एकता को बनाये रहने वाले समस्त प्रमुख सूत्रों का समावेश रह सके। इन दिनों देश, भाषा एवं धर्म की भिन्नता मानवी आत्मीयता, एकता एवं विचारणा में भारी व्यवधान उत्पन्न करती है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि यह वर्ग विभेद घटता चला जाय और हर व्यक्ति विश्व नागरिकता का आनन्द एवं लाभ भली प्रकार प्राप्त कर सके। एकता का अभिप्राय यही है।
एकता धर्म की भी होती है। धर्म का तात्पर्य है नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं का परिपालन-इसे कर्तव्य पालन भी कह सकते हैं। धर्म का समूचा कलेवर इसी दृष्टि से बना है और उसका उपयोग सर्वजनीन एवं सार्वभौम है। धर्म शास्त्र के अन्तर्गत आने वाली आचार संहिता का तत्वदर्शियों द्वारा इसी उद्देश्य के लिए निर्माण किया गया है। मूलतः धर्म की व्याख्या में सत्प्रवृत्तियों का ही वर्णन, विवेचन और प्रतिपादन होता रहा है।
धर्म की छाया में साम्प्रदायिकता की कट्टरता अलग से बनती और पनपती चली आई है। यह वस्तुतः देश की, जाति विशेष की परम्पराओं, परिस्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर समय-समय पर स्थानीय सुधारकों द्वारा गढ़ी जाती रही है। ऐसे सुधार सामयिक एवं स्थानीय समस्याओं का ही समाधान करते हैं उनसे एक सीमित क्षेत्र एवं वर्ग की कठिनाइयों का ही हल निकलता है। समय बीतने पर समाज में अन्य विकृतियां उठ खड़ी होती हैं और उनका हल दूसरे ढंग से निकालना पड़ता है। इन्हीं विधि-विधानों को ‘सम्प्रदाय’ कहते हैं। वे प्रतिपादन शाश्वत नहीं होते हैं। इन सम्प्रदायों की छोटी परिधि में ही नित नये सुधारक उत्पन्न होते रहते हैं और अपने पूर्ववर्तियों की कही बातों में उलट-पुलट करते रहते हैं।
साम्प्रदायिक विधि-विधानों की सामयिक उपयोगिता भले ही रही है, उनके संस्थापकों का उद्देश्य कितना ही ऊंचा क्यों न रहा हो, पर वे जब कट्टरता का रूप धारण कर लेते हैं तो अपनी मान्यताओं को पूर्ण सत्य और अन्य मान्यताओं को पूर्ण मिथ्या मानने लगते हैं। इतना ही नहीं दूसरों को अपना अनुयायी बनाने के लिए दबाव भी डालते हैं। यह दबाव कई बार इतने अनैतिक होते हैं कि उनसे धर्म की आत्मा ही कांप उठती है। साम्प्रदायिक विद्वेष ने अपने सम्प्रदाय में दूसरों को दीक्षित करने के प्रयास में से—कितने अनर्थ किये हैं, इसे इतिहास के रक्त रंचित पृष्ठ पढ़ कर कोई भी विचारशील व्यक्ति आंसू ही बहा सकता है और उन्हें मानवी प्रगति में बाधक तक कह सकता है। जो हो, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि दार्शनिक विचार भिन्नता के लिए गुंजाइश रहते हुए भी नवयुग में साम्प्रदायिक संकीर्णता के लिए स्थान नहीं रहेगा। वैयक्तिक आचार-संहिता और सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण समूची मानव जाति की सुविधा और शालीनता को दृष्टि में रखकर करना होगा। यह निर्धारण सार्वभौम ही हो सकता है। इसलिए समस्त विश्व का एक धर्म भी बन कर रहेगा। विश्व निर्माण में एक राष्ट्र एक भाषा और एक धर्म की तीनों ही आवश्यकताएं पूरी करनी होंगी। वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श यदि व्यवहार में उतारना हो तो इन त्रिविधि एकताओं को लक्ष्य मानकर चलना और उसके लिए प्रबल प्रयास करना आवश्यक हो जायगा।
