Books - युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण
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Language: HINDI
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युग परिवर्तन में गायत्री महाशक्ति का अवतरण
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युग परिवर्तन अपने समय का सुनिश्चित तथ्य है। इस विश्व उद्यान का सृजेता अपनी इस अनुपम कलाकृति को इस तरह नष्ट-भ्रष्ट होने नहीं देना चाहता, जिस तरह वह इन दिनों विनाश के गर्त में गिरने के लिए द्रुतगति से बढ़ती जा रही है। मनुष्य उसके वर्चस् और वैभव का प्रतीक है। सारा कौशल एकत्रित करके उसे बड़े अरमानों के साथ बनाने वाले ने उसे बनाया है सामूहिक आत्म हत्या के लिए इन दिनों उसकी उतावली चल रही है। बुद्धि वैभव का भस्मासुर संस्कृति की पार्वती को हथियाने और शिव को मिटाने पर उतारू हो रहा हो तो ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य.........’’ का आश्वासन निष्क्रियता नहीं अपनाये रह सकता। सन्तुलन के लिए प्रतिज्ञाबद्ध नियति को अपने नियमन का गतिचक्र चलाना ही था। सो, वह सब इन्हीं दिनों हो रहा है। चर्म-चक्षु ब्रह्म मुहूर्त के आगमन का आभास भले ही न लगा सकें किन्तु जिन्हें पूर्वाभास की संवेदन शक्ति उपलब्ध है वे देखते हैं, निशा बीत गई और ऊषा की मुसकान में अब बहुत विलम्ब नहीं है।
नव युग के अवतरण का तथ्य विवादास्पद प्रसंग नहीं रहा। उसे सुनिश्चित सम्भावना के रूप में लगभग प्रत्यक्ष ही अनुभव किया जा सकता है। ध्वंस की शक्तियों का सम्मान करने के लिए जब सृजन साहस पूर्वक डट जाय तो सभी जानते हैं कि जीतेगा कौन? सत्य ही जीतता है असत्य नहीं। इस श्रुति वचन में सृष्टि की शाश्वत परम्परा का समावेश है। अन्धकार का साम्राज्य तभी तक सघन बन रहा है जब तक प्रकाश प्रकट नहीं होता है जब विश्व चेतना की पुकार तमस् के प्रति अस्वीकृति और ज्योति की ओर गमन करने की आतुरता व्यक्त कर रही हो तो फिर नव प्रभात का अवतरण सुनिश्चित तथ्य ही माना जाना चाहिए।
युग परिवर्तन में यों सदा ही विकृतियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन होता है, पर रोग और उपचार की भिन्नता प्रायः हर बार होती है। वही उसकी भिन्नता और विशेषता समझी जाती है। अतीत के पूर्व प्रसंगों में दुष्टता की उद्दण्डता ही विश्व विनाश के लिए उभरती रही है फलतः उसे निरस्त करने के लिए शस्त्रधारी भगवान अवतार लेते रहे हैं। बाहार के दांत, नृसिंह के नख, परशुराम का फरसा, राम का धनुष, कृष्ण का चक्र इस प्रसंग में सहज ही स्मरण हो जाते हैं। इस बार दुष्टता नहीं भ्रष्टता का उभार है। उसके लिए बुद्ध की परम्परा ही कारगर हो सकती है। अनय से अनय का निराकरण ज्ञान गंगा के स्वर्ग से धरती पर अवतरण की ही पुनरावृत्ति होनी है अब की बार का अवतार ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में होगा। युग चण्डी का साक्षात्कार इन दिनों हम सब इसी रूप में करेंगे। इस बार क्रियागत दुष्टता की जड़ कहीं अधिक गहरी है विचारणाओं से भी आगे बढ़कर आस्थाओं के क्षेत्र तक को जकड़ चुकी है। उनकी जटिलता भ्रष्टता के रूप में प्रकटी है। इसका निराकरण अपेक्षाकृत अधिक कठिन है। इसलिए उपचार भी इतना ही प्रखर-उतना ही उच्चस्तरीय होना है। इस बार का अवतरण युगशक्ति गायत्री के रूप में है दुष्टता से निपटने के लिए शस्त्र पर्याप्त हैं। किन्तु भ्रष्टता अदृश्य है। वह आकांक्षाओं और आस्थाओं की गहराई में जा घुसती है उतनी ही गहरी डुबकी लगा कर छिपे चोर को ढूंढ़ निकालना और उलट कर निरस्त करना अपेक्षाकृत अधिक जटिल है। इतना व्यापक इतना जटिल अन्य इतना कठिन काम भगवती आद्य शक्ति ही कर सकती है अज्ञानजन्य अनाचार प्रज्ञा के प्रचण्ड आलोक का उदय हुए बिना और किसी तरह मिट नहीं सकता। इस बार के महान परिवर्तन को सम्पन्न करने के लिए ब्राह्मी शक्ति को स्वयं ही आना पड़ रहा है। पार्षदों से यह काम चलने वाला था नहीं।
हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए शक्ति चाहिए। कोई भी छोटा बड़ा यन्त्र शक्ति के बिना चलता नहीं। समष्टि तन्त्र की तरह ही व्यक्ति तन्त्र का गतिशील रहना भी शक्ति की मात्रा पर ही निर्भर है। परिवर्तन कृत्यों में तो साधारण की अपेक्षा कहीं अधिक परिमाण में शक्ति की आवश्यकता पड़ती है ध्वंस और निर्माण दोनों के लिए असाधारण साधन जुटाने होते हैं। संसार के महत्वपूर्ण परिवर्तनों के घटनाक्रमों पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि उनके लिए प्रचुर परिमाण में साधन शक्ति, श्रम शक्ति और चिन्तन शक्ति का उपयोग हुआ है। सामाजिक आर्थिक, एवं राजनैतिक क्रान्तियों को सफल बनाने में समय-समय पर असाधारण सामर्थ्य का उपयोग होता रहा है। यदि वह साधन न जुटते तो लक्ष्य की प्राप्ति हो ही नहीं सकती थी इस बार के युग परिवर्तन की रण स्थली जिस धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र की विस्तृत भूमि में फैली हुई है उसे लोक मानस कह सकते हैं। परिष्कार और परिवर्तन के सरंजाम इसी परिधि में खड़े किये जाने हैं। सेनापतियों के खेमे इसी भूमि में गढ़ रहे हैं। लक्ष्य जन मानस का परिष्कार है। प्रस्तुत समस्याएं इतनी जटिल हैं कि उनका समाधान वाह्य उपचारों से किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा। चिन्तन का प्रवाह उलटे बिना विनाश की विभीषिका को विकास की सम्भावना में परिवर्तित किया नहीं जा सकता। चिन्तन की दिशा धारा को सुव्यवस्थित करने वाले दिव्य प्रभाव को युगान्तर चेतना कहा जा सकता है। यही युग शक्ति गायत्री है। युग परिवर्तन का उद्गम स्रोत इसी को समझा जाना चाहिए। उसके क्रिया-कलाप अनेकों अवांछनीयता के लिए ध्वंसात्मक और औचित्य के लिये सृजनात्मक क्रिया-कलापों में देखे जा सकेंगे। समग्र परिवर्तन बौद्धिक-नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के तीन खण्डों में बंटा हुआ है। इसे त्रिपदा की तीन धाराएं कहा जा सकता है और उसके समन्वय को त्रिवेणी संगम का नाम दिया जा सकता है।
त्रिवेणी संगम पर स्नान करने का माहात्म्य ‘‘काक होंहि पिक वकहु मराला’’ बताया गया है। जन-मानस का परिष्कार इसी रूप में परिलक्षित होता है। आकृतियां तो यथावत् रहती हैं किन्तु प्रकृति बदल जाती है। अन्तरंग बदलता है तो बहिरंग को उलटते देर नहीं लगती है। युग शक्ति गायत्री का अवतरण और क्रिया-कलाप इसी रूप में देखा समझा जा सकता है। युग परिवर्तन में इस बार उसी की भूमिका सर्वोपरि होगी। ज्ञान यज्ञ और विचार क्रान्ति अभियान के रूप में उसी आद्यशक्ति की हलचलों को उभरते हुए देखा जा सकता है।
गायत्री मन्त्र यों सामान्य दृष्टि से देखने पर पूजा उपासना में प्रयुक्त होने वाला—हिन्दू धर्म में प्रचलित एक मन्त्र मात्र प्रतीत होता है। मोटी दृष्टि से उसकी आकृति और परिधि छोटी मालूम पड़ती है। किन्तु वास्तविकता इससे कहीं अधिक व्यापक है। गायत्री महा शक्ति है। उसका प्रत्यक्ष रूप 24 अक्षरों के छन्द गुन्थन में देखा जा सकता है। भारतीय धर्म का उसे प्राण उद्गम एवं मेरुदण्ड कह सकते हैं। शिखा गायत्री है। यज्ञोपवीत गायत्री है। गुरु मन्त्र गायत्री है। उसे वेदमाता—देवमाता कहा गया है। ब्रह्म विद्या का तत्व ज्ञान और ब्रह्म वर्चस् का तप विधान इसी उद्गम केन्द्र से गंगोत्री यमुनोत्री की तरह प्रकट प्रस्फुटित होते हैं। भारत का गौरवमय अतीत ऐसे देव मानवों का इतिहास है जो अपनी मातृभूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाने के अतिरिक्त समस्त विश्व वसुन्धरा को समृद्धियों और विभूतियों से सुसम्पन्न बनाने की महती भूमिका निभाते रहे। ऐसे देव मानवों के अन्तःकरण जिस सांचे में ढलते थे उसे निःसंकोच गायत्री तत्वज्ञान और तप विधान कहा जा सकता है।
