Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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समय का मूल्य समझिये
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अतीत को वापिस लाना जागरूकों का दायित्व
भारत के गौरव भरे अतीत का आधार भूत कारण तलाश करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यहाँ के महान जीवन दर्शन ने जन-जन को प्रभावित किया। उसे अपनाकर वे देवमानव बने और अपनी उत्कृष्ट क्रिया पद्धति से सम्पर्क क्षेत्र भारत तक सीमित था, तब यह भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाई। जब विश्व भर में बादलों की तरह जा पहुँचने क अवसर मिला तो उन देव मानवों ने उन सभी क्षेत्रों का समुन्नत ओर सुसंस्कृत बनाया जहाँ उन्हें खड़े होने को जगह मिल गई।
कहना न होगा कि उन दिनों अपना देश जगद्गुरू कहलाता था, भावनात्मक ओर बौद्धिक अनुदान देने के लिए जिसके पास प्रचुर ज्ञान सम्पदा के भण्डार हों, उसे अध्यापक मार्ग दर्शक एवं उदार अनुदानी का यह गौर सम्पदा पद मिलना ही चाहिए। उन दिनों भारत ने चक्रवर्ती शासक का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाया था यह भार कुशल व्यवस्थापक एवं समर्थ शक्तिवान ही वहन कर सकता हैं इस देश के महान नागरिकों में वह क्षमता प्रचुर परिमाण में विद्यमान थी, उन दिनों भारत ईस्वी सम्पदाओं का स्वामी था। समृद्धि और सन्मति का अन्योन्य सम्बन्ध है। सद्भावना और सत्प्रवृत्तियाँ के धनी सम्पन्न तो रहेंगे ही। दरिद्र उन तक पहुँच ही कैसे सकेगा जो स्वंयं वैभववान है वही तो दूसरों को कुछ देने में समर्थ हो सकेगा।
विश्व इतिहास भारत के अनुदानों का ऋणी है। जो बदला न माँगे, और अनुदानों की अनवरत वर्षा करे, उस के प्रति मानव अन्तःकरण को कृतज्ञ तो होना ही चाहिये उस देश को विश्व मानव की गहन श्रद्धा उपलब्ध होती है। अस्तु यहाँ के नागरिकों को देवता और उनके निवास क्षेत्र को स्वर्ग कहा जाना अत्युक्तिपूर्ण नहीं, सहज स्वाभाविक एवं स्तर के अनुरूप ही है।
आश्चर्य होता है कि उन दिनों आज की तुलना में साधनों का भारी अभाव था। वे सुविधायें थी ही नहीं, जिनका लाभ आज हर मनुष्य को मिलता है। नदियों के पुल, रेल, मोटर, वायुयान आदि के साधन न होने पर लम्बी यात्रायें कितनी कठिन रही होंगी। प्रेस, प्रकाशन, कागज आदि का प्रबन्ध न रहने पर विचार विस्तार कितना कठिन रहा होगा। बिजली न होने पर उद्योग कितने सीमित रहे होंगे डाक-तार रेडियो की व्यवस्था न होने पर कितना सीमित, महँगा और कष्ट साध्य रहा होगा, इसकी आज तो कल्पना भी कठिन है। विशाल उद्योगों ओर संयंत्रों का तब कहीं अता-पता भी नहीं था। आत्म रक्षा के लिए तीर-कमानों पर निर्भर रहना पड़ता था। दुर्भिक्ष पड़ने पर अन्न जल के अभाव में उस क्षेत्र के निवासी तड़प तड़प कर मर जाते थे। न परिवहन के साधन थे न साधनों का इतना बाहुल्य कि अपनी आवश्यकता पूरी करने के अतिरिक्त बचत बाहर भेजी जा सकें। शिक्षा, चिकित्सा, कला, शिल्प आदि का जो थोड़ा बहुत विकास हुआ था उसका लाभ राज परिवार के लोग ही उठा पाते