Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रतिभाओं के उन्माद
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पानी की लहरें जब उठती हैं तो एकदूसरे को आगे धकेलती चलती हैं। अगली आगे बढ़ती है तो पिछली उनकी जगह घेर लेती है। यही बात तीव्र पवन के विषय में भी है। जब हवा के तेज झोंके उठते हैं तो अगले प्रवाह को आगे धकेलने और पिछले को साथ समेटते चलते हैं। मानसिक आवेशों का भी यही क्रम है।
शांत चित्त मनुष्य एकाकी चिंतन करता और किसी निष्कर्ष पर स्वेच्छा-विवेक के सहारे पहुँचता रहता है; पर जब जन आवेश के चक्रवात में फँसता है तो उन्मादी जैसी स्थिति अपना लेता है। मंडलियाँ एक वातावरण बनाती हैं। समुदायों के मिले-जुले कृत्य भी ऐसे षड्यंत्र रचते हैं कि उनके परिणाम सूझ ही नहीं पड़ते। प्रतिभावानों का उन्माद दुर्बल मन वालों को इस स्थिति में पहुँचा देता है कि नदी के प्रवाह में बहते हुए पत्ते की तरह दिशा पकड़ लेते हैं और भूल जाते हैं कि इस प्रवाह में बहते-बहते वे कहाँ जा पहुँचेंगे?
अग्रिणी नेतृत्व करते हैं और पिछलग्गू उस अनुकरण में ही अपनी भलाई सोच लेते हैं। हिप्नोटिज्म के सिद्धांत में यही कार्यपद्धति काम करती है। प्रचंड मनोबल वाला दुर्बलों पर हावी हो जाता है और उन्हें उसी प्रकार सोचने तथा करने के लिए बाधित करता है जैसा कि अग्रगामी चाहता है।
लोकमानस भी सर्वथा स्वतंत्र एकाकी नहीं है; वरन मिल-जुलकर सोचने और करने की उसमें आदत है। हवा और नदी की तरह मन का भी एक प्रवाह होता है और वह अन्यमनस्क न रहकर एक दूसरे से प्रभावित होता और करता है, इसलिए विशेषतया मनस्वी लोगों को यह विचार विशेष रूप से करना चाहिए कि उनकी विशेषता मात्र शिक्षा, संपन्न, परंपरा आदि के साथ जुड़ी हुई नहीं है; वरन वे अनेकों को मोड़ते मरोड़ते, धकेलते और घसीटते भी हैं। एक का एकाकी चिंतन या कृत्य अनेकों पर हावी होता है और वैसा ही करने की न केवल प्रेरणा देता है; वरन एक प्रकार से परंपरा बना देता है। इसलिए मनस्वीजनों के बीच विचार-मंथन होते रहना चाहिए, ताकि जनमानस को एक दिशा में बहने न लगकर उचित-अनुचित का विचार करने और अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करने का अवसर मिले।
समय-समय पर उभरते रहने वाले युद्धोन्मादों की हल्की समीक्षा भी की जा सकती है। आदिमकाल में सामूहिक युद्ध नहीं होते थे। खाद्य-व्यवस्था, परिवार और आत्मरक्षा के प्रसंगों पर ही छुट-पुट लड़ाइयाँ होती थीं। उन्हें भी समुदाय का मुखिया फैसला देकर शांत करा देता था। ईसा के 2000 वर्ष तक का पुराना इतिहास ऐसा है, जिसमें आहार के लिए पशुवध को छोड़कर युद्ध या महायुद्ध जैसे संगठित विग्रह नहीं हुए हैं, पर जब सामंतवादी प्रचलन चला तो महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति अपने या अपने समुदाय के लिए अधिक सुविधा-सामग्री एकत्रित करने के लिए युद्ध करने लगे। उन दिनों के युद्धों को एक प्रकार की दलीय लूट-पाट कहा जा सकता है। सामंत कुछ मजबूत डाकुओं का गिरोह अपने साथ जमा करते थे और विजेता पक्ष को यह छूट रहती थी कि पराजित वर्ग के सैनिकों को ही नहीं मारे; वरन उस क्षेत्र की जनता की धन-संपदा लूट लें और जवान स्त्री-पुरुषों को दास-दासी के रूप में खदेड़ ले जाए। बलिष्ठों के लिए यह लाभदायक सौदा था। मिल-जुलकर बलिष्ठ सेना के सहारे छोटे क्षेत्रों और समुदायों पर आक्रमण करने में लाभ अधिक और घाटा कम पड़ता था, इसलिए छोटे-छोटे राजवाड़े भी स्वतंत्र न रहकर किन्हीं शक्तिगुटों का आश्रय टटोलने लगे और उसका मूल्य नजराने के रूप में चुकने लगा। यह व्यवसाय मुद्दतों चलते रहे। कोई सामना न करे इसलिए कत्लेआम होते रहे।
