Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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असामयिक बुढ़ापा और उसका निवारण
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कभी कभी कुछ प्रतिभायें ऐसी भी होती हैं, जो अन्तःप्रेरणा से उत्कृष्टता का वरण करती, संकल्प बल से उसे सींचती और अपने एकाकी पुरुषार्थ से लक्ष्य तक जा पहुँचती हैं। उन्हें दूसरों की सहायता नहीं लेनी पड़ती। हर व्यक्ति मूलतः इतना क्षमतासम्पन्न है कि सन्निहित विशिष्टताओं को प्रसुप्त से जागृत कर सकें, और उन्हीं के सहारे प्रगति पथ पर चलते हुए वह प्राप्त कर सकें, जिसके लिए कि मानवी अस्तित्व का निर्माण हुआ है।
तथ्यतः यही वस्तुस्थिति है। मनुष्य को न तो अपूर्ण बताया गया है और न दरिद्र, असहाय, पराश्रित। उगने और उठने की समग्र क्षमता उसमें विद्यमान है। फिर भी इसे दुर्भाग्य, माया चक्र, प्रपंच, व्यामोह अथवा और कुछ नाम देते हुए, यह माना जा सकता है कि इस सत्य को कोई विरले ही समझ पाते हैं। जो समझते हैं, उनमें से अधिकांश में इतना मनोबल नहीं होता कि प्रसुप्त वैशिष्ठ को जगायें और उसे चरमोत्कर्ष का साधन बनाये। आमतौर से सहकारी समाज का अभ्यस्त होने के कारण लोग वातावरण का प्रभाव ग्रहण करते और प्रवाह में बहते रहते हैं। संकल्प पूर्वक बने थोड़े होते हैं। अधिकांश को परिस्थितियाँ बनाती हैं। इस सचाई को गले उतारना ही होगा। इस व्यावहारिक कठिनाई को भी समझना ही होगा। जिस प्रकार आत्म पौरुष से उच्चस्तर पर पहुँच सकने की संभावना असंदिग्ध है, वहाँ दूसरा पक्ष यह भी है कि संगति का प्रभाव इतना अधिक होता है, जिसे सामान्य स्थिति में, सामान्य लोगों के लिए नियति की भूमिका निभाते हुए देखा जा सकता है।
विश्व विख्यात महामानवों में से अधिकांश को अपन लक्ष्य का निर्धारण और परिपोषण आत्म बल के सहारे स्वयं ही करना पड़ा है और वे अपने निश्चय पर आप आरुढ रह कर, अपना मार्ग स्वयं बनाते और अपने पैरों आप पार करते रहे हैं। परिस्थितियाँ उन्हें प्रभावित नहीं कर सकीं। अवरोधों ने उन्हें रोका तो, पर वे रुके नहीं न तो किसी ने सहयोग दिया न प्रोत्साहन। अपने को आप ही समझाते रहे, और अपने समर्थन से, आप आगे बढ़ते रहें। अन्ततः उस लक्ष्य तक पहुँचे जिसे दैवी अनुग्रह भाग्योदय अथवा चमत्कार माना है। वस्तुतः यह सब किसी का उपहार नहीं अपना ही पराक्रम है जिसे मनस्वी अपने बल बूते समग्र करते और सफलताओं पर अहंकार न करते हुए, नम्रता वश बड़ों का अनुदान कहते हैं।
श्रेय और सराहनीय तो यही स्तर है, पर किया क्या जाय यहाँ प्रौढ़ और परिपक्वों की भारी कमी है। परिवार में बच्चों का ही बाहुल्य होता है और उनका परिपोषण एवं परिष्कार बड़ों को ही करना पड़ता है। आत्म विकास के लिए उन्हें स्वतन्त्र छोड़ दिया जाय तो फिर वह स्वतन्त्रता उनके लिए महँगी पड़ेगी। निकृष्टता धूल की तरह हवा में उड़ती है, पर उत्कृष्टता सुगन्ध की तरह प्रयत्नपूर्वक अर्जित करनी पड़ती है। सभी जानते हैं कि परिवार की परिस्थितियाँ ही अधिकांश लोगों को बनाने बिगाड़ने की भूमिका निभाती हैं। स्वनिर्मित तो कोई विरले ही होते हैं। जिनने संचित कुसंस्कारों को घिरे हुए वातावरण और प्रियजनों के परामर्श को अनसुना करके कोई महान परिवर्तन प्रस्तुत किया हो ऐसे लोग भी संसार में हुए तो अनेकों हैं, पर उतनी साहसिकता हर किसी में प्रकट नहीं होती।