थे। भवन, वस्त्र, व्यंजन, विनोद के साधन सीमित थे। फलतः सम्पन्न लोगों को ही उनकी सुविधा मिलती थी। नकली दाँत ओर नकली आँख सर्व साधारण का तब कहाँ उपलब्ध थी, माचिस और सुई तक की सुविधा नहीं थी । अंगों का प्रत्यारोपण करने वाले अस्पतालों की तब कहीं कल्पना भी नहीं थी। मुद्रा, बैंक, बीमा, जैसी सुविधाओं क न होने से अर्थव्यवस्था कितनी सीमित रही होगी, इसका अनुमान लगाना, उनके लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए जो वर्तमान और भूत का तुलनात्मक अध्ययन कर सकने में समर्थ है।
इतने पर भी पूर्वज कितने स्वस्थ, कितने समर्थ, कितने सम्पन्न, कितने उदार, कितने साहसी, कितने सुसंस्कृत और कितने पराक्रमी थे, इसका कारण ढूँढ़ने पर इसी तथ्य पर पहुँचना पड़ता है कि उन दिनों उत्कृष्ट जीवन दर्शन जन-जन के चिन्तन में आत-प्रोत था गति विधियों में आदर्शवाद अनुप्राणित था। चिन्तन और चरित्र के समन्वय का संस्कृति कहते है। दृष्टिकोण को दर्शन कहते है। कर्तृत्व की दिशा धारा धर्म कहलाती है। संस्कृति, दर्शन और धर्म का समन्वय ही अध्यात्म के नाम से जाना जाता है। भारत की आस्था अध्यात्म पर केन्द्रीभूत थी फलतः व्यक्तियों में महानता भरी रही। उत्कृष्ट व्यक्तित्व से सम्पन्न को देवता कहते है। देवता स्वयं महान होते है। इसलिए उनके सहज अनुदान सम्पर्क क्षेत्र को समुन्नत बनाते रहते है। बादल, पारस, चन्दन की समीपता से मिलने वाले लाभों को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं रह जाता कि किस प्रकार हमारे पूर्वज धन्य बनते और असंख्यों को धन्य बनाने का श्रेय सौभाग्य प्राप्त करते होंगे। कार्यों की संरचना तो समान थी, पर साधनों की नितान्त कमी रही, इतने पर भी अतीत की गौरव गरिमा का देखते हुए यह कहना पड़ता है कि उच्चस्तरीय जीवन दर्शन प्रत्यक्ष देव वरदान है। यह जिन्हें उपलब्ध होगा, उनकी गरिमा वैसी ही रहेगी, जिसकी चर्चा करने, सुनने में इतिहास विद्यार्थी पुलकित, गद्गद हो उठते है।
भारतीय अध्यात्म और दर्शन का सार तत्व इतना ही है कि शरीर की तरह आत्मा को भी महत्व देना और भौतिक सुख-साधनों की तरह ही आत्मिक सन्तोष और गौरव को महत्व देना, आत्मा का जानते है वे यदि उसको वरिष्ठता पर शरीर सज्जा जितना ध्यान दे सकें तो उनके लिए उभय पक्षीय प्रगति योजना बनाना और उसे कार्यान्वित कर सकना तनिक भी कठिन नहीं पड़ता शरीर की आवश्यकता सीमित है। उसकी पूर्ति स्वल्प श्रम और समय लगाने भर से अत्यन्त सरलता पूर्वक पूरी होती रह सकती है। इसके उपरान्त इतना कुछ बच रहता है जिसे आत्मोत्कर्ष में लगाना और फलस्वरूप देवोपम महानता उपलब्ध कर सकने में कहीं कोई कठिनाई शेष नहीं रह जाती। अवरोध एक ही है शरीर को सब कुछ मान लेना और उसी के सुख-साधनों की ललक में निमग्न रहना, यदि इस कुटेव से छूटा जा सके तो उस विवेक का उदय हो सकता है, जो आस्थाओं और आकांक्षाओं का उच्चस्तरीय बना कर नर को नारायण बना देता है।
