Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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विज्ञान ने समस्याएं सुलझाईं कम, उलझाईं अधिक
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विज्ञान की एक शाखा रसायनशास्त्र ने लाखों-करोड़ों कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थों की खोज कर ली। इतनी औषधियाँ बन चुकी हैं कि एक डॉक्टर उन सबको याद भी नहीं रख सकता। जीव विज्ञान ने यहाँ तक पहल की सूक्ष्मतम जीवाणु (बैक्टीरिया) और विषाणु (वायरस) की सैंकड़ों जातियों तक का पता लगा लिया। एनाटॉमी और फिजियोलॉजी ने मनुष्य शरीर की एक एक हड्डी एक एक नस की बनावट और उनके कार्यों का पता लगाने में सफलता प्राप्त की। वनस्पति विज्ञान ने वृक्ष वनस्पतियों में भी जीवन के अंश की शोध कर ली। भौतिक विज्ञान का तो कहना क्या? चन्द्रमा, मंगल, शुक्र और बृहस्पति की दूरियाँ अब पृथ्वी में बसे पड़ौसी देशों की तरह होने जा रही हैं। वैज्ञानिक प्रगति के पीछे मानवीय पुरुषार्थ और पराक्रम की जो गाथाएं छिपी पड़ी हैं, उन्हें जितना सराहा जाये कम है।
किन्तु एक प्रश्न पीछे से उठ रहा है, वह भी वैज्ञानिक प्रगति के समान ही तीव्र और विस्मयबोधक है। प्रश्न है- ‘क्या विज्ञान मनुष्य के व्यवहार को समझा सकता है?’
क्या विज्ञान मानवीय चेतना की अथ-इति के दार्शनिक और तात्विक पहलू को भी समझा कर मानव मात्र को सन्तोष और भयमुक्ति प्रदान कर सकता है? अरबों रुपये खर्च करके एक अन्तरिक्ष यान (सेटेलाइट) की सफलता के पीछे हजारों-लाखों आदमियों को भूखा-नंगा बना देने की वैज्ञानिक कुत्सा को क्या हर व्यक्ति समर्थन प्रदान करेगा। जब तक विज्ञान मानव के व्यवहार की समस्या को हल नहीं करता, तब तक विश्वात्मा की शान्ति कहाँ संसार के प्राणी शान्ति और सन्तोष से न रह सकें तो विज्ञान की क्या सार्थकता?
आधी शताब्दी में दो महायुद्ध हो चुके। उनमें करोड़ों व्यक्तियों की निर्मम हत्याएं की गईं। मारे गयों के पीछे उनके असहाय बच्चों, धर्मपत्नियों और आश्रितों के करुण क्रन्दन को क्या विज्ञान ने सुना और समझा? युद्धोन्माद के साथ प्रारम्भ हुए मानवता के विनाश के साथ अन्त होने वाली चरित्र भ्रष्टता को समझाएं और निराकरण किए बिना क्या विज्ञान हमें ऊँची और उन्नत सभ्यता का विश्वास दिला सकता है।
विज्ञान की प्रगति अनियमित प्रगति है। समाज में हमें युद्ध, हिंसा, भ्रष्टाचार, भूख और प्यास से बचाओ? विज्ञान उत्तर देता है- ‘पृथ्वी में 108 तत्व हैं, इतने लवण हैं, अम्ल हैं, इतने कार्बनिक पदार्थ हैं, इतने अकार्बनिक पदार्थ हैं इतने वायरस इतनी बीमारियाँ उनके इतने इलाज हैं। और आगे की बातों का हम इलाज कर रहे हैं?’ इस उत्तर में कोई तुक है क्या? संगत प्रश्नों के असंगत उत्तर देने वाले विज्ञान की फिर कितनी उपयोगिता?
