Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रेम में न शिकायत की गुंजाइश है, न असफलता की
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भगवान् बुद्ध अपने शिष्यों समेत परिव्रज्या पर जा रहे थे। रास्ते में एक शिष्य ने पूछा - हम, लोगों के साथ सदा सद्भाव भरा व्यवहार करते हैं पर बदले में हमें उपेक्षा ही मिलती है-भन्ते, इसका क्या कारण है।
तथागत ने कुछ उत्तर न दिया। यात्रा आगे बढ़ती रही। मध्याह्न हो गया और प्यास लगी। एक कुँआ मिला। उस पर डोल भी पड़ा था और रस्सी भी। पानी खींचा गया। पर भरा हुआ डोल ऊपर तक आते-आते खाली हो गया, श्रम निरर्थक जाने पर खींचने वाले को दुःख हुआ। संयोगवश वह प्रश्नकर्ता ही पानी भी खींच रहा था। उसे यहाँ भी असफलताजन्य खिन्नता कष्ट दे रही थी।
भगवान बुद्ध ने कहा-तात् इस डोल में छेद हैं। सो कुँआ, रस्सी, श्रम आदि सब साधन होने पर भी पानी छेदों में होकर बह जाता है और तृप्ति लाभ से वंचित होना पड़ता है। प्रतिफल की इच्छा के छेदों के रहते मनुष्य की सेवा साधना और प्रेम प्रवृत्ति भी सन्तोष दायक परिणाम उत्पन्न नहीं करती।
देखा यही जाता है कि सेवा सहायता-या स्नेह सद्भाव का प्रयोक्ता आरम्भ में ही अपने उस अनुदान के लम्बे-चौड़े प्रतिफल का स्वप्न देखता है। और उसकी उतनी पूर्ति नहीं हो पाती तो खिन्नता और खीज से भरी निराशा व्यक्त करता है। आशा के अनुरूप दूसरों की प्रशंसा या प्रतिदान मिलने की आकाँक्षा लेकर उदारता या आत्मीयता बरती जाय तो उसे छेद वाले डोल की तरह ही समझना चाहिए। जिसका अभीष्ट परिणाम मिल सकना कठिन है।
व्यवहार और प्रेम के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। व्यवहार प्रतिदान के ऊपर अवलम्बित रहता है। उसे व्यवसाय या आदान-प्रदान कहते हैं। संसार के सभी कारोबार इसी आधार पर चलते हैं। मजदूर काम करता है, मालिक उसका पारिश्रमिक चुकाता है। आज घर आने पर मित्र को चाय पिलाई, कल उसके घर जाने पर हम चाय की अपेक्षा कर सकते हैं। यह व्यवसाय है। मधुर व्यवहार भी प्रतिफल पर आधारित होते हैं। वैश्या और मछुए के बीच प्रेमालाप में कमी नहीं रहती। पर चूँकि वह ढर्रा अनुदान प्रदान के आधार पर चल रहा है। मूल आधार में कमी आते ही उपेक्षा या विरोध के रूप में परिस्थिति बदल जायगी।
इस प्रकार की मधुरता या घनिष्ठता को प्रेम नहीं कहा जा सकता। जिसमें परिणाम प्रतिदान की अपेक्षा की गई हो। वस्तुओं की तरह व्यवहार का भी आदान-प्रदान होता है। व्यवसाय में लाभ और हानि के लिए तैयार रहना पड़ता है। अपनी सद्भावना को उतनी ही सद्भावना के रूप में प्रत्युत्तर मिला तो जमा खर्च बराबर। ज्यादा मिला तो नफा। कम मिला तो घाटा। यह तो धन्धे में चलता ही रहता है। इसमें खिन्न होने या शिकायत करने की क्या आवश्यकता।
प्रेम इससे ऊँची चीज है। वह न किसी पर अहसान करने के लिए किया जाता है और न प्रतिदान के लिए। अपने अन्तःकरण में भरे अमृत का अवरुद्ध स्रोत खोलने के लिए किन्हीं औजारों की जरूरत पड़ती है। जिन व्यक्तियों पर आरोपित करके अपनी प्रेम प्रवृत्ति को विकसित किया जाता है उन्हें धन्यवाद ही देना चाहिए कि उतने अंशों में-उतने समय तक हमारी प्रेम साधना को विकसित होने देने में क्या कम था जो हम उनसे और अधिक अपेक्षा करें? कुआँ खोदने के लिए गेंती, फावड़े प्रयुक्त होते हैं। पानी तो कुँए में से निकालना है, यदि फावड़े में से पानी नहीं निकलता तो उस जड़ माध्यम पर क्यों खीजा जाय?
