Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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नियति का निर्धारण रुकेगा नहीं
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मानवी चिंतन और पुरुषार्थ का अपना महत्त्व है। उसकी शानदार प्रतिकृतियों को नकारा नहीं जा सकता। इस पर अदृश्य वातावरण द्वारा प्रभावित होने वाले अचेतन मन की अतिरिक्त क्षमता के दिशा बदल लेने पर जो आश्चर्यजनक परिवर्तन होते देखे गए हैं, उन्हें किसी अदृश्य सूत्रसंचालक का निर्धारण या प्रेरणा-संचार करने वाला प्रभातपर्व जैसा उदीयमान प्रकाश ही कह सकते हैं। उसमें मानवी कर्तृत्व का कहाँ कुछ योगदान होता है। वह विशुद्ध नियति-निर्धारण है, जो अपने समय पर अपने ढंग से प्रकट या फलित होता रहता है। ऋतुओं के परिवर्तन में मानवी प्रयास की कहाँ कुछ भागीदारी रहती है ?
नारी की अवगति पिछली शताब्दी में प्रायः पिछड़े देशों में विशेष रूप से देखने को मिलती रही है। उसके लिए सामंतवाद से लेकर लंबे समय से चली आ रही अवांछनीयताएँ भले ही जिम्मेदार रही हों, पर तत्काल किसी ने उन पर कोई बड़े प्रतिबंध लगाकर तानाशाही शासन जैसा कुछ विचित्र खड़ा किया हो, ऐसी बात नहीं। उत्थान और पतन के आधार कई बार धीमी गति से चीरकाल से चले आते हैं और प्रचुर परिमाण में जब प्रतिक्रिया परिपक्व हो जाती है तो विस्फोट जैसा कुछ आकस्मिक परिवर्तन हुआ दीख पड़ता है। वस्तुतः उसके आधार पहले से ही संचित होते रहते हैं और अवसर आने पर भयंकर फोड़े की तरह फूट पड़ते हैं। यह सब इसलिए कहा जा रहा है कि अनर्थों के लिए किसी तात्कालिक घटनाक्रम को ही दोषी न ठहराकर यह भी देखा जाए कि पिछले प्रयास किस प्रकार धीमी गति से अपना प्रयास जारी रखे रहे हैं। घुना हुआ शहतीर, खोखला पेड़ गिर तो किसी सामान्य आघात से ही पड़ता है, पर पीछे गला या घुला देने वाली प्रक्रिया अदृश्य रूप से चिरकाल से चल रही होती है। यही बात उत्थान की बड़ी घटनाओं के साथ भी जुड़ी हुई होती है। जनता का चिरसंचित आक्रोश समय-समय पर महान क्रांतियों के रूप में फूटता रहा है, पर उसके निमित्तकारण चीरकाल से बनते और सघन होते चले आ रहे होते हैं। नियति यही है। अदृश्य का अद्भुत निर्धारण इसी विधा के अनुरूप संपन्न होता है। इन दिनों नारीजागृति की लहर है। इक्कीसवीं सदी को योगी अरविंद जैसे तत्त्वदर्शी ‘मातृ शताब्दी’ कह चुके हैं। यों राष्ट्रसंघ या समाज-समुदाय का इस प्रकार का कोई प्रचंड आंदोलन नहीं है,फिर भी नियति अपना काम कर रही है। प्रकृति में संभावित हलचलों का पूर्वाभास कई जीव-जंतु अपनी अतींद्रिय क्षमता के आधार पर समय से पहले ही कर लेते और चित्र-विचित्र हलचलें प्रकट करने लगते हैं। ठीक इसी प्रकार शान्तिकुञ्ज द्वारा भी भावी संभावनाओं का सही अनुमान लगाकर यह घोषित किया है कि पूरी इक्कीसवीं सदी ऐसी संभावनाओं से भरी-पूरी है, जिसमें नारी अपनी वर्त्तमान दुर्गति से उबर ही