Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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लेने वालों की नहीं-देने वालों की पंक्ति में खड़े हों
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भूमि की उर्वरता बीज के सहारे, पेड़ पौधे बन कर प्रकट होती है। इस तथ्य को न समझने वाले, वृक्ष के विशाल रूप को ही सब कुछ मानते रहते है। व्यक्ति रूपी वृक्ष और समाज रूपी उद्यान के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष चर्चा जो भी होती है- पर तथ्य इसी ओर इंगित करेंगे कि भूमि में कितनी उर्वरता रही और बीजारोपण में कितनी कुशलता बरती गई। प्राचीन काल के उत्थान ओर आज के पराभव की तात्विक विवेचना कर सकना जिनके लिए सम्भव हो वे उसका कारण एक ही पायेंगे-जीवन दर्शन में परिवर्तन। जिन दिनों आस्था ओर आकाँक्षा में शरीर निर्वाह के लिए भौतिक उपार्जन ओर आत्म पोषण के लिए परमार्थ प्रयोजन पर समान रूप से ध्यान दिया जाता था, उन दिनों मनःस्थिति में उत्कृष्टता भरी रहती थी। फलतः कृर्तव्य का क्रम आदर्शवादिता में भरा रहता था। ऐसी दशा में परिस्थितियाँ सुख-शान्ति से भरी पूरी रहनी ही चाहिए थीं, रहीं भी।
आत्मा के प्रति उपेक्षा बरती जाय, उसे भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जाय, तो फिर एकाकी शरीर पक्ष का मात्र सुविधा ही अपेक्षित रहेगी। आदर्शों का आत्मिक अंकुश हट जाने से वह उपभोग की लिप्सा और स्वामित्व की लालसा में कुछ भी कर गुजरने के लिए स्वच्छन्दता बरतेगा और चस्का पड़ने पर उद्दण्डता अपनाने में भी नहीं चूकेगा। नीति पथ का अनुगमन छोड़ने पर जो विपत्तियाँ सामने आती हैं, वही हैं आज की विषम परिस्थितियाँ। विनाश को आमंत्रित यह विपन्नता ही करती है। आज के संव्याप्त संकट का तात्विक विवेचन इतना ही है।
समाधान ढूँढ़ना हो तो, जड़ तक जाना होगा, रक्त शुद्धि का उपाय किये बिना फोड़े-फुंसियों से छुटकारा पाना कठिन है। ऊपरी उपचारों से लीपा-पोती भर होती है। आवरण कमजोर होने पर एक छेद बन्द करते ही दूसरा अन्यत्र में खुल पड़ता है। समस्याओं का बाहरी उपचार कुछ क्षण के लिए ही थोड़ी रोक थाम कर सकता हैं। स्थायी समाधान के लिए जड़ की गहराई तक पहुँचना पड़ेगा। विपत्तियाँ आसमान से नहीं बरसतीं, वह मनुष्य द्वारा अपनाई गई रीति-नीति की प्रतिक्रिया भर होती है।
भले और बुरे परिणामों के उत्थान और पतन की पूरी पूरी जिम्मेदारी आस्था संस्थान के स्तर पर ही निर्भर रहती है। कोई उसे समझ पाये न समझे दूसरी बात है। व्यक्ति या समाज के सामने जो भी संकट है उसके बाह्योपचार और सामयिक समाधान भी होने चाहिए। पर यह न भुजा दिया जाना चाहिए कि उद्गम के छेद बन्द किये बिना फूटने वाली जलधारा इस सही, मार्ग से न उससे सही अपना रास्ता बनाती रहेगी। एक समस्या को हल करने से पूर्व ही नई उलझन उठ खड़ी होगी, इन दिनों यही हो भी रहा है। प्राचीन काल की साधन हीन परिस्थितियों में स्वर्गीय वातावरण का होना और आज देव दुर्लभ उपयोग सामग्री का बाहुल्य रहते भी दुःख दारिद्र में डूबना यही सिद्ध करता है कि उत्थान और पतन के मूल भूत कारण बाहर नहीं भीतर है। विपन्नताएँ चर्म चक्षुओं से बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर दीखती है। किन्तु तनिक सी गहराई में उतरते ही यह पता चल जाता है कि सारा प्रपंच दृष्टिकोण और दर्शन पर निर्भर है। ज्वालामुखी जैसे विस्फोट धरती की दरारों में से फूटते है। दुश्चिन्तन ही अगणित समस्याएँ उत्पन्न करता है।