प्रेम अपने अन्तरंग में से निकलता है और उसी के उभार से आत्म-तृप्ति मिलती है। इस दुनिया में ऐसे लोग कम हैं जो प्रेम का मूल्य वस्तुतः समझते हों। उससे भी कम वे हैं जिनका आन्तरिक विकास उस महान अनुदान का प्रतिदान दे सकने योग्य हो चुका हो। आमतौर से रूखे और नीरस लोग ही सर्वत्र भरे पड़े हैं। लम्बे-चौड़े वायदे करते रहना-प्रेमी के अनुदान से लाभ उठाते रहने की कला को चतुर लोग भली प्रकार जानते हैं। उन आश्वासनों को सही मानकर जिनने प्रेम किया उन्हें दुहरा घाटा रहेगा। समय पर खोटे सिक्के की तरह जब प्रेमास्पद तोताचश्मी करेगा तब अपने को बुरा लगेगा। दूसरे उस खीज की प्रतिक्रिया से अपने विश्वासों की नींव हल जायगी और प्रेम प्रवृत्ति की आत्म-साधना को असफलता का मुँह देखना पड़ेगा। इसलिए वस्तु स्थिति आरम्भ से ही समझ लेनी चाहिए। मूर्ति-पूजा में पाषाण प्रतिमा से कुछ भी प्रत्यक्ष लाभ न दीखते हुए भी जिस श्रद्धा के साथ भक्ति भावना की जाती है, लोगों को भी -मित्र कुटुम्बियों को भी उसी स्तर का मानकर न मात्र अपने आन्तरिक विकास के लिए प्रेम प्रवृत्ति के आत्म-वर्द्धन का अभ्यास करने के लिए-किसी को प्रेमास्पद चुनना चाहिए। और बदले की अपेक्षा से आरम्भ से ही विरत रहना चाहिए। इस प्रकार भले ही सीमित प्रेम-प्रदर्शित हो सके पर वह सही होगा। भावातिरेक में किसी से अपनी जितनी ही घनिष्ठ आत्मीयता की आशा लेकर चलना ऐसी भूल है जिसमें अन्ततः पश्चाताप ही हाथ लगता है। कोई पहलवान अपने व्यायाम उपकरणों से यह आशा रखें कि वह भी बदले में उतना ही साथ देंगे तो यह आशा व्यर्थ है। संसार में जड़ता का ही बाहुल्य है। प्रेम-पथ के पथिक को यह समझकर ही चलना चाहिए। अन्यथा उसको धोखे की आशंका बनी ही रहेगी।
प्रेम वस्तुतः आदर्शों से किया जाता है। मनुष्य उसके माध्यम हो सकते हैं और वे बदले भी जा सकते हैं। दुखियों की सहायता करना-सज्जनता को सहयोग देना, कर्तव्य के लिए कष्ट सहना जैसे आदर्शों से प्रेम किया जाना चाहिए, इसी को ईश्वर प्रेम या भक्ति साधना कहते हैं। इसमें असफलता का कभी कोई कारण उत्पन्न नहीं हो सकता, किसी वृद्ध बीमार को सड़क पर असहाय पड़ा देखा और उसकी सेवा सहायता में उदारता बरती। अपने लिए संतोष और उल्लास के लिए इतना सा कर्तव्य पालन पर्याप्त है। लोक-मंगल की चल रही प्रवृत्तियों में जुट पड़े उसमें अपना जितना अनुदान बन पड़ा लगा दिया इतने भर से अपना अन्तःकरण पुलकित हो जायगा। यदि उस वृद्ध बीमार से बदला चुकाने की या लोक-सेवा में यश मिलने की कामना रहेगी तो वे दोनों ही प्रयोजन न तो कुछ सन्तोष प्रदान करेंगे न उल्लास। उल्टे बदला न मिलने के कारण दुनिया को कोसने की जलन उठेगी उससे अपना सन्तुलन नष्ट होगा। यह घाटा सेवा न करने की हानि से भी महँगा पड़ेगा।
व्यवहार-व्यवसाय अलग चीज है उसे उसी तरह नाप-तौल कर व्यापार बुद्धि से करना चाहिए। ऐसी ‘दोस्ती’ घटाई-बढ़ाई, तोड़ी-जोड़ी जाती रहती है। प्रयोजन जब जिससे जितना सधे तब उसे उतनी मूल्य की घनिष्ठता बता कर दिखा दी। इस कला को चतुरता कहा जाता है। लोग उसकी जरूरत समझते भी हैं और उसे अपने-अपने दाव घात के अनुसार प्रयोग भी करते हैं। जिसे जरूरत हो वह उसका उपयोग करे। इसमें दिव्य प्रेम को कुछ लेना देना नहीं है। रंग एक जैसा होने से बगुले और हंस-कोयल और कौए एक नहीं हो सके। उदारता और घनिष्ठता भरा दीखने वाला मधुर व्यवहार उस श्रेणी में नहीं आता जिसे दिव्य प्रेम कहा जाता है-जिसके आधार पर आत्म-विकास होता है और समाज में उच्च परम्पराओं की प्रतिष्ठापना होती है। ऐसा प्रेम तो निस्वार्थ ही हो सकता है और आदर्शों पर अवलम्बित। उसमें न सफलता की गुंजाइश है न शिकायत का प्रश्न।