विश्व निर्माण का प्रथम पक्ष एकता और दूसरा समता है। समता में जाति, लिंग और अर्थ की त्रिविधि समताओं का समावेश है। इन दिनों वंश के आधार पर जातियां बनी हुई हैं और हर जाति अपने साथ प्रथकता की कट्टरता जोड़े हुए है। अपनी जाति के लोग अपने लगते हैं और दूसरी जाति के बिराने। इतना ही नहीं—अपने लोगों के साथ पक्षपात और पराये लोगों के साथ अनाचार बरतते हुए भी संकोच नहीं होता। रोटी बेटी से लेकर अन्य प्रकार के आदान-प्रदान भी अपनी-अपनी जाति की परिधि में चलाने को प्राथमिकता दी जाती है। इस वंशगत संकीर्णता का परिणाम संसार भर में जाति विद्वेष के रूप में अनेकों प्रकार की विकृतियां उत्पन्न करते देखा जा सकता है। गोरे और काले का, सवर्ण और असवर्ण का भेद कितनी विषमता उत्पन्न करता है और उससे न्याय एवं औचित्य का कितना हनन होता है इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। भारत में तो चुनावों तक में इस जातिवादी संकीर्णता का बोलबाला है। विवाह शादियां इसी कट्टरता के कारण एक समस्या बन गई हैं। समूचा सामाजिक ढांचा ही इस जाति गत कट्टरता से चरमरा गया है। वंश विद्वेष के दुष्परिणामों ने भयंकर समस्याएं रचकर खड़ी कर दी हैं। अपने देश में छूत-अछूत से लेकर जातियों और उपजातियों के बीच पाई जाने वाली प्रथकता एवं विषाक्तता का ही वातावरण उत्पन्न करती चली जा रही है। इसे घटाने और मिटाने पर ही नवयुग की आधार शिला रखी जा सकेगी।
जाति गत विषमता की तरह ही लिंग गत असमता भी दुर्भाग्य पूर्ण है। नर और नारी के बीच बरते जाने वाले भेद-भाव को पग-पग पर देखा जा सकता है। कन्या और पुत्र का अन्तर—पर्दा प्रथा, दहेज—बलात् वैधव्य घर का सीमा बन्धन, पत्नी परित्याग जैसे अनेक रीति-रिवाज ऐसे हैं जिनमें स्पष्ट ही नारी को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है। पुरुष को जो अधिकार प्राप्त हैं वे उसे नहीं मिल रहे हैं। उसकी स्थिति मनुष्य और पशु के मध्यवर्ती जैसी समझी जा सकती है। सभ्य समाज का समर्थ नागरिक की स्थिति में रहने का अवसर उसके हाथ से छीन लिया गया है और नर की क्रीत दासी जैसी भूमिका उसे निभानी पड़ रही है। आज तो इस स्थिति का समर्थन कितने ही सामन्तवादी तर्कों के आधार पर किया जाता है और इसके प्रतिपादन में धर्म तक की दुहाई दी जाती है। पर विवेक और न्याय की आत्मा इस स्थिति को असह्य बताती है। नवयुग में नर और नारी के सम्बन्ध स्नेह, सौहार्द्र और आदान-प्रदान के आधार पर मधुरतम बनेंगे उसमें वर्तमान शोषण के लिए कोई स्थान न रहेगा।
एकता और समता की ही तरह नवयुग का तीसरा आदर्श है—सहकारिता—उसे संघबद्धता एवं सामूहिकता भी कह सकते हैं। व्यक्ति को संकीर्ण स्वार्थों की परिपोषण की आपाधापी नहीं करनी चाहिए वरन् अपने को समाज के एक छोटी इकाई भर मानकर सार्वजनिक हित को प्रधानता देनी चाहिए। मिल-जुलकर रहना ही कौटुम्बिकता है। यह सिद्धान्त पीछे परिवार तक सीमित न रखकर व्यापक बनना चाहिए। आर्थिक क्षेत्र की सहकारिता के लाभ इन दिनों अधिक अच्छी तरह समझे जा रहे हैं और छोटे-बड़े संस्थान, व्यवसाय इसी आधार पर खड़े किये जा रहे हैं। सरकारी तन्त्र भी उसे प्रोत्साहन और सुविधा देता है। संस्थाओं का गठन इसी आधार पर होता है। संयुक्त परिवारों की प्रथा तो इसका जीता जागता स्वरूप है। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ लोकसेवी महामानव इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करने और उसके लिए अपना आदर्श उपस्थित करने में लगे रहते हैं। जन-साधारण के सामने यह सम्माननीय देव पुरुष यह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि व्यक्तिगत स्वार्थ को सामूहिक स्वार्थ के लिये उत्सर्ग किया जाना चाहिए।
