Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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दूरदर्शी विवेकशीलता का जागरण त्राटक द्वारा
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चित्रों में शिव-पार्वती के मस्तिष्क में तीन-तीन नेत्र देखे जाते हैं। दो नेत्र तो मनुष्य समेत सभी प्राणियों के होते हैं, पर यह तीसरा दिव्य नेत्र विशिष्ट और वरिष्ठ योगाभ्यासी जनों में ही होता हैं। दोनों भौंहों के बीच इसकी स्थिति है। सामान्यतया तो इस क्षेत्र में तोड़कर देखने पर एक बेर की गुठली जैसी आप्टिक चिआज्मा की गाँठ ही होती है, पर इसे प्रयत्नपूर्वक जगा लेने से यह तीसरे नेत्र का काम देने लगती है; और इसके द्वारा वह देखा जा सकता है जो मस्तक में जड़े हुए दो चर्मचक्षुओं की सामर्थ्य से बाहर है। दिव्यदृष्टि इसी में रहती है। ज्ञानचक्षु इसी को कहते हैं।
रामायण में कथा आती है कि कामदेव के उपद्रव करने पर शिवजी ने इसी तीसरे नेत्र को खोला और उस उद्दण्ड को जलाकर खाक कर दिया था। एकाकी दमयंती को वन-प्रदेश में पाकर जब व्याध उसके साथ बलात्कार का प्रयत्न करने लगा तो दमयंती ने उसे बेधक दृष्टि से देखकर जलाकर भस्म कर दिया था। इससे प्रकट है कि कुपित होने पर इस जग्रत तृतीय नेत्र के सहारे किसी को शाप दिया जा सकता है और नीचा दिखाया जा सकता है।
इसमें वरदान की सामर्थ्य भी है। गांधारी ने दुर्योधन का अनुरोध स्वीकार करके उसके शरीर पर दृष्टिपात किया था, इतने भर से उसका शरीर वज्र जैसा हो गया था। लज्जावश लंगोट पहने रहने के कारण उतना ही हिस्सा उसकी दृष्टि से बचा था, फलतः वही कच्चा रह गया। कृष्ण के संकेत पर भीम ने उसी स्थान पर गदा मारी और उसे धराशायी बना दिया। यह चर्मचक्षुओं का नहीं, तीसरे दिव्य नेत्र से बरसाई गई अनुकंपा का ही प्रतिफल था।
दिव्यदृष्टि से वह सब भी देखा जा सकता है, जो चर्मचक्षुओं के लिए देख पाना असंभव है। संजय ने धृतराष्ट्र को घर बैठे ही महाभारत का पूरा घटनाक्रम सुनाया था। वे यह सब अपनी दिव्यदृष्टि से देखते और मुख से कहते रहे थे। अर्जुन कृष्ण से हठकर रहा था कि आप तो मेरे सखा मित्र हैं। आपके ईश्वर स्वरूप को मैं देखना चाहता हूँ। कृष्ण ने समझाया कि सर्वव्यापी निराकार परब्रह्म को चर्मचक्षुओं से देख सकना संभव नहीं। न किसी ने अब तक इस प्रकार उसे देखा है और न भविष्य में कोई देख सकेगा। फिर भी अर्जुन हठ करता ही रहा तो भगवान ने उसे “दिव्य चक्षु” दिए और उनके सहारे उसने विराट ब्रह्म के रूप में इस समस्त विश्व को ही विराट रूप में देखा और समझा कि यह दृश्य संसार ही भगवान का विराट रूप है। यही घटना इसी रूप में यशोदा, कौशल्या और काक भुशुण्डि के साथ घटी थी। उनने भी तृतीय दिव्य नेत्र से संसार को इसी प्रकार भगवान के विराट रूप में देखा था।