भटकन को ही प्रयत्न माना जाय और उछल कूद में ही समाधान सोचा जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा गहराई तक उतरना और लोक चिन्तन की दिशा मोड़ने के लिए साहस जुटाना पड़ेगा। भले ही कितना ही कष्ट साध्य समय साध्य ओर श्रम साध्य क्यों न हो। युग समस्याओं के समाधान में यही नीति अपनानी होगी। सही निदान चिकित्सा बन पड़ती है और सही उपचार होने रोग निवृत्ति का सही आधार बनना है। आवश्यकता जीवन दर्शन में घुसे हुए विभ्रम को निरस्त करने की है। उसके स्थान पर जैसे ही दूरदर्शी विवेक की स्थापना होगी व काल जैसा स्वर्णिम युग सहज ही सामने आ खड़ा होगा।
भारतीय जीवन दर्शन का सार तत्व इतना ही है कि शरीर पोषण जितना ही महत्व, आत्मोत्कर्ष को भी दिया गया। इस सन्तुलन को बिगड़ने ने दिया जाय। शरीर पोषण के लिए उपयोगी साधन चाहिए, उनका सीमित उपार्जन और सीमित उपयोग करने की नीति अपनाई जाय, ताकि आत्मिक प्रगति के लिए समय, श्रम और विनोयोग की कुछ मात्रा बच सके। उपभोग और संग्रह की प्रवृति जब अनियन्त्रित हो जाती है तो वह वासना कहलाती है ओर लिप्सा बनकर उद्विग्नता, आतुरता का कारण बनती है। इसी प्रकार सम्बन्धित पदार्थों और व्यक्तियों के प्रति अनावश्यक ममता जोड़ से स्वामित्व की अहंता बढ़ती है। सम्पत्ति का विपुल और कुटुम्बियों का धन-कुबेर बनाने का व्यामोह एक ऐसा जाल बुनते हैं, जिसमें जकड़ा हुआ मनुष्य चिन्तन और पराक्रम की दृष्टि से अपंग जैसा बनकर रह जाता है। उससे ऐसा कुछ सोचते नहीं बन पड़ता जिससे आत्मिक प्रगति, शान्ति शक्ति उपार्जित कर सकना सम्भव हो सके।
अन्तःक्षेत्र की, लोक चिन्तन की यही स्थिति जब बनी रहेगी विपत्तियों ओर विपन्नताओं का ताँता टूटने नहीं है। प्राचीन काल में अन्तःक्षेत्र की सुव्यवस्था परध्यान दिया गया था। फलतः भौतिक दृष्टि से सुखी, आत्मिक दृष्टि से समुन्नत बनने का दुहरा लाभ उनने लगा था। स्वयं धन्य बने और संसार को धन्य बनाया। आज संकीर्ण स्वार्थपरता खाये जा रही है। लोभ मोह के प्रेतों ने चिन्तन क्षेत्र पर पूरी तरह आधिपत्य कर लिया है। फलतः मनुष्य शरीरचर्या के अतिरिक्त कुछ सोचता ही नहीं। आत्म सत्ता को उसकी आवश्यकता का एक प्रकार से भुला ही बैठा है। उपभोग संचय और ममत्व के परिपोषण में ही सामर्थ्य का सारा स्त्रोत चुक जाता है। भीतर से खोखला बाहर से ढकोसला बना आज का मनुष्य अपने ओर दूसरों के लिए समस्या बन कर रह रहा है। अन्तः स्थिति के बदले बिना विषम परिस्थितियों का बदला जाना अति कठिन हैः
