Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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शिक्षा ही नहीं विद्या भी परिष्कृत की जाय
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भौतिक जीवन को समर्थ और सुविकसित बनाने का पथ-प्रशस्त करना स्कूली शिक्षा पद्धति का प्रयोजन होना चाहिए। छात्रों के मस्तिष्क पर अनावश्यक भार बने रहने का उसका वर्तमान स्वरूप बदला जाना चाहिए। किसी विषय के विशेषज्ञ बनने वाले के लिए विशेष शिक्षा का प्रबन्ध रहना उचित है, पर सर्वसाधारण को ऐसी पढ़ाई के लिये विवश नहीं करना चाहिए-जिसका व्यावहारिक जीवन में कभी कोई उपयोग नहीं होता। इन दिनों जो पढ़ाया जाता है उसे सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में संग्रहीत किया जा सकता है। बहुमुखी जानकारी के लिए सामान्य ज्ञान के विषय को थोड़ा विस्तृत किया जा सकता है और उसमें विविध विषयों की काम चलाऊ जानकारी को स्थान दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त पूरा शिक्षण वह होना चाहिए जिससे छात्र को सुयोग्य एवं स्वावलंबी नागरिक बनने का न केवल किताबी वरन् व्यावहारिक ज्ञान भी मिल जाय।
संसार के सभी विकासोन्मुख राष्ट्रों ने राष्ट्रीय उत्कर्ष को-वैयक्तिक विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसी ही शिक्षा प्रणाली विकसित की। हम इस दिशा में कुछ मौलिक चिन्तन न कर सके। अँग्रेजों के समय से चले आ रह ढर्रे को ही चलाते रहे। स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी हम आगे बढ़ नहीं पाये, इसका कम से कम आधा दोष तो वर्तमान निरुद्देश्य शिक्षा पद्धति को दिया ही जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है शिक्षा प्रक्रिया में क्रान्तिकारी सुधार होना चाहिए। सरकार इस आवश्यकता को अनुभव न करे तो जनता को-बुद्धिजीवियों को इसके लिए ऐसे प्रबल प्रयत्न करने चाहिएं जिससे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सके ।
जन स्तर पर अनेक विद्यालय चलते हैं। कितने ही दानी मानी-उदारतावश अथवा यश कामना से नये विद्यालयों का आरम्भ कराते हैं। कितनी ही संस्थाएं छात्रों को देशभक्त, धर्मनिष्ठ नागरिक बनाने के उद्देश्य से नये शिक्षा संस्थान खड़े करती हैं और उनके सत् परिणामों के लम्बे-चौड़े स्वप्न देखती-दिखाती हैं। यह सब होता है पर भूल वे भी यह जाती हैं कि दोषयुक्त शिक्षा पद्धति के रहते किसी चमत्कारी परिणाम के स्वप्न देखना सर्वथा अवास्तविक है। यदि गैर सरकारी क्षेत्र में कुछ किया ही जाना हो तो उन्हें स्वावलम्बी और सुयोग्य नागरिक ढालने वाली शिक्षा पद्धति की मौलिक कल्पना करनी चाहिए और उसकी सार्थकता सिद्ध करने वाली व्यवस्था बनानी चाहिए। सरकारी प्रमाण पत्र पाने के लिए-सरकारी शिक्षा पद्धति अपनाने से सरकारी ढर्रे के ही परिणाम निकलेंगे। इसके लिए व्यक्तिगत रूप से माथा-पच्ची करना बेकार है। प्रचलित शिक्षा पद्धति ही यदि पर्याप्त है तो सरकारी शिक्षा विभागों की सहायता करना ही पर्याप्त है। अलग-अलग ढाई चावल की खिचड़ी पकाने और लम्बे-चौड़े स्वप्न देखने की बात बेतुकी है।
गैर सरकारी क्षेत्र में यदि सार्थक शिक्षा पद्धति का प्रयोग किया जाना हो तो ही जन स्तर के स्वतन्त्र स्कूलों की आवश्यकता है। ऐसे विद्यालयों को आरम्भ से ही सरकारी मान्यता प्राप्त करने और सरकारी प्रमाण पत्र प्राप्त करने के व्यामोह से बचना चाहिएं। छात्र थोड़े रहें तो हर्ज नहीं पर प्रयोग में कुछ मौलिक तथ्य रहने चाहिएं और वे तथ्य यही हो सकते हैं कि सार्थक शिक्षा पद्धति की संरचना करके उसकी व्यावहारिकता और श्रेष्ठता प्रमाणित की जाय। गायत्री तपोभूमि, मथुरा में अवस्थित युग-निर्माण विद्यालय