गायत्री महा शक्ति का प्रथम अरुणोदय भारत भूमि पर हुआ। इसके लिए स्वभावतः उस क्षेत्र में सर्वप्रथम और सर्वाधिक परिमाण में अपना वर्चस्व प्रकट कर सकना अनायास ही सम्भव हो गया। पर इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उसका सीमा क्षेत्र इतना ही स्वल्प है। जापानी अपने देश में सर्व प्रथम सूर्य का उदय होने की मान्यता बनाये हुए हैं और अपने को सूर्य पुत्र कहते हैं। उनकी मान्यता को बिना आघात पहुंचाये हुए भी यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि भगवान सूर्य जापान तक सीमित नहीं हैं वे समस्त भू खण्ड को समान रूप से अपने अनुग्रह से लाभान्वित करते हैं। गायत्री को इस रूप में समझा जाना चाहिए। वेदमाता उसका आरम्भिक रूप है। उसकी व्यापकता देवमाता और विश्व माता के रूप में देखी जा सकती है। अस्तु हिन्दू धर्मानुयायियों में अधिक प्रचलित संस्कृत शब्दावली में गुन्थित और उपासना उपचार में प्रयुक्त होने पर भी उसे उतनी परिधि में सीमित नहीं किया जा सकता। उसका कार्य क्षेत्र और विकास विस्तार अत्यधिक है। इतना व्यापक जिसे मनुष्य की हर समस्या में समाधान और हर सुखद सम्भावना को साधन मानने में किसी विचारशील को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। नव युग के अवतरण की सुखद सम्भावनाओं में गायत्री महाशक्ति की भूमिका ही प्रधान रहेगी।
बीज छोटा-सा होता है। उसके अन्तराल में विशाल वृक्ष की समस्त विशेषताएं सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहती हैं। परमाणु तनिक-सा होता है पर उसकी अन्तरंग क्षमता और गतिशीलता को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। शुक्राणु में पाये जाने वाले गुण सूत्र प्रत्यक्षतः बहुत ही तुच्छ होते हैं पर उनमें महान मानव का अस्तित्व जमा बैठा होता है। गायत्री मन्त्र को भी ऐसी ही उपमा दी जा सकती है। उसका आकार छोटा रहने और उपयोग तनिक-सा देखने पर भी वस्तुतः सम्भावना इतनी व्यापक है कि उसे नई दुनिया गढ़ देने में समर्थ कहा जा सके।
ब्राह्मी चेतना की महाशक्ति गायत्री के दो रूप हैं एक ज्ञान दूसरा विज्ञान। ज्ञान पक्ष को उच्चस्तरीय तत्व ज्ञान की—ब्रह्मविद्या की—ऋतम्भरा प्रज्ञा की संज्ञा दी जा सकती है। इसका उपयोग आस्थाओं और आकांक्षाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण के रूप में किया जा सकता है। ज्ञान यज्ञ, विचार क्रान्ति आदि के बौद्धिक उत्कृष्टता के साधन इसी आधार पर जुटते हैं। लेखनी, वाणी एवं दृश्य श्रव्य जैसे साधनों का उपयोग इसी निमित्त होती है। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन-मनन की गतिविधियां इसी के निमित्त चलती हैं।
गायत्री का दूसरा पक्ष है—विज्ञान। उपासना एवं साधना की अनेकों प्रथा पद्धतियों के रूप में यही विधि विधान बिखरा पड़ा है। मोटे रूप से यह सब ऐसा प्रतीत होता है कि किसी देवी देवता की अभ्यर्थना करके कुछ मनोवांछित प्राप्त करने के लिए मनुहार करने जैसा है। किन्तु वास्तविकता ऐसी है नहीं। मानवी सत्ता के अन्तराल में इतनी महान सम्भावनाएं और क्षमताएं प्रसुप्त स्थिति में भरी पड़ी हैं कि उन्हें प्रकारान्तर से ब्रह्म चेतना की प्रतिकृति (टू कापी) कहा जा सके। अन्तराल की प्रसुप्ति ही दरिद्रता है और उसकी जागृति में सम्पन्नता का महासागर लहलहाता देखा जा सकता है। जो उसे जगाने, साधने और सदुपयोग करने में समर्थ हो सके उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है। उनने ऐतिहासिक भूमिकाएं निवाही हैं। स्वयं धन्य बने हैं और अपने सम्पर्क क्षेत्र के जन समुदाय एवं वातावरण को धन्य बनाया है।
व्यक्ति का खोखला साड़े पांच फुट लम्बे और डेढ़ मन भारी काय-कलेवर के रूप में दीखता है, पर उसकी मूल सत्ता चेतना के गह्वर में-अन्तःकरण में छिपी बैठी है। वहां जैसा भी कुछ वातावरण होता है उसी में चेतना को निर्वाह करना पड़ता है। फलतः उसका स्वरूप भी वैसा ही बन जाता है। टिड्डे हरी घास में रहने पर हरे रहते हैं और सूखी घास में रहने पर पीले बन जाते हैं। अन्तराल का स्तर ही चेतना की उत्कृष्टता और निकृष्टता के लिए उत्तरदायी है। इस अन्तराल के मर्मस्थल का स्पर्श भौतिक उपकरणों से सम्भव नहीं हो सकता है। उतनी गहराई तक सचेतन उपचार ही पहुंचते हैं। गायत्री महामन्त्र की साधना, उपासना का प्रयोजन यही है। इसी के उपाय उपचार को गायत्री महाविज्ञान कहते हैं। प्रसुप्त का जागरण उसका उद्देश्य है। मनुष्य की महानतम इन्द्रियां तीन हैं। उन्हें सुधारने, उभारने, और उछालने के तीनों प्रयोजन पूरे करने वाली प्रक्रिया का नाम गायत्री उपासना है। इस विज्ञान पक्ष के सहारे भौतिक प्रगति के अनेकों आधार खड़े होते हैं। ज्ञानपक्ष के अन्तर्गत जगत में चिन्तन और दृष्टिकोण में ऐसा परिष्कार होता है जिसे ऋषि कल्प कहा जा सके। व्यष्टि और समष्टि के दोनों ही पक्षों को समुन्नत बनाने के लिए गायत्री विद्या की उपयोगिता असाधारण है। सामयिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए उसी की भूमिका युग शक्ति के रूप में सम्पन्न होने जा रही है।
