Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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बुद्धं शरणं गच्छामि
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संरक्षण और अनुशासन का कितना महत्व है इसे हम पृथ्वी के इर्द-गिर्द चढ़े हुए पर्यावरण को देखकर सहज ही जान सकते है।
शरीर पर जो चमड़ी की परत चढ़ी है उसे संरक्षण कह सकते हैं। इससे भीतर की रक्त, साँस सम्पदा को अपने स्थान पर बने रहने के सुरक्षा मिलती है। हवा में उड़ती रहने वाली विषाक्तता त्वचा के आवरण से ही भीतर नहीं पहुँच पाती अन्यथा धूलिकणों का सीधा प्रवेश रक्त माँस तक जा पहुँचता और उस कोमल शरीर सम्पदा का देखते-देखते विषाक्त एवं रुग्ण बना कर रख देता। साथ ही यह भी आशंका बनी रहती है कि भीतर की वस्तु तनिक सा दबाव पड़ते ही बाहर निकल कर इधर उधर छितराने लगती। त्वचा का संरक्षण ही है जो बहुमूल्य कायिक ढाँचे को सुसंचालित रखे रह रहा है।
अभिभावकों का संरक्षण न हो तो शिशुओं का निर्वाह एवं भरण-पोषण किस प्रकार सम्भव हो ? अनुशासन सिखाये बिना वे सभ्यता और शिक्षा का लाभ कैसे ले सकें ?
शासन देश का संरक्षण करता है ओर प्रजाजनों पर अनुशासन रखता है। नागरिकों को दुष्प्रवृत्तियों से रोकने और उपयुक्त किया-कलाप अपनाने की प्रेरणा देना एवं व्यवस्था जुटाना शासन का काम है। यदि वह इतना न कर सके तो स्वयं नष्ट होगा ओर समूचे प्रजाजनों को ले डूबेगा। अनुशासन और संरक्षण की व्यवस्था बने रहने से ही व्यक्ति और समाज को मर्यादा में रहने और प्रगति पथ पर अग्रसर होने का सुअवसर मिलता है। इन दो तत्वों को हटा दिया जाय तो फिर उच्छृंखलता, अव्यवस्था, विग्रह और विनाश के दृश्य ही उपस्थित होगे।
न केवल मनुष्यों पर वरन् समूची सृष्टि व्यवस्था पर उन्हीं दो दबावों का आधिपत्य है। ब्रह्माण्ड के सभी ग्रह तारे इसी आधार पर गतिशील रहते और अपने-अपने अस्तित्व की रक्षा करते हैं। इसमें तनिक भी शिथिलता आने लगे तो वे अपनी कक्षाओं से भटक कर जिधर-किधर दौड़ने लगें -उन्हें परस्पर बाँधे रहने वाले अनुशासन आकर्षण समाप्त हो जायें। इस अराजकता में वे अपने अस्तित्व तक की रक्षा न कर सकेंगे। ब्रह्माण्ड के सुसंचालन में अनेकानेक शक्तियाँ और व्यवस्थाएँ काम करती है। उन सबमें मूर्धन्य आधार दो ही हैं, संरक्षण ओर अनुशासन। इनकी स्थापना के उपरान्त ही प्रगति एवं समृद्धि की अन्यान्य धाराओं का क्रियान्वित हो सकना सम्भव होता है।
अपनी पृथ्वी को ही लें। उसकी सत्ता और व्यवस्था के कण-कण में यही तथ्य दृष्टिगोचर होता है। जिधर भी दृष्टि डाली जाय उधर ही क्षण-क्षण में उसी संचालन सूत्र का परिचय मिलता है। जीवधारियों की अपनी नीति मर्यादा है। जो उसे पालते हैं, वे जीवित रहते और प्रगति करते है। जो व्यतिवम पर उतारू होते हैं- उच्छ्श्रृंखलता बरतते हैं वे स्वयं नष्ट होते हैं और सम्बद्ध प्राणियों तथा पदार्थों के लिए संकट उत्पन्न करते है। अणु-परमाणुओं से लेकर रासायनिक परिवर्तनों तक के मध्य में उसी व्यवस्था का आधिपत्य है। समूचा लोक व्यवहार इन्हीं सूत्रों पर आधारित है। शिथिलता एवं उच्छ्श्रृंखलता उत्पन्न होते ही अनेकानेक समस्याएँ और विभीषिकाएँ सामने आ खड़ी होती है।
नियन्त्रण भी प्रगति प्रयासों के साथ जुड़ा रहता है। नर नारी एक दूसरे के पूरक है। एक से दूसरे की अनेकों सुख सुविधाएँ मिलती है। किन्तु साथ ही एक-दूसरे की सुरक्षा सभी रखते, संरक्षण रखते तथा भीतरी बाहरी अवांछनीयता की रोकथाम करते है। दाम्पत्य जीवन के अनेकों लाभों में सुरक्षा और सुव्यवस्था मुख्य है उन्हें संरक्षण और अनुशासन भी कहा जा सकता है। इसे दोनों समान रूप से बरतते हैं। पत्नी व्रत और पतिव्रत इसी नैतिक सुनियोजन का नाम है।