पर्यवेक्षणों की गणना है कि बारूद के बल पर लड़ा जाने वाला प्रथम विश्वयुद्ध जो लड़ा गया है, उसमें 90 लाख व्यक्ति मारे गए। इस संसार की तत्कालीन जनगणना को देखते हुए प्रति एक लाख व्यक्तियों के पीछे 58 का कत्ल कहा जा सकता है। यों बारूद की जानकारी क्षेत्रीय डकैतों ने पहले ही प्राप्त कर ली; थी पर उसका भरपूर उपयोग प्रथम महायुद्ध में हुआ। वह सन् 1919 से 1929 तक चला और उससे 90 लाख व्यक्ति मरे। द्वितीय महायुद्ध में यह संख्या और भी तेजी से बढ़ी और देखते-देखते 5 करोड़ व्यक्ति मृत्यु के मुँह में समा गए। इस प्रयोग में प्रति मिनट 10 लाख डालर तक खर्च होता रहा। सुयोग्य वैज्ञानिकों में से 49 प्रतिशत को ऊँचे प्रलोभन देकर युद्ध सामग्री का स्तर और बाहुल्य बढ़ाने के लिए लगा दिया गया। वे एक ही बात सोचते रहे कि सरलतापूर्वक किस प्रकार सैनिकों का वध हो सके।
द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत तृतीय विश्वयुद्ध तो नहीं हुआ पर क्षेत्रीय लड़ाइयाँ बराबर चलती रहीं। पिछले मध्यकाल में 14513 क्षेत्रीय युद्ध लड़े गए और चूँकि उनके पीछे बड़ी सत्ताएँ और बड़े साधन थे इसलिए खर्च मालूम नहीं पड़ा। इन युद्धों में इतना धन व्यय हुआ कि अरब के आगे 20 शून्य और लगा दिए जाए तब उनकी गणना हो सकती है। दूसरे शब्दों में इसे यों भी कहा जा सकता है कि समूची पृथ्वी को लपेटने वाली (160 किलोमीटर चौड़ी और 20 मीटर मोटी दीवार) सोने की एक दीवार खड़ी की जा सकती थी।
सामंतवादी संघर्षों में जनता की लूट-पाट के रूप में धन-जन की भयानक क्षति तो उठानी पड़ी, पर 1815 से 1915 तक के 100 वर्षों में 25 लाख व्यक्ति ही समस्त संसार में मारे गए। गति क्रमशः तेज ही होती गई और 1914 के उपरांत मात्र 30 वर्षों में ही 10 करोड़ की हत्या हुई।
सन् 85 और 45 के मध्य 40 वर्षों में 119 युद्ध हुए। वे अपेक्षाकृत महँगे पड़े। उनमें प्रति मिनट 1 करोड़ से 10डडडडड लाख रुपये के हिसाब से विशाल धनराशि स्वाहा होती चली गई।
अब पनडुब्बियों और मिसाइलों का युद्धकाल आ रहा है। एक पनडुब्बी बनाने में प्रायः इतना पैसा खर्च हो जाता है जितना कि 23 विकासशील देशों का संयुक्त बजट है। पनडुब्बी की तुलना में उपग्रहों का खर्च कम नहीं, वरन अधिक ही पड़ता है। इन सबके निर्माण में युद्धरत राष्ट्रों को जो खर्च करना पड़ता है वह इतना है कि उतने भर से संसार की गरीबी, बेकारी, बीमारी और अशिक्षा की चारों समस्याएँ सरलतापूर्वक पूरी हो सकती हैं।
धन व्यय और मनुष्य हनन के जो आंकड़े प्रकाशित होते हैं, विश्वस्त नहीं है। वस्तुतः इससे कहीं अधिक धन-जन की क्षति होती है।
इन युद्धों के कारणों पर प्रकाश डालते हुए रूस की फिस्सेवी लिखित “एविडेन्स फार प्रोसीक्युशन” तथा अमेरिका के “वाशिंगटन वर्ड प्रायोरिटी” द्वारा प्रकाशित तथ्यों द्वारा प्रकट है कि वास्तविक कारण ऐसे नहीं थे, जिनका कोई संयुक्त पंचायत सरलतापूर्वक न निपटा देती और बिना एक गोली चलाए काम न चल जाता।