विज्ञान निर्जीव प्रकृति को नियन्त्रित करने में लगा है और सजीव प्रकृति भूख-प्यास की पीड़ा से अपनी आँतरिक आवश्यकताओं की आपूर्ति के कारण छटपटाहट से बेचैन है। हम अपनी कठिन सामाजिक समस्याओं के बारे में, जब भी प्रश्न करते हैं, वह मौन हो जाता है। ऐसी विडम्बना मानव इतिहास में उसी प्रकार कभी नहीं देखी गई जैसे चन्द्रमा पर मानव के चरण इससे पूर्व कभी नहीं देखे गये।
एक ओर औषधियाँ बनाने का पुण्य दर्शाता है विज्ञान, दूसरी ओर परमाणविक विस्फोटों के द्वारा यंत्रीकरण से उत्पन्न आलस्य द्वारा- अधिक इन्द्रिय भोग और असंयम के द्वारा- नित्य नई बीमारियाँ फैलाने का पाप भी वही करता है। पुण्य एक तोला और पाप एक मन - कैसे बैठेगा बैलेंस? मानवता बेचारी आधी छटाँक अन्न खाकर एक मन वजन पत्थर के नीचे दबी जा रही है। संसार के कुछ लोग अभाव ग्रस्त जीवन से ही ऊपर नहीं उठ पाते हैं।
जनसंख्या मानव ने नहीं बढ़ाई, विज्ञान ने बढ़ाई है। उसने मानव को सैकड़ों हजारों दिशाएं देकर मूल उद्देश्य से दिग्भ्रांत कर दिया है। भ्रमित मनुष्य को सुख का एक मात्र साधन कर्मेन्द्रियाँ रह गई हैं। पिता से उसे प्रेम नहीं मिलता, माँ से वात्सल्य नहीं, भाई अपना विश्वास और स्नेह प्रदान करने के लिए तैयार नहीं, पड़ौसी उसके साथ हँसने - बोलने और सदाशयता का व्यवहार करने के लिए तैयार नहीं। नौकर को मालिक से दिक्कत, मालिक को नौकर से शिकायत। मानव को तो आनन्द चाहिए। आखिर वह कहाँ से मिले। काम वासना काम वासना- जनसंख्या जनसंख्या। जनसंख्या बढ़ाने का दोष मानव को नहीं- आलस्य अकर्मण्यता, अहंवाद की शिक्षा देने वाले विज्ञान को है। अपने दोष को स्वीकार कर उसे 3 अरब पृथ्वी की जनता को अन्न देना चाहिए था, पर मिल रही है चन्द्रमा की मिट्टी जिसे न खाया जा सकता है न पकाया। मानव के अस्तित्व को और भी संकट बढ़ा है।
अकाल, महामारी और आर्थिक विषमता का कारण है- विज्ञान। मानव की आवश्यकताएं खाना, कपड़ा पहनने, स्वस्थ रहने और शिक्षित रहने भर की थी, उसके लिए इतने व्यापक बखेड़ों की क्या आवश्यकता थी? आज की पृथ्वी के कितने लोग हैं जो अन्तरिक्ष यात्राएं कर सकेंगे? आने वाली पीढ़ी में कितने होंगे जो विश्व को अकाल, महामारी और आर्थिक विषमता से बचा सकेंगे?
सफलता पाना विज्ञान का अटल सिद्धान्त है और प्रत्येक सफलता के साथ मानवीय व्यवहार (ह्यूमन बिहेवियर) के लिए एक नई जटिलता तैयार कर देना भी उसी का नियम है। जब तब पूर्ण सत्य की खोज हो पाये, तब तक यह पृथ्वी या तो नारकीय यन्त्रणाओं से भर जायेगी या पूरी तरह नष्ट हो जायेगी क्योंकि विज्ञान की प्रगति के साथ उसके खर्चों की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी ही होती है। पृथ्वी बढ़ेगी तो है नहीं, उसमें जितना अन्न पैदा होता है उतने ही खर्चे पर या तो मानवीय समस्याओं (भोजन, वस्त्र, आवास, युद्ध, व्यापार) को सुलझाया जा सकता है या वैज्ञानिक अनुसन्धान किए जा सकते हैं। शक्ति के बल पर यदि विज्ञान एकाधिकार करता है- इन साधनों पर तो स्पष्ट है मनुष्य को उससे वंचित रहना पड़ेगा ही - भूखों, बीमारियों, अकाल और युद्ध में मरना पड़ेगा ही।
विज्ञान भविष्य की बात करता है, क्यों उसे तो सिद्धाँतों और घटनाओं की वैधता सिद्ध करनी है। दर्शन कहता है कि मनुष्य की इच्छा को तो समझो और उसके लिए अपने अतीत को भी तो देखो। जब तक भूतकाल के अनुभवों से काम नहीं लिया जाता, हम कठिनाइयों से कैसे बच सकते हैं। हमारी इच्छा शक्ति जब तक विद्यमान है, तब तक हम यह कैसे कह सकते हैं कि हमारा भविष्य यह होगा। हमारी इच्छाएं भी प्राथमिकता चाहती हैं, जबकि विज्ञान अपनी प्राथमिकताओं द्वारा उन्हें कुचल देता है। मनुष्य विक्षुब्ध होता चला जा रहा है और अपने प्रत्येक क्षोभ को वह औरों पर उतारता है। फलस्वरूप आत्मा आत्मा के सम्बन्ध विकृत होते जा रहे हैं। प्रेम, दया, करुणा, उदारता, निर्मलता, पवित्रता, त्याग, क्षमा, सहिष्णुता, धैर्य, निर्भयता, आदि सद्गुणों का अन्त होता जा रहा है और परस्पर भेदभाव, आर्थिक शोषण, अन्याय, बेईमानी झूठ फरेब व्यभिचार आदि बढ़ते जा रहे हैं। इनके रहते मनुष्य क्या कभी चैन से रह सकता है और सुखी होने की अपनी इच्छा पूर्ण कर सकता है?