Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राण विद्युत के भले-बुरे उपयोग—2
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(गताँक से आगे)
संतुलन के दो पक्ष हैं— एक अर्जन दूसरा विसर्जन। पेट मुख के द्वारा ग्रहण करता है और जो अनुपयुक्त है, उसे मलमार्ग से विसर्जित कर देता है। नौकरों की भर्ती और तरक्की भी होती रहती है और जो अयोग्य अपराधी सिद्ध होते हैं, उन्हें मुअत्तिल एवं बर्खास्त भी किया जाता रहता है। श्रेष्ठता का सम्मान, परिपोषण और निकृष्टता की भर्त्सना-प्रताड़ना भी होती रहती है। सज्जनों को अधिकार सौंपे जाते और गुणानुवाद होते हैं। दुर्जनों को विरोध-असहयोग ही नहीं सहना पड़ता; जेल मृत्युदंड जैसे त्रास भी मिलते हैं। सृष्टा की विधि-व्यवस्था में इसी दृष्टि से स्वर्ग-नरक का विधान है। समदर्शी का तात्पर्य जैसे को तैसा समझना है। गुड-गोबर को एक भाव खरीदना-बेचना नहीं।
अध्यात्म-साधना में कषाय-कल्मषों से जूझना और निरस्त करना पड़ता है। साथ ही सत्प्रवृत्तियों का उन्नयन-संवर्धन भी। संतुलन इसी प्रकार बनता है। लोक-व्यवहार में भी यह उभयपक्षीय विधि-व्यवस्था कार्यांवित की जाती है। इंजन उलटा भी चलता है और सीधा भी। बिजली के ए. सी., डी. सी. करेंटों में से एक खींचता है और दूसरा फेंकता है। तप द्वारा प्रतिभा को जगाया-झकझोरा जाता है और योग द्वारा उसे उपयुक्त कार्य में नियोजित किया जाता है।
आत्मचेतना के धनी जहाँ श्रेष्ठता को आकर्षित, संगठित और समुन्नत बनाते हैं वहाँ उसका एक कार्य यह भी है कि दुष्टता को विगठित, दुर्बल, बहिष्कृत और दंडित करे। यह संतुलन न बन पड़ने पर पदार्थों और प्राणियों की अधोगामी प्रवृत्ति निकृष्टता की दिशा में वह चलेगी और जो भी चपेट में आवेगा उसे साथ में लपेटती-घसीटती चलेगी। इसलिए प्रवाह के लिए जहाँ नहरें बनाई जाती हैं, वहाँ दूसरी ओर रोकथाम करने वाले बाँध भी बाँधे जाते हैं। न श्रेष्ठता की अवहेलना हो सकती है और न दुष्टता की पूजा-प्रतिष्ठा। संतुलन ही जीवन है। उसी के साथ प्रसन्नता और प्रगति जुड़ी हुई है। यह सिद्धांत भौतिक और आत्मिक जगत में समान रूप से लागू होता है।
मनीषियों ने जितना जोर सेवा-साधना पर दिया है, उतना ही अवांछनीयता की भर्त्सना और प्रताड़ना पर भी। यह नीति अपने ऊपर भी लागू होती है, दूसरों पर भी। दुष्कर्मों के लिए प्रायश्चित का विधान है और अनाचार के दमन का भी। रामराज्य की स्थापना से पूर्व असुरता दमन की आवश्यकता पड़ी थी। विशाल और सुसंस्कृत भारत के निर्माण में प्रथम भूमिका कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध लड़ना पड़ा था। आमंत्रण और निष्कासन की अपनी-अपनी उपयोगिता है। रसोईघर और स्नानागार की तरह शौचालय और कूड़ेदान भी चाहिए। कचरे को गलाकर उर्वरता का आधार खाद सड़ाना पड़ता है। दोनों ही पक्षों का महत्त्व समान है। इनमें से एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता और न किसी एकाकी से समग्र प्रयोजन सिद्ध हो सकता है।