फिर युद्ध क्यों होते रहे और दोनों पक्षों में से
किसने क्या पाया? इसका अनुमान लगाने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि
संकीर्ण स्वार्थपरता और उद्धत अहंता के सम्मिश्रण से उत्पन्न युद्धोन्माद
का मानसिक नशा ही इन महाविनाशों का कारण रहा है।
इतिहास टॉलेमी और बाल्टेयर ने अपने ग्रंथों
में समय-समय पर उभरते अनाचारों और उस चक्की में पिसते अनेकों निरीह
निर्दोषों का वर्णन किया है और कहा है कि यह सामूहिक उन्माद मनुष्य जाति के
प्रतिभावानों से अलग होने वाली एक प्रकार की छूत की बीमारी है जो
चित्र-विचित्र रूप में संक्रामक रोगों की तरह उभरती है जो मानवी गरिमा को
गिराकर उसे एक आवेशग्रस्त उन्मादी बना देती है। इसका परिणाम किसी के लिए भी
सुखद नहीं होता। पागल दूसरों को हैरान करता है, पर स्वयं भी चैन से नहीं
बैठता।
युद्धोन्माद की तरह इतिहासकारों ने यौन उन्माद
की गणना की है और लिखा कि इस कुचक्र में अब तक अप्रत्याशित संख्या में
युवतियों में रखैलों की तरह भेड़-बाड़े में कैद रहना पड़ता है। लाखों को
अपने मालिकों के मृतशरीरों के साथ जीवित स्थिति में गड़ना या चलना पड़ा है।
दासियाँ जितनी बिकी हैं उसकी तुलना में दासों को पकड़ा और बेचा जाना कम ही
हुआ है। दांपत्य जीवन दो साथियों से ही बन सकता है। सामंतों ने अपने हरम
में हजारों की संख्या में सुंदरियों को शिकार की तरह बाँधा, बेचा और हलाक
किया। यह भी युद्ध उन्माद स्तर का एक नशा ही है।
प्रचलित जन आवेशों में नशेबाजी की आदत आसमान
छूने लगी है और लोग प्रायः आधी आयु और आधी कमाई उसको स्वेच्छापूर्वक भेंट
कर रहे हैं। पूर्वकाल जैसा उत्पीड़न न होते हुए भी नशेबाजी का विवरण इतना
बड़ा है, जिसको बड़ी से बड़ी बीमारी से कम नहीं कहा जाता है।
नृशंस उत्पीड़न से आनंद की अनुभूति किसी समय
हाथी, भैंसे, मुर्गे, तीतर आदि की लड़ाई देखने के रूप में मनोरंजन का विषय
थी। अब वह खाद्य के नाम पर प्रायः उतने ही प्राणियों का वध करा देती है
जितने कि मनुष्य धरती पर रह रहे हैं। कीड़े-मकोड़े, मेंढ़कों की टांगे,
प्राणियों के अंग विशेषों के लजीज खाने बनते हैं और शेष भाग कुत्तों को डाल
दिया जाता है। सर्कसों के शौक में कितना वध और कितना उत्पीड़न होता है,
इसका हिसाब लगाया जाए तो प्रतीत होगा कि विनोद के लिए उत्पीड़न की नृशंसता
किस कदर मनुष्य में समय-समय पर उभरती रही है। ऐसे दृश्य उपस्थित करती रही
है जिसे देखकर ही नहीं, सुनकर भी मनुष्य का कलेजा काँपने लगे।
अभी भी जनजातियों को, पराधीनों को किस स्थिति
में रहना पड़ता है। इसका विवरण तैयार किया जाए तो उसे नृशंसता का उन्माद ही
कहा जा सकता है।
आवश्यक नहीं कि प्रतिभाएँ लोक-मानस के अनाचार
की दिशा में ही ढालें। वे यदि विवेक और न्याय को अपनी मनोभूमि में स्थान
दें तो वैसे उभार ला सकती है, जैसे सतयुग में, बुद्धकाल में, गाँधी युग में
कार्यांवित हुए और असंख्यों को सुख-शांति के मार्ग पर घसीट ले गए।
प्रतिभाओं का दायित्व है कि वे अपनी विभूति
भरी विशेषताओं को अनीति के लिए नहीं, न्याय, स्नेह और सहयोग के लिए
प्रयुक्त करें, ताकि नरक की दिशा में बहने वाले तूफानों को स्वर्ग की ओर
भेजा जा सके।