को ऐसा ही मौलिक प्रयोग कह सकते हैं। अन्यत्र भी यदि इसी स्तर के प्रयोग परीक्षण खड़े किये जा सकें-तो सार्थक शिक्षा पद्धति के उपयोग समझने और वर्तमान ढर्रे में मौलिक परिवर्तन करने की बात जनता और सरकार को-शिक्षा शास्त्री और बुद्धि जीवियों को अधिक अच्छी तरह समझाई जा सकती है। जन स्तर पर चल रही या आरम्भ होने वाली शिक्षा संस्थाओं को यदि इस स्वतन्त्र चिन्तन का प्रकाश मिल सके तो सचमुच उनका प्रयास शिक्षा परिवर्तन की प्रेरणा उत्पन्न करने की दृष्टि से अतीव उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
शिक्षण का दूसरा क्षेत्र है-आत्मज्ञान, धर्म, अध्यात्म। इसे विद्या के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा है। शिक्षा और विद्या में मौलिक अन्तर है। शिक्षा उसे कहते हैं जो जीवन के बाह्य प्रयोजनों को पूर्ण करने में सुयोग्य मार्गदर्शन करती है। साहित्य, शिल्प, कला, विज्ञान, उद्योग, स्वास्थ्य, समाज आदि विषय इसी शिक्षा परिधि में आते हैं। विद्या का क्षेत्र इससे आगे का है-आत्मबोध, आत्मनिर्माण, कर्त्तव्यनिष्ठा, सदाचरण, समाज निष्ठा आदि वे सभी विषय विद्या कहे जाते हैं जो व्यैक्तिक चिन्तन, दृष्टिकोण एवं सम्मान में आदर्शवादिता और उत्कृष्टता का समावेश करते हों, स्वार्थपरता को घटाते और लोक निष्ठा को बढ़ाते हों। धर्म और अध्यात्म का सारा ढाँचा मात्र इसी प्रयोजन के लिए तत्वदर्शियों ने खड़ा किया है।
ईश्वर भक्ति, उपासना, योग-साधना, धर्मानुष्ठान, कथा कीर्तन, स्वाध्याय, सत्संग, दान, पुण्य आदि का जो जितना कुछ भी धर्म कलेवर खड़ा है; इस सबके पीछे एक ही उद्देश्य है मनुष्य व्यक्तिवादी पशु प्रवृत्तियों से छुटकारा पाये और समाजनिष्ठा के परमार्थ मार्ग को अपनाकर उदार एवं लोकसेवी प्रक्रिया अपनाये। इस मूल प्रयोजन की ओर मनुष्य को अग्रगामी बनाने के लिए अनेक कथा पुराण बनाये गये-धर्म शास्त्र रचे गये, साधन विधान बनाये गये-स्वर्ग-नरक के भय प्रलोभन प्रस्तुत किये गये। अदृश्य जगत के, लोक-लोकान्तरों के, देव-दानवों के प्रतिपादन किये गये। मत-मतान्तरों के बीच इन प्रतिपादनों में भारी अन्तर पाया जाता है पर मूल प्रयोजन सबका एक है-मनुष्य की पशु प्रवृत्ति को व्यक्तिवादी स्वार्थपरता को समाजनिष्ठ परमार्थ को धर्म धारणा में विकसित करना।
इसे एक दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि शिक्षा क्षेत्र की तरह विद्या क्षेत्र में भी रूढ़िवादिता का साम्राज्य है। धर्म पुरोहित अब केवल आवरण की प्रतिष्ठा कर रहे हैं और मूल उद्देश्य को भुला रहे हैं। अमुक धर्मानुष्ठान का कर्मकाण्ड पूरा कर देने से, कथा कीर्तन के श्रवण, नदी के सरोवर के स्नान, तीर्थ, मन्दिर दर्शन, जप-तप मात्र को, स्वर्ग मुक्ति का आधार घोषित कर दिया गया है। आन्तरिक दृष्टि से मनुष्य घोर व्यक्तिवादी, समाज विरोधी रह कर भी इस धर्मावरण की सहायता से सद्गति प्राप्त कर सकता है, ईश्वर का कृपापात्र बन सकता है। आज इसी प्रतिपादन की धूम है। इस ज्ञान के नाम पर अज्ञान का प्रसार ही कहना चाहिए। प्राण रहित लाश की तरह धर्म का आवरण भर खड़ा रखा जा रहा है और यह भुलाया जा रहा है कि यह विशाल आवरण आखिर खड़ा किसलिए किया गया था।
आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के साथ-साथ विद्या के क्षेत्र में भी क्रान्ति उपस्थित की जाय। ढर्रे की शिक्षा भार-भूत है। भौतिक जीवन की गुत्थियों को सुलझाने की क्षमता जो शिक्षा हमें प्रदान न कर सके उसे उपयोगी कैसे कहा जा सकता है? इसी प्रकार जो विद्या मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता एवं आदर्शवाद का समावेश न करे-व्यक्तिवादी स्वार्थपरता से विरत कर समूहवादी परमार्थ में संलग्न न करे-उसे भी भार-भूत ही कहना चाहिए। इस निष्प्राण धर्म कलेवर से केवल धर्म व्यवसायियों का लाभ हो सकता है। जन साधारण को तो उलटे अज्ञान में भटकते हुए अपने धन और समय की बर्बादी का घाटा ही उठाना पड़ेगा। विद्या क्षेत्र की इस विडम्बना का भी अब अन्त ही किया जाना चाहिए। दिवा स्वप्नों में भटकने-भटकाने की प्रवृत्ति को आगे नहीं बढ़ने देना चाहिए।
