Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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साधुवेश की मर्यादा
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बहरूपिया राजा के दरबार में पहुँचा ‘राजा की जय-जय कार हो! अन्नदाता की यश पताका आकाश में सदैव फहराती रहे। सारी प्रजा सुखी और सम्पन्न रहे। बस पाँच रुपये के एक नोट का सवाल है, महाराज से। और बहरूपिया कुछ नहीं चाहता।’
मैं कला का पारखी हूँ। कलाकार का सम्मान करना राज्य का नैतिक कर्तव्य है। मैं तुम्हारी कला पर प्रसन्न होकर पाँच रुपये का पुरस्कार दे सकता हूँ पर दान के लिए मजबूर हूँ।’ राजा ने कहा
‘कोई बात नहीं। मैं आपके सिद्धान्त को तोड़ना नहीं चाहता। मुझे अपना दूसरा स्वाँग दिखाने के लिए तीन दिन का समय तो दीजिये।’ इतना कहकर बहरूपिया चला गया।
दूसरे दिन नगर के बाहर एक टीले के ऊपर समाधि मुद्रा में एक साधु दिखाई दिया। मेरुदण्ड सीधा, नेत्र बन्द, तेजस्वी चेहरा और लम्बी जटाएं। इधर-उधर पशु चराने वाले चरवाहों ने उस साधु को देखा। वह उत्सुकतावश उसके पास पहुँचे।
तपस्वी मृग छाला पर ध्यानावस्थित था। उसे पता ही नहीं चला कि सामने कौन खड़ा है।
‘स्वामी जी! आपका आगमन कहाँ से हुआ हैं?’
कुछ क्षण रुक कर फिर दूसरा प्रश्न ‘क्या आपके लिए कुछ फल, दूध और मेवा आदि की व्यवस्था की जाए?
मुख से किसी शब्द का निकलना तो दूर की बात रही उसका शरीर भी रंच मात्र न हिला।
शाम को सभी चरवाहे अपने पशुओं को लेकर नगर वापिस आये। उनके द्वारा घर-घर में तपस्वी संत की चर्चा होने लगी। दूसरे दिन सुबह ही नगर के अनेक सभ्य शिक्षित नागरिक, दरबारी, धनिक तथा श्रद्धालु व्यक्ति अपने-अपने वाहन लेकर नगर से बाहर की ओर दौड़ पड़े किसी की थाली में मेवा ‘फल’ और मिष्ठान थे, कोई साबूदाना और मखाने की खीर ले गया, किसी की बाल्टी दूध से भरी थी और कोई नाना प्रकार के पकवानों से अपने थाल भर कर ले गया था। बस सबका यही आग्रह था कि उसमें से एक ग्रास लेकर श्रद्धालु भक्तों को कृतार्थ किया जाए।
सबके आग्रह व्यर्थ गये साधु ने आँख तक न खोली। वह तो अविचलित रूप से वहीं बैठा रहा। संत के त्याग की यह कहानी प्रधानमंत्री के आफिस तक पहुँच गई। वह अनेक प्रकार की स्वर्ण और रजत मुद्राएं रथ में भर कर उस टीले पर पहुँचा। मुद्राओं का ढेर लगा दिया संत के आस-पास। संत से बड़े विनम्र स्वर में निवेदन करते हुये प्रधान मंत्री ने कहा ‘बस! एक बार नेत्र खोलकर कृतार्थ कीजिये। मैं किसी भौतिक लालसा से आपको परेशान करने नहीं आया हूँ।
प्रधानमन्त्री का निवेदन भी बेकार गया! अब उसे निश्चय हो गया कि यह संत अवश्य पहुँचा हुआ है राग-विराग, लोभ-मोह सभी से मुक्त है तभी तो इतने बड़े-बड़े उपहारों की ओर दृष्टि उठाकर नहीं देखता।
प्रधानमंत्री ने राजा के महल में जाकर सारी वस्तु स्थिति से अवगत कराया। राजा को सोचते देर न लगी। वह मन ही मन पछताने लगे। जब मेरे राज्य में इतने बड़े तपस्वी का आगमन हुआ है तो मुझे अवश्य उनकी अगवानी करने जाना था। उन्होंने दूसरे ही दिन सुबह उस तपस्वी के दर्शन करने जाने का निश्चय किया। गाँव भर में यह खबर बिजली की तरह फैल गई। जिस मार्ग से राजा की सवारी निकलने वाली थी वह मार्ग साफ करा दिये गये। रास्ते में पुलिस की व्यवस्था कर दी गई।
राजा ने तपस्वी के चरणों में एक लाख अशर्फी का ढेर लगा दिया और अपना मस्तक उनके चरणों में टेक कर आशीर्वाद की कामना करने लगे पर तपस्वी विचलित नहीं हुआ। अब तो प्रत्येक व्यक्ति को यह निश्चय हो गया कि तपस्वी बहुत त्यागी और पहुँचा हुआ है साँसारिक वस्तुओं से उसका तनिक भी लगाव नहीं है।
चौथे दिन बहरूपिया फिर दरबार में पहुँचा, हाथ जोड़कर बोला ‘राजन्! अब तो आपने मेरा स्वाँग देख लिया होगा और पसन्द भी आया होगा अब तो मेरी कला पर प्रसन्न होकर अधिक नहीं तो पाँच रुपये का पुरस्कार दीजिए ताकि परिवार के पालन पोषण हेतु आटा दाल की व्यवस्था कर सकूँ।’
‘छिःछिः तुझ जैसा मूर्ख व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा जब सम्पूर्ण राज्य की जनता अपना सर्वस्व लुटाने के लिए तेरे चरणों के पास आतुर खड़ी थी तब तूने धन दौलत के उस ढेर पर दृष्टि तक नहीं डाली और अब पाँच रुपये के लिए ऐसे चिरौरी करता है।’
बहरूपिये ने कहा ‘राजन् उस समय एक तपस्वी की मर्यादा का प्रश्न था। एक साधु के वेश की लाज रखने की बात थी। भले ही साधु के रूप में बहरूपिया हो, पर था तो एक साधु ही फिर वह धन दौलत की ओर दृष्टि उठाकर कैसे देख सकता था उस समय सारे वैभव तुच्छ थे। और अब पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिये अपने श्रम के पारिश्रमिक और पुरस्कार की माँग है आपके सामने।’