Magazine - Year 1973 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मुक्ति जीवन का परिष्कार भर है-अन्त नहीं
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मृत्यु के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धर्मों की भिन्न-भिन्न धारणायें है लेकिन एक विषय में सभी एकमत है कि मृत्यु का अर्थ जीवन का अन्त नहीं है। इसी आधार पर कुछ धर्मों ने मरने के बाद फिर से जन्म लेने की मान्यता को स्वीकार किया है और कुछ के मतानुसार मृत्यु एक ऐसी घटना है जिसमें चेता या प्राण सदा के लिए सो जाते है और सृष्टि के अन्त में फिर जाग उठते है इस दृष्टि से आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता को अन्यान्य धर्मों ने भी स्वीकार किया है लेकिन यह सिद्धान्त भारतीय दर्शन का तो प्राण ही है।
इसके साथ ही पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी जुड़ा हुआ है। जिसके अनुसार प्राणी को मरने के बाद फिर जन्म लेना पड़ता है। भारतीय दर्शन के अनुसार पुनर्जन्म की मान्यता के साथ कर्मफल का सघन सम्बन्ध है। जिन्हें भले या बुरे कर्मों का परिणाम तत्काल नहीं मिल सका, उन्हें अगले जन्म से कर्मफल भोगना पड़ता है। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने पर पाप फल और दुष्कर्मों के दण्ड से डरने तथा पुण्य फल के प्रति आश्वस्त रहने की मनःस्थिति बनी रहती है। फलतः पुनर्जन्म के मानने वालों को अपने कर्मों का स्तर सही रखने की आवश्यकता अनुभव होती है और तत्काल फल न मिलने से किसी प्रकार की उद्विग्नता उत्पन्न नहीं होती। पिछले दिनों भौतिक विज्ञान की प्रगति से उत्पन्न हुए उत्साह के कारण यह कहा जाने लगा कि सत्य केवल उतना ही है, जितना कि प्रयोगशाला में सिद्ध हो सके। जो प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष नहीं हो सकता वह सत्य नहीं है।
चूँकि चेतना भी प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष नहीं किया जा सका इसलिए घोषित कर दिया गया कि शरीर ही आत्मा है और मृत्यु के बाद उसका सदा-सर्वदा के लिए अन्त हो जाता है। इस घोषणा के अनुसार मनुष्य को चलता फिरता पौधा भर कहा गया । यह मान्यता मात्र एक सिद्धान्त या प्रतिपादन भर बनकर नहीं रह सकती उसकी प्रतिक्रिया, चिन्तन और चरित्र पर भी होती है। पुनर्जन्म, कर्मफल, परलोक और पाप-पुण्य में आस्था जिस प्रकार व्यक्ति को दुष्कर्मों से बचाये रहती है उसी प्रकार शरीर को ही सत्य और आत्मा को मिथ्या मान लिया जाय तो लगता है कि पाप-पुण्य के पचड़े में पड़ने से क्या लाभ? चतुरता के बल पर जितना भी सम्भव हो सके स्वार्थ सिद्ध किया जाना चाहिए।