बुद्ध ने दिशा परिवर्तन अपने ही बलबूते किया था, उनके अनुयायियों में से भी अनेकों ने वही परम्परा अपनाई आनन्द, हर्षवर्धन, अंगुलिमाल, अम्बपाली आदि उनके निकटवर्ती जन्मजात रूप से तैसे नहीं थे, जैसे कि परिवर्तित स्थिति में विकसित हुए। अन्यान्य महा मानवों के सम्बन्ध में भी, यही बात कही जा सकती है। उन्हें परिस्थितियों ने बनाया। मनःस्थिति के आधार पर ही उनने ऊँची छलाँगें लगाई और वहाँ जा पहुँचे जहाँ अवस्थित लोगों को चमत्कारी सिद्ध पुरुष एवं महा मानव कहा जाता हैं। यह उदाहरण भले ही थोड़े हों, पर सिद्ध इसी सिद्धान्त को करते हैं कि मनुष्य का संकल्प और पुरुषार्थ यदि सुनिश्चित हो तो वह सूर्य को जमीन पर तो नहीं ला सकता पर आमतौर से जो असम्भव समझा जाता है, उसे सम्भव कर सकता है। इस पर भी यह मानना पड़ेगा कि ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं। अस्तु उन्हें अपवाद की श्रेणी में रखा और तथ्यों के प्रतिपादन में उन्हें प्रमाण कहा जा सकता है। सामान्य प्रचलन, अनुगमन और अनुकरण का ही मिलता है। समुदाय का प्रवाह और उसी में जन साधारण की बहाव प्रचलन उसी का देखा जाता है।
निकृष्टता का अपना आकर्षण है। गुरुत्वाकर्षण की तरह उसकी पकड़ सर्वत्र है। वह शक्ति बिना किसी प्रयत्न के उत्पन्न होती और उपलब्ध रहती है। किन्तु उत्कृष्टता को प्रयत्न पूर्वक उपार्जित करना और संकल्प पूर्वक पकड़ना पड़ता है। भौतिक उपलब्धियों की तरह ही आत्मिक विशिष्टताएँ भी पराक्रम ही नहीं वातावरण और साधन भी चाहती हैं। कृषि, व्यवसाय, शिल्प, कला शोध साहित्य आदि प्रगति प्रसंगों में जिनने भी सफलताएँ पाई हैं, उनमें एकाकी सूझ बूझ ही सब कुछ नहीं रही।इन्हें सहयोग, वातावरण एवं साधनों के लिए भी काफी दौड़-धूप करनी पड़ी है। जो इन्हें जुटा पाये वे सफल हुए, शेष के मनोरथ ऐसे ही मर गये। असफलता में निवारण की त्रुटि नहीं, वरन् साधनों की कमी ही प्रमुख अवरोध बनी है।
आत्मिक प्रगति को, इस संसार की, इस योजन की सबसे बड़ी सफलता कहा जा सकता है। इससे बढ़कर दूसरी उपलब्धि यहाँ अन्य कोई भी नहीं है। व्यक्तित्व की प्रखरता ही सच्चे अर्थों में वह विभूति है जिसके बदले किसी भी क्षेत्र की, किसी भी सफलता को खरीदा जा सकता है। व्यक्तित्व की दुर्बलता ही प्रकारान्तर से दरिद्रता कही जाती है। पिछड़ापन कोई किसी पर थोपता नहीं, अन्दर की कुसंस्कारिता ही उसे न्योता बुलाती है।
