Magazine - Year 1970 - Version 2
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यतो निर्विषयस्यास्य मनसो मुक्तिरिष्यते।
अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा॥
मन का निर्विषय होना ही मुक्ति है। अतएव इस भव-बंधन से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को अपना मन निर्विषय अर्थात् विषयासक्ति शून्य करना चाहिये।
पुनः यौवन पाकर योग्य तो यह था कि ययाति कभी तृप्त न होने वाले विषय-सुख की वास्तविकता समझता और उसे जीतने में अपनी नव-शक्ति का सदुपयोग करता। किन्तु उसकी तो बुद्धि ही वासनाओं ने मूर्ख बना दी थी। वह फिर विषय-भोगों में लग गया और तब तक लगा रहा, जब तक बेटे की दी हुई जवानी खत्म न हो गई। फिर बुढ़ापा आ गया, पर वासनाओं का वेग-उनकी इच्छा यथावत् बनी रही। निदान शारीरिक अशक्तता के कारण वह मानसिक विषयी हो गया, जिससे आत्मा तक का पतन हो गया। अन्त में उसका सारा शरीर ही गलने लगा और वह एक अयोग्य मृत्यु मर कर गिरगिट की योनि में चला गया।
इसी प्रकार एक राजा साहसिक, जो पहले बड़े ही धर्मात्मा और धन्य पुरुष थे, काम-वासना से दूषित होकर गधे की योनि में पहुँचे।
एक बार राजा साहसिक महर्षि दुर्वासा के दर्शन करने उनके आश्रम में गये। महर्षि उसी समय समाधि में बैठे थे। राजा ने सोचा कि जब तक महर्षि समाधि में स्थित हैं तब तक यहीं उपस्थित रहना चाहिये और ज्यों ही उनकी समाधि उतरे त्यों ही प्रणाम कर तेजान्वित वाणी से आशीर्वाद लेना चाहिये। राजा वहीं एक वृक्ष के नीचे बैठ गये।
तभी आकाश मार्ग से जाती तिलोत्तमा की दृष्टि राजा साहसिक पर पड़ी और राजा साहसिक की दृष्टि उस पर। राजा की दृष्टि में झाँकती विकृति अप्सरा ने पहचान ली और राजा साहसिक के मूर्तिमान पतन की तरह आकाश से उतर कर उनके पास आ गई। वासनातप्त राजा को मानो मनोवाँछा मिल गई। वह देश-काल का विचार किये बिना उस वीरांगना से क्रीड़ासक्त हो गया। महर्षि को प्रणाम करने का पुण्य भूलकर पापरत हो गया। उन दोनों द्वारा दूषित किये गये वातावरण के अन्यथा अनुभव और उद्दीपक वार्तालाप ने दुर्वासा की समाधि खोल दी। उन्होंने देखा-राजा साहसिक और तिलोत्तमा।
तिलोत्तमा तो नरक की कीड़ी वीरांगना थी ही, वह महर्षि के क्रोध के सदा अयोग्य थी। किन्तु राजा साहसिक तो उत्तरदायी तथा मर्यादाबद्ध आर्य पुरुष था। महर्षि उसकी अनुशासन तथा मर्यादाहीनता को क्षमा न कर सके और शाप देते हुए बोले- ‘साहसिक तूने देश-काल का विचार किये बिना कामवश होकर गधे की तरह निर्बुद्धि एवं निर्लज्ज आचरण किया है। इसलिये तू धेनुक नामक वन में गधा बनकर जीवन-यापन करेगा।’ चक्रवर्ती राजा साहसिक काम-वासना के दोष से अनन्त काल के लिये गधा बन गया।
किन्तु इतिहास में ऐसे भी धीर पुरुषों के उदाहरण मिलते हैं, जो वासना के दास थे पर जल्दी ही उन्होंने उसकी निःसारता को स्वीकार किया। उसे छोड़ा और अपना आगामी जीवन उज्ज्वल तथा सफल बना लिया। ऐसे पुरुषों में सूरदास और तुलसीदास की गणना की जा सकती है।
सूर न केवल विषयासक्त व्यक्ति थे बल्कि वेश्यागामी तक थे। एक वेश्या पर यह इतने आसक्त थे कि उसकी दुत्कार पाकर भी उसके द्वार पर पड़े रहते थे। किन्तु जब इन्हें चेत आया, तब उन्होंने तुरन्त ही उसको तथा अपने अन्तर की विषयासक्ति को त्याग दिया। बतलाते हैं कि कुछ दिन तब भी उनकी आँखें उस कुलटा को देखने के लिये तरसती तथा तड़पती रहीं। कहते हैं तब उन्होंने परेशान होकर अपनी उन दोनों आँखों को फोड़ लिया। यह बात कहाँ तक सही है- नहीं कहा जा सकता। फिर भी यह सत्य है कि उन्होंने आन्तरिक वासना की आँखें जरूर फोड़ डाली थीं। उन्होंने अपनी आसक्ति कृष्ण की भक्ति में बदली और अन्त में महाकवि सूर हो कर सदा को अजर-अमर हो गये।
कामुक रामबोला मायके गई हुई अपनी पत्नी का दो दिन भी विरह न सह सका और आँधी-पानी में मुरदे के सहारे नदी पार कर और साँप के सहारे कोठे पर चढ़कर अपनी पत्नी के पास चोरी-चोरी पहुँच गया। पत्नी को अपने पति की इस अनियन्त्रित कामुकता पर बड़ा खेद हुआ। उसने उसे उसके लिये धिक्कारा। रामबोला को चेत हुआ। उसने ज्ञान का सहारा लिया और संसार प्रसिद्ध तुलसीदास के नाम से राम का अनन्य भक्त हुआ।
प्रस्तुत घटनायें सिद्ध करती हैं कि विषय-वासनायें मनुष्य के अधःपतन का प्रबल हेतु हैं और उनका त्याग उन्नति की एक आवश्यक शर्त है। वासनाओं की संतुष्टि उनकी तृप्ति नहीं बल्कि त्याग से होती है, जिसका प्रतिपादन समय रहते तब तक ही किया जा सकता है, जब तक शरीर में शक्ति और विवेक में बल होता है। समय चूक जाने पर तो यह और भी आततायी होकर तन, मन और आत्मा का हनन किया, करती हैं।