अधर्म के पक्षधर समर्थन और क्रिया-कलाप का नियमन करने और धर्मपक्ष के पुनरुत्थान का उद्देश्य लेकर समय-समय पर भगवान के अवतार होते रहे हैं। असन्तुलन को संतुलन में बदलना ही अवतार का उद्देश्य रहता है। इसके लिए सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप समाधान प्रस्तुत किये जाते हैं। अवतार की यही लीलाएं हैं। हर अवतार का उद्देश्य तो एक ही रहता है—समष्टिगत विकृत मनःस्थिति और विपन्न परिस्थिति का समाधान। इसके लिए अनीति विरोधी और नीति समर्थक गतिविधियों का सुनियोजन ही अवतार का एक मात्र कार्यक्रम होता है। इस कार्यक्रम का स्वरूप क्या हो? साधन और उपाय क्या अपनाये जायं? इसका निर्धारण सामयिक समस्याओं के स्वरूप को देख कर ही निर्धारित होता है। यही कारण है कि ईश्वर अवतरण के लक्ष्य एक रहते हुए भी विभिन्न अवतारों के क्रिया-कलापों में अन्तर पाया जाता है।
भगवती, सरस्वती का अवतार बौद्धिकता की परिपुष्टि के लिए, शिक्षा के लिए आवश्यक साधन एवं उत्साह साथ लेकर हुआ था। भगवती दुर्गा-सामूहिकता का-सहकारिता का-अनीति विरोधी संघर्षशीलता का प्रतिनिधित्व करती हुई धरती पर उतरी थी। सरस्वती को बौद्धिकता एवं दुर्गा को सामाजिकता की क्रान्ति चेतना कहा जा सकता है। तीसरी शक्ति है गायत्री। गायत्री अर्थात् अन्तःक्षेत्र की आध्यात्मिकता का और वाह्य क्षेत्र की नैतिकता। गायत्री अवतरण के साथ साथ ही नीति धर्म एवं अध्यात्म का अवतरण हुआ। वेद के माध्यम से तत्व ज्ञान, अनुशासन और नीति निर्धारण की व्यवस्था चली। लक्ष्मी चेतना पक्ष में नहीं आती। वह भौतिकता एवं कला की प्रतीक है। अस्तु अवतरण प्रसंग में उनका—उनकी लीलाओं का उल्लेख नहीं होता।
अपने युग की समस्त विकृतियां अपेक्षाकृत अधिक गहरी हैं। उनने मानवी अन्तराल में अनास्था के रूप में जड़ें जमाई हैं और चिन्तन एवं कर्तृत्व को भ्रष्ट करके रख दिया है। जन मानस का परिष्कार ही वर्तमान आस्था संकट के निराकरण का—समस्त समस्याओं के समाधान का एक मात्र उपाय है। उज्ज्वल भविष्य की आशाओं का यही केन्द्र बिन्दु है। सुधार और उत्थान के अन्यान्य उपचार तो इसी केन्द्र बिन्दु के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हैं। प्रस्तुत युग क्रान्ति को अनास्थाओं के उन्मूलन और आस्थाओं के आरोपण का लक्ष्य पूरा करने में संलग्न देखा जा सकता है। अपने युग में ब्राह्मीचेतना के अवतरण का यही स्वरूप प्रत्यक्ष प्रकट होते हुए देखा जा सकता है।
अवतार चर्चा में प्रायः नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों को श्रेय मिलता रहा है। इसे चर्म चक्षुओं का स्थूल मूल्यांकन कहा जा सकता है। वस्तुतः युग परिवर्तन सूक्ष्म जगत में उठने वाले तूफानी चेतना प्रवाह के रूप में दिव्यलोक से उठते उभरते हैं। उससे प्रभावित होकर अगणित जागृति आत्माएं कन्धे से कन्धा मिला कर—अपने-अपने ढंग के उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हैं। हर अवतार का यही तात्विक स्वरूप है। अगली लाइन में खड़े व्यक्ति का फोटो कैमरे में अधिक साफ आता है। इतने पर भी महत्व और अस्तित्व उस ‘ग्रुप’ के समस्त सदस्यों का होता है। अवतारों के नाम से प्रख्यात व्यक्तिओं को अगली लाइन में खड़े—विशेष नेतृत्व करने वाले श्रेयाधिकारी भर कहा जा सकता है। तत्वतः अवतार तो सूक्ष्म जगत में कोलाहल मचाने वाले युग चेतना को ही समझा जा सकता है।
