Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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स्नेह-दीप धरना (Kavita)
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खेल-खेल में अनजाने ही, तुम क्यों रूठ गये,
तुमको तो अपनी मंजिल तक, आजीवन चलना।
जीवन की बीहड़ घाटी में, फैला सूनापन,
मन-मृग छौना भटक गया है, सुनकर जग-क्रंदन।
जीत एक है, हार हजारों, तुम क्यों भटक गये,
तुमको तो मानव-देहरी पर, स्नेह-दीप धरना।
हार-जीत के कच्चे धागे, कितने कब टूटे,
हर पनघट पर जाने कितने, कीर्ति-कलश फूटे।
युग के चटके यश दर्पण पर, तुम क्यों रूठ गये,
अभी तुम्हें है मानवता का मुख उज्ज्वल करना।
कितने बनते और बिगड़ते, माटी के पुतले,
कितने मधुर स्वप्न जीवन के, पड़ जाते धुँधले।
मरण-वरण करने कितने ही, आये और गये,
छोड़ी नहीं किंतु सृष्टा ने, नई सृष्टि रचना।
पुरस्कार तृण, किंतु खड़े हैं, लाखों प्रतियोगी,
कुण्ठाओं के कफ़न ओढ़कर, भटक रहे जोगी।
निष्ठाओं की चोटों से पर, तुम क्यों सहम गये,
तुमको तो आग्नेय कुण्ड में, कुन्दन-सा तपना।
तुम्हें बनाना है जीवन भर अपनी ही राहें,
काँटों को भी गले लगाना, फैलाकर बांहें।
नीलकण्ठ बनकर विष पीना, तुम क्यों भूल गये,
तूफानों के बीच सिन्धु की, लहरों को गिनना।
सागर-मन्थन के पहले ही, विषधारा मोड़ो,
धरती से अम्बर तक नाता, किरणों सा जोड़ो।
चन्द्र-खिलौना लेने शिशु से, क्यों तुम मचल गये,
तुम्हें रात-दिन मलयानिल-सा, अग-जग में बहना।
तुम्हें साधना के हाथों में, कंगन पहिनाना,
तुम्हें भगीरथ बनकर, गंगा पृथ्वी पर लाना।
मंजिल स्वयं पास आयेगी, तुम क्यों ठहर गये,
संघर्षों के बीच तुम्हें तो, हिम-गिरी सा अड़ना।
-बाबूलाल जैन ‘जलज’
*समाप्त*