Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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नवयुग की आधारशिला रखेंगे क्रांतिदर्शी ऋषि
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भ्रांतियों की भूल-भुलैया में भटके मानव को श्रुति सतत एक संदेश देती है कि भविष्य के प्रति आशान्वित रहो, यह मत सोचो कि जो तम अभी छाया हुआ है, सदैव बना रहेगा। मनुष्यों में से ही ऋषि वर्ग जन्म लेगा, उनका ऋषित्व जागेगा एवं आसन्न विपन्नताओं को मिटाएगा। तीन प्रकार के विकास मनुष्य में होते बताए जाते हैं। एक कर्मयोगी— कर्तव्यपरायण महामानव बनते हैं, दूसरे ज्ञानयोगी— ऋषि कहलाते हैं तथा तीसरे भक्तियोगी— जीवनमुक्त अवतारी देवदूतों में गिने जाते हैं। तीसरे कोटि के विकसित मानवों को दैवी सत्ता, परोक्ष सत्ता का प्रतिनिधि भी माना जा सकता है। प्रथम श्रेणी के व्यक्ति सारी गतिविधियों का क्रियान्वयनकर सृजन के श्रेयधारी बनते— कृत-कृत्य होते हैं, किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है ऋषि वर्ग की, जो युगानुकूल चिंतन करते तथा कर्तृत्त्व का निर्धारण करते हैं। ये जब जिस काल या युग में सक्रिय होते हैंं, उसकी काया पलटकर दिखाते हैं।
प्रख्यात मनीषी इब्ने सिना के चिंतनकोश “दानिम नामे दुशात्वे” के पृष्ठ सूचित करते हैं कि जीवन के बहाव में विकास की गति यदि सही दिशा में है, तो कुछ विलक्षण क्षणों का आना अनिवार्य है। ऐसे क्षणों में अनुभव होने लगता है कि व्यक्तिगत अस्तित्व, हित, आवश्यकताएँ, लक्ष्य सभी कुछ समाज से किसी न किसी रूप में अभिन्न और अविच्छिन्न है। ऐसी दशा में व्यक्तिगत 'लघु अहं', जिसमें उसकी नियति तथा जीवन की परिस्थितियों की अनन्य प्रकृति परावर्तित होती है एवं “वृहत अहं”, जो समूचे जनगण का— सारी मानव जाति का समष्टि रूप है, में समा जाता है।
समा जाने के इन्हीं क्षणों में, बोध के इन्हीं पलों में, मानवी व्यक्तित्व के भीतर से ऋषित्व प्रस्फुटित होता है। वेद कहते हैं ऋषि वे होते हैं— जो क्रांतिदर्शी होते हैं, अर्थात् जिनकी दृष्टि संकीर्ण स्वार्थपरता, वर्त्तमान के लाभ-हानियों की दीवारों को भेदकर देखने में समर्थ होती है। दृष्टि की इसी विशेषता के कारण ऋषि को द्रष्टा कहा गया है, यों साधारणतया दिखाई सभी को देता है। 6 सौ करोड़ पहुँचती जा रही विश्व की जनसंख्या में अंधों की संख्या मुश्किल से कुछ करोड़ के दायरे में होगी। पर आँखों से देखना ही तो सब कुछ नहीं है। यद्यपि शक्तिशाली टेलीस्कोप, इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप आदि बहुमूल्य यंत्रों की सहायता से दृष्टि का दायरा बढ़ाया भी जा सकता है, लोग बढ़ाते भी हैं। किंतु इस बढ़ी सामर्थ्य के बाद भी जीवन के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जो अछूते रह जाते हैं। देखने की बढ़ी क्षमता भी नाकामयाब सिद्ध होती है।
