Magazine - Year 1986 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अपनों से अपनी बात
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
हम अपना काम करेंगे, आए अपने काम में लगें
छोटे बालक पूरी तरह अभिभावकों पर निर्भर रहते हैं। अपने शरीर की साज-संभाल तक स्वयं नहीं रख पाते। अन्न, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा विनोद आदि के साधनों तक के लिए उन्हें बड़ों पर आश्रित रहना पड़ता है। इस सुविधा-सामग्री को जुटाते हुए बड़ों को प्रसन्नता भी होती है। गुरु-शिष्य परंपरा में भी यही बात है। पिता पैसा कमाता है। तपस्वी तप। तप का मूल्य पैसे से कम नहीं, वरन अधिक ही है। जो वस्तुएँ तप से उपलब्ध होती हैं, वे धन से उपलब्ध नहीं हो सकतीं, इसीलिए सांसारिक-संपदाओं की तुलना में आध्यात्मिक विभूतियों को अधिक श्रेष्ठ माना गया है, बहूमूल्य भी।
ओछेपन की पूर्ति बड़ों के बड़प्पन की सहायता से ही होती है। इसी अनुग्रह को वरदान, अनुदान कहते हैं। छोटों को सुविधासंपन्न बनाने से लेकर प्रगति-पथ पर अग्रसर करने तक में यह स्नेह-भावना, अनुकंपा काम करती है; किंतु स्थिति बदल जाने पर उस क्रम में भी परिवर्तन होता है। बालक के बड़े होते ही, समर्थ-स्वावलंबी बनते ही पिता अपनी व्यावसायिक जिम्मेदारियाँ तक उसे सौंप देता है। बचपन की तरह उसे गोदी में उठाने, नहलाने, कपड़े-धोने, खिलाने-पिलाने की आवश्यकता नहीं होती। अपनी निजी आवश्यकताएँ वह स्वयं ही पूरी कर लेता है। उसे वे वस्तुएँ अभिभावकों से नहीं मँगानी पड़तीं, बचपन में जिसके लिए हठ करना पड़ता था।
समर्थता पर दायित्व भी अधिक है। तरुण को पिता का व्यवसाय ही नहीं चलाना पड़ता; वरन अपनी तथा अन्य सदस्यों की जिम्मेदारियाँ भी संभालनी पड़ती हैं, जिन्हें पहले पिता संभाला करता था। छोटे बहिन-भाइयों की शिक्षा, सगाई तथा उन्हें सुयोग्य-स्वावलंबी बनाने के लिए उसे कहना नहीं पड़ता; वरन निज की स्फुरणा ही इस सारी साज-संभाला के लिए उसे बाधित करती है। इसमें आलस-उपेक्षा बरतने पर अपमान होता है और अंतरात्मा कचोटती है।
प्रज्ञा परिवार के शरीर से बड़े किन्तु मन से छोटे प्रियजनों की साज-संभाल का उत्तरदायित्व हमने उठाया है। धन की न सही, उससे कहीं अधिक मूल्य की तप-साधना की संपदा का अहिर्निश उपार्जन चलता रहता है और उसे खुले हाथों से खर्च किया जाता रहा है, जिसका लाभ उठाने से किसी को रोका नहीं गया है। प्याऊ या सदावर्त से भूखे-प्यासे एवं अस्पताल से किसी घायल को लौटाया नहीं जाता, अपने पराए का भेद नहीं जाता, किंतु साथ ही यह भी सही है कि अपनों का सुनिश्चित दायित्व पूरा करने में कभी आनाकानी नहीं की जाती। न बच्चों को भूखा-नंगा रहने दिया जाता है, न वयस्कों को कुँआरा, न वृद्धों को उपेक्षित। निजी परिवार की जिम्मेदारियाँ ऐसी हैं, जिन्हें अनिवार्य माना जाता है। बच्चों को भूखा रखकर भिखारियों को दान वितरण कोई असामान्य ही भले करते हों, पर नीति और दायित्व की मर्यादा पहले अपनों की, फिर बिरानों की देखभाल की व्यावहारिकता सुझाती है। हमने इसी नीति का अवलंबन किया है। जिस गाय से दूध, जिस भेड़ से ऊन पाने की आशा रही है, उसके चारे-दाने का प्रथम प्रबंध किया है। कबूतरों को दाना चुगाने का पुण्यलाभ इसके पश्चात् ही सोचने की परिधि में आता है।
गायत्री परिवार के परिजनों की ऐसी ही देखभाल रखी जाती रही है। प्रत्यक्ष दृश्यमान भी और परोक्ष अदृश्य भी। हमने अपने हर बोए पौधे को सींचा और हरा-भरा बनाया है। भले ही बाद में उसी ने हमें कांटे चुभाने की जुर्रत की हो, पर हमने अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखी है कि किसी को यह कहने का मौका मिले कि किसान की उपेक्षा रही है।
