Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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वरदान सत्प्रयोजनों के लिए ही मिलते हैं
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इच्छा करना और उसकी पूर्ति होना दो पृथक-पृथक बातें हैं। इच्छाएँ करते रहने भर से वे पूरी नहीं हो जातीं; वरन उनको प्राप्त करने लिए प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है, अन्यथा कल्पनाएँ मनोरंजक बेपर की उड़ाने ही बनकर रह जातीं। मूल्यवान वस्तुएँ कूड़े या घूरे के ढेर में पड़ी नहीं मिलतीं। उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरे समुद्र में डुबकी लगाकर साहसी पनडुब्बे की तरह मोती बीनने पड़ते हैं।
स्वयंवर में उपस्थितजनों में से हर किसी के गले में विजय-वैजंती नहीं पहनाई जाती। उनमें से जो अनुरूप लगता है, अन्यों से श्रेष्ठ प्रतीत होता है, उसी का चयन एवं वरण होता है। बादल पानी बरसाते तो सभी जगह हैं, पर उनका बड़ा भाग उन नदी-सरोवरों के हाथ आता है, जिनने अपनी गहराई पहले से ही अधिक बना रखी है। अनुग्रह में कोई पक्षपात न होने पर भी टीले और चट्टान पहले जैसे सूखे थे वैसे ही बने रहते हैं। उनके लिए समूची बरसात ऐसे ही चली जाती है, जबकि उर्वरभूमि में मानसून आते ही हरीतिमा उगने और बूँदें पड़ते ही इसकी हरियाली से सर्वत्र हरा फर्श बिछता है।
दाता के अनुग्रह की सराहना की जानी चाहिए, पर उसे भी अविवेकी नहीं मानना चाहिए। सोचना चाहिए कि “सब धान बाइस पसेरी पीसने वाले” “आँखों के अंधे-गाँठ के पूरे” कोई बिरले ही होते हैं। अन्न देने वाला हजार बार सोचता है कि जो दिया गया है, उसका सदुपयोग करने की क्षमता उसमें है या नहीं। जिसकी सुरक्षा नहीं की जा सकती, वह दूसरों के हाथ पड़ता है और इस छीन-झपट में वह घाटा ही उठाता है, जिसे किसी की कृपा का अप्रत्याशित अनुदान मिला था। प्राप्त करने के याचना से लेकर चोरी करने तक के अनेक तरीके हो सकते हैं, पर उपलब्धि की सुरक्षा बलिष्ठता, हिम्मत एवं सूझ-बूझ के सहारे ही बन पड़ती है।
सिंहासन बत्तीसी की कहानी है कि राजा विक्रमादित्य का स्वर्णसिंहासन किसी टीले में गड़ा था। उस टीले पर जो कोई भी जा बैठता, विद्वानों की-सी बातें करता। समाचार राजा भोज तक पहुँचा। वहाँ खुदवाया गया, तो शोभायमान सिंहासन निकला। राजा ने उसे अपने उपयोग में लेने का निश्चय किया। मुहूर्त निकला, पर जैसे ही वह पैर रखने को हुआ, वैसे ही सिंहासन की बत्तीस स्वर्णपुतलियों में से एक बोली— “विक्रमादित्य के से गुण होने पर ही इसमें बैठने के अधिकारी बन सकते हो।” पूछने पर पुतलियों ने बारी-बारी करके विक्रमादित्य की विशेषताओं का वर्णन किया। जब भोज ने अपने में वैसी विशेषताएँ नहीं पाई, तो पुतलियाँ सिंहासन को आकाश में उड़ा ले गई।
इस कथानक को उन सभी प्रसंगों में प्रयुक्त किया जा सकता है, जिनमें उपलब्धियों की सुरक्षा का प्रश्न सामने आता है और सदुपयोग— सुरक्षा का प्रश्न हल न कर पाने पर जो मिलने वाला था या मिल सकता था, उससे वंचित रहने की ही स्थिति बन जाती है। दाता की वरिष्ठता सभी मानते हैं, पर ग्रहीता की पात्रता के बिना या तो कुछ महत्त्वपूर्ण जैसा मिलता ही नहीं, यदि मिलता है तो वह ऐसे मार्ग से बह जाता है, जिसमें दोनों के रोने-रुलाने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आता। इससे तो अच्छा होता कि कुछ प्राप्त करने से पूर्व अपनी स्थिति, योग्यता और पात्रता को संभाला-सुधारा जाए।
लोक-व्यवहार में यही चलता है और पारलौकिक सिद्धांतों में भी इसी का कार्यांवयन होता है, दानी लोग सुपात्रों की बढ़-चढ़कर सहायता करते हैं; किंतु कुपात्रों की ओर से मुँह फेर लेते हैं और किसी प्रकार कुछ दे-दिलाकर अपना पीछा छुड़ाते हैं। भिखारियों को कौन निहाल करता है? किंतु ऊँचा उद्देश्य लेकर चलने वाले गाँधी, मालवीय, श्रद्धानंद की झोलियाँ बात-की-बात में भरती रही हैं। यह पात्रता का ही प्रतिफल और चमत्कार है।