जहाँ इन कीमती यंत्रों की सहायता नाकामयाब सिद्ध होती है, वहीं ऋषि की दृष्टि सफल होती है। सरलता से देखने, विवेचन-विश्लेषण करने में सक्षम होती है। कारण कि उसके देखने का माध्यम अंतःप्रज्ञा है। उपनिषद्कार इस दृष्टि के तीन आयाम बताते हैं। सूक्ष्मदृष्टि, अंतदृष्टि और दिव्यदृष्टि इस सूक्ष्मदृष्टि का प्रयोग क्षेत्र बैक्टीरिया, विषाणु जैसे नन्हें जीवों की गतिविधियों के निरीक्षण से भिन्न है। इसका क्षेत्र है मानवीय जीवन के सुविस्तृत पटल पर अनेक रंग-रूपों वाली इतनी गतिविधियाँ चलती रहती हैं, इनकी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं की संख्या इतनी अधिक और सूक्ष्म होती है कि सामान्यजन इसे नहीं देख पाते, पर ऋषि अपनी इस दृष्टि के सहारे इसे देखते, कारणों को समझते और तद्नुरूप समाधान सोचने में सफल होते हैं।
कारणों का वास्तविक उद्गम चिंतन चेतना का उर्वर-क्षेत्र है— मनुष्य का अपना अंतराल है। चरित्र व व्यवहार की कठपुतलियों की डोर घुमाना, उन्हें नचाना, यहीं से संभव बन पड़ता है। बाहर के जीवनक्रम में घटने वाली वांछित-अवांछित गतिविधियाँ— कार्य के रूप में सामने आती हैं। कारणों की परिपक्वता के बाद कार्य को रोक पाना असंभव प्रायः होता है। किसी भी तरह जबरदस्ती कर यदि रोक भी दिया जाए तो चिंतन-क्षेत्र में उपजे ये कारण अंदर ही अंदर नासूर की तरह पनपते और मनोंरोगों के रूप में फट पड़ते हैं। किसी भी तरह इन अवांछित कारणों को बीजरूप में ही समाप्त किया जा सके, तो इन विकृतियों की गुंजाइश न रहेगी। पर किया तो तब जाए, जब ये बीज दिखाई पड़ें। इन्हें देखने की सामर्थ्य ऋषि की अंतर्दृष्टि में होती है, जो इन अवांछित कुप्रवृत्तियों, दुश्चिंतन को बीजरूप में देखते-परखते और स्पष्ट करते हैं। साथ ही सत्प्रवृत्तियों, सद्गुणों के बीजों के अंकुरण लायक भूमि तैयारकर सत्चिंतन का खाद-पानी जुटाते रहते हैं। दृष्टिक्षमता की इस महत्त्वपूर्ण उपलब्धि का तीसरा आयाम है— दिव्यदृष्टि। सामान्य मनुष्य या तो वर्त्तमान की कठिनाइयों का रोना रोते अथवा अतीत की छोटी-मोटी उपलब्धियों से गर्वोन्मत्त हो उन्मत्त हाथी की तरह पगलाए फिरते हैं। उन्हें अभी के सिवा कभी का, किसी और आयाम का दिखाई नहीं देता। अभी के देखने का दायरा स्वार्थों की परिधि को संकीर्णता के अनुरूप छोटा— सिकुड़ा, सिमटा रहता है। यही कारण है कि बहुसंख्यक जन भ्रांतियों के भ्रम-भटकाव में उलझे जिस-तिस तरह जिंदगी के दिन गुजार रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक है मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादा का परिपालन न बन पड़े। आज की दशा यही है। उलटी दशा को सुधारने का संकेत सिर्फ ऋषि की दिव्यदृष्टि देती है, क्योंकि वह इसके सहारे अतीत के इतिहास का मूल्यांकन करता— मनुष्य की बीती भूलों को परखते— सुधार का उपाय सोचते हैं। सुधार के यही उपाय वर्तमान जीवन में लागू करने को प्रेरित करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें वर्त्तमान के पटाक्षेप के बाद का भविष्य साफ नजर आता है। भविष्य के योग्य स्वयं के समाज को गढ़ा जाए इसी ओर प्रयत्न चलते हैं। