Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या इसी शरीर का पुनर्जन्म सम्भव हो जायेगा
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क्षुद्रता की भौतिकता और महानता को आध्यात्मिकता कहा जाता है। एक को अणु दूसरे को विभु कहते हैं। एक सीमित है दूसरा असीम। सीमित दृश्यमान होता है, असीम अदृश्य। पदार्थ का नाप-तौल आकार और आयतन है। भले ही वह आँख से नहीं देखा जा सके बुद्धि अथवा यन्त्र उपकरणों की सहायता से समझा जाय? किन्तु चेतना के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उसका क्षेत्र व्यापक है। उसका विस्तार सीमित नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि चेतना जितनी परिष्कृत होती जाती है उतनी ही सुविस्तृत होती और व्यापक बनती है। धूमिल होने पर ही वह संकीर्णता और कृपणता के दल-दल में फँसती है।
तत्व दर्शन के इस प्रतिपादन को तथ्य माना जा सकता है। इसके फलितार्थ पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि जिसे जड़ता जितना घेरे हुए होगी वह उतना ही स्वार्थी होगा। व्यक्तिगत लोभ लालच ही उसे जकड़ रहेंगे। क्षुद्र महत्वाकाँक्षा उस पर छाई रहेगी और ऐसे कृत्य कराती रहेगी जो आकर्षक लगते हुए भी व्यक्ति ओर समाज के लिए कल्याणकारी नहीं होते। सामान्य लोकजीवन ऊपर से नीचे की ओर ही प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण से प्रेरित होकर अधोगामी प्रवाह में बहता रहता है। नर पशुओं का चिन्तन, निर्धारण, स्तर एवं भविष्य इसी स्तर का रहता है। वे दुःख देते ओर दुःख पाते अपना समय बिताते, गँवाते, अंधकार में गिरते मरते है। यह दैत्य परम्परा है।
इस तत्व दर्शन का दूसरा पक्ष है-ऊर्ध्वगमन इसी को उत्थान, उत्कर्ष, अभ्युदय आदि के नाम से पुकारते है। अग्नि की लपटें ऊपर उठती है। अपने प्रभावित वातावरण को भी गरम करती और ऊपर उठाती है ऊपर उठने का स्वरूप तीर की तरह आसमान में एक दिशा विशेष में उड़ते जाना नहीं, वरन् उपग्रहों की तरह धरती की परिक्रमा लगाने लगता है। समुद्र में भाप आरम्भ में ही ऊपर उठती है इसके बाद उसकी गतिविधियाँ अग्रगामी बनती और परिभ्रमण पर निकलती है। उन्मुक्त आकाश में पक्षियों की तरह परिभ्रमण करते और अपनी उदारता बरसा कर धरातल को कृतकृत्य करते हुए अपना अस्तित्व सार्थक करता है। भाप से लेकर सन्त महामानवों तक का यही नीति निर्धारण है। पवन, विद्युत, प्राण, ईथर जैसे तत्व व्यापक और गतिशील देखे जाते है। उनका अस्तित्व और कार्यक्षेत्र सीमा बंधनों में नहीं बँधता इसी को मुक्ति कहते है। मानवी सत्ता का लक्ष्य यही है।
उपरोक्त तथ्यों पर विचार करने से यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि क्षुद्रता, संकीर्ण स्वार्थपरता और स्थानीय गतिविधियों एवं प्रत्यक्ष उपलब्धियों तक सीमित रहती है। जबकि महानता परमार्थ में रुचि लेती और वसुधैव कुटुम्बकम् की उदार गतिविधियों को अपनाती है। उसका कार्यक्षेत्र उतना ही विस्तृत होता है जितनी की उसकी उद्गम सत्ता है। परमात्मा असीम है। चेतना को जब जितना अवसर अपने मूल स्वरूप में विकसित होने को मिलता है तब वह उसी परिमाण में व्यापक, उदार एवं उदात्त बनने का प्रयत्न करती है।
व्यापकता को आकाश कहते है। आकाश जितना विस्तृत है उतना ही उपलब्धियों की दृष्टि से महान है। धरती पर जितना कुछ है उसकी तुलना में आकाश अनन्तगुना अधिक है। पृथ्वी की सत्ता और सौर मण्डल के विस्तार वैभव की दृष्टि से नगण्य है। ब्रह्माण्ड के विस्तार को देखते हुए उसका स्थान बाल की नोंक जितना भी नहीं रहता, पृथ्वी का वैभव स्वल्प, इसमें भी मनुष्य की सत्ता और सम्पदा को तो तुच्छता की दृष्टि से उपहासास्पद ही कह सकते हे। वैभव का अनन्त भाण्डागार आकाश में भरा पड़ा है। विकसित चेतनायें अपना सम्पर्क उसी से साधती और कार्यक्षेत्र उसी को बनाती हैं। यही है सच्चे अर्थों में वैभववान और प्रगतिशील बनने का भाग। महा पुरुषों की विश्व हित की प्रधानता देने वाली दृष्टि ही उन्हें प्रातः स्मरणीय बनाती है। अध्यात्मवादी अदृश्य जगत से अपना सम्बन्ध साधते और सिद्धियों की देव सम्पदा का प्रचुर परिमाण में उपार्जन करते हैं। यहाँ तक कि वैज्ञानिक भी प्रकृति के व्यापक रहस्यों को खोजते रहे है। कारखानों में ढलाई करने वाले कारीगर होते है वैज्ञानिक नहीं। सीमित श्रमिक या शिल्पी कहलाते हैं। असीम से सम्बन्ध जोड़ने वाले कलाकार, दार्शनिक, विज्ञानी एवं देवात्मा कहलाते है।
