Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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पितृ ऋण और श्राद्ध तर्पण
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सद्गुणों में कृतज्ञता की गणना मूर्धन्य मानी गई है, क्योंकि हर उपयोगी वस्तु से हम लाभ उठाते हैं और उसके अनुदान को स्मरण रखते हैं। इसके उपरांत प्रतिदान देने की इच्छा स्वयं ही होती है और हमें उस व्यक्ति, वस्तु या वर्ग को बदले में सेवा-सहायता करने की इच्छा होती है।
अपनी ओर से सेवा करने में अहंकार होने की भी संभावना रहती है; पर यदि बदला चुकाने के लिए- ऋणमुक्त होने के भाव से उसी कृत्य को किया जाए तो नम्रता और निरहंकारिता का भाव तो रहता ही है साथ ही किए हुए उपकारों का स्मरण करते रहने से यह ध्यान रहता है कि कितनों के कितने सहयोग से हम इस स्थिति में पहुँच सके एवं बचे हुए हैं। ऐसी दशा में ऋणमुक्ति की भावना से किया गया सेवा कार्य अथवा स्मरण रखा गया कृतज्ञता का भाव कहीं अधिक उच्चकोटि का होता है।
परमार्थकृत्यों से उसके साथ जुड़ी हुई भावना का बहुत महत्त्व है। दान तिरस्कारपूर्वक, विवशता की स्थिति, में अहंकारपूर्वक, विज्ञापन के निमित्त, प्रतिफल के लिए, छल के लिए अनेक भावों का समन्वय हो सकता है। आत्मलाभ या पुण्यफल उसी भाव से होता है, जिस भाव से कि कृत्य को किया गया है। देखने में तो चिड़ीमार, मछलीमार भी सर्वप्रथम दानी की भूमिका निभाते हैं, पर उनका उद्देश्य दूसरा ही होता है। अतएव विश्लेषण करने वाले उद्देश्य को ही महत्व देते हैं। साथ ही आत्मा और परमात्मा के दरबार में भी उनकी गणना भाव स्तर के अनुकूल ही होती है, इसीलिए परमार्थकृत्य करते समय अपनी कामना का उल्लेख नहीं किया जाता; वरन ईश्वर-समर्पण की भावना से ही किया जाता है। इस भाव की अभिव्यक्ति एक दोहे से होती है—
मेरा मुझको कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर॥ कृतज्ञता की स्मृति में प्रत्यक्ष पितृ ऋण है, क्योंकि शरीर को उन्हीं ने पाला, पोसा बड़ा किया और योग्य बनाया एवं आश्रय दिया है। उन्हीं की प्रत्यक्ष सेवा से हम इस योग्य बन सके हैं, जिसमें आज हैं। इसलिए पितृ ऋण को प्रमुखता देते हुए उनके स्मरण रखने के लिए नित्य प्रातःकाल चरणवंदन का नियम है। अभिवादन न्यूनतम तर्पण है। इसमें माता-पिता ही नहीं उनकी समान आयु या स्तर के सभी लोग समझे जा सकते हैं। बड़े भाई को भी पितृतुल्य माना गया है। यह सभी प्रकारांतर से गुरुजन हैं। इनका जीवित अवस्था में नित्य प्रति नमन-वंदन का नियम है। जो पितृगण दिवंगत हो चुके हैं, उनके लिए तर्पण-श्राद्ध का विधान है। श्रद्धांजलि पूजा उपचार का सरलतम प्रयोग है। अन्य उपचारों में वस्तुओं की जरूरत पड़ती है, वे कभी उपलब्ध होती हैं कभी नहीं; किंतु जल ऐसी वस्तु है, जिसे हम दैनिक जीवन में अनिवार्यतः प्रयोग करते हैं। वह सर्वत्र सुविधापूर्वक मिल भी जाता है, इसलिए पुष्पांजलि आदि श्रमसाध्य श्रद्धांजलियों में जलांजलि को सर्वसुलभ माना गया है। उसके प्रयोग में आलस्य और अश्रद्धा के अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं हो सकता, इसलिए सूर्यनारायण को अर्घ्य, तुलसी वृक्ष में जलदान, अतिथियों को अर्घ्य तथा पितरगणों को तर्पण का विधान है। प्रश्न यह नहीं कि इस पानी की उन्हें आवश्यकता है या नहीं। प्रश्न केवल अपनी