नहीं रही है, वरन ऐसी स्थिति अपनाने भी जा रही है, जिसे उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचना भी कहा जा सके। नारीयुग के रूप में एक अद्भुत और असाधारण समय यकायक सामने आ उपस्थित हुआ देखा जा सके। यह क्यों होने जा रहा है ? कौन कर रहा है ? जैसा विवेचन तर्कों के आधार पर सिद्ध कर सकना तो शायद संभव न हो सके, पर जिन्हें सूक्ष्मजगत की गतिविधियों का आकलन कर सकने की क्षमता है, वे इस पूर्वानुमान से सहमत हुए बिना नहीं रह सकते कि यथास्थिति बनाए रहने की अपेक्षा कोई अदृश्य शक्ति उपयोगी परिवर्तन करते रहने में भी अपने क्रीड़ा-कौतुक की सार्थकता अनुभव करती है। निकटवर्त्ती नारीयुग के आगमन को इसी दृष्टि से देखा जा सके तो ठीक है। प्रजातंत्र के प्रचलन के उपरांत से ही यह माँग उठती आ रही है कि मानवी मौलिक अधिकारों को जब मान्यता मिल चुकी है, तो फिर नारी को भी मनुष्य मानने और उसे मताधिकार मिलने का कदम उठे। इस प्रयास में लंबा समय लग गया। प्रगति धीमे-धीमे अवश्य हुई, पर उसमें क्रमशः एक देश के बाद दूसरे देश में वह लहर पनपती गई और आज स्थिति है जिसमें समझदारी ने विश्व के अधिकांश भाग को अपने अनुरूप सहमत कर लिया है। मात्र मुट्ठीभर प्रतिगामी इसमें हास्यास्पद अड़चने उत्पन्न करने पर अड़े हुए हैं। इस प्रसंग में इतिहास के पृष्ठों पर उन्नति— अभ्युदय के, आंदोलनों के, प्रतिभाओं के, अवसरों के खोजने का श्रम क्यों किया जाए ? इन्हीं दिनों इर्द-गिर्द जरा- सी गरदन मोड़कर हम इस संदर्भ में इतनी तेजी से, इतना आश्चर्यजनक घटित होते, उभरते देख सकते हैं, जो चकित कर देने वाला ही कहा जा सकता है। नारी प्रगति के संदर्भ में अपना देश प्रतिगामी स्तर का ही माना जाता रहा है। यहाँ सतीप्रथा, कन्यावध, बाल-विवाह, कन्या विक्रय, देवदासी, बलात्कार जैसे प्रचलनों को सहज स्वाभाविक माना और बिना किसी विरोध-विग्रह के साथ सहन किया जाता रहा है। शिक्षा, व्यवसाय, शासन, नेतृत्व जैसे अवसरों से उसे प्रायः वंचित ही रखा जाता रहा है। पर्दाप्रथा अभी भी पूरी तरह मिटी नहीं है। घरों की चहारदीवारी से बाहर निकलकर कोई उपयोगी कार्य करने तक की छूट को पूरी तरह मान्यता नहीं मिली है। राजसत्ता ने घोषणा की है कि नारी को तीस प्रतिशत आरक्षण शासकीय क्षेत्र में दिया जाएगा। उत्साही को वर्ग इस माँग को पचास प्रतिशत तक ले जाने के लिए अड़ा हुआ है। नारी शिक्षा को निःशुल्क किए जाने की योजना बन रही है। उन्हें लोकसभा से लेकर नगरपालिकाओं तक में उपयुक्त स्थान मिलने की संभावना है। पड़ोसी पाकिस्तान में इस्लामी कानूनों को ताक में रखकर महिला प्रधानमंत्री नियुक्त की गई है और अनेक क्षेत्रों में उनपर लगे हुए प्रतिबंधों को अकस्मात् ही उठा लिया है। अफगानिस्तान में महिलाओं का सशस्त्र सैन्यदल अपना कमाल दिखा रहा है। तुर्की के कमाल पाशा ने इस संदर्भ में जो क्रांतिकारी सुधार किए थे, उनको नए सिरे से कार्यान्वित