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यही दृष्टि दी थी। जिसके सहारे वह दूरगामी भविष्य को देख पाने, समझने और तदनुरूप अपने को ढालने में समर्थ हुआ। त्रिविध दृष्टियों के साथ ऋषि के स्वरूप भी त्रिविध होते हैं— ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि। तीनों ही समाजपरायण हो, लोकहित में अपने-अपने ढंग से संलग्न रहते हैं। ब्रह्मर्षियों का क्षेत्र-चिंतन है। इसकी अपनी शक्ति होती है। जो चेतना की गहराई में जाकर विश्व की सूक्ष्मता में प्रवेशकर जीवन के सिद्धांतों की शोध करती है। इस चिंतनशक्ति के अभाव में समाज पंगु हो जाएगा। प्रगति रुक जाएगी। भौतिक वैज्ञानिक शोधकार्य के लिए जिस प्रकार चिंतन एकांत की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मनोवैज्ञानिक संशोधनों के लिए भी एकांत सेवन करना पड़ता है। ऐसे एकांतसेवी जो ब्रह्मर्षि होते हैं, वे संसार को जीवन के तत्त्वज्ञान का चिंतनात्मक सार देते हैं, जिसमें जीवन की समस्याओं का समाधान समाहित होता। दूसरी शक्ति सेवा की है। ब्रह्मर्षियों के चिंतन के आधार पर समाजसेवी, लोकसेवा में निरत रहते हैं। इन्हें ही राजर्षि कहा जाता है। ऐसे सेवा करने वाले समाज में न रहें तो समाज सूखकर कुम्हला जाएगा। ऐसे लोकसेवी विचारशील समाज में आवाज बुलंद करते हैं। आंदोलन की जरूरत हो तो आंदोलन खड़ा करते, संगठन की जरूरत हो तो वह भी बनाते हैं। इस समूची कर्मठता के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं रहता। इधर ब्रह्मर्षि से सूत्र लेते एवं लोकसेवा के क्षेत्र में उसपर अमल करते हैं। ज्ञान द्वारा लोकरंजन करते हुए ये लोकसेवी राजर्षि समाज में एक बहुत बड़ी शक्ति की भूमिका निभाते हैं। तीसरी शक्ति सुगम बोधपूर्ण साहित्य व प्रेरक वाणी की है। जिन विचारों का ज्ञानियों को अनुभव होता है, उन विचारों को ऐसे चुने हुए शब्दों में ये ज्ञानी ही प्रकट करते हैं, ताकि लोकवाणी में लोग उन्हें ग्रहण कर सकें। इसमें विचार को पहचानने के साथ उसे वाणी का जामा पहनाना पड़ता है। वरना उचित शब्दों के अभाव में प्रकाश की जगह तम संव्याप्त हो सकता है। विचार तो अंतर की गहराई में होता है। इसे प्रकट करने में शब्द का सहारा आवश्यक है। इसमें कुछ न्यूनता रहने का भाव होता है। दूसरा शब्द इस्तेमाल करे तो कुछ अतिरिक्त भाव भी आ सकता है, इसलिए एक-एक शब्द के संबंध में विवेक रखना पड़ता है, ताकि न न्यून भाव प्रकट हो, न अतिरिक्त भाव, न विपरीत भाव। इन त्रिविध दोषों को टालकर— जैसे का तैसा प्रकट करना चाहिए। यह तीसरी शक्ति जनता के हृदयों तक सद्विचार पहुँचाने की कुशलता की शक्ति जिनमें होती है, उन्हें देवर्षि कहते हैं। नारद मुनि के पास यही शक्ति थी, जिससे उनने ध्रुव, पार्वती, वाल्मीकि आदि को प्रेरणा दी। तीनों ही ऋषियों के कार्य का प्राण है— उनकी त्रिविध दृष्टि। सूर्य और प्रकाश की तरह दोनों एक हैं। एक के बिना दूसरे के बारे में सोचा नहीं जा सकता। ब्रह्मर्षियों की मिसाल देनी हो तो वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य का उदाहरण दे सकते हैं। देवर्षियों में नारद की चर्चा ऊपर हो चुकी। राजर्षियों में जनक का नाम लिया जाता है। यह जरूरी नहीं है, ऐसे लोग राजा हों। वे सेवा