अभिव्यक्ति भर का है। उसे निर्धारित मंत्र बोलते हुए, गायत्री महामंत्र से अथवा बिना मंत्र के भी जलांजलि दी जा सकती है। यही है उनके प्रति पूजा-अर्चा का सुगमतम विधान। शास्त्रीय भाषा में इसे ‘तर्पण’ कहा जाता है। इसमें यह तर्क करने की गुंजाइश नहीं है कि यह पानी उन पूर्वजों तक या सूर्य तक पहुँचा या नहीं। इसके पीछे अपनी कृतज्ञता भरी भावनाओं को सींचते रहने की अभिव्यक्ति की ही प्रमुखता है, इसलिए उसे किसी पर अहसान करने के लिए नहीं, वरन अपनी निज की श्रद्धा को सींचते रहने के लिए किया जाता रहना चाहिए। पितृ ऋण को चुकाने के लिए दूसरा कृत्य आता है— ‘श्राद्ध’। श्राद्ध का प्रचलित रूप तो ‘ब्राह्मण भोजन’ मात्र रह गया है, पर बात ऐसी है नहीं। अपने साधनों का एक अंश पितृ-प्रयोजनों के निमित्त ऐसे कार्यों में लगाया जाना चाहिए, जिससे लोक-कल्याण का प्रयोजन भी सधता हो। ऐसे श्राद्धकृत्यों में समय की आवश्यकता को देखते हुए वृक्षारोपण ऐसा कार्य हो सकता है जिसे ब्रह्मभोज से भी कहीं अधिक महत्त्व का माना जा सके। किसी व्यक्ति को भोजन करा देने से उसकी एक समय की भूख बुझती है, दूसरा समय आते ही फिर वह आवश्यकता जाग पड़ती है। उसे कोई दूसरा व्यक्ति कहाँ तक, कब तक पूरा करता रहे। फिर यदि कोई व्यक्ति अपंग, मुसीबत ग्रस्त या लोकसेवी नहीं है तो उसे मुफ्त में भोजन कराते रहने के पीछे किसी उच्च उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। मात्र लकीर पिटने जैसी चिह्न पूजा की परंपरा ही निभती है। इससे अच्छा यह है कि श्राद्ध रूप में ऐसे वृक्ष लगाए जाए जो किसी न किसी रूप में प्राणियों की आवश्यकता पूरी करते हों। अपने पास कृषि योग्य भूमि से थोड़ी भी जमीन बचती हो, कम उपयोगी हो तो उसमें आम, पीपल, महुआ आदि के वृक्ष लगा देने चाहिए। बेर, अमरूद तो और भी कम जगह में लग सकते हैं। यदि अपने पास जमीन न हो तो किसी की भी या सरकार की जमीन में भी वृक्षारोपण इस शर्त पर हो सकता है कि उसका स्वामित्व जमीन मालिक का ही रहे। केवल सींचने, रखवाली करने आदि की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेकर दूसरों की जमीन में वृक्ष लगा देने में भी पुण्यफल की प्राप्ति हो सकती है। वृक्ष वायुशोधन करते हैं, छाया देते हैं, फल-फूल भी मिलते हैं। हरे पत्ते पशुओं का भोजन बन सकते हैं। सूखे पत्तों से जमीन को खाद मिलती है। लकड़ी के अनेकों उपयोग हैं। वृक्षों से बादल बरसते हैं। भूमि का कटाव रुकता है। पक्षी घोंसले बनाते हैं, उनकी छाया में मनुष्यों-पशुओं को विश्राम मिलता है। इस प्रकार वृक्षारोपण भी एक उपयोगी प्राणी के पोषण के समान है। वृक्षों की भांति ही जलाशयों के निर्माण का भी उपयोग है। तालाबों में हर साल वर्षा के पानी के साथ मिट्टी भर जाती है और उनकी सतह ऊँची हो जाने से कम पानी समाता है, जो जल्दी ही सूख जाता है। इन्हें यदि हर साल श्रमदान से गहरे करते रहा जाए तो पशुओं को पानी, सिंघाड़ा, कमल जैसी बेलें तथा तल में जमने वाली चिकनी मिट्टी से मकानों की मरम्मत हो सकती है। मंदिर, धर्मशाला तो कोई विरले ही धनी मानी बना पाते हैं; किंतु उद्यान और जलाशय बनाने, साफ करने का काम ऐसा है जिसे अपने मित्र पड़ोसियों के साथ मिल-जुलकर पूरा किया जा सकता है और साथ ही उनसे किसी न किसी रूप में लाभ भी उठाया जा सकता है। इस प्रकार के उपयोगी काम वे भी कर सकते हैं जो धन खर्च करने की स्थिति में तो नहीं है, पर जो शरीर से स्वस्थ हैं और श्रमदान के रूप में पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव चरितार्थ करते रहने की स्थिति में तो हैं ही।