प्राचीन काल में यही दूरदर्शी, विवेक शीलता अपनाई जाती है। वह परम्परा जब तक अपनाई गई तब तक गरिमा भी अक्षुण्ण रही, शिथिलता आई तो स्वार्थ परता की जड़ जमने लगी। एक सीढ़ी और नीचे उतरने पर व्यक्ति दादी लिप्सा ही सब कुछ बन गई। फलतः निकृष्टता के प्रवाह में लोक मानस बहने लगा। आज की अनेकानेक विकृतियों एवं विभीषिकाओं का मूल भूत कारण एक ही है आस्थाओं का अधोगामी होना, सभी जानते हैं कि मनःस्थिति कि अनुरूप परिस्थितियाँ बनती है। निकृष्ट दृष्टिकोण अपनाने की प्रतिक्रिया ही विपत्ति बन कर बरसती हैं आज हम बस इसी कुचक्र में फँसे अगणित संताप और संकट सह रहे है।
अभ्यस्त होने पर तो गन्दगी के बीच रहना भी रुचने लगता है। कई कैदी छूटते ही फिर जेल जाने की तैयारी करते हैं। नशेबाजों की अपनी दुनिया है। भिखारी अपनी आदतों में जकड़े होते है। अपराधियों को घिनौनी जिन्दगी भी अखरती नहीं। आज की हेय परिस्थितियाँ जिन्हें रुचने लगी है और ढर्रा अभ्यास में आ गया ह उनकी बात दूसरी है। अन्यथा जो पतन और उत्थान के मध्यवर्ती अन्तर का समझ सकें, जो लदी हुई परिस्थितियों की समीक्षा कर सकें, उन्हें यह समझने में देर नहीं लगनी चाहिए कि जिस स्तर का जीवन इन दिनों जिया जा रहा है, उसमें न सुविधा है, न शान्ति, न गौरव है न भविष्य। मात्र आदतों का कुचक्र ही जकड़े हुए है। दाद खुजाने ओर रक्त बहाने की विपन्नता भी कई बार रुचने लगती है और उससे छूटने की इच्छा नहीं होती। यह सब होते हुए भी जिस पर्यवेक्षक को यह समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि हम विपत्तियों में फँस गये हैं और विनाश की दिशा में बढ़ रहे है।
स्वास्थ्य दिन-दिन दुर्बल होता जा रहा है। रुग्णता के
पैने पंजे काया में गहराई तक घुसते जा रहे है। भीतर कुछ, बाहर कुछ का छद्म अन्तराल का सारा सन्तुलन गड़बड़ाये दे रहा है। दुहरा व्यक्तित्व अन्तर्द्वन्द्व खड़े करता है और उनसे अगणित उद्विग्नतायें एव सनकें उत्पन्न होती हैं। आम आदमी आज दिग्भ्रान्त, उद्विग्न, विक्षुब्ध होकर विक्षिप्तों जैसी मनःस्थिति लिए फिरता है। न चैन है न सन्तोष। न आशा है न उल्लास। सरसता और प्रसन्नता देने वाला मनःक्षेत्र जब श्मशान जैसा बीभत्स बन चले तो फिर जीवन का आनन्द समाप्त ही समझा जाना चाहिए।
आर्थिक अभाव हर किसी को खा रहा है। कम कमाने वालों की तरह अधिक कमाने वाले भी अर्थ संकट का रोना रोते हैं। पारिवारिक क्षेत्र में मात्र यौनाचार के कहीं कुछ आकर्षण दिखाई नहीं देता। न सहयोग न सौजन्य। न स्नेह है, न सद्भाव, भेड़ों के बाड़े की तरह परिवारों में घिचपिच ओर भीड़-भाड़ तो रहती है पर उनमें वह वातावरण कहीं नहीं दीखता, जिसके आधार पर घर घरौंदे स्वर्गीय संवेदनाएँ का रसास्वादन करते है। समाज से सम्पर्क तो रहता है पर उसका स्तर उचक्कों से आगे नहीं उठता। एक दूसरे पर घात लगाने और नीचा दिखाने की ही दुरभिसंधियाँ रचते रहते हैं। मित्रता के सहारे शत्रुता का कुछ ऐसा प्रचलन हो गया है कि साथी से भी सतर्क रहना पड़ता है। विश्वास और वफादारी की प्रथा ही उठती जा रही है और उसका स्थान कुटिलता को मिल रहा है। नीति और मर्यादा कहने सुनने भर के लिए बच रही है। अनास्था के वातावरण में अविश्वास, सन्देह, भय एवं आशंकाओं का घटाटोप ही छाया रहता है। नैतिक अराजकता में मानवी मूल्य अस्त-व्यस्त होते चले जा रहे है।