किए जाने की तैयारी चल रही है। जापान की महिलाओं का तो दावा है कि पार्लियामेंट ही नहीं, वे देश के अधिकांश महत्त्वपूर्ण दायित्वों को अगले दिनों अपने कंधों पर उठाएँगी और यह सिद्ध करेंगी कि नारी की मौलिक क्षमता नर की तुलना में कम नहीं, वरन कहीं अधिक है। उसे अबला तो अनीति भर प्रतिबंधों ने बनाया है। कुहासा छँटने ही जा रहा है, तो वे घुटनभरे वातावरण में गई-गुजरी जिंदगी क्यों व्यतीत करेंगी ? भारतीय मूल की एक महिला ने ब्रिटेन व एक ने अमेरिका में सेना का उच्च पद प्राप्त किया है। दिल्ली ट्राँसपोर्ट कार्पोरेशन की तीन बसें महिलाएँ ही चलाती हैं, तथा एयर इंडिया का एक बोइंग जेट का संचालक दल समूचा महिलाओं का है। यातायात का संचालन भी महिला पुलिस भी करती हैं, वह भी सबसे व्यस्त चौराहों पर। अफगानिस्तान की तरह ईरान ने भी अपने यहाँ महिलाओं की एक पूरी बटालियन खड़ी की है, जो महिला ब्रिगेडियर के तत्त्वावधान में ही काम करती है। लीबिया के कर्नल गद्दाफी की भी ऐसी ही योजना है। इन राष्ट्रपति महोदय का कहना है कि महिलाएँ बहादुरी, वफादारी और कुशलता में पुरुषों की अपेक्षा अधिक अग्रणी होती हैं। उनके अंगरक्षक दल में मात्र सशस्त्र पुरुष वेशधारी महिलाएँ होती हैं। महिलाओं का भविष्य उज्ज्वल है। उनके आगे बढ़ने की संभावना सुनिश्चित है। समय के साथ चलते हुए जो इस प्रतिस्पर्धा के युग में अपने परिवार या प्रभाव-क्षेत्र में महिलाओं को अग्रगमन के लिए प्रोत्साहन एवं सहयोग प्रदान करेंगे, वे प्रगतिशील समझदारों की तरह नफे में रहेंगे। जो धीमे चलेंगे, उदासी अपनाएँगे, उपेक्षा करेंगे, वे पिछड़ों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होंगे। बनना तो उन्हें भी वही पड़ेगा जो सर्वत्र बनने जा रहा है। पश्चाताप इसी बात का रह जाएगा कि समय आगे बढ़ा और हम हठवादिता अपनाते हुए “फिर कभी देखा जाएगा'' की बहानेबाजी का आश्रय लेते रहे।
नारी की अवगति पिछली शताब्दी में प्रायः पिछड़े देशों में विशेष रूप से देखने को मिलती रही है। उसके लिए सामंतवाद से लेकर लंबे समय से चली आ रही अवांछनीयताएँ भले ही जिम्मेदार रही हों, पर तत्काल किसी ने उन पर कोई बड़े प्रतिबंध लगाकर तानाशाही शासन जैसा कुछ विचित्र खड़ा किया हो, ऐसी बात नहीं। उत्थान और पतन के आधार कई बार धीमी गति से चीरकाल से चले आते हैं और प्रचुर परिमाण में जब प्रतिक्रिया परिपक्व हो जाती है तो विस्फोट जैसा कुछ आकस्मिक परिवर्तन हुआ दीख पड़ता है। वस्तुतः उसके आधार पहले से ही संचित होते रहते हैं और अवसर आने पर भयंकर फोड़े की तरह फूट पड़ते हैं। यह सब इसलिए कहा जा रहा है कि अनर्थों के लिए किसी तात्कालिक घटनाक्रम को ही दोषी न ठहराकर यह भी देखा जाए कि पिछले प्रयास किस प्रकार धीमी गति से अपना प्रयास जारी रखे रहे हैं। घुना हुआ शहतीर, खोखला पेड़ गिर तो किसी सामान्य आघात से ही पड़ता है, पर पीछे गला या घुला देने वाली प्रक्रिया