Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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दिशा तो हमें ही चुननी पड़ेगी
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मनुष्य जीवन परमात्मा की असाधारण कला-कृति एवं अनुपम उपहार है। ऐसा सुयोग संसार के किसी प्राणी को नहीं मिला। न ऐसी विलक्षण शरीर-संरचना जिसे अनेक जगहों से तोड़ा-मरोड़ा जा सके और एक से एक अद्भुत कार्य किए जा सकें। न ऐसा जादू के पिटारे जैसा मस्तिष्क जिसके कण-कण में कला-कौशल, कण-कण में तत्त्वज्ञान और पदार्थ विज्ञान के भंडार भरे पड़े हों। इतना सौंदर्य और इतना कौशल अन्य किसी प्राणी में नहीं पाया जाता। यह अनुदान किसी पक्षपात या अनुग्रह के कारण नहीं मिला हैवरन सृष्टा ने बहुत सोच समझकर दिया है। इसलिए कि वह ज्येष्ठ पुत्र के नाते अपने विशिष्ट कर्त्तव्यों और दायित्वों का निर्वाह कर सके। अपनी अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करने और सृष्टा के विश्व-उद्यान को सुरम्य, समुन्नत बनाने की जिम्मेदारी को भली प्रकार वहन कर सके।
अन्य प्राणियों के लिए उदरपूर्ति भी एक बड़ा काम है। वे सारे दिन परिश्रम करने पर अपना पेट भर पाते हैं; पर मनुष्य यदि चाहे तो दो मुट्ठी अनाज में पेट भर सकता है और उतना भर कमाने के लिए कुछ घंटे का श्रम पर्याप्त हो सकता है। परिवार को यदि अनावश्यक रूप से बड़ा बनाकर कंधों पर न लादा जाए तो उसे स्वावलंबी और सुसंस्कारी बनाने के लिए थोड़े से समय से काम चल जाना चाहिए। इसके उपरांत भी इतना समय तो बच ही जाता है कि यदि उसे आलस्य, प्रमाद या अनावश्यक स्वार्थसंचय में न गँवाया जाए तो उन कामों के लिए पर्याप्त अवसर मिल सकता है, जिनके लिए कि यह सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर मिला है।
विश्व के महामानवों ने एक से एक बढ़कर श्रेष्ठ काम किए हैं और अपने को अनुकरणीय-अभिनंदनीय बनाया है। साथ ही पेट भरने और परिवार की जिम्मेदारी निभाते रहे हैं। व्यस्तता और अभावग्रस्तता ऐसे दो बहाने हैं, जिनकी आड़ में व्यक्ति अपने विशिष्ट कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों से लुकता-छिपता और अपने को— दूसरे को धोखा देने वाले बहाने बनाया करता है।
यदि कोई अपनी स्थिति का न्यायपूर्वक पर्यवेक्षण करे, तो पेट परिवार का भरण-पोषण करने के उपरांत भी उसे उतनी सुविधा मिल सकती है, जिससे अपनी पूर्णता और विश्व-वाटिका की सेवा-साधना भली प्रकार बन सके। पर जो ठाली जीते हुए भी व्यस्तता का बहाना करे और औसत भारतीय स्तर की सुविधाएँ रहते हुए भी अभावग्रस्तता का रोना रोए, तो उस प्रवंचना के लिए कोई क्या करे?
प्रकृति की अद्भुत संरचना है— मनुष्य। यों उसने विभिन्न प्रकार के ग्रह-गोलक, जीव-जंतु, खनिज, पर्वत, जलाशय आदि बनाए हैं, पर मनुष्य उन सब में अनोखा है। ब्रह्मांडीय चेतना, और पदार्थसत्ता में जो कुछ विशेषताएँ हैं, वे सभी बीजरूप में मनुष्य के शरीर और मानस में इस प्रकार समाहित की गई हैं कि वह चाहे जिसे जितनी भी मात्रा में जब चाहे विकसित कर सकता है। प्रकृति के रहस्यों की जानकारी प्राप्त करके उसने अनेकानेक आविष्कार किए हैं, जो चेतना की अगम्य परतों को उखाड़कर अपने आप को देवोपम समर्थताओं से संपन्न करने की क्षमता, उसे प्रदान करते हैं। इतने महत्त्वपूर्ण अनुदान उसे अकारण नहीं मिले हैं। न व्यर्थ गँवाने के लिए, न दुरुपयोग के लिए।
देखना यह है कि वह उनका श्रेष्ठतम सदुपयोग करके अपनी बुद्धिमत्ता और गरिमा का किस प्रकार परिचय देता है। वह चाहे तो अपनी विशेषताओं का दुरुपयोग करके इस धरती को नरकतुल्य बना सकता है। चाहे तो अपने में देवत्व का उदय करके इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण कर सकता है। प्रश्न एक ही है कि वह अपनी समर्थता का सुनियोजन किस प्रकार करता है।
इसके लिए कई राहें खुली हुई हैं। वह चाहे तो अपनी सामर्थ्य का दुरुपयोग करके संसार में क्लेश, द्वेष, ध्वंस का संकट खड़ा कर दे। वह चाहे तो उनका श्रेष्ठ उपयोग करके संसार में सुख, शांति, प्रगति और समृद्धि का वातावरण उत्पन्न करे। वह चाहे तो उन्हें व्यर्थ गँवाए, प्रमाद अपनाए और अपना तथा विश्व का वर्तमान और भविष्य गुड़गोबर करके रख दे। विशेषता एक और भी है कि मनुष्य स्वयं गिरता है तो असंख्यों को अपने साथ गिरता है, उठता है तो उत्कर्ष का वातावरण दसों दिशाओं में बना देता है।
