Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रसन्नता का अक्षय भंडार
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संसार में दुःख क्या है और सुख क्या है इसकी परिभाषा करना कठिन है। वस्तुतः यहाँ न तो कुछ सुख है और न कुछ दुःख। घटनाएँ अपने ढंग से घटित होती रहती हैं और वस्तुएँ अपने तरीके से बदलती रहती हैं। आने और जाने का, हानि और लाभ का परिवर्तन यहाँ अनवरत रूप से चल रहा है। जो वस्तु अभी जिस रूप में है, अगले ही क्षणों वह वैसी न रह जाएगी। तब जिस प्रकार उस क्षण उसे सुखद माना जा रहा था वैसा कुछ समय बाद न माना जा सकेगा। तब यह कैसे कहा जाए कि वह वस्तु या स्थिति सुखरूप है या दुःखरूप।
प्रातःकाल का सूर्य सुहावना लगता है और उसकी धूप तापने को जी करता है; किंतु कुछ समय बाद दोपहर की कड़ी धूप और चमक कष्टकारक लगती है और उससे बचने के लिए छाया तलाश करनी पड़ती है। तब कैसे कहा जाए कि सूर्य और उसकी धूप सुखद है या दुःखद। यह परिस्थितियों पर निर्भर है, सापेक्ष है। ठंड की स्थिति में सूर्य प्रिय है और गर्मी में अप्रिय।
भूख में भोजन की उत्कट लालसा रहती है। रूखा-सूखा भी स्वादिष्ट लगता है; किंतु पेट भरा होने अथवा रुग्ण रहने की दशा में स्वादिष्ट भोजन भी अरुचिकर लगता है और उसकी ओर देखने को भी जी नहीं करता। भोजन अपने आप में न स्वादिष्ट है, न अस्वादिष्ट वह एक पदार्थमात्र है। भूख के अनुरूप वह कभी प्रिय लगता है कभी अप्रिय। यदि भोजन की अपनी कुछ विशेषता होती तो वह सदा एक जैसी ही बनी रहती।
हम धनी हैं या निर्धन इसका कोई पैमाना नहीं। कितना धन होने पर किसी को धनी कहा जाए, और कितनी मात्रा को निर्धन की परिधि में लगाया जाए, इसका कोई मापदंड नहीं बन सकता। जब हम अपनी तुलना किसी साधनसंपन्न धनी के साथ करते हैं; तो पाते हैं कि अपनी स्थिति निर्धनों जैसी दयनीय है; किंतु यदि निर्धनों और अभावग्रस्तों के साथ अपनी तुलना करने लगें तो प्रतीत होगा कि हम कितने अधिक साधनसंपन्न, धनवान और भाग्यवान हैं। जिसके लिए दूसरे लोग बुरी तरह तरसते हैं, वे साधन अपने पास कितनी बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। इस तुलनाक्रम में हेर-फेर होते हैं, एक क्षण में धनी अपने को निर्धन और निर्धन अपने को धनवान मानने लग सकता है।
बलवान पहलवान की तुलना में अपनी दुर्बल काया दुर्भाग्यपूर्ण है, सुंदरों की तुलना में अपनी कुरूपता अभिशाप है; किंतु यदि अपंग एवं असाध्य रोगग्रस्त की ओर अपनी स्थिति का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि जो कुछ मिला हुआ है, वह भी सुख मानने और गर्व करने के लिए पर्याप्त है।
दुःखों से निवृत्ति पाने और सदा सुखी रहने के लिए अमुक प्रकार की परिस्थितियाँ प्राप्त होना आवश्यक है। यह नहीं सोचा जाना चाहिए, वरन अपनी तुलनात्मक चिंतन करने की शैली को बदलना चाहिए। अपने से छोटे और पिछड़े हुए लोग यदि दृष्टि में रहें तो जो मिला है, वह भी सुखद और पर्याप्त प्रतीत होता रहेगा और अपने को भी सुखी अनुभव करने की मनःस्थिति सदा ही बनी रहेगी। समुन्नत लोगों को अपना गुरु मानें, उनने जिन सद्गुणों को अपनाकर प्रगति की है, उन्हें अपनाने, बढ़ाने का प्रयास करें। इस क्षेत्र में तुलना करते हुए जो बढ़ाना आवश्यक है, उसे बढ़ाएँ तो बड़ों के साथ की जाने वाली तुलना भी श्रेयस्कर हो सकती है। दुःखों से स्थाई निवृत्ति और सुखों की सुस्थिर उपलब्धि का यही मार्ग है। प्रगति के लिए प्रयास तो तत्परतापूर्वक करें, पर दुःखी किसी भी स्थिति में न रहें यही बुद्धिमत्ता है।
दुःखों से निवृत्ति पाने और सदा सुखी रहने के लिए अमुक प्रकार की परिस्थितियाँ प्राप्त होना आवश्यक है। यह नहीं सोचा जाना चाहिए, वरन अपनी तुलनात्मक चिंतन करने की शैली को बदलना चाहिए। अपने से छोटे और पिछड़े हुए लोग यदि दृष्टि में रहें तो जो मिला है, वह भी सुखद और पर्याप्त प्रतीत होता रहेगा और अपने को भी सुखी अनुभव करने की मनःस्थिति सदा ही बनी रहेगी। समुन्नत लोगों को अपना गुरु मानें, उनने जिन सद्गुणों को अपनाकर प्रगति की है, उन्हें अपनाने, बढ़ाने का प्रयास करें। इस क्षेत्र में तुलना करते हुए जो बढ़ाना आवश्यक है, उसे बढ़ाएँ तो बड़ों के साथ की जाने वाली तुलना भी श्रेयस्कर हो सकती है। दुःखों से स्थाई निवृत्ति और सुखों की सुस्थिर उपलब्धि का यही मार्ग है। प्रगति के लिए प्रयास तो तत्परतापूर्वक करें, पर दुःखी किसी भी स्थिति में न रहें यही बुद्धिमत्ता है।