विचारशील वर्ग में कम्यून परिपाटी लार्जर फैमिली प्रयोगों के सम्बन्ध में बहुत चर्चा होती है और उसके लिये आधार सोचे और खड़े किये जाते हैं। भविष्य में व्यक्तिवाद को समूहवाद में परिवर्तित करने के लिये सहकारिता की सामूहिक प्रवृत्ति को ही क्रियान्वित करना होगा। विश्व बन्धुत्व का—विश्व नागरिकता का—सिद्धान्त सहकारिता की प्रवृत्ति अपनाने पर ही सम्भव हो सकेगा। सहकारिता वैयक्तिक उत्कर्ष का और सामाजिक प्रगति का आधार भूत सिद्धान्त है। संकीर्ण स्वार्थ परता से ही समस्त दुष्प्रवृत्तियां पनपती हैं और अपराधों, आक्रमणों की बाढ़ आती हैं। सामूहिकता में एक दूसरे के सहयोगी रहने, उदार व्यवहार करने का आदर्श अपनाना पड़ता है। इस तत्व दर्शन ने प्रगति और शान्ति की सम्भावनाएं होंगी। नवयुग में अवतरण के अनुकूल समाज संरचना के लिए अनेकों प्रकार के अनेकानेक रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम अपनाने पड़ेंगे, पर उन सबके मूल में एकता, समता और सहकारिता की तीन प्रवृत्तियां ही प्रमुख हैं। इन्हीं की पूर्ति के लिये उन गतिविधियों का निर्धारण करना होगा जो नवयुग की सुखद सम्भावनाओं को साकार कर सकती है।
समाज निर्माण के, विश्व निर्माण के, युग परिवर्तन के-तीन आदर्श ऐसे हैं, जिन्हें गौरवास्पद अतीत की तरह उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अनिवार्य रूप से अपनाना पड़ेगा। इन तीनों सिद्धान्तों का स्वरूप और प्रयोग जन-जन को समझाना चाहिए। गायत्री तत्व ज्ञान का समाज रचना पक्ष इन्हीं आदर्शों के साथ जुड़ा हुआ माना जाना चाहिए। एकता, समता और सहकारिता का दर्शन ही नव-निर्माण प्रयोजनों का आधार होना चाहिए।
एकता का तात्पर्य है विभिन्नताओं और प्रथकताओं का यथासम्भव घटाते जाने के लिए प्रयत्न आरम्भ करना और उस स्थिति तक जा पहुंचना जिसमें कौटुम्बिक एकता को बनाये रहने वाले समस्त प्रमुख सूत्रों का समावेश रह सके। इन दिनों देश, भाषा एवं धर्म की भिन्नता मानवी आत्मीयता, एकता एवं विचारणा में भारी व्यवधान उत्पन्न करती है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि यह वर्ग विभेद घटता चला जाय और हर व्यक्ति विश्व नागरिकता का आनन्द एवं लाभ भली प्रकार प्राप्त कर सके। एकता का अभिप्राय यही है।
एकता धर्म की भी होती है। धर्म का तात्पर्य है नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं का परिपालन-इसे कर्तव्य पालन भी कह सकते हैं। धर्म का समूचा कलेवर इसी दृष्टि से बना है और उसका उपयोग सर्वजनीन एवं सार्वभौम है। धर्म शास्त्र के अन्तर्गत आने वाली आचार संहिता का तत्वदर्शियों द्वारा इसी उद्देश्य के लिए निर्माण किया गया है। मूलतः धर्म की व्याख्या में सत्प्रवृत्तियों का ही वर्णन, विवेचन और प्रतिपादन होता रहा है।
धर्म की छाया में साम्प्रदायिकता की कट्टरता अलग से बनती और पनपती चली आई है। यह वस्तुतः देश की, जाति विशेष की परम्पराओं, परिस्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर समय-समय पर स्थानीय सुधारकों द्वारा गढ़ी जाती रही है। ऐसे सुधार सामयिक एवं स्थानीय समस्याओं का ही समाधान करते हैं उनसे एक सीमित क्षेत्र एवं वर्ग की कठिनाइयों का ही हल निकलता है। समय बीतने पर समाज में अन्य विकृतियां उठ खड़ी होती हैं और उनका हल दूसरे ढंग से निकालना पड़ता है। इन्हीं विधि-विधानों को ‘सम्प्रदाय’ कहते हैं। वे प्रतिपादन शाश्वत नहीं होते हैं। इन सम्प्रदायों की छोटी परिधि में ही नित नये सुधारक उत्पन्न होते रहते हैं और अपने पूर्ववर्तियों की कही बातों में उलट-पुलट करते रहते हैं।