योग में परब्रह्म की महत्ता के साथ आत्मचेतना को संयुक्त किया जाता है। ताप से तपाकर सोने के साथ मिले हुए घटिया को जलाकर उसे खरा बनाया जाता है। दोनों कार्य एकदूसरे में विपरीत भर प्रतीत होते हैं, पर हैं एकदूसरे के पूरक। धुलाई के बाद रंगाई होती है। भट्टी में गलाई किए जाने के बाद ढलाई वाला साँचा अपना प्रयोजन पूरा करता है।
न समाज एक पक्षीय है, न व्यक्ति। न लोक अपने आप में पूर्ण है, न परलोक। दोनों के संयोग से ही सुयोग बनता है। आत्मविद्या के प्रयोक्ता तथ्यों को समझते हैं और दो पैरों से एक के बाद दूसरा उठाते हुए निश्चित लक्ष्य तक पहुँचते हैं। विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को बला-अतिबला विद्या सिखाई थी। इन्हीं को सावित्री और गायत्री कहते हैं। सावित्री में संशोधन है और गायत्री में अभिवर्धन। संशोधित विषों से ही अमृतोपम रसायनें बनती हैं। आघात सहकर ही वाद्य यंत्र झंकृत होते हैं। सरकस के जानवर रिंग मास्टर के हंटर नचाने पर अपना प्रशिक्षण पूरा करते हैं।
तंत्र और योग का अन्योन्याश्रय संबंध है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष हो सकता है। उपयोगी यंत्र चलाने वाली बिजली गलत ढंग से प्रयोग किए जाने पर प्राणघातक बन सकती है। तंत्र की निंदा तभी है, जब वह हेय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाए। उसे स्वार्थ, लोभ एवं दर्प के निमित्त कार्यांवित किया जाए। अन्यथा मवाद निकालने वाला आॅपरेशन और घाव भरने का मरहम उपचार अपने-अपने अवसर पर अपने-अपने स्थान पर उपयोगी एवं प्रशंसनीय ही कहे जाएँगे।
तंत्र दमनप्रधान है; यह आत्मदमन, मनोनिग्रह भी हो सकता है और दुष्टता का पददलन भी। देव मंदिर जितने उपयोगी हैं, उतने ही जेलखाने और फाँसीघर भी। दोनों ही समाज की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
तंत्र अपने आप में विशुद्ध विज्ञान है। हेय वह स्वयं नहीं उसका दुरुपयोग है। गणेश सद्बुद्धि का संवर्धन करते हैं तो कार्तिकेय असुरता का दमन। सरस्वती सद्बुद्धि का देवी है और दुर्गा महिषासुर मर्दिनी। दोनों के वाह्य स्वरूप में अंतर प्रतीत होता है, पर वस्तुतः उनकी दिशाधारा मिलकर उस संगम की भूमिका पूरी करती है, जो अवतार का मूल प्रयोजन है। धर्म की स्थापना के लिए अधर्म का नाश भी आवश्यक माना गया है। समय की आवश्यकता कभी नारद के भक्ति प्रचार को आमंत्रित करती है तो कभी परशुराम के कुठार को। दोनों ही अपने आप में अपूर्ण हैं। धर्मतंत्र और राजतंत्र का समन्वय ही सुव्यवस्था बना पाता है।
तंत्र की व्याख्या में दमन को प्रमुखता दी गई है। पशु प्रवृत्तियाँ अनुनय-विनय को मान्यता नहीं देतीं, उनके लिए भय ही एकमात्र सूत्रसंचालक हैं। मनुष्यों में आमतौर से पशुता अधिक और मनुष्यता स्वल्प मात्रा में पाई जाती है, इसलिए उसके लिए जितना आवश्यक शास्त्र है, उतना ही शस्त्र भी। द्रोणाचार्य और गुरु गोविंद सिंह ने दोनों को साथ-साथ ले चलने का प्रयत्न और निर्वाह किया था।
चाणक्य ने अपना कार्यक्षेत्र अक्षुण्ण रखते हुए भी चंद्रगुप्त को दिग्विजय के लिए प्रशिक्षित किया था। समर्थ गुरु रामदास की तपश्चर्या में शिवाजी को उत्साहित करके घमासान करने के लिए उठा देने में कोई विक्षेप नहीं पड़ा। कृष्ण सारथी रहे पर उनने अर्जुन को गांडीव का अनवरत प्रयोग करने के लिए आदेश दिया। योग की अपनी सीमा-मर्यादाएँ अक्षुण्ण रखनी चाहिए; पर उसे समय की आवश्यकता देखते हुए तंत्र को सजीव एवं सुगठित होने देना चाहिए।
