Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारी श्रद्धा अब सक्रियता के रूप में बदले।
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अति प्राचीन काल में जब जन-मानस की स्थिति बहुत ऊँची थी-ज्ञान को शक्ति माना जाता था। लोग विचारों को महत्व देते थे और तर्क, प्रमाण, विवेक, न्याय एवं औचित्य के आधार पर जो बात सही सिद्ध कर दी जाती थी, उसे लोग बिना ननुनच स्वीकार कर लेते थे। जिसके पास ऊँचे विचार थे, प्रबल तर्क थे, औचित्य सिद्ध करने के प्रमाण थे वही नेतृत्व करता था और विचारशील जनता उसी को मानने के लिए तत्पर रहती थी। दुराग्रह किसी को न था। उसे ज्ञान का युग कहते हैं- भले ही उसे सतयुग कहें। तब ब्राह्मणों, ऋषियों, विचारकों, मनीषियों और विद्वानों को हर दृष्टि से प्राथमिकता दी जाती थी। उन्हें समुचित मान मिलता था, क्योंकि शक्ति का स्रोत उन दिनों ज्ञान माना जाता था और ज्ञान की पूँजी उपरोक्त ज्ञानवानों के पास थी इस युग को ब्राह्मण युग कहें, तो भी अत्युक्ति न होगी।
इसके बाद का युग क्षत्रिय युग आया-इसे त्रेता कहें तो कोई हर्ज नहीं इसमें शक्ति को प्रधानता मिली। बाहुबल और शस्त्र बल ही बढ़ती हुई पशु प्रवृत्ति पर अंकुश कर सकता था। सो, जैसे-जैसे मनुष्य ज्ञान का मार्ग छोड़ कर पराक्रम का आतंक अपनाने लगा, बड़ी मछली छोटी मछली को खाने लगी तो जरूरत पड़ी कि काँटे से काँटे को निकाला जाये और दुर्दान्त शक्ति को उसी आधार पर कुचला जाये। देवासुर संग्राम उसी जमाने में हुए। भगवान को जो अवतार लेने पड़े, उनमें असुरता से संघर्ष करना ही प्रधान था। वाराह, नृसिंह, राम, कृष्ण, परशुराम जैसे प्रमुख अवतारों को यही प्रक्रिया अपनानी पड़ी। द्रौणाचार्य ने शास्त्र के साथ शस्त्र को भी जोड़ दिया। लंका काँड और महाभारत जैसे महायुद्ध इसी संदर्भ में हुए।
मानवीय इतिहास ने और भी अवनति के चरण बढ़ाये। शक्तिसत्ता, शक्ति चालन, शौर्य, साहस, संघर्ष के साथ जुड़े हुए कष्टों और खतरों को समझने लगे- वह प्रसंग महंगा और कष्टकारक लगा। सशक्त और शस्त्र संचालकों को ही उनमें प्रधानता मिलती थी। दुर्बलों की तो कहीं गिनती ही न थी। अस्तु बुद्धि ने नया मोड़ लिया और धन को प्रधानता मिल गई-पैसे की शक्ति सबसे बड़ी हो गई। उपार्जन के विभिन्न स्रोत खुले और धन कमाने और जोड़ने की सुविधाएँ हो गईं। धन के द्वारा सब कुछ मिल सकता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जैसी सभी सम्पदाएँ उपलब्ध हो सकती हैं- जब यह दिखाई देने लगा तो धन की ओर सभी की लालसा जग गई-यह तीसरा युग था, इसे वैश्य युग कहा जा सकता है व्यापारियों ने एक-शासन-तन्त्र सँभाले। अंग्रेजों ने देर तक भारत पर शासन किया अमेरिका जैसे धनी देश पैसे के बल पर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ाते हैं। अब लड़ाई करके किसी देश या व्यक्ति को जीतने की आवश्यकता नहीं रही। प्रलोभन के बल पर चाहे जो, लगभग चाहे जिससे कराया जा सकता है। यह लालच का युग-लक्ष्मी का युग-वैश्य युग-अब तक चला ही आ रहा है और यों कहना चाहिए कि अपनी प्रौढ़ावस्था को जा पहुँचा है।