साम्प्रदायिक विधि-विधानों की सामयिक उपयोगिता भले ही रही है, उनके संस्थापकों का उद्देश्य कितना ही ऊंचा क्यों न रहा हो, पर वे जब कट्टरता का रूप धारण कर लेते हैं तो अपनी मान्यताओं को पूर्ण सत्य और अन्य मान्यताओं को पूर्ण मिथ्या मानने लगते हैं। इतना ही नहीं दूसरों को अपना अनुयायी बनाने के लिए दबाव भी डालते हैं। यह दबाव कई बार इतने अनैतिक होते हैं कि उनसे धर्म की आत्मा ही कांप उठती है। साम्प्रदायिक विद्वेष ने अपने सम्प्रदाय में दूसरों को दीक्षित करने के प्रयास में से—कितने अनर्थ किये हैं, इसे इतिहास के रक्त रंचित पृष्ठ पढ़ कर कोई भी विचारशील व्यक्ति आंसू ही बहा सकता है और उन्हें मानवी प्रगति में बाधक तक कह सकता है। जो हो, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि दार्शनिक विचार भिन्नता के लिए गुंजाइश रहते हुए भी नवयुग में साम्प्रदायिक संकीर्णता के लिए स्थान नहीं रहेगा। वैयक्तिक आचार-संहिता और सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण समूची मानव जाति की सुविधा और शालीनता को दृष्टि में रखकर करना होगा। यह निर्धारण सार्वभौम ही हो सकता है। इसलिए समस्त विश्व का एक धर्म भी बन कर रहेगा। विश्व निर्माण में एक राष्ट्र एक भाषा और एक धर्म की तीनों ही आवश्यकताएं पूरी करनी होंगी। वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श यदि व्यवहार में उतारना हो तो इन त्रिविधि एकताओं को लक्ष्य मानकर चलना और उसके लिए प्रबल प्रयास करना आवश्यक हो जायगा।
विश्व निर्माण का प्रथम पक्ष एकता और दूसरा समता है। समता में जाति, लिंग और अर्थ की त्रिविधि समताओं का समावेश है। इन दिनों वंश के आधार पर जातियां बनी हुई हैं और हर जाति अपने साथ प्रथकता की कट्टरता जोड़े हुए है। अपनी जाति के लोग अपने लगते हैं और दूसरी जाति के बिराने। इतना ही नहीं—अपने लोगों के साथ पक्षपात और पराये लोगों के साथ अनाचार बरतते हुए भी संकोच नहीं होता। रोटी बेटी से लेकर अन्य प्रकार के आदान-प्रदान भी अपनी-अपनी जाति की परिधि में चलाने को प्राथमिकता दी जाती है। इस वंशगत संकीर्णता का परिणाम संसार भर में जाति विद्वेष के रूप में अनेकों प्रकार की विकृतियां उत्पन्न करते देखा जा सकता है। गोरे और काले का, सवर्ण और असवर्ण का भेद कितनी विषमता उत्पन्न करता है और उससे न्याय एवं औचित्य का कितना हनन होता है इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। भारत में तो चुनावों तक में इस जातिवादी संकीर्णता का बोलबाला है। विवाह शादियां इसी कट्टरता के कारण एक समस्या बन गई हैं। समूचा सामाजिक ढांचा ही इस जाति गत कट्टरता से चरमरा गया है। वंश विद्वेष के दुष्परिणामों ने भयंकर समस्याएं रचकर खड़ी कर दी हैं। अपने देश में छूत-अछूत से लेकर जातियों और उपजातियों के बीच पाई जाने वाली प्रथकता एवं विषाक्तता का ही वातावरण उत्पन्न करती चली जा रही है। इसे घटाने और मिटाने पर ही नवयुग की आधार शिला रखी जा सकेगी।