आत्म विद्या को-धर्म धारणा का स्वरूप सार्थक और सोद्देश्य होना चाहिए। कथा पुराण एवं धर्मानुष्ठान भले ही किसी रूप में हो पर उनका लक्ष्य उतने भर से आत्म-लाभ मिल जाने के प्रतिपादन से ऊँचा उठकर यह रहना चाहिये कि विश्व मानव को भगवान मानकर उसकी स्थिति ऊँची उठाने में योगदान देकर सच्ची भक्ति भावना का परिचय दिया जाय। प्रेरणायुक्त धर्म कलेवर की उपयोगिता ही मानवीय विवेक को स्वीकार हो सकती है। अनास्था के वातावरण को बदलकर आस्तिकता की ओर जन मानस को तभी मोड़ा जा सकता है जब आत्म विद्या का-धर्म धारणा का स्वरूप रूढ़िवादी न रह कर मनुष्य के आन्तरिक उत्कर्ष में सहायक सिद्ध हो सके। चिर अतीत में तत्वदर्शियों ने इस समस्त प्रक्रिया का सृजन इसी प्रयोजन के लिए किया था, बहुत भटक लेने के बाद अब हमें बदलना चाहिए और धर्म धारणा को परमार्थ प्रयोजन पर केन्द्रित करना चाहिए।
धर्म के आधार पर विकसित होने वाली परमार्थ प्रवृत्ति को लोक मंगल में नियोजित करना आत्म विद्या का मूलभूत प्रयोजन है। उसे इन दिनों पूरी तत्परता के साथ इसी भूल सुधार में लगना चाहिए। पिछले दिनों के भटकाव को सुधारना ही इन दिनों धर्म क्षेत्र के लिए सर्वोत्तम प्रायश्चित होगा। खोई हुई आस्था और प्रतिष्ठा को वह इसी आधार पर पुनः वापिस लाने में समर्थ होगा।
जिन्हें सचमुच विद्या से प्रेम है उन्हें वर्तमान धर्म शिक्षा में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए आगे आना चाहिए। बुद्धि, प्रतिभा, समय, श्रम और धन का जो जितना बड़ा अंश लोक मंगल के लिए नियोजित कर सके उसे उतना ही बड़ा धर्मात्मा माना जाय। पिछले अन्धकार युग की सामाजिक एवं बौद्धिक विकृतियाँ इतनी अधिक अभी भी भरी हुई हैं कि उनकी सफाई में भारी प्रयत्न करने की आवश्यकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्शवादी कर्तृत्व को जन साधारण के दृष्टिकोण, स्वभाव एवं अभ्यास में ध्यान दिलाने के लिए घनघोर प्रयास करने होंगे। इसके लिए प्रत्येक धर्म प्रेमी को सामयिक कर्त्तव्य समझकर सर्वतोभावेन संलग्न होना चाहिए। धर्म शिक्षा का, आत्म विद्या का प्रशिक्षण इन दिनों इसी केन्द्र पर केन्द्रित रहना चाहिए- इसी प्रयास को आत्म-कल्याण-स्वर्ग-मुक्ति एवं ईश्वर प्राप्ति की सर्वोत्तम युग साधना बनाया जाना चाहिए। धर्म और ईश्वर के नाम पर खर्च होने वाला प्रत्येक पैसा और समय का प्रत्येक क्षण इसी केन्द्र पर केन्द्रित किया जाना चाहिए।
वानप्रस्थ परम्परा इसीलिए थी कि अधेड़ होने तक मनुष्य अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो ले और जीवन का उत्तरार्ध लोक मंगल के लिए उत्सर्ग करे। इस परम्परा को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है ताकि सुयोग्य, अवैतनिक, भावनाशील, अनुभवी सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं की सेना का उद्भव फिर शुरू हो जाय और उसके द्वारा सामाजिक, नैतिक एवं बौद्धिक क्रान्ति की-सर्वतोमुखी नव निर्माण की आवश्यकता को पूरा किया जाना सहज ही सम्भव हो सके।
शिक्षा और विद्या में परिवर्तन और सुधार ही मानवीय प्रगति का मूलभूत आधार है। विश्व कल्याण और विश्वशान्ति के उभयपक्षी प्रयोजन शिक्षा और विद्या के परिष्कार पर अवलम्बित है। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।