अब चौथा चरण अति समीप है। उसकी किरणें उग पड़ीं और देर नहीं कि वह अपना विस्तार कुछ ही समय में विश्व-व्यापी बना दे- यह शूद्र युग होगा। इसमें- श्रम को, पसीने को, पुरुषार्थ को सम्मान मिलेगा। हरामखोरों के हिस्से में जो सारे स्रोत चले गये हैं, वे सभी छिन जाएंगे। अमीरी, महन्त पदवी, जागीरों, बादशाही के नाम पर जिन्हें अधिक सुविधाएं मिली हैं, वे देर तक उपलब्ध न रहेंगी। जिसने जितना पसीना बहाया, श्रम किया और अपने पुरुषार्थ से समाज की स्थिति ऊंची उठाई, लोक मंगल के लिये अपना बड़े से बड़ा अनुदान प्रस्तुत किया- आगे उन्हें ही सम्मान, नेतृत्व, वर्चस्व और प्राधान्य मिलेगा। इसे मजूरी का युग कहना चाहिए। साम्यवाद के मंच से इसका उद्घोष हुआ था, अब हर दिशा से इसी स्वर में दूसरे सभी मिलते चले आ रहे हैं। अब पूँजीवाद के गुण नहीं गाये जाते वरन् श्रमशीलता को, श्रमिक को उभारने की बात कही जाती है। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ेगी और ‘आराम हराम है’ का नारा लगाते हुए श्रमशीलता हर दिशा में अपनी विजय-ध्वजा फहरायेगी। चाहे विनोबा हो चाहे लेनिन, ध्वनि सबकी एक है। पगडण्डियाँ अलग हों पर दिशा सभी विचारकों की एक है। श्रम का-शूद्र का-वर्चस्व बढ़ने ही वाला है। इसे चौथा युग-कलियुग कहें तो पुरानी मान्यता का आँशिक समर्थन भी हो जाता है।
शास्त्र में कलियुग की प्रधान शक्ति संगठन बताई गई है। ‘संघ शक्ति कलियुगे’ के सूत्र में इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि अनेक दुर्बल मिलकर ही एक समर्थ से बड़े सिद्ध हो सकते हैं। यह उदाहरण जन समाज के लिये ठीक नहीं, जैसे कि एक सिंह असंख्य मृगों को हरा और भगा सकता है। अब शासन बदलने जैसी महान प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिये महाभारत रचने की जरूरत नहीं पड़ती वरन् वोट देने भर से राज्य पलट जाते और शासन बदल जाते हैं। प्रजातंत्र की परिपाटी ने पिछड़े समझे जाने वाले लोगों की इच्छानुसार राज्य मुकुटों को धराशायी बना देना सम्भव कर दिया है। अब वे उन पौराणिक घटनाओं को साकार करते हैं जिनमें असुरों का सामना करने में असमर्थ ऋषियों ने बूँद-बूँद रक्त इकट्ठा करके जमा किया और जमीन में गाड़ा और उसमें से सीता उत्पन्न हुई, जिसके कारण समस्त असुरों का नाश हो गया। दूसरी घटना वह भी याद आती है जब असुरों से परास्त और निराश देवताओं की थोड़ी-सी शक्ति इकट्ठी करके ब्रह्माजी ने दुर्गा का सृजन किया और उस देवी ने दुर्दान्त असुरों को निरस्त कर दिया। इस प्रकार के अगणित उपाख्यान पुराणों में मिलते हैं, उनसे संगठन की महत्ता का समर्थन होता है। अब उस तथ्य की ओर भी अधिक स्पष्टता और प्रखरता के साथ प्रयुक्त होते एवं अनुभव में आते देखा जा सकेगा। अगले दिनों संघ शक्ति ही सबसे बड़ी होगी। उसके बल पर बड़े से बड़े प्रयोजन पूरे किये जा सकेंगे। राजतन्त्र पहले से ही जन सहमति से चल रहा है। अब अर्थ तन्त्र, समाज तन्त्र भी लोक रुचि के अनुरूप ही चलने लगेंगे। रीछ वानरों का सहयोग लेकर भगवान राम ने और गोवर्धन उठाने में ग्वाल बालों का सहयोग लेकर भगवान कृष्ण ने जन-संगठन की महत्ता का ही प्रतिपादन किया था। अभी अपना स्वराज्य संग्राम जन सहमति के रुझान से ही जीता गया। जन शक्ति अगले दिनों सबसे बड़ी शक्ति होगी, अन्य सारी शक्तियाँ उसके सामने फीकी पड़ जायेंगी और बौनी रह जायेंगी। विज्ञान, शास्त्र और सत्ता की प्रबलता को भी उसके आगे झुकना पड़ेगा। संघ शक्तियाँ सदा ही प्रबल थीं, पर इस युग में उनका चरम विकास होगा और ‘संघ शक्ति कलियुगे’ का चमत्कार हर किसी को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा।