में निर्लिप्तभाव से लीन हैं, इतना काफी है। इस जमाने में भी अपने देश ने श्री अरविंद जैसे ब्रह्मर्षि, रविबाबू (रवींद्र टैगोर) जैसे देवर्षि और गाँधी, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे राजर्षि पैदा किए हैं। इन सभी के पास दृष्टि की संपदा तो एक-सी है, पर कार्य के अनुरूप लक्षण अलग हैं। ब्रह्मऋषि का लक्षण है— चिंतन की शक्ति । राजर्षि का लक्षण— उसकी निरहंकार सेवा भावना है। वैसे ही देवर्षि का लक्षण है— सबके लिए प्रेम भरा दिल। वह नारद की तरह देव-दानव-मानव सभी से मिलता है। उन्हें प्रेरित करता है। आज भी समाज में देव-दानव-मानव, विशिष्ट,अशिष्ट और शिष्ट के रूप में हैं। देवर्षि का कर्त्तव्य अपनी वाणी व लेखनी के प्रचार के द्वारा विशिष्ट को समाज के नेतृत्व हेतु आगे लाना, अशिष्ट को सुधारना और शिष्ट को सेवाकार्यों में लगाना है। ऋषियों का यह तंत्र कभी समूचे भारत में सक्रिय था। ब्रह्मर्षि श्री अरविंद के भविष्यसंकेत के अनुसार निकट भविष्य में पुनः यही गौरवमयी परंपरा दुहराई जाने वाली है। ऋषि संस्कृति का तेजोमय प्रखर सूर्य अपने सद्विचार, सद्गुणों व सत्कर्मों की शुभ रश्मियों से शीघ्र ही पुनः समाजरूपी क्षितिज को प्रकाशित करेगा। इन दिनों जबकि एक तरफ आकाश में सघन तमिस्रा का साम्राज्य है, तो दूसरी ओर ब्रह्ममुहूर्त्त का आभास भी प्राची में उदीयमान होता दीख पड़ता है। ऐसे में चूकें नहीं। यही संदेश यह संधिवेला लेकर आ रही है। तमिस्रा के कारण मंद पड़ गई त्रिविध दृष्टियों को हम सब प्रखर करें। ऋषि संतान होने का गौरव बोधकर स्वयं को उसी अनुरूप गढ़ने तथा समाज में ऋषि संस्कृति की गौरवमयी प्रतिष्ठापना में जुट पड़ें। यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चित ही उज्ज्वल भविष्य को मूर्तिमान कर सकेंगे, जो कि इक्कीसवीं सदी का पर्याप्त पर्याय होगा।
कारणों का वास्तविक उद्गम चिंतन चेतना का उर्वर-क्षेत्र है— मनुष्य का अपना अंतराल है। चरित्र व व्यवहार की कठपुतलियों की डोर घुमाना, उन्हें नचाना, यहीं से संभव बन पड़ता है। बाहर के जीवनक्रम में घटने वाली वांछित-अवांछित गतिविधियाँ— कार्य के रूप में सामने आती हैं। कारणों की परिपक्वता के बाद कार्य को रोक पाना असंभव प्रायः होता है। किसी भी तरह जबरदस्ती कर यदि रोक भी दिया जाए तो चिंतन-क्षेत्र में उपजे ये कारण अंदर ही अंदर नासूर की तरह पनपते और मनोंरोगों के रूप में फट पड़ते हैं। किसी भी तरह इन अवांछित कारणों को बीजरूप में ही समाप्त किया जा सके, तो इन विकृतियों की गुंजाइश न रहेगी। पर किया तो तब जाए, जब ये बीज दिखाई पड़ें। इन्हें देखने की सामर्थ्य ऋषि की अंतर्दृष्टि में होती है, जो इन अवांछित कुप्रवृत्तियों, दुश्चिंतन को बीजरूप में देखते-परखते और स्पष्ट करते हैं। साथ ही सत्प्रवृत्तियों, सद्गुणों के बीजों के अंकुरण लायक भूमि तैयारकर सत्चिंतन का खाद-पानी जुटाते रहते हैं। दृष्टिक्षमता की इस महत्त्वपूर्ण उपलब्धि का तीसरा आयाम है— दिव्यदृष्टि। सामान्य मनुष्य या तो वर्त्तमान की कठिनाइयों का रोना रोते अथवा अतीत की छोटी-मोटी