गतिविधियाँ और प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिनसे विनाशकारी भविष्य दिन-दिन निकट आता जा रहा है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कोलाहल घटन, रासायनिक खाद, कीट नाशक छिड़काव, जनसंख्या वृद्धि, अपराधों का
वर्गों के बीच छीना झपटी, राजनैतिक प्रतिस्पर्धा एवं अणुयुद्ध की तैयारी के फलस्वरूप जो घटित होने वाला है उसका अनुमान लगाने से यह तथ्य सामने आ खड़ा होता है कि विनाश की विभीषिका अब बहुत दूर नहीं रह गई। इन घटाओं में से हर एक ऐसी है जो इस छोटी सी धरती पर बसे हुए मात्र 800 करोड़ जनसमुदाय का अस्तित्व खतरे में डालने के लिए पर्याप्त है। फिर इनमें कई प्रबल हो उठें तो उनकी संयुक्त विनाश लीला सर्वनाश करके ही रहेगी।
व्यक्तिगत जीवन में घुसी विकृतियाँ ही, समाज गत विभीषिकाएँ बनती है। मनुष्यों का समुदाय ही समाज है। मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ ही संयुक्त होकर व्यापक परिस्थितियाँ बनती हैं। प्राचीनकाल में व्यक्ति के चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टतावादी जीवन दर्शन ओत-प्रोत था। फलतः साधनों की कमी रहने पर भी उन दिनों देवत्व उभरा-उभरा फिरता था। आज सुविधाओं की कमी नहीं। शिक्षा और परम्परा का आश्चर्यजनक उत्कर्ष हुआ है। विज्ञान और व्यवसाय में ही नहीं कला और शिल्प में भी अभ्युदय के उच्च शिखर तक पहुँचने में सफलता पाई है। इतने पर भी मनुष्य दिन-दिन दुर्बल दरिद्र एवं पतित होता चला जा राह है। वर्तमान संकटों में भरा भविष्य अन्धकारपूर्ण है। इस विषष्ठजा का दोष तो किसी पर भी जा सकता है, पर वास्तविकता एक ही है मनुष्य ने निकृष्ट जीवन दर्शन अपनाया और संकटों के दलदल में जा फँसा।
स्थिति में परिवर्तन लाया जाना आवश्यक है। यथा स्थिति नहीं रहने दी जा सकती। क्योंकि प्रवाह यथावत चलते रहने दी जा सकती। क्योंकि प्रवाह यथावत चलते रहने दी जा सकती। क्योंकि प्रवाह यथावत चलते रहने पर सर्वनाशी विनाश के गत में जा गिरना कुछ ही समय की बात रह जायेगी कोई नी चाहता कि ऐसा हो। मूर्धन्य विग्रही सत्ताधारी भी ऐसा नहीं चाहते। जिसने अनौचित्य को अपना कर अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारी है वह भी उपभोग और विलास भर चाहता है। विनाश नहीं, ऐसी दशा में सभी चिन्तित हैं कि प्रवाह को उलटा जाय, परिस्थितियों को सुधारा जाया हर किसी को उत्थान अभीष्ट है, पतन नहीं। विकास अभीष्ट है, विनाश नहीं। इतने पर भी कुचक्र ऐसा फँस गया है, जिसमें से निकलते नहीं बनता।
परिवर्तन और प्रगति के लिए जो सामुदायिक प्रयास चल रहे हैं, उनमें समृद्धि संवर्धन प्रमुख है। सुरक्षा व्यवस्था शिक्षा आदि भी उत्थान योजनाओं में सम्मिलित हैं, यह सभी प्रयत्न सराहनीय होते हुए भी निश्चित रूप से एकांगी हैं। चिन्तन और चरित्र को साथ सम्बद्ध व्यक्तित्व को परिष्कृत करने को भी समझा जाना चाहिए ही अनुभव किया जाना चाहिए कि जीवन दर्शन ही वह बीज है, जिसकी परिणित, परिस्थितियों का वृक्ष बनती है। दार्शनिक क्रान्ति के सहारे ही मनुष्य की आस्थाओं को ऊँचा उठाया जा सकेगा। उस क्षेत्र का उत्कर्ष ही चिन्तन और चरित्र में शालीनता का समावेश करेगा, उस अभिवृद्घि के आधार पर ही समृद्धि से लेकर शालीनता तक के सभी उपयोगी क्षेत्र हरे-भरे होते चले जायेंगे।