इस युग के महानतम अभियान के रूप में अगले दिनों अपने ‘युग-निर्माण आन्दोलन’ की ही गणना होगी। समय की आवश्यकता, युग की पुकार और ईश्वरीय इच्छा का सम्मिश्रण इस भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध करके रहेगा कि निकट भविष्य में ही सड़ी-गली और अवाँछनीय मान्यताएँ एवं गतिविधियाँ अपना अस्तित्व खो बैठेंगी और विवेक, न्याय एवं औचित्य के आधार पर नये सिरे से जन-समाज की मनोवृत्तियों, चिन्तन की दिशाओं, कार्य पद्धतियों एवं आचार संहिताओं का निर्धारण होगा। अब सारी दुनिया वैज्ञानिक विकास के कारण दिन-दिन अधिक छोटी होती जाती है। सुदूरवर्ती प्रदेश गली-मुहल्ले की तरह एक दूसरे के समीप होते चले जा रहे हैं। एक स्थान की घटनाओं का प्रभाव व्यापक क्षेत्र पर पड़ता है और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आदर्श अब जाने या अनजाने में, चाहने या न चाहने पर भी एक प्रत्यक्ष तथ्य बनता चला जा रहा है। एक विश्व, एक राष्ट्र, एक धर्म, एक जाति, एक संस्कृति, एक आचार और एक विचार की आवश्यकता लोग तेजी से अनुभव कर रहे हैं और पूरी सम्भावना इस बात की है कि इसी आधार पर नये संसार का, नये समाज का और नये व्यक्ति का बनने बदलने के अतिरिक्त जीवन रहने का और कोई उपाय ही शेष न रह जाये।
अपना नव युग-निर्माण आन्दोलन किसी व्यक्ति विशेष की सनक या ऐसी ही कुछ हलचल पैदा करने वाला शगुल नहीं है। इसके पीछे अत्यन्त महत्व पूर्ण तथ्य एवं प्रचण्ड शक्ति-प्रवाह सन्निहित है और परिस्थितियों के ऐसे जटिल तकाजे जुड़े हुए हैं कि इसी दिशा में चलने के लिये विवश होना पड़ेगा, जिसकी ओर अपने प्रयत्न बढ़ रहे हैं। परिवर्तन और नव निर्माण की बात बहुत लोग करते हैं पर उनके सामने कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं है यदि है तो वह इतनी संदिग्ध और धूमिल है कि वर्तमान जन-मानस शायद ही उसे स्वीकार कर हृदयंगम करे। समय बतायेगा कि इस शताब्दी का सबसे महत्वपूर्ण और सही दिशा देने वाला अभियान कौन सा था। उस मूल्याँकन में युग-निर्माण आन्दोलन अपनी विशेषता और दूरदर्शिता से निःसंदेह बहुत सही और खरा सिद्ध होगा।
इस समर्थ आन्दोलन को अपने हिमालय जाने से पूर्व हम सुसंगठित और सुव्यवस्थित बनाकर जाना चाहते हैं। इसलिये गत अंक में इस बात पर जोर दिया गया है कि हमारे परिजन अब केवल पाठक, दर्शक, समर्थक या सहानुभूति प्रदर्शनकर्त्ता मात्र न रहें वरन् एक कदम बढ़ाकर सक्रियता का उत्तरदायित्व संभालने के लिये आगे आयें। यह हमारी अपनी जीवन रीति-नीति के सर्वथा अनुरूप है। हमने अपनी साधना, तपश्चर्या से लेकर लोगों के साथ सद्भावना जोड़ने तक के सारे प्रयास इसी दृष्टि से किये हैं कि लोक-निर्माण के लिये अपने तथा दूसरों के साधनों को अधिक मात्रा में, अधिक अच्छाई के साथ, अधिक भावपूर्ण रीति से नियोजित कर सकें। व्यक्ति का भावनात्मक परिवर्तन और समाज-क्रम की दशा सुधार आज की सबसे महती आवश्यकता है। उसे ईश्वरीय इच्छा भी कहा जा सकता