परोक्ष रूप से हमने अपने 24 लाख परिजनों को भले ही वे सभी समीप नहीं रहते, कभी उपेक्षित, विस्मृत नहीं किया है। दूरवर्ती व्यवस्था में ही आत्मीयता पलती है। सुदूर परदेशों में नौकरी करने वाले भी परिवार के गुजारे का मनीआर्डर नियमित रूप से भेजते रहते हैं। कछुवी बालू में अंडे देती व उन्हें निरंतर ध्यान-संचार के बल पर सेती और पकाती है। सभी जानते हैं कि कछुवी मर जाए तो अंडे भी सड़ जाते हैं। हम जीवंत हैं और हमारे अंडे भी। हमारी प्रक्रिया मुर्गी की तरह छाती से लगाकर सोने की नहीं, कछुवी की तरह दूरवर्ती प्राणस्तर की है। दोनों में किसी प्रकार का अंतर नहीं।
व्यक्ति की समस्याएँ और कठिनाइयाँ भौतिक ही नहीं, आत्मिक, आंतरिक-परोक्ष भी होती हैं। प्रत्यक्ष सहायता तब अनुभव होती है, जब उसे प्रत्यक्ष आँखों से मिलते वस्तुरूप में देखा जाए, किंतु परोक्ष सहायता ऐसी होती है, जिसमें प्रत्यक्ष से भी अधिक परोक्ष अनुदान काम करता है। देवताओं के अनुग्रह, तपस्वियों के आशीर्वाद इसी स्तर के होते हैं। उनसे वस्तु नहीं, शक्ति-प्रेरणा दिशा मिलती है, मनःस्थिति बनती और परिस्थिति सुधरती है। माहौल बनता और वातावरण सुधरता है। इस दृष्टि से प्रज्ञा परिजनों में से शत-प्रतिशत नहीं तो, अधिकांश लाभांवित होते रहे हैं। गंगातट पर बैठकर हर किसी ने शीतलता और पवित्रता का लाभ ही लिया है। प्यास बुझाई और मलिनता धोई सो अलग। विश्वास किया जाना चाहिए कि परिजन इस दृष्टि से आगे भी किसी प्रकार की कमी अनुभव नहीं करेंगे।
स्थूलशरीर जीर्ण हो जाए तो इससे कुछ बनता, बिगड़ता नहीं। सामर्थ्य का स्रोत तो सूक्ष्मशरीर है। वह काय-कलेवर का झंझट हलका हो जाने पर चौगुनी-सौगुनी शक्ति से काम करने लगेगा। युग संधि की अवधि में तो हमें अन्य लोक या शरीर में जाना नहीं है। वर्तमान कार्य पूरा न होने तक सूक्ष्मशरीर को और भी अधिक प्रचंड और प्रभावी बनाकर वे सभी काम करते रहेंगे जो करने हैं, जिन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी सिर पर है, इसलिए हमारी प्रस्तुत एकांत साधना जैसी स्थिति सन् 2000 तक मानी जा सकती है। पिछले ढाई वर्षों से हम जो कर रहे हैं, वह परोक्ष ही है और इतना अधिक है कि उसे प्रत्यक्ष की तुलना में असंख्य गुना कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति न होगी। इन गतिविधियों का एक छोटा-सा प्रसंग प्रज्ञा परिजनों की देखभाल, साज-संभाल करने के लिए है, जिसमें रत्ती भर भी कमी नहीं आने वाली है।
अब बात आगे बढ़ती है। हमारी जिम्मेदारी का क्षेत्र विस्तृत होता है और साथ ही परिजनों के कर्त्तृत्व का स्वरूप भी। स्पष्ट है कि दृश्य जगत और अदृश्य जगत की गतिविधियों में विनाशकारी तत्त्व निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। दुरभिसंधियाँ और विभीषिकाएँ प्रचंड वेग से बढ़ती जा रही हैं। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिस पर संकटों के घटाटोप गहरा न रहे हों। इस उबलते लावे में हमें ऐसी मेघमाला बनकर बरसना है जिसमें ज्वलनशीलता को शीतलता में परिणति होते देखा जा सके। लक्ष्य महान है, पर सरल नहीं है। उसके लिए दधीचि और भगीरथ की भूमिका निभानी होगी। अर्जुन और हनुमान जैसा पराक्रम संजोना पड़ेगा। हमारा कार्यक्षेत्र यही बन चुका है। इसमें शिथिलता नहीं कठोरता ही बढ़ेगी। प्रत्यंचा ढीली नहीं पड़ेगी; वरन और भी अधिक खिंचेगी ताकि शब्दबेधी बाण अपने सही निशाने पर पहुँच सके।
अब प्रज्ञा परिवार का, प्रज्ञा परिजनों का स्वरूप पुराने स्तर से उछलकर एक बहुत लंबी छलांग लगा रहा है। इसका आधार और स्वरूप समझाने की आवश्यकता समझी गई है, इसलिए एक-एक मास के प्रज्ञा सत्रों में सम्मिलित होने के लिए कुछ अनगढ़ों को छोड़कर प्रायः सभी स्वजनों को बुलाया गया है, ताकि वे अपने भावी जीवन के भावी कार्यक्रम के संबंध में नए सिरे से अनुभव कर सकें। समय की विशिष्टता और अपने व्यक्तित्व की वरिष्ठता का आभास प्राप्त कर सकें।