शस्त्रों विशिष्टता हर किसी के मस्तिष्क पर छाई हुई है। आयुधों का निर्माण करने में पदार्थ विज्ञान की कलाएँ प्रधान रूप से नियोजित हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रयोक्ताओं में किसका मनोरथ पूरा होगा, क्योंकि विजय और पराजय का परिणाम क्या निकला इस पर सब कुछ निर्धारित है। विजयी पराजित से भी अधिक घाटे में रह सकते हैं और पराजित के हाथ वह पूँजी लग सकती है, जिससे वह संकट का समाधान माना जाए और शांति एवं प्रगति का श्रेय प्राप्त करे।
सब कुछ पदार्थ-संपदा और अस्त्रों की बहुलता पर ही निर्भर नहीं है। किसने क्या रणनीति अपनाई और कितनी दूरदर्शिता दिखाई, इस तथ्य पर युद्ध का वास्तविक परिणाम निर्भर है। किसने-कितने अधिक प्राण हरण किए यदि इसी पर विजय निर्भर रही होती तो नाजी सारी दुनिया के अधिपति बनकर रहे होते। वास्तविकता यह है कि किसे अदृश्य की, परिस्थितियों की अनुकूलता मिली और किसने सही चाल चली और हारी बाजी जीती। इस स्तर का कौशल उपलब्ध करने के लिए अंतःप्रेरणा और वातावरण की अनुकूलता आवश्यक है। इस प्रयोजन की सिद्धि में तंत्र की महती भूमिका हो सकती है। युद्ध मानवी भविष्य का प्रश्न चिह्न तो है; पर उसका निर्णायक या निर्धारणकर्त्ता नहीं। इसके लिए भाव-संवेदना, धर्म-धारणा की लोक-मानस में प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म का योग पक्ष— तत्त्वज्ञान अपनी भूमिका निभा सकता है; किंतु वातावरण को उलटकर सीधा करने की क्षमता के लिए तंत्र का आश्रय लेना पड़ेगा। बांग्लादेश की स्वतंत्रता में सैन्यशक्ति ने युद्धकौशल में वह कार्य नहीं किया जो अदृश्य वातावरण के द्वारा नई राह पकड़ लेने के कारण संभव हुआ। जापान और जर्मनी को हर दृष्टि से दीन-दुर्बल बना दिए जाने के उपरांत भी वे कुछ ही समय में जिस प्रकार उभरे उसे बौद्धिक तारतम्य बिठाकर सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस पुनरुत्थान के पीछे अदृश्य शक्तियों का हाथ रहा है। भारत की स्वतंत्रता का इतिहासमात्र जेल यात्रियों के कारण ही इतनी आश्चर्यजनक सफलता के रूप में नहीं ढला; वरन उसके पीछे ऐसी अदृश्य शक्तियाँ, घटनाएँ एवं परिस्थितियाँ रही हैं, जिससे पर्वत जैसा कठिन कार्य सरल एवं हल्का हो गया। दासप्रथा, जमींदारी प्रथा आदि का जिस प्रकार उन्मूलन हुआ, उसमें आंदोलन कर्त्ताओं के प्रयासों को ही सब कुछ नहीं कहा जा सकता। बहते हुए विचार-प्रवाह और उठते हुए उभार ने भी इन प्रसंगों में अपना योगदान किया है। कोई चाहे तो इसे अदृश्य का निर्धारण कह सकता है। इससे भी गहराई में उतरा जाए तो उसे अदृश्य का अनुकूलन भी माना जा सकता है। इस प्रकार की उथल−पुथल करने में अध्यात्म का जीवट काम करता है। उसे यदि तंत्र-प्रक्रिया कहा जाए तो अनुचित न होगा। धर्मशिक्षा में कुछ मनुष्यों को किसी सीमा तक सज्जन बनाया जा सकता है, पर उन पर छाई हुई दृष्प्रवृत्तियाँ इतने भर से निरस्त हो जाएगी, यह