उपलब्धियों से गर्वोन्मत्त हो उन्मत्त हाथी की तरह पगलाए फिरते हैं। उन्हें अभी के सिवा कभी का, किसी और आयाम का दिखाई नहीं देता। अभी के देखने का दायरा स्वार्थों की परिधि को संकीर्णता के अनुरूप छोटा— सिकुड़ा, सिमटा रहता है। यही कारण है कि बहुसंख्यक जन भ्रांतियों के भ्रम-भटकाव में उलझे जिस-तिस तरह जिंदगी के दिन गुजार रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक है मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादा का परिपालन न बन पड़े। आज की दशा यही है। उलटी दशा को सुधारने का संकेत सिर्फ ऋषि की दिव्यदृष्टि देती है, क्योंकि वह इसके सहारे अतीत के इतिहास का मूल्यांकन करता— मनुष्य की बीती भूलों को परखते— सुधार का उपाय सोचते हैं। सुधार के यही उपाय वर्तमान जीवन में लागू करने को प्रेरित करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें वर्त्तमान के पटाक्षेप के बाद का भविष्य साफ नजर आता है। भविष्य के योग्य स्वयं के समाज को गढ़ा जाए इसी ओर प्रयत्न चलते हैं। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यही दृष्टि दी थी। जिसके सहारे वह दूरगामी भविष्य को देख पाने, समझने और तदनुरूप अपने को ढालने में समर्थ हुआ। त्रिविध दृष्टियों के साथ ऋषि के स्वरूप भी त्रिविध होते हैं— ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि। तीनों ही समाजपरायण हो, लोकहित में अपने-अपने ढंग से संलग्न रहते हैं। ब्रह्मर्षियों का क्षेत्र-चिंतन है। इसकी अपनी शक्ति होती है। जो चेतना की गहराई में जाकर विश्व की सूक्ष्मता में प्रवेशकर जीवन के सिद्धांतों की शोध करती है। इस चिंतनशक्ति के अभाव में समाज पंगु हो जाएगा। प्रगति रुक जाएगी। भौतिक वैज्ञानिक शोधकार्य के लिए जिस प्रकार चिंतन एकांत की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मनोवैज्ञानिक संशोधनों के लिए भी एकांत सेवन करना पड़ता है। ऐसे एकांतसेवी जो ब्रह्मर्षि होते हैं, वे संसार को जीवन के तत्त्वज्ञान का चिंतनात्मक सार देते हैं, जिसमें जीवन की समस्याओं का समाधान समाहित होता। दूसरी शक्ति सेवा की है। ब्रह्मर्षियों के चिंतन के आधार पर समाजसेवी, लोकसेवा में निरत रहते हैं। इन्हें ही राजर्षि कहा जाता है। ऐसे सेवा करने वाले समाज में न रहें तो समाज सूखकर कुम्हला जाएगा। ऐसे लोकसेवी विचारशील समाज में आवाज बुलंद करते हैं। आंदोलन की जरूरत हो तो आंदोलन खड़ा करते, संगठन की जरूरत हो तो वह भी बनाते हैं। इस समूची कर्मठता के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं रहता। इधर ब्रह्मर्षि से सूत्र लेते एवं लोकसेवा के क्षेत्र में उसपर अमल करते हैं। ज्ञान द्वारा लोकरंजन करते हुए ये लोकसेवी राजर्षि समाज में एक बहुत बड़ी शक्ति की भूमिका निभाते हैं। तीसरी शक्ति सुगम बोधपूर्ण साहित्य व प्रेरक वाणी की है। जिन विचारों का ज्ञानियों को अनुभव होता है, उन विचारों को ऐसे चुने हुए शब्दों में ये ज्ञानी ही प्रकट करते हैं, ताकि लोकवाणी में लोग उन्हें ग्रहण कर सकें। इसमें विचार को पहचानने के साथ उसे