Magazine - Year 1990 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रकृति पर बलात्कार को उतारू विज्ञान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रकृति की प्रत्यक्ष पदार्थ-संपदा और अदृश्य शक्तियों की अधिकाधिक उपलब्धि से ही मनुष्य इतना साधनासंपन्न और समर्थ बन सका है कि उसे सर्वसमर्थ कहा जाने लगा है। विश्वास किया जाना चाहिए कि यह प्रगतिक्रम दिन-दिन आगे ही चलेगा। जो लाभदायक पक्ष हाथ लगा है, उसे छोड़ते नहीं बनता। धरती से खाद्य उत्पादन और पशुपालन के लाभ जब तक विदित न रहे होंगे, तब तक आदिमकाल के मनुष्य का काम किसी अन्य प्रकारों के सहारे भी चल जाता होगा, पर अब जबकि वे विधाएँ उपलब्ध हो गई हैं, यह संभव नहीं रहा कि उनका परित्याग कर दिया जाए । आग से लेकर बिजली तक का प्रयोग जब से व्यवहार में आने लगा है, तब से यह निश्चित हो गया है कि भविष्य में कभी भी इनसे विमुख नहीं हुआ जा सकेगा। इसी आधार पर यह भी मानकर चलना चाहिए कि प्रकृति के रहस्यों का अन्वेषण और दोहन भविष्य में और भी द्रुतगति से चलेगा।
न संपदा को पर्याप्त माना जा सकता है, और न सुविधा-संवर्द्धन की ललक घट सकती है। यह क्रम पीछे नहीं हटेगा; वरन आगे ही बढ़ेगा। भावी पीढ़ियाँ अब की अपेक्षा और भी अधिक साधनसंपन्न होंगी। ऐसी दशा में यह खतरा और भी अधिक बढ़ेगा कि यदि कहीं उनका दुरुपयोग होने लगा तो उपलब्धियाँ अनर्थ का कारण बनेंगी। जब तक लाठी हाथ में है, तब तक उसके दुरुपयोग का बचाव भी हो सकता है, पर अब मशीनगन चलने लगे और बम बरसने लगे, तो फिर सुरक्षा का प्रश्न कठिन हो जाता है। असाधारण उपलब्धियाँ यदि कभी नियंत्रण से बाहर होने लगें और मनुष्य की उद्दंडता पर अनुशासन न लगे तो परिणति कितनी भयंकर होती है, इसका परिचय भूतकाल में भी मनुष्य जाति अनेक बार प्राप्त कर चुकी है। वृत्तासुर, हिरण्यकश्यप, महिषासुर, भस्मासुर, रावण, कंस, दुर्योधन से, लेकर मध्यकालीन आक्रांताओं के दिल दहलाने वाले कृत्य अभी भी सामने हैं। जिनने कत्लेआम की शृंखला चलाई थी और निरीहों को गाजर-मूली की तरह काटकर रख दिया था। यह सामर्थ्य ही है, जो अनियंत्रित होने पर प्रेत-पिशाच का रूप धर लेती है और उपलब्धियों के अहंकार में कुछ भी कर बैठती है। यह अनर्थ अगले दिनों और भी अधिक तेजी से दुहराया जा सकता है। मदांध जो भी कर बैठे, वह कम है। अणुबम बने ही नहीं हैं, प्रयुक्त भी हुए हैं और सारे संसार पर आतंक की छाप छोड़ गए हैं। ऐसा ही दुरुपयोग भविष्य का शक्तिसंपन्न मनुष्य न करेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। ऐसी दशा में उपलब्धियों का हर्ष आशंकाओं के विवाद से घिरकर ऐसा बन जाएगा, जिसे वरदान नहीं अभिशाप ही गिना जाएगा।