अदृश्य सम्पदा की दृष्टि से भी महान है और अनुभूति की दृष्टि से भी आनन्द मय। व्यक्ति के उत्थान में जितना श्रेय पुरुषार्थ का है उससे अधिक संव्याप्त वातावरण एवं अदृश्य के अनुदान का। विभूतियाँ परोक्ष से उपलब्ध होती है। इन दैवी सम्प्रदायों की गरिमा कल्पनातीत है। जो पाता है सो निहाल बनता हैं चन्दन वृक्ष की तरह उनका अस्तित्व समीपवर्ती सारे वातावरण को सुगन्ध से भरता रहता है।
युग परिवर्तन में प्रत्यक्ष पुरुषार्थ तो करने ही होंगे। बौद्धिक, नैतिक, और सामाजिक कान्ति के लिए लोकशिक्षण से लेकर रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रमों तक की अनेकानेक गतिविधियाँ अपनानी और क्रियान्वित करनी होगी। यह प्रत्यक्ष है। परोक्ष के अनुदानों का उसमें समावेश अत्यधिक आवश्यक है। प्रस्तुत विपत्तियों के कारण यदि प्रत्यक्ष ही रहे होते तो उनका समाधान मानवी पुरुषार्थ से सरलता पूर्वक हो गया होता, किन्तु तथ्य इसमें कही आग है अन्तरिक्ष की प्रतिकूलता असाधारण रूप से बाधक है। यह प्रकृति प्रदत्त है या मनुष्य कृत इस विवाद में पड़ने की अपेक्षा इस तथ्य को समझना आवश्यक है कि अदृश्य का अनुकूलन आवश्यक है। सूक्ष्म जगत में प्रतिपक्षी परिस्थितियाँ बनी रही तो सुरक्षा और सृजन के उद्देश्य अधूरे ही बने रहेंगे।
प्रत्यक्ष कारणों से जो समस्याएँ एवं विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं उनकी जानकारी प्रायः सभी को रहती है और साधनों के अनुरूप सुधार प्रक्रिया भी चलती है। पर इसके अतिरिक्त भी कुछ सोचना और करना शेष रह जाता है। इस दिशा में कुछ नया सोचने की सामग्री इन पृष्ठों पर मिलती है। इस प्रतिपादन का यदि महत्व समझा जा सके तो अगला कदम यही रह जाता है कि अन्तरिक्ष परिशोधन एवं अनुकूलन का उपाय भी किया जाय। प्रत्यक्ष पुरुषार्थ के साथ-साथ अदृश्य का अनुकूलन बन पड़ने पर ही वह स्थिति उत्पन्न होगी जिसमें समग्र समस्याओं का समाधान और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण सम्भव हो सके।
अध्यात्म का कार्य क्षेत्र अन्तरिक्ष है। व्यापक दृष्टि अपनाने की ब्रह्म विद्या में अभिरुचि एवं गतिशीलता को विश्वव्यापी बनाने की प्रेरणा भरी पड़ी है। साधना में अनन्त के साथ सम्बन्ध जोड़ा और और अदृश्य अनुदानों को लक्ष्य बनाया जाता है। प्रत्यक्ष अनुदानों की तुलना में परोक्ष वरदान कितने अधिक समर्थ होते हैं इसे सभी जानते है।
स्वर्ग ऊपर है। देवता भी ऊपर रहते हैं। इस अलंकार का तात्पर्य उस उदात्त सत्ता की ओर संकेत करना है जो अन्तरिक्ष व्यापी है। जो व्यक्तित्व को महान और वातावरण को सुखद बनाने में समर्थ है। विज्ञान धरती पर प्रयोगशाला बनाते है पर खोजते अन्तरिक्ष को हैं। अध्यात्म में साधना तक उपचार तो शरीर और साधनों के सहारे ही किये जाते है किन्तु साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाता है कि जो मिलना है वह अन्तरिक्ष से बरसेगा और धरती पर उगेगा। दैवी अनुग्रह, साधना की सिद्धि, ईश्वरीय अनुकम्पा आदि के समस्त प्रतिपादन तथ्यतः अन्तरिक्ष के ही अनुदान हैं।
अदृश्य का अनुकूलन युग परिवर्तन जैसे महान कार्य को सम्पन्न करने के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मानवीय दृष्टिकोण में उत्कृष्टता के समावेश और प्रचलन प्रवाह में आदर्शों का अभिवर्धन। यही है मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण जिसके लिए अदृश्य में अन्तरिक्ष में सघन सम्पर्क साधने की आवश्यकता है। युग ‘सृजेताओं को रचनात्मक प्रत्यक्ष प्रयत्नों में इस अदृश्य के अनुकूलन को भी साथ लेकर चलना है।’