नहीं कहा जा सकता। उसके लिए चेतन मन को नीतिनिष्ठ एवं सामाजिकता के आधार पर उस स्तर का नहीं बनाया जा सकता, जिसकी कि आवश्यकता एवं अपेक्षा है। इसके लिए मानवी अचेतन को ही नहीं अदृश्य वातावरण को भी झकझोरना पड़ेगा। उसके लिए विचारणा ही सब कुछ नहीं हो सकती। इस संदर्भ में ऐसी शक्ति का उद्भव होना चाहिए, जो लोक-मानस का आस्था, आकांक्षा, विचारणा, प्रवृत्ति एवं विधि व्यवस्था में जमीन-आसमान जैसा अंतर कर सके। इसके लिए तंत्र उपक्रम ही कारगर हो सकता है क्योंकि उसी में भक्ति और शक्ति का समन्वय है। अदृश्य जगत और व्यापक वातावरण की तरह ही प्रतिभाओं और व्यक्तित्वों का भी निजी क्षेत्र में महत्त्व है। उनकी गलाई और ढलाई के लिए जितनी प्रचंड ऊर्जा चाहिए, उतनी अध्यात्म का तंत्र पक्ष ही उत्पन्न कर सकता है। जनसंख्या नहीं, प्रतिभाएँ ही गतिविधियों, परिस्थितियों का आधारभूत कारण रही हैं। उनकी प्रकृति बदलने विशेषतया अवांछनीयता से उत्कृष्टता की दिशा में उन्मुख करने के लिए मात्र स्वाध्याय-सत्संग ही काम नहीं दे सकता। उन पर ऐसा दबाव भी पड़ना चाहिए, जिससे आकृति बदलती हुई दृष्टिगोचर हो सके। तंत्र की सीमा व्यक्तिगत लोभ से, द्वेष से आवृत होकर किसी को त्रास देना नहीं है। ऐसी रीति-नीति तो क्षुद्र स्तर के लोग ही अपनाते हैं। अपना दर्प दिखाने, बालबुद्धि लोगों को चमत्कृत करने से कुछ कौतुक इस आधार पर दिखाए जा सकते हैं। प्रतिशोध लिए जा सकते हैं और दंड दिए जा सकते हैं। सताया और भयभीत भी किया जा सकता है; पर इतने भर के लिए तंत्र जैसी महती शक्ति का उपार्जन-उपयोग करने की क्या आवश्यकता? यह कार्य तो बाहुबल, छद्म या आततायियों के सहयोग से भी हो सकते हैं। जो कार्य इतने सुगम तरीके से हो सकते हों, उनके लिए बाजीगरी एवं धूर्तों का कुचक्री प्रयास ही पर्याप्त हो सकता है। उसके लिए क्यों तो शक्ति उपार्जित की जाए और क्यों इतने उथले रूप में बर्बाद किया जाए? तंत्र अध्यात्म का भौतिक पक्ष है, योग उसका अंतरंग पक्ष। दोनों की तुलना एवं समता प्रायः एक जैसी है। योगी-तपस्वी होना जितना कठिन है, उससे कम नहीं अधिक ही कष्टसाध्य प्रयास तंत्र-साधना में करना पड़ता है। यह दूसरों को हानि पहुँचाने की तुलना में अधिक मूल्यवान और कष्टसाध्य है। ऐसी दशा में उसका उपयोग भी दूरदृष्टि से महान प्रयोजन के लिए ही होना चाहिए, तभी इस महाविद्या की सार्थकता एवं सफलता है। पिछले दिनों क्षुद्र प्रकृति के अनाचारी तांत्रिक इस विद्या का उपयोग दुर्बलों को त्रास देने, भटकाने, आतंक जमाने के लिए करते रहे हैं। बौद्धिक या शारीरिक दृष्टि से किसी को अपंग बना देते, त्रास देकर नीचा दिखाने और शरणागत होने के लिए विवश करने में ऐसी क्या विशिष्टता है, जिसके लिए स्वयं गर्व किया जा सके या दूसरों को अपना सहयोगी-समर्थक बनाकर प्रसन्न हुआ जा सके। जनरेटर बनाना, चलाना और उसे बड़े कामों के लिए प्रयुक्त करना प्रशंसनीय कार्य हो सकता है; पर उससे असंख्य गुना महत्त्वपूर्ण यह है कि अपने व्यक्तित्व, स्तर एवं मानस को इतना प्रचंड-प्रखर बना लिया जाए जो परिस्थितियों की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके। अपना तथा असंख्यों का भला कर सके। यह कार्य अध्यात्म विज्ञान के आधार पर ही हो सकता है। जहाँ तक लौकिक प्रयोजनों का संबंध है, वहाँ तक तंत्र की प्रमुखता है। इस उपेक्षित एवं विस्तृत विज्ञान की नए सिरे से खोज, साधना एवं विद्या का अवगाहन होना चाहिए। इसके लिए प्राणशक्ति की धनी प्रतिभाओं को आगे आना चाहिए।