उपार्जन सरल है, उसे तो लुटेरे भी बड़ी मात्रा में कर लेते हैं। पर सदुपयोग के लिए बढी-चढ़ी विवेकशीलता और दूरदर्शिता चाहिए। इसके बिना खतरा ही खतरा बना रहेगा। किसी उद्दण्ड के हाथ में पहुँची माचिस की एक तीली के सारे गाँव को भी देखते-देखते जलाकर भस्म कर सकती है। फिर महाविनाशकारी अस्त्रों के ढेर में किसी पागल द्वारा एक चिंगारी फेंक देने पर इस सुंदर पृथ्वी का, प्राणि जगत का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। बात उस स्थिति तक न पहुँचे, तो भी सामान्य जीवन में शक्ति का दुरुपयोग कितना भयंकर हो सकता है, इसका अनुमान उन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कुचक्रों को देखते हुए लगाया जा सकता है, जिसके कारण मानवी कुटिलता ने हर दिशा में अनाचारों के आडंबर खड़े कर दिए हैं।
आश्चर्य इस बात का है कि सुविधा-साधनों की इतनी अभिवृद्धि होते हुए भी मनुष्य विलास, अनाचार और आक्रमण पर इस कदर क्यों उतारू है और यह ढीठता दिन-दिन क्यों अधिक बढ़ती जा रही है। कानून-कचहरी क्यों काम नहीं आ रही है ? धर्मोपदेश और नीति-नियमन के लिए किए जा रहे अनेकों प्रस्तुतीकरण क्यों अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं ? साहित्य, संगीत, कला का परंपरागत रुझान अपना परंपरागत राजमार्ग छोड़कर किस कारण पतन और पराभव का वातावरण बनाने को जुट गया है ? यह सभी प्रश्न जितने अनसुलझे हैं, उतने ही कष्टकारक भी हैं। साथ ही यह सोचा जा सकता है कि जब अगले दिनों मानव अधिक चतुर और समर्थ होगा, तो वह सार्वजनिक शांति के लिए कितना खतरनाक सिद्ध होगा ? ऐसी दशा में अगले दिनों जिस प्रगति की आशा की जाती और संभावना देखी जाती है, उसका लाभ मनुष्य को मिलेगा या वह और भी अधिक गहरे दलदल में फँस जाएगा, यह एक प्रश्न चिह्न है।
इस अनबूझ पहेली की जड़, उस वैज्ञानिक प्रगति के साथ जुड़ी देखी जा सकती है, जिसने आज हमें अपेक्षाकृत अधिक साधनसंपन्न बनाया है। आश्चर्य यह है कि ऐसी उल्टी गंगा कैसे बहने लगी ? जिससे अधिक सुविधाओं की अपेक्षा की गई थी, पर अधिक भारी पड़ रही है। नैतिकता, सामाजिकता, चरित्रनिष्ठा जैसे मानवी गरिमा के आधारभूत तथ्यों का एक प्रकार से दिवाला निकलता चला जा रहा है। एक ओर प्रगति, दूसरी ओर उससे भी अधिक अवगति ? एक ओर आँख से लाभ ही लाभ दिखता है, तो दूसरी से हानि और अनर्थ की विभीषिका उपजती जा रही है। इस असमंजस को क्या कहा जाए? और इस दुर्गति के लिए किसे दोषी ठहराया जाए?
मनीषियों का मत है कि आज की समस्याएँ बुद्धिवाद की उपज हैं। बुद्धि ने ही अविज्ञात के अंतराल को खोजा, टटोला एवं फिर उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गई। प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन इसी दुर्गति की परिणति है। अब जब चारों ओर उनके अकाल का हाहाकार मचने लगा है तो विज्ञान की सभी विधाएँ एकदूसरे को, सत्ताधीशों को, संपन्नों को दोष देती देखी जाती हैं। क्या इसका कोई समाधान नहीं है। यह सब इसी प्रकार चलता रहेगा, जब तक कि महाविनाश सामने न आ पहुँचे ?