प्रगति शीलता आकाश से नहीं बरसती और न किसी से अनुदान उपहार में मिलती है। हर व्यक्ति उसे अपने आन्तरिक स्तर के अनुरूप संसार की खुली मण्डी में से खरीदता है। जिसके पास जिस स्तर की जितनी पूँजी है उसे उसी स्तर का विनिमय करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती। उत्कृष्टता सम्पन्न व्यक्ति जहाँ जाते हैं, वहाँ वे अपने लिए स्थान बनाते, सहयोग पाते, और सफल होते देखे जाते हैं। जबकि दीन दुर्बलों को जिस तिस पर आरोप लगाते व खीझ उतारते देखा जाता है। यों इनमें से कई वस्तुतः प्रताड़ित और परिस्थितियों के शिकार होने के कारण सहानुभूति के पात्र भी होते हैं,फिर भी व्यापक तथ्य यही मानना पड़ेगा कि व्यक्तित्व की उत्कृष्टता ही विभिन्न क्षेत्रों की सफलता अर्जित करती है।
शिक्षा का उद्देश्य भौतिक जानकारी और व्यवहार कुशलता उपार्जित करना है। सुशिक्षितों को आजीविका उपार्जन तथा किया कौशल में सुविधा रहती है। इसलिए शिक्षा प्राप्ति का प्रचलन भी है। उसकी उपयोगिता समझी और चेष्टा की जाती है, किन्तु दुर्भाग्य से विद्या की महता को क्रमशः विस्मृत ही किया जा रहा है। विद्या सुसंस्कारिता का नाम है। वह शिक्षा के साथ साथ भी चल सकती है और लिखने पढ़ने का प्रबन्ध न होने पर भी उसका आधार बन सकता है। प्राचीन काल में विद्यालयों का प्रबन्ध किया जाता था आज मात्र शिक्षालयों की भरमार है। जानकारी की कमी नहीं, किन्तु प्रतिभायें नहीं मिलती। इसका एक ही कारण है विद्यालयों का अभाव। शिक्षालयों की सीमा मस्तिष्कीय विकास और कौशल के अभ्यास तक सीमित है। सुसंस्कारिता का अपाजान विद्यालयों में ही हो सकता है। विद्यालय से तात्पर्य फिर एक बार भली प्रकार समझा जाना चाहिए। जहाँ सुसंस्कारिता के सम्वर्धन का वातावरण हो, विद्यालय उसी को कहा जाएगा। मात्र पाठ्यक्रम से संस्कार नहीं बनते, वह ढलाई तो ऐसी भट्टी के माध्यम से हो सकती है, जिसमें आदर्शवादिता का प्रशिक्षण नहीं प्रचलन की व्यवस्था रहने के कारण अभीष्ट ऊर्जा उत्पन्न होती है।
प्राचीन काल से बालकों के लिए गुरुकुल और प्रौढ़ों के लिए आरण्यकों को व्यवस्था थी। उन्हीं खदानों से व्यक्तित्व सम्पन्न नररत्न निकलते थे । वे सच्चे अर्थों में कवद्यालय और विद्यार्धियों को क्या मिलना चाहिए इसका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रस्तुत करते थे। जिस विद्या की महिमा सर्वस्व अपनाई जाती है वह मात्र अर्ककरी शिक्षा से कहीं अधिक ऊँची हैं। उसके लिए पाठ्यक्रम पूरा कराना नहीं शालीनता की विधि व्यवस्था को जीवन क्रम में उतारने का विशिष्ट प्रबन्ध करना है। उसके लिए उपयुक्त वातावरण अपेक्षित है। यह ऋषि कल्प अध्यापकों की व्यवस्था बनाने में संभव होती है। वातावरण प्रचलन का नाम है ।ऐसे विद्यालयों का अस्तित्व जब तक रहा इस देश के नागरिक देवत्व से सुसम्पन्न बने रहे। भले ही उनकी साक्षरता उतनी न रही हो जितनी कि आज कल बढ़ी चढ़ी दिखाई पड़ती है।