जाति गत विषमता की तरह ही लिंग गत असमता भी दुर्भाग्य पूर्ण है। नर और नारी के बीच बरते जाने वाले भेद-भाव को पग-पग पर देखा जा सकता है। कन्या और पुत्र का अन्तर—पर्दा प्रथा, दहेज—बलात् वैधव्य घर का सीमा बन्धन, पत्नी परित्याग जैसे अनेक रीति-रिवाज ऐसे हैं जिनमें स्पष्ट ही नारी को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है। पुरुष को जो अधिकार प्राप्त हैं वे उसे नहीं मिल रहे हैं। उसकी स्थिति मनुष्य और पशु के मध्यवर्ती जैसी समझी जा सकती है। सभ्य समाज का समर्थ नागरिक की स्थिति में रहने का अवसर उसके हाथ से छीन लिया गया है और नर की क्रीत दासी जैसी भूमिका उसे निभानी पड़ रही है। आज तो इस स्थिति का समर्थन कितने ही सामन्तवादी तर्कों के आधार पर किया जाता है और इसके प्रतिपादन में धर्म तक की दुहाई दी जाती है। पर विवेक और न्याय की आत्मा इस स्थिति को असह्य बताती है। नवयुग में नर और नारी के सम्बन्ध स्नेह, सौहार्द्र और आदान-प्रदान के आधार पर मधुरतम बनेंगे उसमें वर्तमान शोषण के लिए कोई स्थान न रहेगा।
एकता और समता की ही तरह नवयुग का तीसरा आदर्श है—सहकारिता—उसे संघबद्धता एवं सामूहिकता भी कह सकते हैं। व्यक्ति को संकीर्ण स्वार्थों की परिपोषण की आपाधापी नहीं करनी चाहिए वरन् अपने को समाज के एक छोटी इकाई भर मानकर सार्वजनिक हित को प्रधानता देनी चाहिए। मिल-जुलकर रहना ही कौटुम्बिकता है। यह सिद्धान्त पीछे परिवार तक सीमित न रखकर व्यापक बनना चाहिए। आर्थिक क्षेत्र की सहकारिता के लाभ इन दिनों अधिक अच्छी तरह समझे जा रहे हैं और छोटे-बड़े संस्थान, व्यवसाय इसी आधार पर खड़े किये जा रहे हैं। सरकारी तन्त्र भी उसे प्रोत्साहन और सुविधा देता है। संस्थाओं का गठन इसी आधार पर होता है। संयुक्त परिवारों की प्रथा तो इसका जीता जागता स्वरूप है। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ लोकसेवी महामानव इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करने और उसके लिए अपना आदर्श उपस्थित करने में लगे रहते हैं। जन-साधारण के सामने यह सम्माननीय देव पुरुष यह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि व्यक्तिगत स्वार्थ को सामूहिक स्वार्थ के लिये उत्सर्ग किया जाना चाहिए।
विचारशील वर्ग में कम्यून परिपाटी लार्जर फैमिली प्रयोगों के सम्बन्ध में बहुत चर्चा होती है और उसके लिये आधार सोचे और खड़े किये जाते हैं। भविष्य में व्यक्तिवाद को समूहवाद में परिवर्तित करने के लिये सहकारिता की सामूहिक प्रवृत्ति को ही क्रियान्वित करना होगा। विश्व बन्धुत्व का—विश्व नागरिकता का—सिद्धान्त सहकारिता की प्रवृत्ति अपनाने पर ही सम्भव हो सकेगा। सहकारिता वैयक्तिक उत्कर्ष का और सामाजिक प्रगति का आधार भूत सिद्धान्त है। संकीर्ण स्वार्थ परता से ही समस्त दुष्प्रवृत्तियां पनपती हैं और अपराधों, आक्रमणों की बाढ़ आती हैं। सामूहिकता में एक दूसरे के सहयोगी रहने, उदार व्यवहार करने का आदर्श अपनाना पड़ता है। इस तत्व दर्शन ने प्रगति और शान्ति की सम्भावनाएं होंगी। नवयुग में अवतरण के अनुकूल समाज संरचना के लिए अनेकों प्रकार के अनेकानेक रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम अपनाने पड़ेंगे, पर उन सबके मूल में एकता, समता और सहकारिता की तीन प्रवृत्तियां ही प्रमुख हैं। इन्हीं की पूर्ति के लिये उन गतिविधियों का निर्धारण करना होगा जो नवयुग की सुखद सम्भावनाओं को साकार कर सकती है।