Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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नाद ब्रह्म अथवा शब्द ब्रह्म का अभिप्राय उस अनाहत ध्वनि से है जो प्रकृति और पुरुष के संयोग स्थल से निरन्तर प्रसत और निनादित होती रहती है। ॐ कार वही स्वयंभू ब्रह्मनाद है। उससे सस स्वर प्रस्फुटित हुए। श्रुति शास्त्र में प्रयुक्त होने वाले उदात्त अनुदात स्वरूप उसी के आरोह अवरोह हैं। सङ्गीत शास्त्र में आगे चलकर वे
ही सा रे ग म प ध नि के स्वर सतक बन गये। सूर्य रथ के सप्तं अश्व उसके प्रभा किरणों में सन्निहित रङ्ग हैं । उसी प्रकार ब्रह्मनाद का ध्वनि गुंजन ससधा
स्वर लहरी में निनादित होता है ।
यों सुनने में सप्त स्वर और उनके आरोह अवरोह मात्र शब्द ध्वनि
का उतार चढ़ाव प्रतीत होते हैं और उनका उपयोग वाद्य गायन में प्रयुक्त होना भर लगता है पर
वस्तुतः उसकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। मनुष्य कृत स्वर लहरी के अतिरिक्त प्रकृति गत स्वर प्रवाह जीव धारियों द्वारा विविध विधि उच्चारण भी कम महत्व के नहीं हैं। मेघ गर्जन, समुद्र तर्जन, विद्युत कड़क, वायु सन-सनाहट, निर्णन की सांय साँय, अग्नि शिखा की धू धू, निझर निनाद, प्रकृतिगत ध्वनियाँ हमें समय-समय
पर सनने को मिलती रहती हैं । इसके
अतिरिक्त विभिन्न पशु, पक्षी आवश्यकतानुसार अपनी-अपनी
बोलियां बोलते हैं । रात्रि की नीरवता में दिल्ली की झङ्कार सुनते ही बनती है। सूर्योदय के समय पक्षियों के कंठ कितने प्रकार की कितनी मधुर स्वर लहरियाँ प्रस्तुत करते हैं उन्हें सुनकर
मुग्ध होजाना पड़ता है । लगता है स्वर ब्रह्म 'अपने अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और संदेशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता बहाता
रहता है।
यह सब आहत ध्वनियों हैं जो कानों
से सुनी जा सकती हैं । विज्ञान की पकड़ में वे ध्वनियाँ भी आगई हैं