विद्या के प्रति उपेक्षा, विद्यालयों का अभाव और विद्यार्थी अभिरुचि का समापन यह तीनों ही मिलकर ऐसी दुःखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं जिन्हें दुर्भिक्ष से भी बढ़कर कष्टकारक कहा जा सके। चतुरता की कमी नहीं, सुविधा साधन बहुत है। परिश्रमियों में से एक का गरीबी बेकारी की शिकायत नहीं हो सकती। इतने पर भी व्यक्तियों का अभाव बुरी तरह खटकता है। पिछड़े स्तर के लोगों की संख्या वृद्धि धरती के लिए भार और समाज के लिए संकट बनती जा रही है। वे प्रतिभायें कहीं से भी उभरती नहीं दीखती जो अपने उदाहरण प्रस्तुत करके शालीनता की गरिमा जन-जन के मन-मन में बिठा सकें। श्रेय और सफलता को देखकर ही सामान्य लोग ललचाते और अनुगमन के लिए चलते है। यदि उच्चस्तरीय नेतृत्व उपलब्ध रहा होता तो सदाशयता के मार्ग पर चल पड़ने वालो की कहीं कोई कमी न रहती।
प्रतिभा और पवित्रता के समन्वय को प्रखरता कहते हैं। कौशल और चरित्र को मिला देने से ही वह उत्कृष्टता बनती है जिसे पाकर मनुष्य का देवत्व उभरता और आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण का प्रयोजन पूरा करता है। कहना न होगा कि यह विशिष्टता आत्म शिक्षा से तो कभी-कभी ही उपलब्ध होती है, गुरुकुलों और आरण्यकों के वातावरण में विद्याभ्यास करने में सहज सम्भव बनती है। इन दिनों उसी महान परम्परा को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है जिसमें विद्यालयों के लिए उपयुक्त केन्द्र संस्थानों की कमी नहीं पड़ने दी जाती है।
बच्चों के लिए गुरुकुल, निवृत्तों के लिए आरण्यक और गृहस्थों के लिए तीर्थ सेवन की त्रिविध व्यवस्था जिन दिनों अपनी प्रौढ़ावस्था में थी उन दिनों मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की बात कल्पना नहीं गिनी जाती थी। वरन पग-पग पर एक सहज स्वाभाविकता के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर होती थी। आज खदानें ही अवरुद्ध हो गई तो नर-रत्नों के दर्शन कहाँ से हो? युग समस्याओं का एक ही कारण है उच्च स्तरीय व्यक्तित्वों का अभाव, इस अभाव का कारण है विद्यालयों का न होना। यह फिर समझा जाना चाहिए कि शिक्षालयों और विद्यालयों में मौलिक अन्तर है। पढ़े गये डालने वाली फैक्ट्रियों की आज कमी नहीं, वे तेजी से बढ़ती भी जा रही हैं पर जिनका वातावरण नररत्नों को ढाल सकें ऐसे विद्या मन्दिरों के तो अब दर्शन ही दुर्लभ हो रहे है।
कई लोग घोषणा और चेष्टा तो करते है। बोर्ड और विज्ञापन भी इसी स्तर के बनाते है, पर बन उनसे भी कुछ नहीं पड़ता। क्योंकि अध्यापकों का रीति-नीति का, विधि व्यवस्था का क्या क्रम होना चाहिए इसका स्वरूप न तो सूझता है और न वैसा प्रबन्ध करते, साधन जुटाते ही बन पड़ता है। फलतः वह बन ही नहीं पड़ता जो सोचा गया है, वैसे इस प्रकार सोचने की परम्परा ही नहीं है। शिक्षा का महत्व अर्थोपार्जन से अधिक भी कुछ हो सकता है, इसे जानते तो कई लोग हैं पर जो मानते भी हों ऐसों को ढूँढ़ निकालना दुस्तर है।