भारतीय जीव दर्शन की झाँकी एक दर्पण में करनी हो तो उसे वानप्रस्थ परम्परा में देखा जा सकता है। आधा समय, श्रम शरीर के लिए आधा, आत्मा के लिए नियोजित है। दोनों पहिये सही रहने पर गाड़ी ठीक तरह चलती है। दोनों टाँगों के सहारे यात्रा सही रूप में बन पड़ती है। स्वार्थ ओर परमार्थ का समन्वय होना ही चाहिए। मात्र परमार्थी शरीर यात्रा कैसे सँजोये। भाव स्वार्थी को शान्ति और प्रगति के दर्शन कैसे हो ? एकाकीपन की अपूर्णता असमंजस ही खड़ा किये रहेगी। भौतिक समृद्धि और आत्मिक प्रगति का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा करने वाली यदि रीति-नीति अपनाई जाय तो लोक भी बनेगा और परलोक भी, सुख भी मिलेगा और सन्तोष भी, इसके विपरीत यदि आदि से अन्त तक लोभ-मोह ही छाया रहे तो समझना चाहिए कि वह सुख भी मृग तृष्णा की तरह दूर ही हटता चला जाएगा, जिसके लिए कि इतनी व्याकुलता बरती और अवांछनीयता अपनाई गई थी।
आम आदमी लोभ के लिए ही मरता और मोह के लिए ही खपता है फिर भी वह उनमें से एक को भी पूरा कर सकने में सफल नहीं होता। तृष्णा जहाँ की तहाँ बनी रहती है। कमाया सीमित ही जा सकता है। पर लिप्सा तो असीम है। खाई को मुट्ठी रेत से कैसे पाटा जाय? आग को ईधन से कैसे बुझाया जाय ? न अतृप्ति हटती न अशान्ति मिटती है। कोल्हू का बैल कैसे थकान से बचे ? इन्द्रिय तृप्ति में दाद जैसी खुजली भर है। व्यामोह में कुछ को देना और असंख्यों से छीनना होता है, इस नीति को अपनाने वाला आत्म प्रताड़ना से कैसे बचे ?
पूर्वजों का दृष्टिकोण स्पष्ट था। शरीर से काम लेना है, इसलिए स्वास्थ्य बनाये रहने भर की साधन सामग्री जुटानी हैं। सम्बन्धित कुटुम्बियों को स्वावलम्बी, सुसंस्कारी भर बनाना है, इसके लिए औचित्य की सीमा के अन्तर्गत स्नेह-सहयोग देने भर से काम चल जाता है। आवश्यक नहीं कि उनके लिए वैभव जमा किया जाये ऊँची पदवी पर पहुँचाया जाय। नागरिकों का औसत स्तर ही अपने सम्बन्धियों के लिए पर्याप्त माना जा सके तो उतनी चिन्ता न करनी पड़ेगी जितनी आज करनी पड़ती है। इसी औचित्य भरे दृष्टिकोण को सन्तोष कहते है। जो सन्तोषी है, वही सर्वदा सुखी रहता है।
दुःख तो दरिद्रता का नाम है। दरिद्रता उस पिछड़े दृष्टिकोण का नाम है जो वैभव ओर विलास की असीम कामना संजोये रहती है और अतृप्ति की आग बन कर निरन्तर जलाती है। दरिद्रता वस्तुओं की कमी को नहीं, तृष्णा की ललक को कहते हैं जो आत्म हीनता और अशान्ति बनकर तथा कथित सम्पन्नों पर भी छाई रहती है, यही असन्तोष उद्विग्नता बनकर उभरता और आवेशग्रस्त भूत पिशाचों की तरह कुकृत्य करता है यदि औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ओर कुटुम्बियों का सुसंस्कारी स्वावलम्बन पर्याप्त माना जा सके तो हर किसी को आत्मिक प्रगति के लिए असीम पुरुषार्थ करने का अवसर मिल सकता है। भवबन्धन, मायापाश आदि के नाम से जिस तमिस्त्रा का अध्यात्म क्षेत्र में हेय वर्णन किया जाता है वह और कुछ नहीं मात्र विलास और स्वामित्व की वितृष्णा भर है इस भार के हलका होते ही आत्मा विश्व आकाश में स्वच्छन्द पक्षी की तरह विचरने का आनन्द लेने लगता है। इसी को जीवन मुक्ति कहते है।
यह न कठिन है, न सरल। जो वस्तु स्थिति का समझने और तदनुरूप जीवन नीति निर्धारित करने का साहस कर सके उसके लिए भव बन्धनों से मुक्ति पाना नितान्त सरल है। जिनने लोभ और मोह की हथकड़ी, बेड़ी कसकर जकड़ ली है उनके लिए व्यथा वेदना सहने ओर चिन्ता चिता में जीवित काया का जलाते रहने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। सफलता कितनी ही बड़ी क्यों न हों, उपलब्धियाँ किसी भी स्तर की क्यों न हों, तृष्णा से कम ही पड़ेगी और अतृप्ति घटाने में तनिक भी सहायता न करेंगी।