है। इसके लिए हमें जन्म लेना पड़ा और आदि से अन्त तक अपनी समस्त गतिविधियों को इसी प्रयोजन के लिए संलग्न समर्पित करना पड़ा। संस्कारवान आत्माओं को ढूंढ़-ढूँढ़ कर अपना परिवार बनाया। इस सारे प्रयास को सुव्यवस्थित सुसंचालित और लक्ष्य की दिशा में अधिक तत्परता पूर्वक बढ़ते देखने की यदि अभिलाषा रहती है, तो उसे अनुचित नहीं कहा जाना चाहिए। अपने महाप्रयाण से पूर्व इस प्रयास तन्त्र को सुनिश्चित गति और दिशा में चलते देख लें तो उससे सन्तोष की साँस लेने का अवसर मिलेगा और भावी तपश्चर्या में भी वह सन्तोष हमें शाँति एकाग्रता एवं प्रसन्नता ही देता रहेगा।
समय कम रह जाने से हमें, सामने प्रस्तुत कार्यों को संभाल देने की इच्छा यदि जल्दी पूरी करनी पड़ती है, तो वह हमारी उतावली नहीं, मजबूरी ही समझी जानी चाहिए। अखण्ड ज्योति के परिजन भी जागरुक, सुशिक्षित और भावनाशील हैं। उन्हें कुछ करने न करने - बात के पक्ष या विपक्ष में फैसला करना कुछ अधिक कष्टसाध्य या समय साध्य नहीं लगना चाहिए। बात जरा सी है-उसके सम्बन्ध में फैसला करने के लिए एक दो दिन भी काफी हैं। हम चाहते यह थे कि हमारे प्रत्येक प्रेमी परिजन के मन में यह उत्साह और उमंग उत्पन्न हो कि इस युग के महानतम अभियान युग निर्माण में भागीदार-सहयोगी बनकर रहेगा। हम चाहते थे कि हमारे प्रत्येक परिजन के अन्तःकरण में लोक सेवा को मानव जीवन का एक अनिवार्य कर्तव्य मानने की निष्ठा जम जाये। हम चाहते थे कि हमारे प्रत्येक परिजन के मन में इतना सत्साहस जाग पड़े कि वह थोड़ा श्रम और थोड़ा धन नियमित रूप से उस प्रयोजन के लिए लगाने का निश्चय करे और उस निश्चय को दृढ़ता एवं भावनापूर्वक निबाहें। यदि इतना हो जाता तो परिवार के गठन के पीछे हमारे श्रम, त्याग और उमड़ते हुए भावों की सार्थकता प्रमाणित हो जाती। अन्यथा ‘बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का- जो चीरा तो एक कतर-ए-खूँ न निकला’ वाली विडम्बना ही उसे कहा जाता। भीड़ बहुत और काम का एक भी नहीं- जैसे निष्कर्ष पर पहुँचना किसी भावनाशील को कष्टकर ही हो सकता है। सहानुभूति में कुछ दम तभी है जब इसका प्रभाव क्रियाशीलता तक पहुँचे। हम चाहते थे अपने विशाल परिवार में अधिकाँश परिजन ऐसे निकलें जो परमार्थ के सही स्वरूप को समझें और आज के सर्वोत्तम प्रयोजन मन-निर्माण में अपने भाव भरे योगदान की श्रद्धाँजलि लेकर आगे आयें।
परिजनों की सक्रियता की न्यूनतम कसौटी- दस पैसा और एक घण्टे रोज का अनुदान घोषित कर दी गयी है। जिसके अन्तःकरण में मिशन की उपयोगिता और उसके प्रति अपने कर्तव्य की थोड़ी सी झाँकी हुई होगी, वह न तो व्यस्तता का बहाना बनायेगा और न आर्थिक कमी का, न उसे लोगों की उदासीनता उपेक्षा का रोना रोने की ही आवश्यकता पड़ेगी। कर्मनिष्ठ अपनी श्रद्धा और निष्ठा की प्रबलता को लेकर आगे बढ़ते हैं और मन्द या तीव्र गति से निःसन्देह अपने प्रयोजनों में सफल होते चले जाते हैं। विदेशों से आने वाले ईसाई पादरी भारत के अजनबी अशिक्षित और पिछड़े हुए प्रदेशों में सफलता के आश्चर्यजनक चमत्कार दिखा सकते हैं, तो हम अपने ही देश में अपनी सनातन अभिव्यक्ति को क्यों व्यक्त नहीं करा सकते? और उनमें से कितनों को भी क्यों प्रभावित नहीं कर सकते?