वाणी का जामा पहनाना पड़ता है। वरना उचित शब्दों के अभाव में प्रकाश की जगह तम संव्याप्त हो सकता है। विचार तो अंतर की गहराई में होता है। इसे प्रकट करने में शब्द का सहारा आवश्यक है। इसमें कुछ न्यूनता रहने का भाव होता है। दूसरा शब्द इस्तेमाल करे तो कुछ अतिरिक्त भाव भी आ सकता है, इसलिए एक-एक शब्द के संबंध में विवेक रखना पड़ता है, ताकि न न्यून भाव प्रकट हो, न अतिरिक्त भाव, न विपरीत भाव। इन त्रिविध दोषों को टालकर— जैसे का तैसा प्रकट करना चाहिए। यह तीसरी शक्ति जनता के हृदयों तक सद्विचार पहुँचाने की कुशलता की शक्ति जिनमें होती है, उन्हें देवर्षि कहते हैं। नारद मुनि के पास यही शक्ति थी, जिससे उनने ध्रुव, पार्वती, वाल्मीकि आदि को प्रेरणा दी। तीनों ही ऋषियों के कार्य का प्राण है— उनकी त्रिविध दृष्टि। सूर्य और प्रकाश की तरह दोनों एक हैं। एक के बिना दूसरे के बारे में सोचा नहीं जा सकता। ब्रह्मर्षियों की मिसाल देनी हो तो वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य का उदाहरण दे सकते हैं। देवर्षियों में नारद की चर्चा ऊपर हो चुकी। राजर्षियों में जनक का नाम लिया जाता है। यह जरूरी नहीं है, ऐसे लोग राजा हों। वे सेवा में निर्लिप्तभाव से लीन हैं, इतना काफी है। इस जमाने में भी अपने देश ने श्री अरविंद जैसे ब्रह्मर्षि, रविबाबू (रवींद्र टैगोर) जैसे देवर्षि और गाँधी, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे राजर्षि पैदा किए हैं। इन सभी के पास दृष्टि की संपदा तो एक-सी है, पर कार्य के अनुरूप लक्षण अलग हैं। ब्रह्मऋषि का लक्षण है— चिंतन की शक्ति । राजर्षि का लक्षण— उसकी निरहंकार सेवा भावना है। वैसे ही देवर्षि का लक्षण है— सबके लिए प्रेम भरा दिल। वह नारद की तरह देव-दानव-मानव सभी से मिलता है। उन्हें प्रेरित करता है। आज भी समाज में देव-दानव-मानव, विशिष्ट,अशिष्ट और शिष्ट के रूप में हैं। देवर्षि का कर्त्तव्य अपनी वाणी व लेखनी के प्रचार के द्वारा विशिष्ट को समाज के नेतृत्व हेतु आगे लाना, अशिष्ट को सुधारना और शिष्ट को सेवाकार्यों में लगाना है। ऋषियों का यह तंत्र कभी समूचे भारत में सक्रिय था। ब्रह्मर्षि श्री अरविंद के भविष्यसंकेत के अनुसार निकट भविष्य में पुनः यही गौरवमयी परंपरा दुहराई जाने वाली है। ऋषि संस्कृति का तेजोमय प्रखर सूर्य अपने सद्विचार, सद्गुणों व सत्कर्मों की शुभ रश्मियों से शीघ्र ही पुनः समाजरूपी क्षितिज को प्रकाशित करेगा। इन दिनों जबकि एक तरफ आकाश में सघन तमिस्रा का साम्राज्य है, तो दूसरी ओर ब्रह्ममुहूर्त्त का आभास भी प्राची में उदीयमान होता दीख पड़ता है। ऐसे में चूकें नहीं। यही संदेश यह संधिवेला लेकर आ रही है। तमिस्रा के कारण मंद पड़ गई त्रिविध दृष्टियों को हम सब प्रखर करें। ऋषि संतान होने का गौरव बोधकर स्वयं को उसी अनुरूप गढ़ने तथा समाज में ऋषि संस्कृति की गौरवमयी प्रतिष्ठापना में जुट पड़ें। यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चित ही उज्ज्वल भविष्य को मूर्तिमान कर सकेंगे, जो कि इक्कीसवीं सदी का पर्याप्त पर्याय होगा।