युग शक्ति गायत्री की अवतरण परम्परा में सर्वप्रथम वेदमाता स्वरूप ब्रह्माजी के माध्यम से प्रकट हुआ। भगवती के सात अवतार सात व्याहृतियों के रूप में प्रकटे जो सात ऋषियों के रूप में प्रख्यात हुए। युग परिवर्तन का नवम् अवतार अब से पिछली बार विश्वामित्र के रूप में हुआ। प्रस्तुत गायत्री मन्त्र के विनियोग उद्घोष में गायत्री छन्द—सविता देवता—विश्वामित्र ऋषि का उल्लेख होता है। अस्तु अब तक के युग में विश्वामित्र ही नवम् अवतार हैं। ब्रह्माजी के माध्यम से वेदमाता का—सप्त ऋषियों के माध्यम से देव माता का—विश्वामित्र के माध्यम से विश्व माता का अवतार हो चुका। नौ अवतरण पूरे हुए। दसवां अपने समय का अवतार युग शक्ति गायत्री का है। अन्धकार युग के निराकरण और उज्ज्वल भविष्य का शुभारम्भ इसी दिव्य अवतरण के साथ प्रादुर्भूत होते हुए हम सब अपने इन्हीं चर्म चक्षुओं से प्रत्यक्ष देख रहे हैं।
नव युग के अवतरण का तथ्य विवादास्पद प्रसंग नहीं रहा। उसे सुनिश्चित सम्भावना के रूप में लगभग प्रत्यक्ष ही अनुभव किया जा सकता है। ध्वंस की शक्तियों का सम्मान करने के लिए जब सृजन साहस पूर्वक डट जाय तो सभी जानते हैं कि जीतेगा कौन? सत्य ही जीतता है असत्य नहीं। इस श्रुति वचन में सृष्टि की शाश्वत परम्परा का समावेश है। अन्धकार का साम्राज्य तभी तक सघन बन रहा है जब तक प्रकाश प्रकट नहीं होता है जब विश्व चेतना की पुकार तमस् के प्रति अस्वीकृति और ज्योति की ओर गमन करने की आतुरता व्यक्त कर रही हो तो फिर नव प्रभात का अवतरण सुनिश्चित तथ्य ही माना जाना चाहिए।
युग परिवर्तन में यों सदा ही विकृतियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन होता है, पर रोग और उपचार की भिन्नता प्रायः हर बार होती है। वही उसकी भिन्नता और विशेषता समझी जाती है। अतीत के पूर्व प्रसंगों में दुष्टता की उद्दण्डता ही विश्व विनाश के लिए उभरती रही है फलतः उसे निरस्त करने के लिए शस्त्रधारी भगवान अवतार लेते रहे हैं। बाहार के दांत, नृसिंह के नख, परशुराम का फरसा, राम का धनुष, कृष्ण का चक्र इस प्रसंग में सहज ही स्मरण हो जाते हैं। इस बार दुष्टता नहीं भ्रष्टता का उभार है। उसके लिए बुद्ध की परम्परा ही कारगर हो सकती है। अनय से अनय का निराकरण ज्ञान गंगा के स्वर्ग से धरती पर अवतरण की ही पुनरावृत्ति होनी है अब की बार का अवतार ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में होगा। युग चण्डी का साक्षात्कार इन दिनों हम सब इसी रूप में करेंगे। इस बार क्रियागत दुष्टता की जड़ कहीं अधिक गहरी है विचारणाओं से भी आगे बढ़कर आस्थाओं के क्षेत्र तक को जकड़ चुकी है। उनकी जटिलता भ्रष्टता के रूप में प्रकटी है। इसका निराकरण अपेक्षाकृत अधिक कठिन है। इसलिए उपचार भी इतना ही प्रखर-उतना ही उच्चस्तरीय होना है। इस बार का अवतरण युगशक्ति गायत्री के रूप में है दुष्टता से निपटने के लिए शस्त्र पर्याप्त हैं। किन्तु भ्रष्टता अदृश्य है। वह आकांक्षाओं और आस्थाओं की गहराई में जा घुसती है उतनी ही गहरी डुबकी लगा कर छिपे चोर को ढूंढ़ निकालना और उलट कर निरस्त करना अपेक्षाकृत अधिक जटिल है। इतना व्यापक इतना जटिल अन्य इतना कठिन काम भगवती आद्य शक्ति ही कर सकती है अज्ञानजन्य अनाचार प्रज्ञा के प्रचण्ड आलोक का उदय हुए बिना और किसी तरह मिट नहीं सकता। इस बार के महान परिवर्तन को सम्पन्न करने के लिए ब्राह्मी शक्ति को स्वयं ही आना पड़ रहा है। पार्षदों से यह काम चलने वाला था नहीं।
हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए शक्ति चाहिए। कोई भी छोटा बड़ा यन्त्र शक्ति के बिना चलता नहीं। समष्टि तन्त्र की तरह ही व्यक्ति तन्त्र का गतिशील रहना भी शक्ति की मात्रा पर ही निर्भर है। परिवर्तन कृत्यों में तो साधारण की अपेक्षा कहीं अधिक परिमाण में शक्ति की आवश्यकता पड़ती है ध्वंस और निर्माण दोनों के लिए असाधारण साधन जुटाने होते हैं। संसार के महत्वपूर्ण परिवर्तनों के घटनाक्रमों पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि उनके लिए प्रचुर परिमाण में साधन शक्ति, श्रम शक्ति और चिन्तन शक्ति का उपयोग हुआ है। सामाजिक आर्थिक, एवं राजनैतिक क्रान्तियों को सफल बनाने में समय-समय पर असाधारण सामर्थ्य का उपयोग होता रहा है। यदि वह साधन न जुटते तो लक्ष्य की प्राप्ति हो ही नहीं