Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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बदलते समय के साथ हम भी बदलें
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युग-परिवर्तन की संभावना सुनिश्चित है। इक्कीसवीं सदी का आगमन गंगावतरण के समतुल्य माना जा रहा है, जिसके कारण इस संसार की गई-गुजरी परिस्थितियों में स्वर्गोपम परिवर्तन संभव हुआ है। वरिष्ठ अध्यात्मवादी और मूर्धन्य आकलनकर्त्ता इस मन्तव्य से सहमत हैं कि अगले ही दिनों महान परिवर्तन प्रस्तुत होंगे और उन सभी समस्याओं एवं विभीषिकाओं का समाधान होगा, जो इन दिनों पग-पग पर सर्वनाश की चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रही हैं।
यों इन दिनों अधिकांश लोगों को व्यस्तता और अभावग्रस्तता में विग्रहों और उलझनों में, फँसे हुए असमंजसग्रस्त देखा जाता है। पर नियति ने जिस तत्परता के साथ नवयुग की संरचना का कार्य अपने हाथ में लिया है, उसे देखते हुए यह विश्वास बन पड़ता है कि नया इंसान बनने और नया संसार बसाने की संभावनाएँ क्रमशः उभरती आ रही हैं और परिस्थितियाँ इस प्रकार करवट ले रही हैं, कि अपनी दुनिया अवगति से उबरेगी और सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर द्रुतगति से आगे बढ़ेगी।
रात्रि होती तो बहुत भयानक है ,पर उसका अस्तित्व सदा ही नहीं बना रहता। अंत उसका भी आता है और प्रभात होते-होते दिनमान अपनी प्रखरता का परिचय देने लगता है। ऊर्जा और आभा बिखरती है। प्रकाश की सत्ता हर वस्तु का यथार्थ स्वरूप दर्शाने लगती है, जबकि रात्रि की धुंध अँधेरी में हाथ को हाथ नहीं सूझ पड़ता है। झाड़ी को भूत समझे जाने की गलती तब नहीं होती, जब सूर्य अपने प्रखर आलोक का परिचय दे रहा होता है।
नवयुग का प्रभातपर्व अब अतिसन्निकट है। सामंतवादी अंधकारयुग में अशिक्षा, गरीबी, गंदगी, प्रतिगामिता, दुर्बुद्धि जैसी अनेकानेक विभीषिकाओं ने अपनी जड़ें गहरी जमा ली थीं, पर अब नवचेतना का वह तूफानी बवंडर, उठता, उभरता, मचलता चला आ रहा है, जिसके दबाव से ऐसा कुछ भी टिक न सकेगा जो, पतन और पराभव का निमित्तकारण बनकर रहता रहा है। अरुणोदय का दर्शन होते ही फूल खिलने, पक्षी चहचहाने और खरगोश जैसे तुच्छ प्राणी भी उछलने लगते हैं। नींद की खुमारी उतरती है। बिस्तर बटोरे जाते और हर कहीं उत्साहभरे क्रियाकलाप चलने लगते हैं। प्रभात का प्रभाव हर किसी को झकझोरता है, नये सिरे से, नई आवश्यकताओं के अनुरूप पुरुषार्थ करने के लिए बाधित कर देता है। इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़ा हुआ उज्ज्वल भविष्य ऐसी ही सत्प्रवृत्तियों का सूत्र-संचालन करने जा रहा है, जिनके नेतृत्व में अव्यवस्था को गलते एवं शालीनता-सद्भाव का वातावरण बनते देखा जा सकेगा।
पिछले दिनों हम बहुत गँवा चुके। प्रदूषण-अभिवर्द्धन, सर्वनाशी महायुद्धों का तांडव, जनसंख्या-विस्फोट, प्रतिगामी रीति-नीति का प्रचलन, तथाकथित ज्ञान और विज्ञान को प्रगतिशील समझकर, उस अविवेक द्वारा अपनाया जाता रहा है, जो प्रत्यक्षवाद के नाम पर अपने को उपयोगितावाद का समर्थक बताता रहा है। पर अब तो स्रष्टा ने उलटे को उलटकर सीधा करने का निश्चय कर लिया है। नवयुग का आगमन व्यक्ति और समाज के नये कायाकल्प की पूर्वसूचना दे रहा है।
खुली आँखों वाले उसे देख और खुले कानों वाले उसे सुन भी रहे हैं। अच्छा होता, हम बदलते समय के साथ अपने को भी बदलने में उत्साह प्रदर्शित करते और समझदारी का परिचय देते।