अब जो प्रमाण सामने आये है और उनकी वैज्ञानिक गवेषणायें की गई है उनके अनुसार यह भ्रम ढहता जा रहा है कि जीवन चेतना का अस्तित्व शरीर तक ही सीमित है। यह धारणा भ्रम तो पहले भी थी, पर अब इस सचाई के प्रमाणों पर भी वैज्ञानिक ध्यान देने लगे है कि पुनर्जन्म वास्तव में एक ध्रुव सत्य है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त की पुष्टि करने वाले अनेकानेक प्रमाण आ रहे है। भारत में तो इस सम्बन्ध में चिरकाल से प्रचलित विश्वास के कारण यह कहा जाता रहा कि पुनर्जन्म की स्मृति बताने वाले यहाँ के वातावरण से प्रभावित रहे होने या किसी कल्पना की आधी-अधूरी पुष्टि हो जाने पर यह घोषित किया जाता होगा कि यह बालक पिछले जन्म में अमुक था। यद्यपि इस तरह के प्रकरणों में जिस कठोरता के साथ जाँच पड़ताल की गई, उससे यह आशंका अपने आप ही निरस्त हो जाती थी। उदाहरण के लिए पिछले जन्म के सम्बन्धियों के नाम और रिश्ते बताने ऐसी घटनाओं का जिक्र करने जिनकी जानकारी दूरस्थ व्यक्तियों का भी नहीं रही, नितान्त व्यक्तिगत और पति-पत्नी तक ही सीमित बातों को बता देने, पिछले जन्म में जमीन में गाढ़ी गई चीजें उखाड़कर देने तथा अपने और पराये खेतों का विवरण बताने जैसे अनेक सन्दर्भ ऐसे है जिनके आधार पर पुनर्जन्म की प्रामाणिकता से इन्कार नहीं किया जा सकता।
लेकिन भारत के बाहर भी इस तरह की घटनाओं पर गम्भीरता पूर्वक ध्यान दिया गया है और उनका वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। इस क्षेत्र में सर्वप्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से गवेषणा करने वालों में प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डाॅ. इवान स्टीवेन्सन का नाम लिया जाता है। यूनिवर्सिटी आफ वर्जीनिया मेडिकल सेंटर के मनोचिकित्सा विभाग में कार्यरत डाॅ. स्टीवेन्सन पुनर्जन्म की वास्तविकता को वैज्ञानिक ढंग से परखने का सिलसिला शुरू किया। सन् 1966 में इस विषय पर उनकी पहली पुस्तक ‘ट्वटी केसेज सजेस्टिव आफ रिइन्कार्नेशन’ प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के बाद उनकी तीन पुस्तक और प्रकाशित हुई जिनमें पुनर्जन्म की कई प्रामाणिक घटनाओं का विवरण देते हुए इस विषय का प्रतिपादन किया।
ये तीनों पुस्तकें अलग-अलग देशों में घटी घटनाओं के आधार पर लिखी गई है। एक में भारत में जन्मे ऐसे व्यक्तियों का विवरण है जिन्हें अपने पिछले जन्मों की याद रही। दूसरी में श्रीलंका और तीसरी पुस्तक में तुर्की की घटनाओं का विवरण है। इन तीनों पुस्तकों में कुल मिलाकर 1300 घटनाओं का वर्णन है, जिनकी वास्तविकता और प्रामाणिकता असंदिग्ध बताई गई है।
भारत में भी हाल ही में पुस्तक प्रकाशित हुई है ”लिविंग एण्ड डाईंग” इस पुस्तक में 3 सितम्बर 1969 को उत्तर प्रदेश के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी कन्या का उल्लेख है। लड़की का नाम स्वर्णलता रखा गया। जब वह साढ़े तीन वर्ष की हुई तो उसके घर उसके पिता से मिलने के लिए कुछ सफाई करने वाले जमादार आये। उन्हें देखकर स्वर्णलता सुअर का गोश्त खाने की जिद करने लगी। ब्राह्मण परिवार में गोश्त अण्डे की बात तो दूर रही चींटी भी नहीं मारी जाती। फिर लता ने यह कहाँ सुना और सीखा? पिता जब उसे टालने और डपटने लगे तो स्वर्णलता ने बताया कि वह भी सफाई जमादारों की जाति की ही थी। उसने यह भी बताया कि उसका पूर्वजन्म का नाम शान्ति था और उसके पिता का नाम राजिन्दर था। उसने अपने