सकती थी इस बार के युग परिवर्तन की रण स्थली जिस धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र की विस्तृत भूमि में फैली हुई है उसे लोक मानस कह सकते हैं। परिष्कार और परिवर्तन के सरंजाम इसी परिधि में खड़े किये जाने हैं। सेनापतियों के खेमे इसी भूमि में गढ़ रहे हैं। लक्ष्य जन मानस का परिष्कार है। प्रस्तुत समस्याएं इतनी जटिल हैं कि उनका समाधान वाह्य उपचारों से किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा। चिन्तन का प्रवाह उलटे बिना विनाश की विभीषिका को विकास की सम्भावना में परिवर्तित किया नहीं जा सकता। चिन्तन की दिशा धारा को सुव्यवस्थित करने वाले दिव्य प्रभाव को युगान्तर चेतना कहा जा सकता है। यही युग शक्ति गायत्री है। युग परिवर्तन का उद्गम स्रोत इसी को समझा जाना चाहिए। उसके क्रिया-कलाप अनेकों अवांछनीयता के लिए ध्वंसात्मक और औचित्य के लिये सृजनात्मक क्रिया-कलापों में देखे जा सकेंगे। समग्र परिवर्तन बौद्धिक-नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के तीन खण्डों में बंटा हुआ है। इसे त्रिपदा की तीन धाराएं कहा जा सकता है और उसके समन्वय को त्रिवेणी संगम का नाम दिया जा सकता है।
त्रिवेणी संगम पर स्नान करने का माहात्म्य ‘‘काक होंहि पिक वकहु मराला’’ बताया गया है। जन-मानस का परिष्कार इसी रूप में परिलक्षित होता है। आकृतियां तो यथावत् रहती हैं किन्तु प्रकृति बदल जाती है। अन्तरंग बदलता है तो बहिरंग को उलटते देर नहीं लगती है। युग शक्ति गायत्री का अवतरण और क्रिया-कलाप इसी रूप में देखा समझा जा सकता है। युग परिवर्तन में इस बार उसी की भूमिका सर्वोपरि होगी। ज्ञान यज्ञ और विचार क्रान्ति अभियान के रूप में उसी आद्यशक्ति की हलचलों को उभरते हुए देखा जा सकता है।
गायत्री मन्त्र यों सामान्य दृष्टि से देखने पर पूजा उपासना में प्रयुक्त होने वाला—हिन्दू धर्म में प्रचलित एक मन्त्र मात्र प्रतीत होता है। मोटी दृष्टि से उसकी आकृति और परिधि छोटी मालूम पड़ती है। किन्तु वास्तविकता इससे कहीं अधिक व्यापक है। गायत्री महा शक्ति है। उसका प्रत्यक्ष रूप 24 अक्षरों के छन्द गुन्थन में देखा जा सकता है। भारतीय धर्म का उसे प्राण उद्गम एवं मेरुदण्ड कह सकते हैं। शिखा गायत्री है। यज्ञोपवीत गायत्री है। गुरु मन्त्र गायत्री है। उसे वेदमाता—देवमाता कहा गया है। ब्रह्म विद्या का तत्व ज्ञान और ब्रह्म वर्चस् का तप विधान इसी उद्गम केन्द्र से गंगोत्री यमुनोत्री की तरह प्रकट प्रस्फुटित होते हैं। भारत का गौरवमय अतीत ऐसे देव मानवों का इतिहास है जो अपनी मातृभूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाने के अतिरिक्त समस्त विश्व वसुन्धरा को समृद्धियों और विभूतियों से सुसम्पन्न बनाने की महती भूमिका निभाते रहे। ऐसे देव मानवों के अन्तःकरण जिस सांचे में ढलते थे उसे निःसंकोच गायत्री तत्वज्ञान और तप विधान कहा जा सकता है।
गायत्री महा शक्ति का प्रथम अरुणोदय भारत भूमि पर हुआ। इसके लिए स्वभावतः उस क्षेत्र में सर्वप्रथम और सर्वाधिक परिमाण में अपना वर्चस्व प्रकट कर सकना अनायास ही सम्भव हो गया। पर इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उसका सीमा क्षेत्र इतना ही स्वल्प है। जापानी अपने देश में सर्व प्रथम सूर्य का उदय होने की मान्यता बनाये हुए हैं और अपने को सूर्य पुत्र कहते हैं। उनकी मान्यता को बिना आघात पहुंचाये हुए भी यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि भगवान सूर्य जापान तक सीमित नहीं हैं वे समस्त भू खण्ड को समान रूप से अपने अनुग्रह से लाभान्वित करते हैं। गायत्री को इस रूप में समझा जाना चाहिए। वेदमाता उसका आरम्भिक रूप है। उसकी व्यापकता देवमाता और विश्व माता के रूप में देखी जा सकती है। अस्तु हिन्दू धर्मानुयायियों में अधिक प्रचलित संस्कृत शब्दावली में गुन्थित और उपासना उपचार में प्रयुक्त होने पर भी उसे उतनी परिधि में सीमित नहीं किया जा सकता। उसका कार्य क्षेत्र और विकास विस्तार अत्यधिक है। इतना व्यापक जिसे मनुष्य की हर समस्या में समाधान और हर सुखद सम्भावना को साधन मानने में किसी विचारशील को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। नव युग के अवतरण की सुखद सम्भावनाओं में गायत्री महाशक्ति की भूमिका ही प्रधान रहेगी।