अध्यात्मवेत्ता कहते हैं कि परोक्षसत्ता इन समस्याओं से अनभिज्ञ नहीं है। अध्यात्म तंत्र इन विभीषिकाओं से जूझने हेतु अपनी तैयारी कर रहा है। वे चाहे दिखाई पड़े अथवा न दिखाई पड़े; किंतु दृश्य समस्याओं के प्रतिरोध में अगले ही दिनों ऐसे बुद्धिपरक समाधान प्रस्तुत किए जाएँगे, जिन्हें देखकर स्वयं उत्पत्ति को जन्म देने वाले वैज्ञानिक भी हतप्रभ होकर रह जाएँगे। जिन स्रोतों से ये समस्याएँ चालू हुई है, वहीं से उनका उपचार होगा, ऐसा दिव्यदर्शी मनीषियों का कहना है।
विज्ञान ने साधन-संवर्द्धन के लिए जो अधिक परिश्रम किया है, उसकी सराहना ही की जाएगी। तथ्यों का पता लगाने में उसने पूर्वाग्रहों से तनिक भी लगाव नहीं रखा है, यह उसकी सत्यनिष्ठा है। अन्वेषणों में योगी स्तर की एकाग्रता का जो उपयोग हुआ है, उसने तथाकथित ध्यानयोगियों को एक कोने पर बिठा दिया है। समूची मनुष्य जाति उसके सुई, माचिस जैसे छोटे साधनों से लेकर माइक्रोचिप्स कंप्यूटरों से— विविधता से लाभांवित हुई है। शल्य चिकित्सा ने वरदान की भूमिका निबाही है। द्रुतगामी वाहनों और संचार-साधनों से असाधारण सुविधा हाथ लगी है। ऐसे-ऐसे अनेक कारण गिनाए जा सकते हैं, जिनके आधार पर विज्ञान की मुक्तकंठ से सराहना की जा सकती है। पर बात एक ही जगह अटक जाती है कि उसने मानवी आदर्शवादिता के तत्त्व दर्शन को अमान्य ठहराकर पशु और पिशाच की श्रेणी तक बढ़ चलने की छूट दे दी है। पशु के लिए कोई मर्यादा नहीं। पिशाच के लिए कोई कुकृत्य नहीं। मांसाहार और पशु शरीरों की परीक्षण के नाम पर चीर-फाड़, फैशन के लिए प्राणियों की चमड़ी उखाड़ना, वैज्ञानिक दृष्टि से अनुचित नहीं ठहरता। जब भावनात्मक करुणा का बोध टूटा तो फिर वह आगे ही बढ़ेगा। आज नहीं तो कल वैसा ही व्यवहार मनुष्य-मनुष्य के साथ करने में भी कोई संकोच न करेगा ? दार्शनिक छूट मिल जाने पर मनुष्य कुछ भी कुकृत्य कर सकता है। उसकी चतुरता समाज की आँखों में धूल झोंकने और कानून को चकमा देने में सहज सफल हो सकती है।
नास्तिकवादी मनोभूमि चाहे विज्ञान द्वारा समर्थित हो या किसी अन्य कारण उपजी हो, संसार के लिए विघातक ही साबित हुई है। मनुष्य से लेकर अन्य प्राणियों के कत्लेआम उसी निष्ठुरता की देन है, जो भावनातंत्र को मृत नहीं तो मूर्छित करके अदृश्य कर देती है। नृशंसता का लंबा इतिहास है, उसका व्यवहार भी चित्र-विचित्र रीति से व्यापक क्षेत्र में होता है। यों यह कुसंस्कार पाए तो अनायास भी जाते हैं। पर जब उन्हें विज्ञान जैसे प्रामाणिक समझे जाने वाले तंत्र का समर्थन मिल जाता है तो फिर “करेला नीम चढ़ा" की उक्ति चरितार्थ होती है। कामुकता की अति और तद्विषयक मर्यादाओं का समापन— 'यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्' का ही एक रूप कहा जाएगा। इसी प्रकार अनेकानेक अनाचार जो इन दिनों बरसाती उद्भिजों की तरह उभर पड़े हैं, यदि उन्हें प्रत्यक्षवादी भौतिकदर्शन की देन कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।
तात्कालिक लाभ के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रत्यक्षवादी देन भौतिक विज्ञान ने दी है। जीव-जंतुओं की गतिविधियों का उल्लेख वे इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए करते हैं। मनुष्य की विशेष जिम्मेदारी की बात तो अध्यात्ममार्ग में आती है, उसे मान्यता क्यों मिले ?