गाँवों के कच्चे रास्तों की टूट-फूट होती रहती है। ऊँचे-नीचे खाई-खड्डे बनते रहते हैं। पड़ौसी किसान उस रास्ते की जमीन को तोड़कर अपने खेत में मिलाते रहते हैं। इस प्रकार रास्ते छोटे और ऐसे बेतुके हो जाते हैं कि उनमें से निकलने वाले मनुष्यों या जानवरों को चोट लगती मोच आती रहे। बैलगाड़ियाँ टूटती, उलटती रहें। इस कठिनाई को दूर करने के लिए पूर्वजों के श्राद्ध रूप में रास्तों की मरम्मत का काम भी श्रमदान के रूप में किया जा सकता है। इस प्रकार की समाजसेवा के कार्यों से जीवित या दिवंगत पितृगण निश्चय ही प्रसन्न होंगे। अपने कृतज्ञता भाव को जीवित रखने का पुण्य-परमार्थ तो प्रत्यक्ष ही मिलता रहेगा।
मेरा मुझको कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर॥ कृतज्ञता की स्मृति में प्रत्यक्ष पितृ ऋण है, क्योंकि शरीर को उन्हीं ने पाला, पोसा बड़ा किया और योग्य बनाया एवं आश्रय दिया है। उन्हीं की प्रत्यक्ष सेवा से हम इस योग्य बन सके हैं, जिसमें आज हैं। इसलिए पितृ ऋण को प्रमुखता देते हुए उनके स्मरण रखने के लिए नित्य प्रातःकाल चरणवंदन का नियम है। अभिवादन न्यूनतम तर्पण है। इसमें माता-पिता ही नहीं उनकी समान आयु या स्तर के सभी लोग समझे जा सकते हैं। बड़े भाई को भी पितृतुल्य माना गया है। यह सभी प्रकारांतर से गुरुजन हैं। इनका जीवित अवस्था में नित्य प्रति नमन-वंदन का नियम है। जो पितृगण दिवंगत हो चुके हैं, उनके लिए तर्पण-श्राद्ध का विधान है। श्रद्धांजलि पूजा उपचार का सरलतम प्रयोग है। अन्य उपचारों में वस्तुओं की जरूरत पड़ती है, वे कभी उपलब्ध होती हैं कभी नहीं; किंतु जल ऐसी वस्तु है, जिसे हम दैनिक जीवन में अनिवार्यतः प्रयोग करते हैं। वह सर्वत्र सुविधापूर्वक मिल भी जाता है, इसलिए पुष्पांजलि आदि श्रमसाध्य श्रद्धांजलियों में जलांजलि को सर्वसुलभ माना गया है। उसके प्रयोग में आलस्य और अश्रद्धा के अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं हो सकता, इसलिए सूर्यनारायण को अर्घ्य, तुलसी वृक्ष में जलदान, अतिथियों को अर्घ्य तथा पितरगणों को तर्पण का विधान है। प्रश्न यह नहीं कि इस पानी की उन्हें आवश्यकता है या नहीं। प्रश्न केवल अपनी अभिव्यक्ति भर का है। उसे निर्धारित मंत्र बोलते हुए, गायत्री महामंत्र से अथवा बिना मंत्र के भी जलांजलि दी जा सकती है। यही है उनके प्रति पूजा-अर्चा का सुगमतम विधान। शास्त्रीय भाषा में इसे ‘तर्पण’ कहा जाता है। इसमें यह तर्क करने की गुंजाइश नहीं है कि यह पानी उन पूर्वजों तक या सूर्य तक पहुँचा या नहीं। इसके पीछे अपनी कृतज्ञता भरी भावनाओं को सींचते रहने की अभिव्यक्ति की ही प्रमुखता है, इसलिए उसे किसी पर अहसान करने के लिए नहीं, वरन अपनी निज की श्रद्धा को सींचते रहने के लिए किया जाता रहना चाहिए। पितृ ऋण को चुकाने के लिए दूसरा कृत्य आता है— ‘श्राद्ध’। श्राद्ध का प्रचलित रूप तो ‘ब्राह्मण भोजन’ मात्र रह गया है, पर बात ऐसी है नहीं। अपने साधनों का एक अंश पितृ-प्रयोजनों के निमित्त ऐसे कार्यों में लगाया जाना चाहिए, जिससे लोक-कल्याण का प्रयोजन भी सधता हो। ऐसे श्राद्धकृत्यों में समय