Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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विवाह न करने का कारण
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मानवीय जीवन प्रारंभ से अंत तक गुणों के अंकुरण, अभिवर्द्धन और विकास की अनोखी यात्रा है। सद्गुणों की यह फसल फले-फूले, इसलिए बतौर खाद-पानी के समय-समय पर अनेकानेक संस्कारों की व्यवस्था बनाई गई है। इन्हीं में एक विवाह संस्कार भी है। इसे कतिपय सद्गुण विशेष के अभ्यास की पाठशाला भी समझा जा सकता है।
प्रशिक्षण के लिए पाठशाला की आवश्यकता असंदिग्ध है। बहुसंख्यक जन इसकी अनिवार्यता को समझते और अपनाते हैं। परंतु मौलिक प्रतिभा वाले कुछ विशेष क्षमतावान ऐसे भी होते हैं, जो बिना पाठशाला गए, विविध विषयों में निष्णात होते और विशेषज्ञता हासिल करते हैं। मानवता हर युग में ऐसे नररत्न पैदा करती है। इसके विपरीत कुछ ऐसे भी होते हैं, जो स्कूल में दाखिला तो लेते, फीस भी जमा करते, सालों- साल भी खराब करते, पर शिक्षा या विद्या के नाम पर कोरे-के-कोरे निकलते हैं। ठीक यही स्थिति अधिकांश विवाहितों की है। ये भी सद्गुण-अभिवर्द्धन के उद्देश्य से विरत होकर सिर्फ संतान अभिवर्द्धन करते और धरती की भारभूत बनती जा रही जनसंख्या में कुछ अंकों में वृद्धि के साथ सीमित जीवनदाई साधनों में कटौती-पर-कटौती करते जाते हैं। अल्प मात्रा ऐसों की भी है, जिन्हें हर किसी हालत में उद्देश्य याद रहता और वे इसे प्राथमिकता देते, श्रेष्ठ कर्त्तव्य कर्म मानते हैं। कबीर, एकनाथ, नाग महाशय की गणना इन्हीं में होती है। इन्हें समर्थ रामदास, स्वामी विवेकानंद, दयानंद की ही कोटि में गिना जाएगा; क्योंकि स्थिति की भिन्नता के बावजूद दोनों ने ही उद्देश्य को समझा, इसे पूरा किया। विनोबा जी इन्हीं में से एक थे। एक दिन उनसे किसी ने पूछा— "आपको कभी शादी करने की इच्छा हुई या नहीं ? यदि नहीं तो क्यों ?"
विनोबा जी ने उत्तर दिया— "न ही मुझे विवाह करने की इच्छा हुई और न आवश्यकता। माँ की शिक्षा, शास्त्रों के अध्ययन से मुझे बहुत पहले यह पता चल गया था कि विवाह का उद्देश्य आत्मीयता का विस्तार है। इस विस्तार हेतु स्वार्थपरता का त्याग तथा त्यागने में जो कष्ट हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक सह सकने हेतु सहिष्णुता है। मुझे अपने में लगा कि मैं किसी स्त्री की स्वतंत्रता का हरण किए बगैर उपर्युक्त गुणों का विकास कर सकता हूँ।”
“इसके अतिरिक्त एक कारण और भी था।”
“कौन सा ?”— पूछने वाले की जिज्ञासा उभरी।
"मेरा जन्म उस समय हुआ, मैंने युवावस्था उस समय प्राप्त की, जब समाज देवता चीत्कार-चीत्कारकर मानवीय क्षमताओं का आवहान कर रहे थे। भारतमाता रो-रोकर अपनी दुर्दशा सुना रही थी। माँ के क्रन्दन को अनसुनीकर विवाह रचना रंगरेलियाँ मनाना, कहाँ का न्याय है। फिर तब, जबकि उद्देश्य को इसके बिना ही पूरा किया जा सकता है।” उक्त सज्जन की जिज्ञासा शांत हुई।
देश और समाज की पुकार अभी मंद नहीं पड़ी है। गुलामी की बेड़ियाँ टूटने पर भी कुरीतियों, मूढमान्यताओं के असंख्य बंधन इसे जकड़े हुए हैं। इन्हें तोड़ने, समाज का नवगठन करने हेतु माँ अपने असंख्यों वज्र की पेशियों, फौलाद की नस-नाड़ियों वाले मजबूत, दृढ़ विषय-वासनाओं की कीचड़ से अछूती संतानों को बुला रही है।
पुकार सुनें! स्वार्थ बिसारें। परमार्थ की राह पर, नए युग के अवतरण, नए समाज का सृजन करने के लिए तत्पर हों।