यह कथन सही नहीं है कि दानी नहीं रहे, याचक भटकते हैं, पर सही बात यह है कि दानी भटकते हैं और याचक को ढूँढते हैं, पर वे कहीं मिलते नहीं। कन्या के सयानी हो जाने पर उसका पिता उपयुक्त जामाता ढूँढता-फिरता है, मिल जाता है तो खुशी का ठिकाना नहीं रहता। वह कन्या का हाथ उसके हाथ में सौंपता है। साथ ही वस्त्रालंकार भी सत्कार समेत भेंट करता है। यह बात महामानवों, सिद्धपुरुषों और देवी-देवताओं की भी है। वे अपनी दिव्यसंपदा सत्पात्रों को सौंपने के लिए आकुल-व्याकुल फिरते हैं, किंतु सत्पात्र कहीं खोजे नहीं मिलते। फिर वे दें किसे? अक्षत-गंध चढ़ाकर ओंधे-सीधे अक्षर रटकर इतने मात्र से जो भक्त बनते हैं और तरह-तरह की मनोकामनाएँ प्रस्तुत करते हैं। यह विचित्र जेबकटी जब सफल नहीं होती तो जिनसे आकांक्षाएँ लगाई थीं उन्हें दर्जनों गाली देते और भक्तिभाव को झूठा बताते हैं। यही है आज की विडंबना, जिससे पूजा और भक्ति के सिद्धांत गलत साबित होते हैं और उलाहने देने-सुनने का अवसर मिलता है।
देवी-देवता और परब्रह्म की विभिन्न फ्रीक्वेंसी हैं। रेडियो स्टेशन से प्रसारण विभिन्न तरंगों पर होते हैं। यह फ्रीक्वेंसी अपनी गतिशीलता पर अलग-अलग स्तर के गद्य-पद्य प्रसारण करती है; पर उन्हें खुले कानों से कहीं भी सुनना चाहें तो कुछ पल्ले न पड़ेगा। सुनने का सही तरीका यह है कि अपने पास रेडियो ट्रांजिस्टर होना चाहिए। उसी के भीतर लगे हुए यंत्र उपकरण प्रसारित आवाज को पकड़ते और सुनाते हैं। एक ही समय में अनेक स्टेशन बोलते हैं। अपनी-अपनी बात कहते हैं, पर वे आवाजें आपस में मिलती नहीं। अलग अलग तरंग-प्रवाहों पर उनकी आवाजें चलती हैं।
सिद्धपुरुष शिष्यों की तलाश में रहते हैं और देवता भक्तों की। समझा इससे ठीक उलटा जाता है कि देवता निर्गुण हैं और सिद्धपुरुष ढूँढे नहीं मिलते; पर बात इससे सर्वथा उलटी है। कुपात्र को कोई धनी-मानी भी अपनी दौलत नहीं लुटाता है। अनमने मन से ही कुछ देकर टालता है। ज्यादा गिड़गिड़ाने पर उसे दुत्कार भी देता है। जिसके पास देने को है उसमें इतनी बुद्धि भी होती है कि किसी को देते समय यह देखे कि लेने वाला प्रामाणिक है या नहीं। जो दिया जाएगा उसका सदुपयोग करेगा या नहीं? यदि प्रतीत हो कि जो दिया जा रहा है उससे दुष्टता या मूर्खता बढ़ने में सहायता मिलेगी तो उदार मन वाला भी हाथ सिकोड़ लेता है।
चापलूसी हर जगह काम नहीं देती। मात्र अहंकारी-अविवेकी ही उस जाल-जंजाल में फँसते हैं। देवताओं या सिद्धपुरुषों को इस स्तर का नहीं समझा जाना चाहिए कि सूखी और झूठी मनुहार के सहारे या छुट-पुट बालविनोद जैसे उपहारों से उन्हें फुसलाया जा सकता है। उचित-अनुचित कैसी ही मनोकामना की पूर्ति के लिए उनका वरदान-अनुदान पाया जा सकता है। ऐसे हथकंडों से तो सामान्य बुद्धि वाले भी अपनी जेब नहीं कटाते फिर देवताओं को क्यों इतना नासमझ माना जाए कि वे नाक रगड़ने-गिड़गिड़ाने वाले हर व्यक्ति को अपना भक्त, साथ ही प्रामाणिक सत्पात्र मान लेंगे। साथ ही कामनाओं की झोली मणि-मुक्तकों से भर देंगे।
देवताओं का-सिद्धपुरुषों का अनुग्रह हर सत्पात्र पर अनायास ही बरसता है। बादल बिना माँगे बरसते हैं। वृक्ष फलते-फूलते और छाया तथा लकड़ी से हर किसी को निहाल करते हैं, पर साथ ही यह शर्त भी जुड़ी हुई है कि जो माँगा जा रहा है उसके पीछे सत्प्रयोजन काम करते हैं। भागीरथ के अनुरोध को गंगा ने टाला नहीं और वे धरती पर बहने के लिए सहमत हो गईं। मारीच-भस्मासुर जैसे वरदान के अवसर पाकर भी अपना सर्वनाश कर बैठे। यह बात सब पर सर्वदा लागू होती है।
देवताओं का-सिद्धपुरुषों का अनुग्रह हर सत्पात्र पर अनायास ही बरसता है। बादल बिना माँगे बरसते हैं। वृक्ष फलते-फूलते और छाया तथा लकड़ी से हर किसी को निहाल करते हैं, पर साथ ही यह शर्त भी जुड़ी हुई है कि जो माँगा जा रहा है उसके पीछे सत्प्रयोजन काम करते हैं। भागीरथ के अनुरोध को गंगा ने टाला नहीं और वे धरती पर बहने के लिए सहमत हो गईं। मारीच-भस्मासुर जैसे वरदान के अवसर पाकर भी अपना सर्वनाश कर बैठे। यह बात सब पर सर्वदा लागू होती है।