पृथ्वी के ऊपर 5 किमी से 26 किमी तक जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते हैं तापक्रम कम हो जाता है। ओर अन्ततः -45 सेंटीग्रेड तक पहुँच जाता है। 5 किमी से 13 किमी का क्षेत्र ट्रोपोस्फीयर कहलाता है। इससे आगे ट्रैटोस्फीयर आरम्भ होता है जो 40 किमी तक है इस क्षेत्र में क्रमशः तापक्रम बढ़ता तथा-35 सेंटीग्रेड तक जा पहुँचता है। ओजोन की परत इसी क्षेत्र में होती है। 20 से 240 किमी तक का क्षेत्र ट्रेटापोज है। इसे रेडियोएक्टिव क्षेत्र भी कहा जाता है। रेडियोएक्टिव विकिरणों का सर्वाधिक तरंगदैर्ध्य 2500 इस क्षेत्र में पाया जाता है।
यह एक प्रकार की संरक्षण परतें हैं जिसके कारण अन्तरिक्ष के विकिरणों का धरती पर अनावश्यक प्रवेश न हो सके। साथ ही धरती की ऊर्जा एवं सम्पदा आकाश में उड़कर नष्ट भ्रष्ट न होने लगे।
वातावरण एक छाते की तरह हे जो हमें हानिकारक अन्तरिक्षीय विकिरणों से बचाता है। ओजोन जैसी सक्रिय गैसें अन्तरिक्षीय विकिरणों को रोकती तथा उनके हानिकारक प्रभाव से हमारी सुरक्षा करती हैं। अमेरिकी सर्वेक्षण द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि ऊँची हवाई जहाजों की उड़ानों से ओजोन की यात्रा वातावरण में कम होती जा रही है जिससे रेडियोएक्टिव विकिरणों ओजोन परत को छोड़कर पृथ्वी पर आ रही हैं। जिसके प्रभाव से चमड़ी में जलन, कैन्सर जैसी बीमारियाँ बढ़ रही है। पेड़ पौधों के विकास में बाधा पड़ती है। वातावरण में असामान्य परिवर्तन होता है। सूखा बाढ़, तूफान आता है। ओजोन परत सूर्य से उत्सर्जित 1650 से 3200 की तरंगदैर्ध्य वाली गामा किरणों को अवशोषित कर लेती है। सर्वविदित है कि ‘गामा’ किरणें विषैली होती है। पर सुपरसोनिक ट्रान्सपोर्ट एयरक्राफ्ट इस ओजोन रक्षा कवच को क्षति पहुँचाते हैं। जहाजों की ऊँची उड़ानों को रोकने के लिए अमेरिका द्वारा एक प्रोग्राम क्लाइमेटिक इम्पैक्ट एसेसमेन्ट भी चलाया गया था। सुपरसोनिक ट्रान्सपोर्ट से दो प्रकार की हानियाँ होती है। (1) यानों से निकलने वाली एक्जास्ट गैसें नाइट्रस आक्साइड, नाइट्रिक आक्साइड ओजोन से मिलकर आक्सीजन बनाते हैं (2) ऊँची उड़ान भरने वाला काॅन्कर्ड यान ऐरोसाल स्प्रे निकालता है जिसमें क्लोरीन की बहुलता होती है जो ओजोन के साथ क्रियाशील होकर आक्सीजन बनाता है। इस प्रकार ओजोन की रक्षा परत नष्ट होती जाती है। इस स्थिति को देखते हुए अमेरिका सरकार ने काॅन्कर्ड विमानों को अपने ऊपर से उड़ान भरने से रोक लगा दी हैं।
वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हुआ है कि घटती हुई ओजोन की यात्रा मानव जाति के लिए हानिकारक सिद्ध होती। ‘वातावरण में एक प्रतिशत ओजोन की कमी होने से रेडियोएक्टिव विकिरण जिसे यू.पी.वी. फलक्स कहते हैं, दुगुना हो जाता है । जिसके फलस्वरूप प्रतिवर्ष 200000 व्यक्ति कैन्सर के शिकार होते है। ओजोन की कमी के कारण पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया धीमी हो जाती है, जिसके कारण उनकी वृद्धि रुक जाती है। वातावरण में असन्तुलन पैदा होता है। नवीन आँकड़ों के अनुसार सन् २०२५ तक दुनिया की आबादी दुगुनी हो जाती है। जबकि अनाज की वृद्धि कम हो रही है। वर्तमान वृद्धि को देखते हुए हवाई उड़ानें 6 गुनी हो जायेंगी। वायु प्रदूषण कितनी तेजी से बढ़ रही है यह उपरोक्त आँकड़े बताते हैं। इसी का ध्यान में रखकर सी.ओ. ए.पी. प्रोगाम का गठन किया गया है।
सृष्टि क्रम एवं पृथ्वी का वातावरण एक संरक्षण नियन्त्रण व्यवस्था के अन्तर्गत ही सुरक्षित एवं गतिशील है। मनुष्य के लिए भी यह अनुशासन अभीष्ट है। उसे जब दूरदर्शी बुद्धिमता के साथ स्वेच्छा पूर्वक अपनाया जाता है तो उसे संयम कहते है। संयम की महिमा सर्वविदित है।