थोड़ा श्रम और थोड़ा धन निश्चित और नियमित रूप से दिया जाता रहे तो अपना चिन्तन और मनोयोग उस दिशा में बढ़ेगा ही तथा जन संपर्क के द्वारा लोक मानस को प्रभावित करने की उपयोगिता समझ ली गई तो उसके लिए जो सच्चे मन से प्रयत्न होंगे, उनका सत्परिणाम सामने आयेगा ही। इतने बड़े विशाल परिवार के इस मनोवृत्ति के लोगों की संख्या नगण्य नहीं होनी चाहिए, वरन् नगण्य वह वर्ष रहे जिसे लोक मंगल और आत्मिक कर्तव्यों का बोध नहीं हो पाया। थोड़ा कूड़ा कबाड़ा तो अनाज की छाँट फटक में भी निकल जाता है, इतने बड़े परिवार में थोड़े लोग अन्यमनस्क रहें, तो उनकी उपेक्षा की जा सकती है। पर अधिकाँश को इस कसौटी पर खरा ही उतरना चाहिए कि मिशन की विचारधारा इतने लम्बे समय से पढ़ते रहने पर थोड़ा बहुत रंग चढ़ा या नहीं- अथवा इस कान से सुन उस कान निकाल देने वाली उपहासास्पद विडम्बना ही अब तक चलती रही।
हमारा विश्वास है कि अखण्ड ज्योति के परिजनों में से अधिकाँश यह स्वीकार करेंगे कि वे अपने अनुदान से और सहयोग से नव-निर्माण अभियान के संचालन में सक्रिय रहेंगे। ऐसे लोगों को बिना विलम्ब लगाये दस पैसा रोज जमा करने वाले ज्ञान घट (गुल्लकें) मथुरा से मंगवानी चाहिएं और उनमें जमा होने वाले पैसों से घरेलू ज्ञान मन्दिर की नियमित व्यवस्था जुटा लेनी चाहिए। इतना साहित्य अपने स्वाध्याय के लिए, परिवार के साँस्कृतिक निर्माण के लिए और पड़ौसी परिचितों में भावनात्मक निर्माण करने के लिए कुछ समय नियमित रूप से लगाना चाहिए। इतनी आरम्भिक क्रिया नियमित रूप से चल पड़े, तो समझना चाहिए कि आगे और भी महत्वपूर्ण कदम उठा सकने का साहस उत्पन्न होगा। उस साहस के बल पर जो जनशक्ति उदित होगी उसके द्वारा नये समाज का नया निर्माण तनिक भी कठिन न रह जायेगा।
15 अक्टूबर, 70 तक वर्तमान परिजनों का शाखा संगठन पूरा हो जाना चाहिए। इतने ही दिन हमारा मथुरा रहना है। इसके बाद नवम्बर से अप्रैल तक इस वर्ष हजार कुण्डी और शत कुण्डी यज्ञों के लिए जो अद्भुत उल्लास उमड़ पड़ा है, उसमें सम्मिलित होने के लिये अधिकतर बाहर ही रहना पड़ेगा। मई में अपनी लड़की का विवाह करना चाहते हैं। उसकी आयु 17 वर्ष की हो गई, बी. ए. पास करने के समीप है। संस्कारवान और रोटी कमाता हुआ लड़का ढूंढ़ रहे हैं। हम सनाढ्य ब्राह्मण हैं, पर उपजातियों से हमें कोई लगाव नहीं, ब्राह्मण मात्र से विवाह कर देंगे। यह ढूंढ़ खोज इन्हीं दिनों पूरी हो गई तो मई में विवाह कर देंगे। वह महीना इस विवाह के लिए, तपोभूमि के अपने सारे अधिकार हस्तान्तरित करने के लिए तथा दूसरी व्यवस्थाएं निपटा जाने के लिए सुरक्षित रखा है। जून में हम चले ही जायेंगे। इस प्रकार इस वर्ष का कार्यक्रम पूरा हुआ। 