युग परिवर्तन अभियान के अन्तर्गत इस उपेक्षित को उजागर करने ओर उसे अपनाने में जन-जन को सहमत करने के लिए प्रयत्न किये जा रहे है। इन्हें चिर पुरातन के साथ चिर नवीन की संगति बिठा देना भी कहा जा सकता है। विचार क्रान्ति की लाल मशाल इसी स्तर का आलोक वितरण कर रही है। लक्ष्य है-जन मानस का सद्भावनाओं का सम्वर्धन सत्प्रवृत्तियों का उभार, परिष्कार इस प्रयास में जितनी सफलता मिलेगी, उसी अनुपात से विभीषिकाओं का निराकरण और सुखद सम्भावनाओं का निर्धारण सहज क्रम से होता चला जायेगा।
युग परिवर्तन का तात्पर्य है-जीवन दर्शन में उत्कृष्टता का समावेश। यह जहाँ भी जितनी मात्रा में होगा, वहाँ परिवर्तन का एक लक्षण निश्चित रूप से प्रकट होगा। लोभ-लिप्सा में कटौती और उस बचत का सत्प्रवृत्तियों के समाधान में नियोजन। प्राचीन काल में वही होता रहा है। महत्वाकाक्षाओं को तृष्णा के गर्त में गिरने से रोका जाना और सामर्थ्य को सत्प्रयोजनों में लगाया जाना ही देव दर्शन है। भारतीय नागरिक श्रद्धापूर्वक इस अपनाते रह और आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण का दुहरा लाभ उठाते हुए मनुष्य जन्म को धन्य बनाते रहे।
जीवन का आधा भाग शक्ति संचय एवं सम्पत्ति संवर्द्धन में लगाया जाना ही ब्रह्मचर्य ओर गृहस्थ है। शेष आधा जीवन सम्पदा परमार्थ प्रयोजन में लगाया जाना आवश्यक था। यही था वानप्रस्थ ओर संन्यास। आदर्शवादिता कहने सुनने तक सीमित रखने की वस्तु स्थिति नहीं है। इस प्रतिपादन की उपयोगिता क्रियान्वयन में ही है। उपासना का बीजारोपण जीवन साधना की उर्वर भूमि पर ही उगता और फैलता है। इस तथ्य को जिनने भी जाना है उनने लिप्साओं पर अंकुश लगाया आर परमार्थ पथ पर चल पड़ने का साहस दिखाया है। कल्पना-जल्पना करते रहने में तो आत्म प्रवंचना ही बन पड़ती है। मन मोदक खाते रहने से पेट भरता है ?
व्यक्ति और समाज को विनाश से बचाने और प्रगति पथ पर आगे बढ़ाने काएक ही उपाय है-मानवी जीवन दर्शन में क्रान्तिकारी परिवर्तन। इस परिवर्तन का स्वरुप है-सामर्थ्य का स्वार्थपरता में न्यूनतम और परमार्थ परायणता में अधिकतम उपयोग। सम्पदा का उपभोग नहीं उपयोग होना चाहिए। संग्रह नहीं वितरण लक्ष्य बनना चाहिए। अमीरी नहीं महानता बढ़ानी चाहिए। इसके लिए दूसरों को परामर्श देने की अपेक्षा अपने को तत्पर करना अधिक कारगर सिद्ध हो सकता है। युग-निर्माण परिवार के परिजनों से यह महान परिवर्तन अपने आप में आरम्भ करने के लिए कहा जा रहा है। प्राचीन काल जैसी सुखद परिस्थितियों को वापिस लौटाने का एक ही मार्ग है-पूर्वजों की परम्परा एवं संस्कृति का अनुकरण। इस मार्ग पर जागरुकों को अग्रिम पंक्ति में चलना है ताकि अनुकरण करने के लिए असंख्यों को पीछे आने का साहस जुटाना सरल सम्भव हो सके।