पिछले जन्म के निवास ग्राम और घर का पता बताया, जो वर्तमान निवास में कुल दो किलोमीटर दूर ही था। उसकी मृत्यु किस प्रकार हुई यह पूछा जाने पर स्वर्णलता ने बताया कि वह रोज पास ही रेलवे लाइन पर कोयले बीनने के लिए जाया करती थी। जिस दिन उसकी मृत्यु हुई वह रामनवमी का दिन था। उस दिन किसी बात पर पति से तकरार हो गई और उसके पति ने शान्ति को झाडू की मूँठ से पीटा। इससे वह बेहद दुःखी हुई। उसी दिन जब वह रेल की पटरी पर कोयले बीनने गई तो रेल के नीचे कुचलकर मर गई स्वर्णलता ने अपने पुराने परिवार और विशेषतः अपनी बेटी जिसका नाम गीता था और जो अविवाहित थी, देखने की हार्दिक इच्छा व्यक्त की।
स्वर्णलता ने जो भी बात बताई थी, उन सारी बातों की छानबीन प्रसिद्ध परामनोविज्ञान वेत्ताओं द्वारा की गई, जो ऐसे मामलों की पहले भी कई बार जाँच कर चुके थे, इन विशेषज्ञों ने जिन मामलों की पहले जाँच की थी उनका नीर-क्षीर विश्लेषण कर सच-झूठ को निष्पक्ष ढंग से प्रतिपादित किया गया। इसलिए उनके निष्कर्षों पर जरा भी सन्देह करने की गुंजाइश नहीं थी। अनुसन्धान करने वाले परामनोविज्ञानवेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्वर्णलता ने जो कुछ भी बताया था वह अक्षरशः सच था। उन्होंने यह भी पाया कि पिछले जन्म के संस्कार उसके इस जन्म से भी विद्यमान थे। उन्होंने यह भी पाया कि अपनी पिछली जाति के अनुसार ही उसकी व्यक्तिगत आदतें भी थी। वह घर के दूसरे बच्चों से अलग-अलग ही रहती ओर यह कहकर उसने स्कूल जाने से भी इन्कार कर दिया कि वह तो नीच जाति की है। इसके साथ ही वह रेलगाड़ियों से भी बहुत डरती थी। सन् 1975 में उससे अनुसन्धान कर्ताओं ने आखिरी बार मुलाकात की। इस समय भी उसे अपने पिछले जन्म का स्मरण था, पर तब वह पहले की तरह बातें नहीं करती थी।
जून 1975 में जन्मी पुष्पा नाम की लड़की जब डेढ़ वर्ष की हुई तभी से एक घर की ओर इशारा करने लगी, जिसे बाद में उसने अपने पिछले जन्म का घर बताया बोलने योग्य होते ही उसने अपने आप को एक सिक्ख परिवार की बहू बताया ओर अपने बच्चों के नाम भी बताने लगी, वह अपने पिछले जन्म का नाम मनजीत कौर बताती थी। वह पूछने पर कि उसकी मृत्यु किस प्रकार हुई मनजीत कौर (पुष्पा) ने भयभीत होकर कहा कि उसकी सास उसके पति को उल्टी सीधी पढ़ाती रहती थी और उसके कान भरती रहती थी। एक दिन तो उसका पति इस तरह भड़क उठा कि उसने मनजीत को चाकू से मार ही डाला। जब इन बातों की पुष्टि के लिए पुनर्जन्म में रुचि रखने वाले व्यक्तियों ने छानबीन की तो इस तथ्य को बिल्कुल सही पाया गया कि मनजीत कौर की पुष्पा के जन्म से ठीक चार वर्ष पहले हत्या कर दी गई थी।
