Magazine - Year 1990 - Version 2
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प्राण प्रत्यावर्तन अर्थात् प्राण चेतना का आदान प्रदान । यह आदान-प्रदान
किसके साथ ? इसका उत्तर यही हो सकता है-लघु का
महान के साथ-आत्मा का परमात्मा के साथ-प्राण का महाप्राण के साथ ।
आत्मा
वस्तुतः महान परमात्मा का एक छोटा घटक है। बीज रूप से उसमें वे समस्त संभावनाएँ और
क्षमताएं विद्यमान हैं जो उसकी मूल सत्ता में हैं। वृक्ष की समस्त विशेषताएं बीज
में भरी रहती हैं-छोटे से दाने के अन्दर पूरे पेड़ का स्वरूप और क्रिया-कलाप
अन्तहित रहता है । अवसर पाते ही यह बीज विकासोन्मुख होता है और उसकी विभूतियाँ
अव्यक्त से व्यक्त होती हैं। यों देखने में बीज की सत्ता और वृक्ष की स्वरूप सत्ता
एक दूसरे से सर्वथा भिन्न स्तर की मालूम पड़ती हैं । बीज का मूल्य कानी कौड़ी और
पेड़ की कीमत मुहर, अशर्फी
होती है, अन्तर स्पष्ट है। पर कुछ अत्यन्त
महत्वपूर्ण क्षण ऐसे भी आते हैं जब बीज. के भीतर एक विचित्र हलचल उत्पन्न होती है
वह अपना दाने जैसा अकिंचन स्वरूप खोता है और गल बदल कर अंकुर-फिर पौधा फिर वृक्ष बनने के लिए विचित्र प्रकार के क्रिया-कलाप
अपनाता है। यह परिवर्तन का काल थोड़ा ही होता है। बीज को डालने और अंकुर का रूप
धारण करने की काया-कल्प जैसी प्रक्रिया कुछ ही दिनों की होती है । इसके बाद बीज की
सत्ता समाप्त हो जाती है और वृक्ष का अस्तित्व अपने ढङ्ग से काम करने लगता है ।
इसी हलचल भरी उथल-पुथल को प्रत्यावर्तन कह सकते हैं।
प्राण उस
इकाई का नाम है जो मनुष्य के काय कलेवर के अन्तर्गत काम करती है और चेतना की किया
का रूप धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती है । जीव सत्ता चेतना युक्त
है उसमें प्रेरणाओं का आलोक ज्योतिर्मय है। मस्तिष्क सहित शरीर काय कलेवर की
संरचना इस प्रकार हुई है कि वह निर्धारित क्रिया कलापों को कुशलता
पूर्वक
सम्पन्न कर सके । दोनों के संयोग से ही जीवन यात्रा चलती है । जीव की आकांक्षा और शरीर की क्रियाशीलता का समन्वय ही जीवन की
विभिन्न हलचलों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जीव चेतना और शरीर जड़। दोनों का सम्मिश्रण जिस स्तर पर-जिस
केन्द्र विन्दु पर होता है उसे 'प्राण' कहते हैं। और भी स्पष्ट करें तो चेतना और क्रिया की सम्मिश्रित
स्थिति को जड़ और चेतन के मिलन केन्द्र को प्राण तत्व कह सकते हैं। मोटे रूप से
जीवधारी की भौतिक सत्ता को प्राण रूप में ही देखा जाता और समझा जा सकता है । सरल
विश्लेषण की दृष्टि से जीवन तत्व का दूसरा नाम प्राण भी दिया जा सकता है। इसी
सत्ता की प्रधनता देखते हुए जीवधारी को 'प्राणी' कहते हैं। प्राण जब अपना काम बन्द कर देता है तो जीव तथा शरीर
की सत्ताएँ यथावत् विद्यमान रहते हुए भी मृत्यु हो जाती है और कहा जाता है प्राण
निकल गये।
व्यक्ति के
भीतर जो लघु एवं असीम प्राण है वह समष्टि में समाये हुए असीम महाप्राण का एक लघु
अंश है जैसा कि परमात्मा का एक घटक आत्मा । विन्दु वस्तुतः सिन्धु का ही एक घटक
है। बादल समुद्र से जल लाकर भूमि पर बरसाते हैं। जमीन पर गिरते ही वह इस उधेड़ बुन
में लग जाते हैं कि किस प्रकार वह सिन्धु तक पहुँचे । भूमिगत तुच्छ नलिकाओं में
होती हुई-नदी सरोवरों को पार करती हुई वह अन्ततः इस प्रयास में सफल हो ही जाती है
कि समुद्र में अपनी सत्ता मिलाकर असीम और अनन्त स्तर के आनन्द का उपभोग करे । जीव
की स्थिति भी यही है, वह ब्रह्म
का एक घटक है । तुच्छता एवं ससीमता में बेचनी रहना स्वाभाविक है समस्त संभावों और
असन्तोषों का समाधान असीमता की स्थिति आने पर ही मिल सकता है। इसी प्रयास में
जीवधारी लगा रहता है पर सही मार्ग मिलने से भटकाव