15 अक्टूबर तक हमें मथुरा रहना है। इस बीच परिजनों का संगठन, एक बड़ा काम हमारे सामने है, सो इन्हीं दिनों उसे निपट जाना चाहिए। यही अनुरोध गत अंक में किया गया है और कहा गया है कि नियमितता बनाये रहने के लिए ज्ञान घटों (गुल्लकों) की स्थापना आवश्यक है। इस कार्य को बिना विलम्ब कर ही लेना चाहिए। दस पैसे जमा होने लगे, तो समझना चाहिए कि घरेलू ज्ञान मन्दिर चल पड़ा और कम से कम दस व्यक्तियों को इसका लाभ देते रहने का जो नियम बनाया गया है, उसके माध्यम से अपना आज का प्रभाव क्षेत्र दस गुना बढ़ने की प्रक्रिया देखते-देखते बन गई। एक घण्टा जो समय माँगा गया है, वह इसी प्रयोजन के लिये है कि घरेलू पुस्तकालय में निरन्तर आते रहने वाले साहित्य को घर तथा बाहर पढ़ाने के लिये जन-संपर्क बनाने की गतिविधि चालू की जा सके। सो ‘एक से दस’ का नारा इसीलिये है कि अपना प्रभाव-क्षेत्र और प्रचार दस गुना तो बढ़ा ही दिया जाये।
जिनने दस पैसे और एक घण्टा समय नित्य देने का अनुदान देते रहना स्वीकार कर लिया है, अब ये ही अपने परिवार के सदस्य रह जायेंगे। शेष सहायक या सहानुभूति कर्त्ता मात्र रहेंगे। इस छाँट से ही हर परिजन की श्रेणी और मनःस्थिति का पता चल जायेगा और संगठन में जो गेहूँ, कीरी मिला-जुला चल रहा था, उसकी सफाई हो जाने से प्रखरता आयेगी। संख्या घट जाये तो हर्ज नहीं- स्तर ऊंचा बना रहे तो काफी है। सक्रिय सदस्यों का संगठन बनाये रखने के लिये एक कार्यवाहक-भारवाहक-नियुक्त कर दिया जायेगा। सिर फुटौअल न कराना हो, तो चुनाव का जंजाल दूर रखना ही उचित होगा। यह निखरे हुए शाखा संगठन अगले ही दिनों नव-निर्माण के कार्यक्रमों को आकाश-पाताल ले उड़ेंगे-ऐसी आशा सहज ही की जा सकती है।
ज्ञान-यज्ञ अभियान के द्वारा प्रचार और प्रभाव-क्षेत्र दिन-दिन बढ़ता रहेगा- ‘एक से दस’ का क्रम चलता रहा, तो विश्वास है 4-5 छलाँगों में ही समस्त विश्व में इस विचारणा, प्रेरणा और प्रकाश को फैलाये जा सकने में सफलता मिल जायेगी। ज्ञान-यज्ञ ने जिन लोगों में साहस और उत्साह भरा होगा, उन्हें अगले चार सूत्रों के अनुसार ढेरों काम करने के लिये सामने रखे दिखाई देंगे- 1. सत् शिक्षा का विचार, 2. कला मंच, 3. रचनात्मक कार्यक्रम और 4. संघर्षात्मक मोर्चे के लिये हर जगह कार्यक्रम पड़ा है। उन्हें आरम्भ करने और चलाने का सिलसिला जब अपना सुसंगठित संगठन आरम्भ करेगा और समान क्राँति की महती आवश्यकताएँ पूरी होने पर हर कोई विश्वास करने लगेगा। राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद- 1. नैतिक क्रान्ति 2. बौद्धिक क्रान्ति और 3. सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता अभी अधूरी ही पड़ी है। सब लोग आर्थिक उन्नति की ओर मुड़ गये हैं। यों केवल बढ़ोत्तरी कुछ हो जाये, तो भी काम चलने वाला नहीं है। दुर्बुद्धि व्यक्ति और कुपथगामी समाज, बढ़े हुए धन से केवल विग्रह ही उत्पन्न करते है। हमें आर्थिक उन्नति के साथ उन आवश्यकताओं को भी पूरा करना चाहिए, जो व्यक्ति और समाज का स्तर ऊँचा उठा सकें, हमें अगले दिनों इसी अभाव की पूर्ति करनी है।