इस अभाव की पूर्ति के लिए, एक आरम्भिक प्रयास गायत्री नगर की आरण्यक व्यवस्था में किया गया है। शान्ति कुँज हरिद्वार की इस नव निर्मित इमारत में इसी जुलाई से प्रशिक्षण की उस परम्परा को पुनर्जीवित किया जा रहा है, जिसमें गुरूकुल, आरण्यक और तीर्थ सेवन की त्रिविध व्यवस्था संजोई जाती थी। वह एक प्रयोग है। प्रयोगशाला का उद्देश्य उपलब्धियों को छोटे रूप में इस प्रकार प्रस्तुत करना होता है जिसे अन्य लोग बड़े परिणाम में अपनाकर लाभान्वित हो सकें। नर्सरी में अनेक प्रकार के पौधे उगाये जाते है। उद्यानों में कुछ ही पेड़ फलते है। गायत्री नगर को नर्सरी बनाया जा रहा है। वह प्रयोग शाला की भूमिका सम्पन्न करेगी।
गायत्री नगर में बसने के लिए सर्वप्रथम उन्हें बुलाया गया है जो उपयुक्त वातावरण बनाने और अध्ययक्ष की भूमिका निभाने में अपनी विशिष्टा का परिचय दे सके। यो शिक्षा का उद्देश्य अनगढ़ो को सुगढ़ बनाना है, पर सर्व प्रथम अनगढ़ इक्ट्ठे नहीं किये जाते, उन्हे सृघढ़ बनाने वाले शिल्पियों का प्रबन्ध करना पड़ता है। अस्पताल चालू करने से पूर्व डाक्टरों, नर्सो, कम्पाउण्डरों, ड्रेसरो, स्वीपरों का प्रबन्ध करना पड़ता है। कारखाने में उत्पादन चालू होने से पूर्व इमारत, मशीन, पूँजी, शिल्पी प्रबन्धक आदि की व्यवस्था बनाई जाती है। प्रथम चरण इसी प्रकार उठता है।
नव सृजन के लिए जन-मानस का परिष्कार आवश्यक हैं उसके लिए प्रखरता सम्पन्न व्यक्तित्व का नेतृत्व चाहिए। इस नेतृत्व को ढालना समय की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसी की पूर्ति के लिए गायत्री नगर को एक प्रयोगशाला, नर्सरी एवं पाठशाला के रुप में खडा किया गया है। उसमें पहली भर्ती उन्ही की का रही है जो जहाँ बसकर सर्वप्रथम अपने को ढाले और तदपरान्त उस अध्यापन का उत्तरदायित्व निवाहे जिसके ऊपर युग शिल्पियों की नई पीढ़ी को गड सकने की संभावना नाये निर्भर है।
युग देवता ने समस्त जागरुकों को नव सृजन में जुट पड़ने के लिए समय दान की माँग की है, जो व्यस्त है। वे अपने-अपने क्षेत्रों में नव सृजन के लिए कुछ काम करे और उसके लिए अपने दृष्टिकोण, व्यक्तित्व एवं क्रियाकलाप में प्रभावी तत्व उत्पन्न करने के लिए उस प्रशिक्षण में सम्मिलित हो जो गायत्री नगर में युग शिल्पियों की प्रतिभा निखारने के लिए चलेगा। किन्तु उससे पूर्व उन्हे सुयोग्य बनाया जायगा। जिन्हे अगले दिनों अध्ययन की, बनाने की क्षमता उत्पन्न करनी है। आरम्भ इसी वर्ग वातावरण को आमन्त्रित करके किया गया है।
वानप्रस्थ ही आरणयकों में टिकते थे, विद्यार्थी एवं व्यस्त लोगों का तो वहाँ आवागमन ही बना रहता था। जिनकी स्थिति पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त जैसी है, जिनके शरीर और मन में पुरुषार्थ की क्षमता शेष है। ऐस विचारशील लोगों की भर्ती की जा रही है। इसमें उच्च् शिक्षा आवश्यक नही, सदाशयता से भी काम चल जाएगा। क्योंकि पढाई नहीं भावानात्क एवं चारित्रिक होगी, जिनमें भावना विद्यमान है और अपनी क्षमता के अनुरुप श्रम करने से कतराते नहीं उन सभी को गायत्री नगर की प्राथमिक प्रशिक्षण व्यवस्था में आमत्रित किया गया है। वातावरण धन सकने में जो सहयोगी सिद्ध होंगे वे यहाँ स्थाई रुप से बस जायेंगे और प्रखरता सम्पन्न व्यक्तित्व डालने की इस प्रयोगशाला का एक अंक बनकर रहेंगे।