सब कुछ पदार्थ-संपदा और अस्त्रों की बहुलता पर ही निर्भर नहीं है। किसने क्या रणनीति अपनाई और कितनी दूरदर्शिता दिखाई, इस तथ्य पर युद्ध का वास्तविक परिणाम निर्भर है। किसने-कितने अधिक प्राण हरण किए यदि इसी पर विजय निर्भर रही होती तो नाजी सारी दुनिया के अधिपति बनकर रहे होते। वास्तविकता यह है कि किसे अदृश्य की, परिस्थितियों की अनुकूलता मिली और किसने सही चाल चली और हारी बाजी जीती। इस स्तर का कौशल उपलब्ध करने के लिए अंतःप्रेरणा और वातावरण की अनुकूलता आवश्यक है। इस प्रयोजन की सिद्धि में तंत्र की महती भूमिका हो सकती है। युद्ध मानवी भविष्य का प्रश्न चिह्न तो है; पर उसका निर्णायक या निर्धारणकर्त्ता नहीं। इसके लिए भाव-संवेदना, धर्म-धारणा की लोक-मानस में प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म का योग पक्ष— तत्त्वज्ञान अपनी भूमिका निभा सकता है; किंतु वातावरण को उलटकर सीधा करने की क्षमता के लिए तंत्र का आश्रय लेना पड़ेगा। बांग्लादेश की स्वतंत्रता में सैन्यशक्ति ने युद्धकौशल में वह कार्य नहीं किया जो अदृश्य वातावरण के द्वारा नई राह पकड़ लेने के कारण संभव हुआ। जापान और जर्मनी को हर दृष्टि से दीन-दुर्बल बना दिए जाने के उपरांत भी वे कुछ ही समय में जिस प्रकार उभरे उसे बौद्धिक तारतम्य बिठाकर सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस पुनरुत्थान के पीछे अदृश्य शक्तियों का हाथ रहा है। भारत की स्वतंत्रता का इतिहासमात्र जेल यात्रियों के कारण ही इतनी आश्चर्यजनक सफलता के रूप में नहीं ढला; वरन उसके पीछे ऐसी अदृश्य शक्तियाँ, घटनाएँ एवं परिस्थितियाँ रही हैं, जिससे पर्वत जैसा कठिन कार्य सरल एवं हल्का हो गया। दासप्रथा, जमींदारी प्रथा आदि का जिस प्रकार उन्मूलन हुआ, उसमें आंदोलन कर्त्ताओं के प्रयासों को ही सब कुछ नहीं कहा जा सकता। बहते हुए विचार-प्रवाह और उठते हुए उभार ने भी इन प्रसंगों में अपना योगदान किया है। कोई चाहे तो इसे अदृश्य का निर्धारण कह सकता है। इससे भी गहराई में उतरा जाए तो उसे अदृश्य का अनुकूलन भी माना जा सकता है। इस प्रकार की उथल−पुथल करने में अध्यात्म का जीवट काम करता है। उसे यदि तंत्र-प्रक्रिया कहा जाए तो अनुचित न होगा। धर्मशिक्षा में कुछ मनुष्यों को किसी सीमा तक सज्जन बनाया जा सकता है, पर उन पर छाई हुई दृष्प्रवृत्तियाँ इतने भर से निरस्त हो जाएगी, यह नहीं कहा जा सकता। उसके लिए चेतन मन को नीतिनिष्ठ एवं सामाजिकता के आधार पर उस स्तर का नहीं बनाया जा सकता, जिसकी कि आवश्यकता एवं अपेक्षा है। इसके लिए मानवी अचेतन को ही नहीं अदृश्य वातावरण को भी झकझोरना पड़ेगा। उसके लिए विचारणा ही सब कुछ नहीं हो सकती। इस संदर्भ में ऐसी शक्ति का उद्भव होना चाहिए, जो लोक-मानस का