Magazine - Year 1970 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विस्तार की धुन में सिमट रही दुनिया
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सन् 1939 में न्यूयार्क (अमेरिका) में विश्व मेला आयोजित किया गया। उसमें देश-देशान्तर के दर्शनीय सामान प्रदर्शित और विक्रय किए गये। मेले का सबसे बड़ा आकर्षण थी-एक पिटारी, जो लंबाई में तो कुल साढ़े सात फीट, भार में कुल 800 पौंड ही थी। पर उसमें ज्ञान-विज्ञान की इतनी सामग्री रख दी गई थी, जितने को यदि केवल एक लंबे पेज की पुस्तक का आकार दिया जाता तो वह पाँच हजार मीटर से कम नहीं होती। इतनी लंबी दूरी में तो फायलिब्रा लाइब्रेरी की सारी पुस्तकें आ सकती हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि संसार की ऐसी कोई पुस्तक नहीं, जो उसमें न हो।
यह पिटारी पृथ्वी में इस दृष्टि से गाड़ी गई थी कि बीच के समय में कभी कोई ऐसा भूकम्प, युद्ध या प्रलय हो जाये, जिसमें वर्तमान सभ्यता ही नष्ट हो जाये, तो आज से कई हजार वर्ष बाद भी यदि उस पिटारी को बाहर निकाल लें तो इस युग की सामान्यतः सभी प्रमुख बातों का पता चल जाये। उस समय की सभ्यता का आकार-प्रकार निश्चित करने वाले सभी साज-सामान इस नन्हीं सी पिटारी में बन्द कर दिये गये।
‘टाइम-कैप्सूल’ नामक इस डिब्बे में क्या रख जाये? उसके लिये संसार भर के विद्वान्-वैज्ञानिकों, पुरातत्ववेत्ताओं, लेखकों, सम्पादकों, लाइब्रेरियनों, इतिहासज्ञों की बैठक बुलाई गई थी। उन्होंने जो सामग्री चयन की, वह सब इस ढंग से इस युग-मंजूषा में रखी गयी कि इस नन्हीं-सी पिटारी में एक अरब शब्द, 1000 चित्र, अंग्रेजी में परिचय सहित ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ की सभी जिल्दें, एक पूरा वृत्तचित्र जिसमें अमेरिका के राष्ट्रपति रुजवैल्ट का भाषण भी, ‘गौन विद दि विण्ड’ नामक उपन्यास के साथ सैंकड़ों अन्य पुस्तकें भी थीं। इसके अतिरिक्त दाढ़ी बनाने की सामग्री, सौंदर्य-प्रसाधन, साबुन, मंजन आदि स्थूल वस्तुएँ भी रखी गई थीं।
इसके बाद 16 अक्टूबर 1965 को एक दूसरा ‘टाइम कैप्सूल’ भी भूमि में दबाया गया। इसमें पहले से भी अधिक जानकारी तथा वस्तुयें संग्रहीत की गईं। उसका वजन तो अवश्य बढ़ाकर 600 पौंड कर दिया गया था, पर लंबाई पहले की अपेक्षा कुछ कम ही थी। ‘क्रोमार्क स्टेनलैस स्टील’ द्वारा निर्मित इस पिटारी को रासायनिक पदार्थों द्वारा इस तरह तैयार किया गया है कि 5 हजार वर्ष तक भी पृथ्वी में गड़ा रहे तो भी उसमें जंग न लगे, कोई भीतरी खराबी पैदा न हो। इन कैप्सूलों की जानकारी देने के लिये संसार भर के तीन हजार पुस्तकालयों में उस तरह के शिलालेख तैयार किये गये हैं, जिस तरह आज लाखों वर्ष पूर्व के शिलालेख मिल जाते हैं, तो उनसे उस समय की परिस्थितियों की जानकारी मिलती है और संस्कृति के विकास में सहयोग। उसी प्रकार टाइम कैप्सूलों में बंद यह अथाह जानकारियाँ उस समय आज के युग की तमाम सारी जानकारियाँ सीमित स्थान में ही दे डालेंगी।
पूरे एक युग को अति सूक्ष्म करके 5000 मीटर लंबे ज्ञान के भाण्डागार को कुल साढ़े सात फीट के बक्से में बन्द कर दिया जाना सचमुच आश्चर्यजनक है। पर यह आश्चर्य केवल भौतिक विज्ञान के विद्यार्थियों को ही हो सकता है, किन्तु ‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’ महान् से महान् आत्मा अणु से भी अणुरूप है। तथा- ‘बालाग्र शतभागस्य शतधा कल्पितस्य च, भागो जीवः स विज्ञेयः स चान्त्याय कल्पते॥’ (श्वेताश्वेतरोपनिषद् 5/9, अर्थात् बाल के अग्रभाग के सौवें अंश के भी सौवें अंश के परिमाण वाला भाग ही प्राणी का स्वरूप जानना चाहिये। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिमाण वाला आत्मा असीम गुण वाला हो गया है।’ के जानने वाले अध्यात्म-विद्या विशारद हम भारतीयों के लिये इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है। हमारी मान्यता तो विज्ञान की इन उपलब्धियों से भी सूक्ष्म और यह है कि अणुरूप आत्मा में एक सौर मण्डल में विद्यमान जो कुछ भी है, सब कुछ है। संसार भर में जो कुछ भी स्थूल सूक्ष्म है वह परमात्मा नाम के किसी अति सूक्ष्मतम ‘क्रिस्टल’ में विद्यमान है।
एकाक्षरोपनिषद् में इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है-
स एष देवोऽम्बरयान चक्रे अन्येऽभ्य तिष्ठेत् तमो निरुन्ध्यः।
(पूर्वार्द्ध श्लोक 8)
अर्थात् उस ब्रह्म के गर्भ में सारा ही ब्रह्माँड समाया हुआ है जबकि वह स्वयं ‘अंगुष्ट मात्रो रवितुल्य रूपः संकल्प अहंकार समन्वितो यः’ अर्थात् अंगुष्ठ मात्र स्वरूप में भी वह सूर्य के समान है। उसी में उसका संकल्प और अहंकार (अर्थात् सारा ज्ञान-विज्ञान) भरा पड़ा है।
अणु से अणु में महत् से महत् की कल्पना बड़ी विचित्र है। किन्तु इस सत्यता में कोई संदेह नहीं है। यह पिटारी उसका बहुत ही मोटा उदाहरण है। होता यह है कि कैसी भी मोटी और लंबे पन्नों वाली पुस्तक हो, उसकी माइक्रोफिल्म प्रतियाँ उतार ली जाती हैं। जिस प्रकार शीशे के ताल (लेन्स) की मदद से छोटी-से-छोटी वस्तु को बड़ा-से-बड़ा बनाकर दिखाया जा सकता है (पालिमोर आदि वेधशालाओं में ऐसे शक्तिशाली दूरबीन यंत्र हैं, जो करोड़ों मील दूर के ग्रह-नक्षत्रों को भी बड़ा करके दिखा देते हैं) उसी प्रकार बड़ी-से-बड़ी वस्तुओं को छोटा-से-छोटा किया जा सकता है। माइक्रोफिल्म में अधिकतम विस्तार वाली पुस्तकों को इतने नन्हें-नन्हें अक्षरों में अंकित कर दिया जाता है कि 1000 पृष्ठ की पुस्तक भी सिगरेट के पैकेट जितनी मोटाई में आ जाये। अलादीन के चिराग में बन्द भीमकाय असुर की कल्पना को कभी मिथ्या माना जाता था, पर आज का अणु विज्ञान उससे भी अधिक सूक्ष्म में विराट् की कल्पना तक उतर आया है। मनुष्य का शरीर जिन छोटे-छोटे कोशों (सेल्स अर्थात् मनुष्य शरीर जिस प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित पदार्थ से बना है, उसका सबसे छोटा टुकड़ा) से बना है। उसकी लघुता की कल्पना नहीं की जा सकती। उसके भीतर उससे भी सूक्ष्म कण विद्यमान् हैं। उदाहरण के लिये परमाणु का व्यास .0000001 मि. मी. है, तो उसके केन्द्रक का व्यास .00000000001 मि. मी. होगा। अब इस केन्द्रक में भी एक विशेष प्रकार की रासायनिक बनावट होती है, जिसे क्रोमोसोम या गुणसूत्र कहते हैं। रासायनिक भाषा में इसे ही डी.एन.ए. कहते हैं। उसकी आकृति मरोड़ी हुई सीढ़ी के समान होती है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस ‘डी.एन.ए.’ में सारे संसार भर का दृश्य, श्रव्य और ज्ञान भरा हुआ है। एक केन्द्रक की डी.एन.ए. में जो भाषा अंकित होती है उसमें 1000000000 अक्षर होते हैं, जबकि सम्पूर्ण शरीर में ऐसे 600 खरब कोशिकायें होती हैं। यदि 600 खरब कोशों में अक्षर खोदे जायें तो अकेले मनुष्य शरीर में ही 60000000000000+1000000000 अर्थात् 6000000000000000000000 अक्षर आ जायेंगे। फ्लशिंग मेडो (न्यूयार्क का वह स्थान जहाँ दोनों टाइम कैप्सूल जमीन में गाड़े गये हैं) में गाड़ी गई इस पिटारी में जबकि कुल 10000000 अक्षर ही थे। तब यह मानना चाहिये कि मनुष्य शरीर में तो ऐसी 60000000000000 पिटारियों का ज्ञान भरा होना चाहिये।