औद्योगीकरण के विस्तार का श्रेय विज्ञान को है। साथ ही पर्यावरण को प्रदूषण से भर देने का दोष भी उसे देना होगा। द्रुतगामी वाहनों और विशालकाय कारखानों के लिए जो ईंधन प्रयुक्त होता है, उससे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, आकाश के तापमान की अभिवृद्धि, ईंधन के लिए लकड़ी का अतिशय प्रयोग होने से तापमान की अभिवृद्धि और वनों का विनाश जैसे अनेकों संकट खड़े होते हैं। उसकी प्रतिक्रिया जब प्रौढ़ता के स्तर तक पहुँचेगी तो उसका प्रतिफल समुद्रों के उफनने, हिमभंडारों के गलने के रूप में, अपनी भयंकरता प्रकट किए बिना न रहेगा। अणु-ईंधन के प्रयोग से फैलने वाला विकिरण प्राणियों की जीवनीशक्ति को भारी आघात पहुचाए बिना नहीं रह सकता। ओजोन परत फटने से ब्रह्मांड किरणें— सौर लपटें धरती पर बरसने लगने और जो उपयोगी है, उसे जला डालने की चेतावनी अभी से मिल रही है।
उपरोक्त सभी कथन से सहमत होते हुए भी यह कहना होगा कि प्रकृति का दोहन व विज्ञान की प्रगति एक सीमा तक ही संभव है। वैसे अति उत्साह में बरता गया अतिवाद जो भी कर-गुजरे, कम है। पर यह मानकर चलना चाहिए कि जैसे शरीर में घुसे जीवाणु-विषाणु से जूझने के लिए शरीर तुरंत एंटीबॉडीज तैयार करता है, उसी प्रकार प्रकृति की व्यवस्था में हस्तक्षेप करने वाले इस तंत्र में भी विज्ञान के अतिवाद से जूझने के लिए अपनी एंटीबॉडीज तैयार कर रखी है। ये दुर्बुद्धि से लड़ेंगी एवं जिस प्रकार “स्टारवार” का कार्यक्रम बनाने वाले वैज्ञानिकों का मानस बदलकर रचनात्मक चिंतन हेतु विवश करने में समर्थ हुई, अगले दिनों सारे बुद्धिजगत से मोर्चा लेगी।
सर्पविष का इलाज सर्पविष द्वारा उत्पन्न वैक्सीन से ही होता है। प्राकृतिक चिकित्सा के संस्थापक पितामह लुई कुने का सिद्धांत है— “कूलर इज बेटर” प्रतिघात द्वारा ही प्रतिक्रिया जन्म लेती है; व उलटे को उलटकर ठीक कर देती है। ठंडे पानी का स्पर्श ही खून के दौरे को तीव्र कर देता है, व विजातीय द्रव्यों को निकाल फेंकता है। जब दंगे-फसाद हो जाते हैं, तो चारों ओर कर्फ्यू लग जाता है, मिलिट्री को फ्लैग मार्च करना पड़ता है तथा दंगाई आतंकवादियों को खोज-बीनकर जेल में बंद कर देते हैं। अगले दिनों विज्ञान में छाए अराजकतावाद से जूझने के लिए मानवतावादी, उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखने वाले मनीषीगण ऐसा मोर्चा खड़ा करेंगे कि विज्ञान अपनी अतिवादी बलात्कारी प्रवृत्ति से मानवता का और बिगाड़ न करे। जिस प्रकार वैज्ञानिकों ने घातक एड्स रोग का उपचार खोज लिया है, उसी प्रकार विज्ञानवादियों के मन में घुसे एड्स का उपचार अब अध्यात्मवेत्ता करेंगे एवं असंतुलन को संतुलन में बदलेंगे। यह स्रष्टा का मानवजाति के लिए आश्वासन जो है।