की आवश्यकता को देखते हुए वृक्षारोपण ऐसा कार्य हो सकता है जिसे ब्रह्मभोज से भी कहीं अधिक महत्त्व का माना जा सके। किसी व्यक्ति को भोजन करा देने से उसकी एक समय की भूख बुझती है, दूसरा समय आते ही फिर वह आवश्यकता जाग पड़ती है। उसे कोई दूसरा व्यक्ति कहाँ तक, कब तक पूरा करता रहे। फिर यदि कोई व्यक्ति अपंग, मुसीबत ग्रस्त या लोकसेवी नहीं है तो उसे मुफ्त में भोजन कराते रहने के पीछे किसी उच्च उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। मात्र लकीर पिटने जैसी चिह्न पूजा की परंपरा ही निभती है। इससे अच्छा यह है कि श्राद्ध रूप में ऐसे वृक्ष लगाए जाए जो किसी न किसी रूप में प्राणियों की आवश्यकता पूरी करते हों। अपने पास कृषि योग्य भूमि से थोड़ी भी जमीन बचती हो, कम उपयोगी हो तो उसमें आम, पीपल, महुआ आदि के वृक्ष लगा देने चाहिए। बेर, अमरूद तो और भी कम जगह में लग सकते हैं। यदि अपने पास जमीन न हो तो किसी की भी या सरकार की जमीन में भी वृक्षारोपण इस शर्त पर हो सकता है कि उसका स्वामित्व जमीन मालिक का ही रहे। केवल सींचने, रखवाली करने आदि की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेकर दूसरों की जमीन में वृक्ष लगा देने में भी पुण्यफल की प्राप्ति हो सकती है। वृक्ष वायुशोधन करते हैं, छाया देते हैं, फल-फूल भी मिलते हैं। हरे पत्ते पशुओं का भोजन बन सकते हैं। सूखे पत्तों से जमीन को खाद मिलती है। लकड़ी के अनेकों उपयोग हैं। वृक्षों से बादल बरसते हैं। भूमि का कटाव रुकता है। पक्षी घोंसले बनाते हैं, उनकी छाया में मनुष्यों-पशुओं को विश्राम मिलता है। इस प्रकार वृक्षारोपण भी एक उपयोगी प्राणी के पोषण के समान है। वृक्षों की भांति ही जलाशयों के निर्माण का भी उपयोग है। तालाबों में हर साल वर्षा के पानी के साथ मिट्टी भर जाती है और उनकी सतह ऊँची हो जाने से कम पानी समाता है, जो जल्दी ही सूख जाता है। इन्हें यदि हर साल श्रमदान से गहरे करते रहा जाए तो पशुओं को पानी, सिंघाड़ा, कमल जैसी बेलें तथा तल में जमने वाली चिकनी मिट्टी से मकानों की मरम्मत हो सकती है। मंदिर, धर्मशाला तो कोई विरले ही धनी मानी बना पाते हैं; किंतु उद्यान और जलाशय बनाने, साफ करने का काम ऐसा है जिसे अपने मित्र पड़ोसियों के साथ मिल-जुलकर पूरा किया जा सकता है और साथ ही उनसे किसी न किसी रूप में लाभ भी उठाया जा सकता है। इस प्रकार के उपयोगी काम वे भी कर सकते हैं जो धन खर्च करने की स्थिति में तो नहीं है, पर जो शरीर से स्वस्थ हैं और श्रमदान के रूप में पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव चरितार्थ करते रहने की स्थिति में तो हैं ही।
गाँवों के कच्चे रास्तों की टूट-फूट होती रहती है। ऊँचे-नीचे खाई-खड्डे बनते रहते हैं। पड़ौसी किसान उस रास्ते की जमीन को तोड़कर अपने खेत में मिलाते रहते हैं। इस प्रकार रास्ते छोटे और ऐसे बेतुके हो जाते हैं कि उनमें से निकलने वाले मनुष्यों या जानवरों को चोट लगती मोच आती रहे। बैलगाड़ियाँ टूटती, उलटती रहें। इस कठिनाई को दूर करने के लिए पूर्वजों के श्राद्ध रूप में रास्तों की मरम्मत का काम भी श्रमदान के रूप में किया जा सकता है। इस प्रकार की समाजसेवा के कार्यों से जीवित या दिवंगत पितृगण निश्चय ही प्रसन्न होंगे। अपने कृतज्ञता भाव को जीवित रखने का पुण्य-परमार्थ तो प्रत्यक्ष ही मिलता रहेगा।