अन्य योगी-तपस्वियों को भी अपने-अपने इष्टदेवों के दर्शन होते रहे हैं। वे चर्मचक्षुओं से नहीं, इसी दिव्य नेत्र से संभव हुए हैं। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से यह दूरदर्शी विवेकशीलता का आवरण है, जो वर्त्तमान के कार्यों का भावी प्रतिफल समझ लेती है। मूर्ख तात्कालिक लाभ देखते और मछली, चिड़िया की तरह जाल में फँसकर अपने प्राण खो बैठते हैं। चींटी भी आँख मूँदकर चासनी परी कूद पड़ती है, पर पंख लिपट जाने पर तड़प-तड़पकर मरती है। यह अदूरदर्शिता हुई, चर्मचक्षुओं का अनुमान— निष्कर्ष— निर्णय, किंतु दूरदर्शी लोग बीज बोने में, विद्या पढ़ने में, व्यायाम करने में, कारखाना लगाने में, पूँजी फँसाने की बुद्धिमत्ता अपनाते हैं और समयानुसार उस घाटे की अनेक गुनी क्षतिपूर्ति का लाभ उठाते हैं। यह दूरदर्शी विवेकशीलता का सुझाव और निर्णय है। तीसरा नेत्र इस प्रकार की बुद्धिमत्ता को भी समझा जा सकता है।
अध्यात्म प्रयोगों में आदि से अंत तक इसी विवेकशीलता का प्रयोग होता है। संयम-सदाचार अपनाने में, तपश्चर्या एवं योगाभ्यास करने में पुण्य-परमार्थ में आरंभिक घाटा ही घाटा है, किंतु समयानुसार जब यह कल्पवृक्ष फलता है, तो साधक को हर दृष्टि से निहाल कर देता है।
इस तृतीय नेत्र का जागरण एक बहुत बड़ी सिद्धि है। साधना विज्ञान में इस प्रयोजन के लिए त्राटक-साधना का विधान है। त्राटक की मोटी रीति-नीति यह है कि आँखें खोलकर किसी वस्तु को देखा जाए। इसके बाद नेत्र बंद करके उसका कल्पना-चित्र मस्तिष्क में अंकित किया जाए। जब तक वह चित्र धुँधला न पड़े, स्मृति झीनी न पड़े, तब तक आँखें बंद रखी जाएँ और फिर आँख खोलकर उसी वस्तु को एकाग्रतापूर्वक देखने के उपरांत पहले की तरह फिर आँखें बंद कर ली जाएँ। इसी प्रकार देखने, स्मृति के आधार पर आँखें मूँदकर ध्यान करने और कल्पना धुँधली पड़ने पर फिर उसे आँख खोलकर देखने लगने की क्रिया बार-बार दुहरानी चाहिए।
प्रचलन इस क्रिया को दीपक के माध्यम से करने का है। कंधे की सीध— तीन फुट की दूरी पर दीपक को या मोमबत्ती को जलाकर रखा जाए और उसी के आधार पर उपरोक्त अभ्यास को बार- बार करने का क्रम चलाया जाए। तीस सेकेंड देखना और एक मिनट ध्यान करना। इस प्रकार एक-तीन के अनुपात से यह क्रिया चलानी चाहिए। कई लोग इसी प्रक्रिया को प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य पर या उदीयमान चंद्रमा पर दुहराते हैं। कारण कि प्रकाशवान वस्तुओं के सहारे दिव्यदृष्टि जगाने के कार्य में सरलता पड़ती है।
मैस्मेरिज्म के अभ्यासी एक काला गोला बनाते हैं और उसके बीचों-बीच एक सफेद निशान छोड़ देते हैं। काले रंग के बीच सफेद रंग स्पष्ट चमकता है और उस आधार पर भी त्राटक हो सकता है, पर इसमें खुले नेत्रों से अधिक देर देखना पड़ता है। तब कहीं स्मृत प्रतिमा का ध्यान अच्छी तरह जम सकता है।
प्रकाश को लगातार बहुत देर तक नहीं देखा जा सकता। इससे आँखों पर दबाव पड़ता है किंतु साथ ही यह लाभ भी है कि प्रकाश की स्मृति बहुत देर तक बनी रहती है, जबकि सामान्य वस्तुओं को आधे समय देखना और आधे समय ध्यान करने का क्रम चलाना पड़ता है। यह ध्यान गुलाब के फूल पर भी हो सकता है, क्योंकि उसका रंग गहरा और एक ही रंग का होता है।
जिन्हें आत्मोत्कर्ष के लिए इस साधना की सिद्धि करनी है, उन्हें लंबे समय तक इस प्रयोग का अभ्यास करना चाहिए और जब प्रयोग करने, परिणाम देखने की इच्छा हो तो यह देख-भाल कर लेना चाहिए कि शक्तिसंचय का उपयोग सत्प्रयोजनों के लिए हो रहा है या नहीं ?