अभिलाषाओं और आकर्षणों से गुथे हुए ‘छाया प्रेम’ में प्रेमी की इच्छा पूर्ति आवश्यक हो जाती है चाहे वह उचित हो अथवा अनुचित। उसमें साथी के दबाव, आग्रह या अनुरोध को अपनी कोमलता सहन स्वीकार कर लेती है और अनैतिक आचरण में भी सहयोगी बनती है। आदर्श उसमें बाधक नहीं बनते। प्रेमी की खुशी के लिए वह भी किया जाता है जिसे अन्तरात्मा प्रत्यक्ष ही अनुचित कहती है। ऐसा ‘प्रेम’ दोनों पक्षों में से किसी के लिए भी हित सिद्ध नहीं होता। प्रेम-व्यवहार उच्च-आध्यात्मिक भूमिका है। उसमें अनौचित्य का सम्मिश्रण नहीं हो सकता। जो कुमार्ग पर चलने के लिए दबाता है।
वह दुष्ट और जो दबता है उसे कायर ही कहा जायगा। जहाँ दुष्टता और कायरता जैसे अनात्म तत्व उफन रहे हैं वहाँ सच्चे प्रेम का अस्तित्व कहाँ रहेगा, वह भावुकता अन्ततः महंगी ही पड़ेगी और घाटे का सौदा सिद्ध होगी जबकि सच्चे प्रेम में इस प्रकार के अनर्थ की कोई गुंजाइश नहीं है।
सच्चे प्रेम की घनिष्ठता में प्रेमी को उच्च आदर्शों की ओर घसीट ले चलने की निष्ठा ओतप्रोत रहती है। इच्छाओं की पूर्ति नहीं, इच्छाओं का परिष्कार इष्ट रहता है। प्रेम उठाता है, गिराता नहीं। आत्महत्या करते हुए भाई को बलपूर्वक घसीट कर उस दुष्कर्म से विरत किया जाता है भले ही इस प्रयत्न में लड़ने-झगड़ने या पिटने-पीटने की नौबत ही क्यों न आ जाय। सामयिक प्रसन्नता-अप्रसन्नता को सच्चे प्रेम में स्थान नहीं दिया जाता वरन् दूरगामी भविष्य एवं आत्यन्तिक परिणाम देखा जाता है। जो इस कसौटी पर खरा उतरे वही सच्चा प्रेम। अत्यन्त भावुकता भरी अन्धी घनिष्ठता को ‘भ्रान्ति’ ही कहा जायगा। ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्ततः प्रेम को कोसते ही देखे गये हैं।
आत्मा की प्यास बुझाने के लिए अन्तःकरण को पवित्र करने के लिए-आत्मबल बढ़ाने के लिए-प्रेम साधना की अनिवार्य आवश्यकता है। रूखा, नीरस, एकाकी स्वार्थी मनुष्य कितना ही वैभव सम्पन्न क्यों न हो अध्यात्म की दृष्टि से उसे नर-पशु ही कहा जायगा। जो किसी का नहीं, जिसका कोई नहीं। ऐसा मनुष्य कुछ भी अनर्थ कर सकता है। उसे अपने आप से डर लगेगा और अपनी जलन में जीवित मृतक की तरह झुलसेगा। प्रेम-रहित नीरस जीवन घृणित है वह मनुष्य जैसे विकासवान प्राणी के लिए हर दृष्टि से हेय है। सामाजिक दृष्टि से व्यक्तिवाद हर कसौटी पर हेय सिद्ध होता है। जो जितना सामाजिक है वह उतना ही अच्छा विश्व नागरिक माना जायेगा। समूह निष्ठा की उदार आदर्शवादिता उसी कोमल संवेदना की परिणति है जिसे प्रेम भावना के नाम से संबोधित किया जाता है।
मनुष्य का वास्तविक और आन्तरिक उत्कर्ष उसकी प्रेम-भावना की न्यूनता और अधिकता से ही किया जाना चाहिए। समाज की प्रगति, स्थिरता, शान्ति, समृद्धि का आधार नागरिकों का पारस्परिक सहायता सद्भावना से ही आँका जाना चाहिए। प्रेम इस धरती का अमृत है और मनुष्य का प्राण, यह जितना ही विकसित होगा उतनी ही सुख शान्ति की सम्भावना साकार होगी।