आस्था, आकांक्षा, विचारणा, प्रवृत्ति एवं विधि व्यवस्था में जमीन-आसमान जैसा अंतर कर सके। इसके लिए तंत्र उपक्रम ही कारगर हो सकता है क्योंकि उसी में भक्ति और शक्ति का समन्वय है। अदृश्य जगत और व्यापक वातावरण की तरह ही प्रतिभाओं और व्यक्तित्वों का भी निजी क्षेत्र में महत्त्व है। उनकी गलाई और ढलाई के लिए जितनी प्रचंड ऊर्जा चाहिए, उतनी अध्यात्म का तंत्र पक्ष ही उत्पन्न कर सकता है। जनसंख्या नहीं, प्रतिभाएँ ही गतिविधियों, परिस्थितियों का आधारभूत कारण रही हैं। उनकी प्रकृति बदलने विशेषतया अवांछनीयता से उत्कृष्टता की दिशा में उन्मुख करने के लिए मात्र स्वाध्याय-सत्संग ही काम नहीं दे सकता। उन पर ऐसा दबाव भी पड़ना चाहिए, जिससे आकृति बदलती हुई दृष्टिगोचर हो सके। तंत्र की सीमा व्यक्तिगत लोभ से, द्वेष से आवृत होकर किसी को त्रास देना नहीं है। ऐसी रीति-नीति तो क्षुद्र स्तर के लोग ही अपनाते हैं। अपना दर्प दिखाने, बालबुद्धि लोगों को चमत्कृत करने से कुछ कौतुक इस आधार पर दिखाए जा सकते हैं। प्रतिशोध लिए जा सकते हैं और दंड दिए जा सकते हैं। सताया और भयभीत भी किया जा सकता है; पर इतने भर के लिए तंत्र जैसी महती शक्ति का उपार्जन-उपयोग करने की क्या आवश्यकता? यह कार्य तो बाहुबल, छद्म या आततायियों के सहयोग से भी हो सकते हैं। जो कार्य इतने सुगम तरीके से हो सकते हों, उनके लिए बाजीगरी एवं धूर्तों का कुचक्री प्रयास ही पर्याप्त हो सकता है। उसके लिए क्यों तो शक्ति उपार्जित की जाए और क्यों इतने उथले रूप में बर्बाद किया जाए? तंत्र अध्यात्म का भौतिक पक्ष है, योग उसका अंतरंग पक्ष। दोनों की तुलना एवं समता प्रायः एक जैसी है। योगी-तपस्वी होना जितना कठिन है, उससे कम नहीं अधिक ही कष्टसाध्य प्रयास तंत्र-साधना में करना पड़ता है। यह दूसरों को हानि पहुँचाने की तुलना में अधिक मूल्यवान और कष्टसाध्य है। ऐसी दशा में उसका उपयोग भी दूरदृष्टि से महान प्रयोजन के लिए ही होना चाहिए, तभी इस महाविद्या की सार्थकता एवं सफलता है। पिछले दिनों क्षुद्र प्रकृति के अनाचारी तांत्रिक इस विद्या का उपयोग दुर्बलों को त्रास देने, भटकाने, आतंक जमाने के लिए करते रहे हैं। बौद्धिक या शारीरिक दृष्टि से किसी को अपंग बना देते, त्रास देकर नीचा दिखाने और शरणागत होने के लिए विवश करने में ऐसी क्या विशिष्टता है, जिसके लिए स्वयं गर्व किया जा सके या दूसरों को अपना सहयोगी-समर्थक बनाकर प्रसन्न हुआ जा सके। जनरेटर बनाना, चलाना और उसे बड़े कामों के लिए प्रयुक्त करना प्रशंसनीय कार्य हो सकता है; पर उससे असंख्य गुना महत्त्वपूर्ण यह है कि अपने व्यक्तित्व, स्तर एवं मानस को इतना प्रचंड-प्रखर बना लिया जाए जो परिस्थितियों की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके। अपना तथा असंख्यों का भला कर सके। यह कार्य अध्यात्म विज्ञान के आधार पर ही हो सकता है। जहाँ तक लौकिक प्रयोजनों का संबंध है, वहाँ तक तंत्र की प्रमुखता है। इस उपेक्षित एवं विस्तृत विज्ञान की नए सिरे से खोज, साधना एवं विद्या का अवगाहन होना चाहिए। इसके लिए प्राणशक्ति की धनी प्रतिभाओं को आगे आना चाहिए।