प्रस्तुत परिजनों का संगठन 15 अक्टूबर शरद पूर्णिमा तक पूरा हो जायेगा। यों उसका विकास आगे भी चलता रहेगा, पर आज के सम्बन्ध स्वजनों का विभाजन तो इसी बीच आसानी से हो सकता है। सक्रिय कार्यकर्ताओं द्वारा गठित हुए सक्रिय शाखा संगठनों की गतिविधियाँ इतनी होंगी, जितनी कि इन दिनों देश के सारे सामाजिक, धार्मिक एवं रचनात्मक संगठनों की कुल मिलकर भी नहीं हो रही हैं। अब तक इन कार्यों की कार्य पद्धतियों की जानकारी सर्वसाधारण को तथा परस्पर संगठनों को बहुत ही कम हो पाती थी, क्योंकि युग-निर्माण योजना में ही थोड़े पृष्ठ अति संक्षेप में इसके लिए निर्धारित रहते थे। अधिक छापे, तो पत्रिका का साहित्य स्तर गिरता था। अब बड़े साइज का पत्र निकालने की बात तय हो चुकी है। पिछले अंक में ‘युग निर्माण आन्दोलन’ नामक अलग पत्र निकालने की सूचना थी, उस सूचना के संदर्भ में अधिकाँश पाठकों के सुझाव यह आये हैं कि वर्तमान युग निर्माण योजना को ही बड़े साइज का कर दिया जाये। उसमें से पौराणिक अथवा अति प्राचीन ऐतिहासिक जीवन चरित्रों को कम कर दिया जाये। संस्था की गतिविधियों, योजनाओं एवं प्रयोगात्मक विवरणों की जानकारियाँ उसी में विस्तारपूर्वक दी जाया करें। नया पत्र निकालने की जरूरत नहीं है। पाठकों का सुझाव स्वीकार कर लिया गया है और अब युग निर्माण योजना का साइज तथा आन्दोलन का आधार बढ़ाकर उसी को अब तक के प्रयोजन को जारी रखने और आगामी आवश्यकता को पूरा करने का समन्वयात्मक माध्यम बना दिया जायेगा। हम चाहते हैं कि अब तक की सम्भावित शाखाओं का उनके संचालकों का विवरण 15 अक्टूबर के नये कलेवर वाले अंक में विस्तारपूर्वक रहे। इस वर्ष जो विशेष कार्य किए हों या जिनकी तैयारी हो, वे बातें भी इसमें सूचनार्थ भेजी जा सकती हैं। आगे हर महीने ऐसी रिपोर्ट केन्द्र में आती रहेंगी तो उनके आधार पर समाचारों का गठन करने में सम्पादकों को सुविधा होगी। महत्वपूर्ण घटनाओं एवं व्यक्तियों के चित्र भी उसी में छपते रहेंगे।
यह 1 सितम्बर का अंक है। पूरा सितम्बर उस संगठन कार्य को पूरा करने के लिए पड़ा है। प्रत्येक परिजन को इस संदर्भ में पिछले अंक में छपे ‘अपनों से अपनी बात’ वाले पृष्ठ फिर पढ़ लेने चाहिए और अपने संपर्क क्षेत्र में ज्ञान-घटों (गुल्लकों) की सम्भावना को तलाश कर उतनी गुल्लकें मंगा लेनी चाहिए। सदस्यता की प्रामाणिकता उन्हीं पर टिकी है क्योंकि मन-मर्जी पर नियमितता का अंकुश लगे बिना उसके निरन्तर चलते रहने की सम्भावना कम ही रहती है। 15 अक्टूबर से बड़े साइज में निकलने वाली युग-निर्माण योजना भावी आन्दोलन क्रम को बहुत प्रोत्साहन देगी और इन दिनों जितना काम हो रहा है,उससे कई गुना अगले ही दिनों होने लगेगा। कहाँ क्या हो रहा है, उसकी विस्तृत जानकारी प्रस्तुत शाखाओं को भी उठ खड़े होने और जमकर काम करने की प्रेरणा देगी।