बीज छोटा-सा होता है। उसके अन्तराल में विशाल वृक्ष की समस्त विशेषताएं सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहती हैं। परमाणु तनिक-सा होता है पर उसकी अन्तरंग क्षमता और गतिशीलता को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। शुक्राणु में पाये जाने वाले गुण सूत्र प्रत्यक्षतः बहुत ही तुच्छ होते हैं पर उनमें महान मानव का अस्तित्व जमा बैठा होता है। गायत्री मन्त्र को भी ऐसी ही उपमा दी जा सकती है। उसका आकार छोटा रहने और उपयोग तनिक-सा देखने पर भी वस्तुतः सम्भावना इतनी व्यापक है कि उसे नई दुनिया गढ़ देने में समर्थ कहा जा सके।
ब्राह्मी चेतना की महाशक्ति गायत्री के दो रूप हैं एक ज्ञान दूसरा विज्ञान। ज्ञान पक्ष को उच्चस्तरीय तत्व ज्ञान की—ब्रह्मविद्या की—ऋतम्भरा प्रज्ञा की संज्ञा दी जा सकती है। इसका उपयोग आस्थाओं और आकांक्षाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण के रूप में किया जा सकता है। ज्ञान यज्ञ, विचार क्रान्ति आदि के बौद्धिक उत्कृष्टता के साधन इसी आधार पर जुटते हैं। लेखनी, वाणी एवं दृश्य श्रव्य जैसे साधनों का उपयोग इसी निमित्त होती है। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन-मनन की गतिविधियां इसी के निमित्त चलती हैं।
गायत्री का दूसरा पक्ष है—विज्ञान। उपासना एवं साधना की अनेकों प्रथा पद्धतियों के रूप में यही विधि विधान बिखरा पड़ा है। मोटे रूप से यह सब ऐसा प्रतीत होता है कि किसी देवी देवता की अभ्यर्थना करके कुछ मनोवांछित प्राप्त करने के लिए मनुहार करने जैसा है। किन्तु वास्तविकता ऐसी है नहीं। मानवी सत्ता के अन्तराल में इतनी महान सम्भावनाएं और क्षमताएं प्रसुप्त स्थिति में भरी पड़ी हैं कि उन्हें प्रकारान्तर से ब्रह्म चेतना की प्रतिकृति (टू कापी) कहा जा सके। अन्तराल की प्रसुप्ति ही दरिद्रता है और उसकी जागृति में सम्पन्नता का महासागर लहलहाता देखा जा सकता है। जो उसे जगाने, साधने और सदुपयोग करने में समर्थ हो सके उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है। उनने ऐतिहासिक भूमिकाएं निवाही हैं। स्वयं धन्य बने हैं और अपने सम्पर्क क्षेत्र के जन समुदाय एवं वातावरण को धन्य बनाया है।
व्यक्ति का खोखला साड़े पांच फुट लम्बे और डेढ़ मन भारी काय-कलेवर के रूप में दीखता है, पर उसकी मूल सत्ता चेतना के गह्वर में-अन्तःकरण में छिपी बैठी है। वहां जैसा भी कुछ वातावरण होता है उसी में चेतना को निर्वाह करना पड़ता है। फलतः उसका स्वरूप भी वैसा ही बन जाता है। टिड्डे हरी घास में रहने पर हरे रहते हैं और सूखी घास में रहने पर पीले बन जाते हैं। अन्तराल का स्तर ही चेतना की उत्कृष्टता और निकृष्टता के लिए उत्तरदायी है। इस अन्तराल के मर्मस्थल का स्पर्श भौतिक उपकरणों से सम्भव नहीं हो सकता है। उतनी गहराई तक सचेतन उपचार ही पहुंचते हैं। गायत्री महामन्त्र की साधना, उपासना का प्रयोजन यही है। इसी के उपाय उपचार को गायत्री महाविज्ञान कहते हैं। प्रसुप्त का जागरण उसका उद्देश्य है। मनुष्य की महानतम इन्द्रियां तीन हैं। उन्हें सुधारने, उभारने, और उछालने के तीनों प्रयोजन पूरे करने वाली प्रक्रिया का नाम गायत्री उपासना है। इस विज्ञान पक्ष के सहारे भौतिक प्रगति के अनेकों आधार खड़े होते हैं। ज्ञानपक्ष के अन्तर्गत जगत में चिन्तन और दृष्टिकोण में ऐसा परिष्कार होता है जिसे ऋषि कल्प कहा जा सके। व्यष्टि और समष्टि के दोनों ही पक्षों को समुन्नत बनाने के लिए गायत्री विद्या की उपयोगिता असाधारण है। सामयिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए उसी की भूमिका युग शक्ति के रूप में सम्पन्न होने जा रही है।