अदृश्य रूप से चिरकाल से चल रही होती है। यही बात उत्थान की बड़ी घटनाओं के साथ भी जुड़ी हुई होती है। जनता का चिरसंचित आक्रोश समय-समय पर महान क्रांतियों के रूप में फूटता रहा है, पर उसके निमित्तकारण चीरकाल से बनते और सघन होते चले आ रहे होते हैं। नियति यही है। अदृश्य का अद्भुत निर्धारण इसी विधा के अनुरूप संपन्न होता है। इन दिनों नारीजागृति की लहर है। इक्कीसवीं सदी को योगी अरविंद जैसे तत्त्वदर्शी ‘मातृ शताब्दी’ कह चुके हैं। यों राष्ट्रसंघ या समाज-समुदाय का इस प्रकार का कोई प्रचंड आंदोलन नहीं है,फिर भी नियति अपना काम कर रही है। प्रकृति में संभावित हलचलों का पूर्वाभास कई जीव-जंतु अपनी अतींद्रिय क्षमता के आधार पर समय से पहले ही कर लेते और चित्र-विचित्र हलचलें प्रकट करने लगते हैं। ठीक इसी प्रकार शान्तिकुञ्ज द्वारा भी भावी संभावनाओं का सही अनुमान लगाकर यह घोषित किया है कि पूरी इक्कीसवीं सदी ऐसी संभावनाओं से भरी-पूरी है, जिसमें नारी अपनी वर्त्तमान दुर्गति से उबर ही नहीं रही है, वरन ऐसी स्थिति अपनाने भी जा रही है, जिसे उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचना भी कहा जा सके। नारीयुग के रूप में एक अद्भुत और असाधारण समय यकायक सामने आ उपस्थित हुआ देखा जा सके। यह क्यों होने जा रहा है ? कौन कर रहा है ? जैसा विवेचन तर्कों के आधार पर सिद्ध कर सकना तो शायद संभव न हो सके, पर जिन्हें सूक्ष्मजगत की गतिविधियों का आकलन कर सकने की क्षमता है, वे इस पूर्वानुमान से सहमत हुए बिना नहीं रह सकते कि यथास्थिति बनाए रहने की अपेक्षा कोई अदृश्य शक्ति उपयोगी परिवर्तन करते रहने में भी अपने क्रीड़ा-कौतुक की सार्थकता अनुभव करती है। निकटवर्त्ती नारीयुग के आगमन को इसी दृष्टि से देखा जा सके तो ठीक है। प्रजातंत्र के प्रचलन के उपरांत से ही यह माँग उठती आ रही है कि मानवी मौलिक अधिकारों को जब मान्यता मिल चुकी है, तो फिर नारी को भी मनुष्य मानने और उसे मताधिकार मिलने का कदम उठे। इस प्रयास में लंबा समय लग गया। प्रगति धीमे-धीमे अवश्य हुई, पर उसमें क्रमशः एक देश के बाद दूसरे देश में वह लहर पनपती गई और आज स्थिति है जिसमें समझदारी ने विश्व के अधिकांश भाग को अपने अनुरूप सहमत कर लिया है। मात्र मुट्ठीभर प्रतिगामी इसमें हास्यास्पद अड़चने उत्पन्न करने पर अड़े हुए हैं। इस प्रसंग में इतिहास के पृष्ठों पर उन्नति— अभ्युदय के, आंदोलनों के, प्रतिभाओं के, अवसरों के खोजने का श्रम क्यों किया जाए ? इन्हीं दिनों इर्द-गिर्द जरा- सी गरदन मोड़कर हम इस संदर्भ में इतनी तेजी से, इतना आश्चर्यजनक घटित होते, उभरते देख सकते हैं, जो चकित कर देने वाला ही कहा जा सकता है। नारी प्रगति के संदर्भ में अपना देश प्रतिगामी स्तर का ही माना जाता रहा है। यहाँ सतीप्रथा, कन्यावध, बाल-विवाह, कन्या विक्रय, देवदासी, बलात्कार जैसे प्रचलनों को सहज स्वाभाविक माना और बिना किसी विरोध-विग्रह