हाल ही के 10-12 वर्षों में पुनर्जन्म के ये दो बहुचर्चित प्रमाण है। इसके अलावा भी अनेकानेक प्रमाण आये दिन सामने आते रहते है। डाॅ. स्टीवेन्सन ने अपनी पुनर्जन्म सम्बन्धी तीन पुस्तकों में जिनमें करीब डेढ़ सौ पुनर्जन्म की घटनाओं का विवरण विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो उन देशों में घटी जहाँ आमतौर पर पुनर्जन्म में विश्वास नहीं किया जाता। अमेरिका के कोलोराडीप्यूएली नामक नगर में रुथ सीमेनस नामक लड़की ने अपने पुनर्जन्म की घटनाओं को बढ़ाकर ईसाई धर्म के उन अनुयायियों को असमंजस में डाल दिया जो पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नहीं मानते है। इस लड़की को मोरेवर्नस्टाइन नामक आत्म विशारद ने प्रयोग द्वारा उसी के पूर्वजन्म की अनेक घटनाओं का पता लगाया। प्रयोग के दौरान उसने बताया कि वह सौ वर्ष पूर्व आयरलैण्ड के पार्क नगर में पैदा हुई थी। उसका नाम ब्राइडी मर्फी था और उसके पति का नाम मेकार्थी था। रुथ सीमेन्स ने अपने विगत जन्म के बारे में जो भी बातें बताई उनकी जाँच की गई तो वे अक्षरशः सत्य पाई गई।
विलियम बाकर एवं केन्सन ने अपनी पुस्तक इन्कार्नेशन में ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण दिया है। जिनमें पुनर्जन्म में विश्वास न करने वाले परिवारों में जन्मे बच्चों को भी पूर्वजन्म की स्मृतियाँ थीं। बच्चों द्वारा प्रस्तुत किये गये विवरणों से इस सिद्धान्त की पुष्टि ही होती है। बड़ी आयु हो जाने पर यद्यपि ऐसी स्मृतियाँ नहीं रहती या धुँधली पड़ जाती है, पर बचपन में बहुतों को ऐसे स्मरण बने रहते है जिनके आधार पर उनके पुनर्जन्म के सम्बन्ध में काफी जानकारी मिलती है। मोटे रूप में जीवात्मा के योनि परिभ्रमण का यह अर्थ समझा जाता है कि वह छोटे बड़े कृमि कीटकों पशु-पक्षियों की चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद ही मनुष्य जन्म प्राप्त करता है। पुनर्जन्म की इन घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को दूसरा जन्म मनुष्य के रूप में ही मिलता हैं इसके पीछे तर्क भी है। जीव की चेतना का इतना अधिक विकास-विस्तार हो चुका होता है कि उतने फैलाव को निम्न प्राणियों के मस्तिष्क में समेटा नहीं जा सकता। बड़ी आयु का मनुष्य जिस प्रकार अपने बचपन के कपड़े पहनकर काम नहीं चला सकता उसी प्रकार मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद छोटी योनियों में प्रवेश करने से गुजारा नहीं चलता।
रही बात बुरे कर्मों के दण्ड की तो कर्मों का फल भुगतने के लिए दुष्कर्मों का अधिकाधिक दण्ड मनुष्य जन्म से ही मिल सकता है। मनुष्य को शारीरिक कष्ट से भी अधिक मानसिक यातनाऐं सहनी पड़ती है। शोक, चिन्ता, भय, अपमान, घाटा, बिछोह आदि से वह तिलमिला उठता है, जबकि अन्य प्राणियों को मात्र शारीरिक कष्ट ही होते है। मस्तिष्क अविकसित रहने के कारण उनमें भी उतनी तीव्र पीड़ा नहीं होती जितनी मनुष्यों को होती है। इस स्थिति में पापकर्मों का दण्ड भुगतने के लिए मनुष्य को निम्न योनियों में जाना पड़े यह आवश्यक नहीं। जो भी हो पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य और जितनी वह मान्यता सत्य है उतनी ही लोकोपयोगी भी। आत्मा की अमरता और मरणोपरान्त फिर से शरीर धारण करके कार्य क्षेत्र में उतरने की आस्था बनी रहे तो व्यक्ति दूर दर्शी विवेक अपनाये रह सकता है ओर उसे नैतिकता,, शालीनता तथा सामाजिकता के पालन की सहज प्रेरणा मिलती रहती है।