अधर्म के पक्षधर समर्थन और क्रिया-कलाप का नियमन करने और धर्मपक्ष के पुनरुत्थान का उद्देश्य लेकर समय-समय पर भगवान के अवतार होते रहे हैं। असन्तुलन को संतुलन में बदलना ही अवतार का उद्देश्य रहता है। इसके लिए सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप समाधान प्रस्तुत किये जाते हैं। अवतार की यही लीलाएं हैं। हर अवतार का उद्देश्य तो एक ही रहता है—समष्टिगत विकृत मनःस्थिति और विपन्न परिस्थिति का समाधान। इसके लिए अनीति विरोधी और नीति समर्थक गतिविधियों का सुनियोजन ही अवतार का एक मात्र कार्यक्रम होता है। इस कार्यक्रम का स्वरूप क्या हो? साधन और उपाय क्या अपनाये जायं? इसका निर्धारण सामयिक समस्याओं के स्वरूप को देख कर ही निर्धारित होता है। यही कारण है कि ईश्वर अवतरण के लक्ष्य एक रहते हुए भी विभिन्न अवतारों के क्रिया-कलापों में अन्तर पाया जाता है।
भगवती, सरस्वती का अवतार बौद्धिकता की परिपुष्टि के लिए, शिक्षा के लिए आवश्यक साधन एवं उत्साह साथ लेकर हुआ था। भगवती दुर्गा-सामूहिकता का-सहकारिता का-अनीति विरोधी संघर्षशीलता का प्रतिनिधित्व करती हुई धरती पर उतरी थी। सरस्वती को बौद्धिकता एवं दुर्गा को सामाजिकता की क्रान्ति चेतना कहा जा सकता है। तीसरी शक्ति है गायत्री। गायत्री अर्थात् अन्तःक्षेत्र की आध्यात्मिकता का और वाह्य क्षेत्र की नैतिकता। गायत्री अवतरण के साथ साथ ही नीति धर्म एवं अध्यात्म का अवतरण हुआ। वेद के माध्यम से तत्व ज्ञान, अनुशासन और नीति निर्धारण की व्यवस्था चली। लक्ष्मी चेतना पक्ष में नहीं आती। वह भौतिकता एवं कला की प्रतीक है। अस्तु अवतरण प्रसंग में उनका—उनकी लीलाओं का उल्लेख नहीं होता।
अपने युग की समस्त विकृतियां अपेक्षाकृत अधिक गहरी हैं। उनने मानवी अन्तराल में अनास्था के रूप में जड़ें जमाई हैं और चिन्तन एवं कर्तृत्व को भ्रष्ट करके रख दिया है। जन मानस का परिष्कार ही वर्तमान आस्था संकट के निराकरण का—समस्त समस्याओं के समाधान का एक मात्र उपाय है। उज्ज्वल भविष्य की आशाओं का यही केन्द्र बिन्दु है। सुधार और उत्थान के अन्यान्य उपचार तो इसी केन्द्र बिन्दु के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हैं। प्रस्तुत युग क्रान्ति को अनास्थाओं के उन्मूलन और आस्थाओं के आरोपण का लक्ष्य पूरा करने में संलग्न देखा जा सकता है। अपने युग में ब्राह्मीचेतना के अवतरण का यही स्वरूप प्रत्यक्ष प्रकट होते हुए देखा जा सकता है।
अवतार चर्चा में प्रायः नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों को श्रेय मिलता रहा है। इसे चर्म चक्षुओं का स्थूल मूल्यांकन कहा जा सकता है। वस्तुतः युग परिवर्तन सूक्ष्म जगत में उठने वाले तूफानी चेतना प्रवाह के रूप में दिव्यलोक से उठते उभरते हैं। उससे प्रभावित होकर अगणित जागृति आत्माएं कन्धे से कन्धा मिला कर—अपने-अपने ढंग के उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हैं। हर अवतार का यही तात्विक स्वरूप है। अगली लाइन में खड़े व्यक्ति का फोटो कैमरे में अधिक साफ आता है। इतने पर भी महत्व और अस्तित्व उस ‘ग्रुप’ के समस्त सदस्यों का होता है। अवतारों के नाम से प्रख्यात व्यक्तिओं को अगली लाइन में खड़े—विशेष नेतृत्व करने वाले श्रेयाधिकारी भर कहा जा सकता है। तत्वतः अवतार तो सूक्ष्म जगत में कोलाहल मचाने वाले युग चेतना को ही समझा जा सकता है।
युग शक्ति गायत्री की अवतरण परम्परा में सर्वप्रथम वेदमाता स्वरूप ब्रह्माजी के माध्यम से प्रकट हुआ। भगवती के सात अवतार सात व्याहृतियों के रूप में प्रकटे जो सात ऋषियों के रूप में प्रख्यात हुए। युग परिवर्तन का नवम् अवतार अब से पिछली बार विश्वामित्र के रूप में हुआ। प्रस्तुत गायत्री मन्त्र के विनियोग उद्घोष में गायत्री छन्द—सविता देवता—विश्वामित्र ऋषि का उल्लेख होता है। अस्तु अब तक के युग में विश्वामित्र ही नवम् अवतार हैं। ब्रह्माजी के माध्यम से वेदमाता का—सप्त ऋषियों के माध्यम से देव माता का—विश्वामित्र के माध्यम से विश्व माता का अवतार हो चुका। नौ अवतरण पूरे हुए। दसवां अपने समय का अवतार युग शक्ति गायत्री का है। अन्धकार युग के निराकरण और उज्ज्वल भविष्य का शुभारम्भ इसी दिव्य अवतरण के साथ प्रादुर्भूत होते हुए हम सब अपने इन्हीं चर्म चक्षुओं से प्रत्यक्ष देख रहे हैं।