अपने महान पूर्वज इन शाश्वत तथ्यों से परिचित थे। इसलिए वे उत्कृष्टता अपनाते थे ओर वितृष्णा से बचते थे। फलतः उन्हें वैयक्तिक जीवन में उल्लास और उमंगों से भरे रहने का अवसर स्वल्प साधनों में ही मिल जाता था। कुटुम्बियों की अनावश्यक संख्या बढ़ाना वज्र मूर्खता का चिन्ह है। खाई खोदने और उसे पाटने का जंजाल बुने बिना जिनका काम चल सकता है वे प्रस्तुत कुटुम्ब के उत्तरदायित्व पूर्ण करना ही पर्याप्त समझते हैं। नये-नये भार लादते जाने क दुस्साहस करते हुए दुष्परिणामों का ध्यान रखते और उससे हाथ सिकोड़ते हैं। सन्तान वृद्धि कभी क्षम्य भी समझी जाती होगी पर आज की स्थिति में तो उसे अक्षम्य और अभिशाप ही कहा जा सकता है।
प्राचीन काल में भी गृहस्थ जीवन में भी थोड़ी सी अवधि ही सीमित सन्तानोत्पादन के लिए खुलती थी। शेष तीन चौथाई जीवन तो ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास में ही बीतता था। आज असीम ओर अनगढ़ सन्तानें किस प्रकार अपने अभिभावकों के लिए अभिशाप बन कर रहती हैं, इसे हर विवेकवान अच्छी तरह जानता हैं। प्राचीन काल में यह विवेक शीलता लोक प्रथा में सम्मिलित थी कि सन्तानोत्पादन का उतना ही दुस्साहस किया जाय, जितना कि उनके परिपोषण में लगन वाली सामर्थ्य से परमार्थ प्रयोजनों में घाटा न पड़ने पाये।
उन दिनों बड़ा भाई छोटे भाई-बहनों क उत्तरदायित्व सँभलता था और अभिभावकों की परमार्थ परायणता में जो उत्तरदायित्व बाधक बनते थे उन्हें अपने कंधों पर वहन करता था। आज तो अभिभावकों की सहायता करने की रीति ही बदल गई। उनसे जितना अधिक पाया जा सकें, उसे झपटना ही प्रचलन बनकर रह गया है। देने लेने वाले उसी के अभ्यस्त हो गये है। फलतः कुटुम्ब अव आत्म विकास का अभ्यास करने के माध्यम नहीं रहे। व्यामोह और अनाचार के जेलखाने बन कर रह रहें हैं।
उपयुक्त गुजारे भर का यदि पर्याप्त माना जा सके तो अर्थ संकट की शिकायत किसी को भी न करनी पड़ेगी घर के सभी लोग श्रम करें तो किसी एक पर उपार्जन का असीम भार क्यों पड़े ? सादगी और शालीनता की मितव्ययी रीति-नीति अपनाई जाय तो वे अनावश्यक खर्च क्यों बढ़े, जिनके लिए ऋणी, चिन्तित एवं अनीतिरत रहना पड़ता है संचय की निरर्थकता और अमीरी की दुष्परिणिति को ध्यान में रखा जा सके तो हर किसी के लिए हलका-फुलका जीवन जीना और परमार्थ प्रयोजनों के लिए बहुत कुछ कर सकना सम्भव हो सकता है। आत्मिक प्रगति का अवसर वहीं मिलेगा, जहाँ इस प्रकार की मनःस्थिति एवं परिस्थिति बन रही होगी।
कितनों का ही संचित उपार्जन इतना होता है, जिस की बैंक ब्याज भर से निर्वाह क्रम अत्यन्त सरलता पूर्वक चलता रह सकता है, फिर भी अभागा मन न लोभ छोड़ता है न मोह। फलतः आत्मा को बलिष्ठ बनाने का वह सुअवसर मिल नहीं पाता, जिसे अपनाने वाला आत्म कल्याण ओर लोक महा मानवों जैसा अभिनन्दनीय जीवन जी सकता है। महा पुरुषों ओर नर पशुओं में मात्र इतना ही अन्तर हाता है कि एक पक्ष विवेक अपनाता ओर आदर्शों के लिए कुछ कर सकने की व्यवस्था बनाता है। दूसरा व्यामोह की सड़ी कीचड़ में फँसा हुआ रोता कलपता भर है, उससे उबरने का प्रयत्न नहीं करता। यही वह अन्तर है जिसमें एक जैसी स्थिति के दो व्यक्तियों में से एक महानता का गर्व गौरव प्राप्त करता है और दूसरा क्षुद्रता जन्य प्रताड़नायें निरन्तर सहता है।