इस विवेचन की साक्षी अनेक रूपों में हमारे सामने हैं। पिछले दिनों उसने मानवी गरिमा से नीचे उतर कर पशुवत् हेय भूमिका निभाई और इसमें भी आगे पिशाच स्तर के कुकृत्य करके सर्वत्र हाहाकार मचा दिया। क्या उसके लिए यही योग्य था? क्या यही करना चाहिए था? क्या यही करता रहेगा? इन प्रश्नों का उत्तर यों सामुदायिक रूप से माँगा गया है, पर देना हममें से प्रत्येक को एकाकी चाहिए, क्योंकि हम सब एकदूसरे के साथ जुड़े और बंधे हुए हैं। अंधड़ जिस ओर चलता है, अपने साथ भली-बुरी वस्तुऐं सभी उड़ाता ले जाता है। अग्रगामी, दुस्साहसी जिधर भी चलता है उधर अनुयायियों की कमी नहीं रहती। वह जिधर बढ़ता है मार्ग के अवरोधों को ठुकराता चला जाता है। समष्टि का मूल्यांकन तो बहुत होता है, पर बिखरा तो कूड़ा-करकट ही रहता है। जो वरिष्ठ हैं, वे रेल के इंजन की तरह आगे बढ़ते हैं और टनों बोझ लदे हुए डिब्बों को अपने साथ घसीटते चलते हैं।
उत्तर पाने के लिए बहुत समय तक ठहरा नहीं जा सकता, क्योंकि परिस्थिति इस सीमा तक जा पहुँची है कि जीवन और मरण में से एक को चुनना पड़ेगा। सामूहिक रूप में जीवित रहना या सहमरण का आयोजन करना यह फैसला अब देर तक रुका नहीं रह सकता। दोनों में से एक को चुनना होगा। पतन का गर्त पसंद हो तो गहरे और दुर्गंध भरे दलदल में फँसकर आत्मघात करना होगा। यों अभी गुंजाइश इस बात की भी है कि वह उबरना चाहे तो ऊँची छलांग लगाए और तुरंत अनेक सहकारी कदम अपने साथ उठते हुए देखे। कहा यह जा रहा है कि जीवन की महत्ता पर दूरदर्शी विवेकशीलता के साथ विचार करना चाहिए। प्रमाद की सड़न एकत्र न होने देकर ऐसे उत्कर्ष का विनियोग करना चाहिए, जिससे स्वयं उबरें और अपने सहचरों या अनुगामियों को नवजीवन का संदेश प्रदान करे। श्रेष्ठता के चयन में ही मानव का कल्याण है। अनुकरण नर-पशु की तरह जीने वाले मृतकों का नहीं करना चाहिए। उनकी नियति तो बर्बादी है। हमें महानता के अनुसरण की बात सोचनी चाहिए, ताकि भीतर से महानता और बाहर से सुसंपन्न प्रगतिशीलता उभरे। जीवन का महत्त्व न समझा जा सके तो उसे अर्धमृतकों-अर्धमूर्च्छितों की तरह अपंग जैसी भारभूत स्थिति में बिताना पड़ेगा। पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सूझ न पड़ेगा। तृष्णा और वासना के अतिरिक्त और कहीं रस न मिलेगा। उद्दंडता उभरी तो अन्यान्यों का विनाश करते हुए अपना भी मरण आमंत्रित करना पड़ेगा।
उत्तर पाने के लिए बहुत समय तक ठहरा नहीं जा सकता, क्योंकि परिस्थिति इस सीमा तक जा पहुँची है कि जीवन और मरण में से एक को चुनना पड़ेगा। सामूहिक रूप में जीवित रहना या सहमरण का आयोजन करना यह फैसला अब देर तक रुका नहीं रह सकता। दोनों में से एक को चुनना होगा। पतन का गर्त पसंद हो तो गहरे और दुर्गंध भरे दलदल में फँसकर आत्मघात करना होगा। यों अभी गुंजाइश इस बात की भी है कि वह उबरना चाहे तो ऊँची छलांग लगाए और तुरंत अनेक सहकारी कदम अपने साथ उठते हुए देखे। कहा यह जा रहा है कि जीवन की महत्ता पर दूरदर्शी विवेकशीलता के साथ विचार करना चाहिए। प्रमाद की सड़न एकत्र न होने देकर ऐसे उत्कर्ष का विनियोग करना चाहिए, जिससे स्वयं उबरें और अपने सहचरों या अनुगामियों को नवजीवन का संदेश प्रदान करे। श्रेष्ठता के चयन में ही मानव का कल्याण है। अनुकरण नर-पशु की तरह जीने वाले मृतकों का नहीं करना चाहिए। उनकी नियति तो बर्बादी है। हमें महानता के अनुसरण की बात सोचनी चाहिए, ताकि भीतर से महानता और बाहर से सुसंपन्न प्रगतिशीलता उभरे। जीवन का महत्त्व न समझा जा सके तो उसे अर्धमृतकों-अर्धमूर्च्छितों की तरह अपंग जैसी भारभूत स्थिति में बिताना पड़ेगा। पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सूझ न पड़ेगा। तृष्णा और वासना के अतिरिक्त और कहीं रस न मिलेगा। उद्दंडता उभरी तो अन्यान्यों का विनाश करते हुए अपना भी मरण आमंत्रित करना पड़ेगा।