के साथ सहन किया जाता रहा है। शिक्षा, व्यवसाय, शासन, नेतृत्व जैसे अवसरों से उसे प्रायः वंचित ही रखा जाता रहा है। पर्दाप्रथा अभी भी पूरी तरह मिटी नहीं है। घरों की चहारदीवारी से बाहर निकलकर कोई उपयोगी कार्य करने तक की छूट को पूरी तरह मान्यता नहीं मिली है। राजसत्ता ने घोषणा की है कि नारी को तीस प्रतिशत आरक्षण शासकीय क्षेत्र में दिया जाएगा। उत्साही को वर्ग इस माँग को पचास प्रतिशत तक ले जाने के लिए अड़ा हुआ है। नारी शिक्षा को निःशुल्क किए जाने की योजना बन रही है। उन्हें लोकसभा से लेकर नगरपालिकाओं तक में उपयुक्त स्थान मिलने की संभावना है। पड़ोसी पाकिस्तान में इस्लामी कानूनों को ताक में रखकर महिला प्रधानमंत्री नियुक्त की गई है और अनेक क्षेत्रों में उनपर लगे हुए प्रतिबंधों को अकस्मात् ही उठा लिया है। अफगानिस्तान में महिलाओं का सशस्त्र सैन्यदल अपना कमाल दिखा रहा है। तुर्की के कमाल पाशा ने इस संदर्भ में जो क्रांतिकारी सुधार किए थे, उनको नए सिरे से कार्यान्वित किए जाने की तैयारी चल रही है। जापान की महिलाओं का तो दावा है कि पार्लियामेंट ही नहीं, वे देश के अधिकांश महत्त्वपूर्ण दायित्वों को अगले दिनों अपने कंधों पर उठाएँगी और यह सिद्ध करेंगी कि नारी की मौलिक क्षमता नर की तुलना में कम नहीं, वरन कहीं अधिक है। उसे अबला तो अनीति भर प्रतिबंधों ने बनाया है। कुहासा छँटने ही जा रहा है, तो वे घुटनभरे वातावरण में गई-गुजरी जिंदगी क्यों व्यतीत करेंगी ? भारतीय मूल की एक महिला ने ब्रिटेन व एक ने अमेरिका में सेना का उच्च पद प्राप्त किया है। दिल्ली ट्राँसपोर्ट कार्पोरेशन की तीन बसें महिलाएँ ही चलाती हैं, तथा एयर इंडिया का एक बोइंग जेट का संचालक दल समूचा महिलाओं का है। यातायात का संचालन भी महिला पुलिस भी करती हैं, वह भी सबसे व्यस्त चौराहों पर। अफगानिस्तान की तरह ईरान ने भी अपने यहाँ महिलाओं की एक पूरी बटालियन खड़ी की है, जो महिला ब्रिगेडियर के तत्त्वावधान में ही काम करती है। लीबिया के कर्नल गद्दाफी की भी ऐसी ही योजना है। इन राष्ट्रपति महोदय का कहना है कि महिलाएँ बहादुरी, वफादारी और कुशलता में पुरुषों की अपेक्षा अधिक अग्रणी होती हैं। उनके अंगरक्षक दल में मात्र सशस्त्र पुरुष वेशधारी महिलाएँ होती हैं। महिलाओं का भविष्य उज्ज्वल है। उनके आगे बढ़ने की संभावना सुनिश्चित है। समय के साथ चलते हुए जो इस प्रतिस्पर्धा के युग में अपने परिवार या प्रभाव-क्षेत्र में महिलाओं को अग्रगमन के लिए प्रोत्साहन एवं सहयोग प्रदान करेंगे, वे प्रगतिशील समझदारों की तरह नफे में रहेंगे। जो धीमे चलेंगे, उदासी अपनाएँगे, उपेक्षा करेंगे, वे पिछड़ों की अग्रिम पंक्ति में खड़े होंगे। बनना तो उन्हें भी वही पड़ेगा जो सर्वत्र बनने जा रहा है। पश्चाताप इसी बात का रह जाएगा कि समय आगे बढ़ा और हम हठवादिता अपनाते हुए “फिर कभी देखा जाएगा'' की बहानेबाजी का आश्रय लेते रहे।