हमारे जाने से पूर्व कितने ही महत्वपूर्ण कार्यों के संचालन की व्यवस्था जुटाने में आँधी-तूफान जैसी तेजी आ रही है। जगह की कमी बहुत पड़ रही थी, सो तपोभूमि की वर्तमान इमारत को दुमंजिली से तिमंजिली करने का कार्य आरम्भ हो चुका है और इस वर्ष चलता ही रहेगा। अन्य भाषाओं में अनुवाद तथा प्रकाश में तेजी आ गई है। 15 अक्टूबर के बाद आरम्भ होने वाली शिक्षा क्रान्ति के पाठ्यक्रम बनाने और बढ़ाने का कार्य दो महीने में निपटा देने के लिए पूरी सक्रियता बरती जा रही है। विद्यालय में कई ऐसे नवीन कार्य जोड़े जा रहे हैं, जिनकी आवश्यकता और खपत हर जगह रहती हो। कलाभारती के कई चरण इन्हीं दिनों आरम्भ हुए हैं। युग निर्माण के अत्यन्त प्रेरणाप्रद गीतों के ग्रामोफोन रिकार्ड बनने दे दिए हैं- जयपुर की बेबी बीना एम. ए. जिसे हम सब युग-कोकिला के नाम से पुकारते और दुलारते हैं। बहुत ही मधुर कण्ठ से लोक प्रेरणा में प्राण भरने वाले गीतों को गीत-ध्वनि सर्वत्र सुनाई पड़ेगी। कई चित्रावलियाँ प्रकाशित हो रही हैं और उन्हें बहुत बड़े साइज में प्रदर्शनीय कार्य लायक बनाकर छापे जाने की तैयारी हो रही हैं, जिससे हर शाखा में प्रदर्शिनी लगाने की व्यवस्थाएं जम सकें। ऐसे यन्त्र खरीदे और बनाये जा रहे हैं, जो स्लाइडों के माध्यम से सिनेमा जैसे रंगीन तथा सादे चित्र दिखा सकें और उनके माध्यम से प्रचार का क्षेत्र मनोरंजन युक्त तथा प्रभावशाली बनाया जा सके। आधुनिक कला और विज्ञान की संगति मिलाकर ऐसे धार्मिक नाटकों की शृंखला तैयार की जा रही है, जिससे विचार क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति एवं समाज क्रान्ति के प्रयोजनों को भली प्रकार पूरा किया जा सके। प्रचार एवं संगठन की दृष्टि से नवम्बर से अप्रैल तक लगभग 6 महीने हमें हजार कुण्डी और सौ कुण्डी अत्यन्त विशालकाय धर्म-सम्मेलनों में ही फिरना है ताकि बुझते समय प्रबल वेग के साथ जलने वाले दीपक की तरह हम इस थोड़ी सी अवधि में अधिक से अधिक चेतना उत्पन्न करने में बचे हुए दिन लगा सकें।
भावी कार्यक्रम बहुत बढ़ने वाले हैं। नव-निर्माण के स्वप्न साकार होकर सामने आने वाले हैं। इस महान् प्रयोजन में-इस सन्धि वेला में अपना एक भी परिजन यदि सक्रिय योगदान से वंचित रहा, तो हमें दुःख ही होगा। हम चाहते हैं कि अपने परिवार की समस्त, श्रद्धा इकट्ठी होकर इस वर्ष सक्रियता के रूप में परिणत हो जाये और ऐसा समर्थ संगठन इन्हीं दिनों खड़ा हो जाये, जो विश्व-मानव के भाग्य-निर्माण के अति महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन करने में समर्थ सिद्ध हो सके।