Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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“संस्कारात् द्विजोच्चते”
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महर्षि शाल्विन की प्रथम पत्नी श्लेषा ब्राह्मण कन्या थी तो द्वितीय पत्नी इतरा शूद्र कन्या। एक ही भवन में, एक ही मूल शाखा से सम्बद्ध अवर्ण-सवर्ण का यह समन्वय भी अभूतपूर्व था। महर्षि के गृहस्थ में पूर्ण सुख-शान्ति विराजती थी। दोनों पत्नियाँ दो सगी बहनों के समान परस्पर प्रेमपूर्वक रहती थीं, इसे ऋषि का प्रताप ही कहा जाता था।
समय पाकर श्लेषा और इतरा दोनों के गर्भ से एक एक पुत्र का जन्म हुआ। दोनों बालक अपूर्व तेजस्वी और सुन्दर थे कोई भेद नहीं कर सकता था कि इनमें कौन ब्राह्मणी का पुत्र है और कौन है शूद्रा-पुत्र। इस पहचान की तब किसी को आवश्यकता भी न थी। आत्मा को शिरोमणि मानने वाला, ऋषि कुल चर्म भेद, जाति भेद करना जानता ही न था यह तो मध्य युग की बात है जब शूद्रों को अस्पृश्य भी कहा जाने लगा।
पर यह क्या हुआ? एक दिन दोनों ही किशोर ऋषि कुमार जब पहली बार महर्षि के यज्ञ स्थल पर प्रविष्ट हुए तो महर्षि शाल्विन ने श्लेषा के पुत्र को तो यज्ञ वेदी पर यजमान की तरह बिठा लिया किन्तु मानो शूद्रा पुत्र के वहाँ उपस्थित हो जाने से देवार्चना मलीन होने की आशंका पैदा हो गई थी या और कोई भय। महर्षि ने इतरा के पुत्र को वहाँ बैठने की अनुमति ही नहीं दी वरन् उसे डपट कर वहाँ से भगा भी दिया। बालक के लिए यह अपमान असह्य था। घर लौटकर माँ के आँचल में मुख छुपाकर वह जितना रो सकता था रोया, माँ के पास भी तो धैर्य बँधाने के लिए कुछ नहीं था। वह भी सहानुभूति में केवल रोती रही।
श्लेषा ने महर्षि के इस व्यवहार को अनुचित ही नहीं निन्दनीय भी ठहराया, पर महर्षि ने उनसे न जाने कान में क्या कहा कि श्लेषा ने फिर कोई प्रतिवाद नहीं किया।
अब तक हृदय की संपूर्ण वेदना आँसुओं के रूप में घुलकर धुल चुकी थी। मन पर्वतीय उपत्यिका से उतरी हुई उस सरिता की भाँति निर्मल हो गया था जो समतल क्षेत्र में आकर अपना विस्तार ही नहीं कर लेती वरन् प्रवाह भी शान्त और मन्द कर लेती है। बालक ने प्रश्न किया- माँ अब तू ही बता। मैं अपने कल्याण के लिए किसे गुरु वरण करूं भारी हृदय से इतरा ने उत्तर दिया- तात! जब महर्षि ने ही तुझे दीक्षा के योग्य नहीं समझा, तब और किसके पास तुझे भेजूँ, तू तो अपनी आत्मा को ही गुरु मान और जिस धरती ने तुझे जन्म दिया है उसकी गोद को ही यज्ञ स्थल मानकर अपनी उपासना प्रारम्भ कर। मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। भगवान सब मंगल करेंगे। बालक वहाँ से चल पड़ा। भगवती प्रकृति का अध्ययन और आत्मदेव की उपासना करते-करते, उसकी गति योगियों की सी हो चली। माँ के दिए अक्षर ज्ञान को साधना की कसौटी पर कस-कस कर और भगवती प्रकृति के व्यवहार को देख-देख कर उसने ज्ञान का अद्वितीय भाण्डागार अर्जित कर लिया। इतरा के पुत्र का यश संसार में चन्द्रमा की कला के समान विकसित होने लगा।
महर्षि शाल्विन स्वयं चिन्तित हो उठे उस दिन इतरा से अधिक शोक में श्लेषा डूबी हुई थी और सोच रही थी कि कहीं महर्षि का प्रयोग, तितिक्षा की कसौटी, असफल तो सिद्ध न हो जायेगी। किन्तु सायंकाल इतरा के पुत्र का प्राकट्य ऐसा हुआ जैसे घिरे बादलों को चीरकर सूर्य प्रकट होता है। बालक जो अब युवावस्था पार कर चुका था अपूर्व तेज से प्रकाशित हो रहा था। उसके हाथ में पाण्डुलिपि थी। दोनों माताएं तो पुत्र के स्वागत और कुशल मंगल पूछने में तल्लीन हो गईं पर महर्षि ने उस पाण्डुलिपि को उठाकर देखा तो स्नेह और ममत्व से उनकी आँखें छलक उठीं। यह पाण्डुलिपि और कुछ नहीं वेदों की विशुद्धतम व्याख्या थी जिसे आज ऐतरेय ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण पढ़े बिना वेद का ज्ञान मिलना दुर्लभ होता है। अपने पुत्र की इस उपलब्धि पर महर्षि फूले नहीं समाये। अपनी श्रेष्ठ साधना द्वारा ऐतरेय ने अपनी माँ का ही मुख उज्ज्वल नहीं कर दिया वरन् इस बात का प्रमाण भी दे दिया कि शूद्र हो तो क्या संस्कारों से ही मनुष्य ब्राह्मण हुआ करते हैं।