यह एक और विडम्बना आड़े आती है। आत्म कल्याण के लिए एक सस्ता सा उपचार पूजा पाठ का मान लिया जाता है और सोचा जाता है कि इतने भर से भगवान को रिझाना और पक्षधर बनाना सम्भव हो सकेगा। वे वह भूल जाते हैं कि उपासना का तत्व दर्शन जीवन साधना की आस्था एवं प्रेरणा उभारने के निमित्त हुआ है। भगवान खुशामद और रिश्वत की पकड़ से बहुत ऊँचा है। उपासना तो उत्कृष्टता के रूप में विद्यमान अन्तःचेतना की जाती है। भ्रम ग्रसित एक जंजाल से निकल कर दूसरे में फँसते है। आत्मकल्याण के निमित्त जीवन साधना करने की आवश्यकता वे भी नहीं समझते और जिस तिस मंत्र-तंत्र का सहारा लेकर आत्मकल्याण और ईश्वरीय अनुग्रह का दिवा स्वप्न देखते है।
पूर्व पुरुष भ्रम ग्रस्त नहीं थे, वे उपासना भी करते थे ओर साधना भी। दोनों की सचाई और गहराई उनके प्रखर जीवनदर्शन में प्रकट परिलक्षित होती थी, वे निर्वाह भी करते थे, कुटुम्ब भी सम्भालते थे साथ ही परमार्थ प्रयोजनों के लिए इतना कुछ करते थे, जिसके सहारे उन का व्यक्तित्व देवोपम स्तर की भूमिकाएँ निभाने में सफल रह सके।
सामर्थ्य किसी के पास कम नहीं, सुविधा सबको समान रूप से उपलब्ध है। समय सबके पास पर्याप्त है। शरीर की श्रमशीलता ओर मन की विचारशीलता की दृष्टि से कोई भी दरिद्र नहीं। अपंगों को छोड़कर सभी स्वस्थ मनुष्य प्रायः एक जैसी स्थिति में है। भिन्नता इतनी है कि एक का जीवन प्रवाह उत्थान की दिशा में बहता है, दूसरे को पतन रुचता है। एक को उत्कृष्टता प्रिय है, दूसरे को सड़ी कीचड़ में रहने की आदत पड़ गई है। आस्था और आकाँक्षा का परिवर्तन सम्भव हो सके तो अपना यहीं मस्तिष्क अपनी इन्हीं परिस्थितियों में ऐसा मार्ग निकाल सकता है, जिस पर चलते हुए आज की तुलना में हजार गुन श्रेष्ठ स्तर की जीवनचर्या बन सके।
जिन्हें ऊँची ऊँची आध्यात्मिक डिग्रियाँ प्राप्त करनी हों, उन्हें तो अनंत-अनंत जाँच और परीक्षाएँ पास करनी पड़ती हैं। परन्तु ज्यादातर लोग परीक्षक को घूस देने की ही सोचते रहते है। श्री अरविन्द
कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि दृष्टिकोण बदला तो जीवन यापन की रीति-नीति में तत्काल अन्तर पड़ेगा। यही वह अन्तर है, जिसे आन्तरिक काया-कल्प कहा जाता रहा है। भीतर का परिवर्तन बाहर की परिस्थितियों में चमत्कारी परिवर्तन करता है। यही वह चमत्कार है जो भूतकाल के देव मानवों के जीवन क्रम में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। उत्कृष्टता की विभूतियाँ ऋद्धियाँ कहलाती है और दूसरों को ऊँचा उठाने वाली क्षमताओं को सिद्धियाँ कहते हैं। पूर्व पुरूषों ने उस मार्ग को अपनाकर अपने समय को सतयुग और अपने क्षेत्र को स्वर्ग बनाया था। हमें भी उसी मार्ग पर अनुगमन करने का साहस जुटाना है।