Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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समय एक प्रतीति-एक भ्रम
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सापेक्षता के इस सिद्धांत ने विज्ञान को अध्यात्म के एकदम करीब पहुँचा दिया है कि समय कुछ और नहीं व्यक्ति की अपनी प्रतीति मात्र हैं। हम जिन तिथियों, तारीखों, वारों और घटनाओं को समझते हैं, वे भी प्रतीति मात्र हैं। व्यक्ति अथवा अनुभव करने वाला पात्र बदल जाता है, तो प्रतीति भी बदल जाती है। उदाहरण के लिए मनुष्य का जीवन सत्तर वर्ष निर्धारित है। शरीरयात्रा लगभग इतने वर्ष चलकर पूरी हो जाती है। व्यवस्थित और संतुलित जीवन जीएँ तो शरीर सौ वर्ष तक चलता रह सकता है, अन्यथा साठ के आसपास भी सिमट जाता है। पूर्ण आयु का औसत सत्तर वर्ष ही है। इस अवधि में मनुष्य बचपन, किशोर, युवा, प्रौढ़ और जरा के जितने अनुभवों से गुजरता है। चौबीस घंटे में अपनी जीवनलीला पूरी करने वाला मच्छर भी इतने ही अनुभव कर लेता है। उसकी चारों अवस्थाएँ चौबीस घंटों में संपन्न हो जाती हैं। अर्थात् मनुष्य के अस्सी वर्ष एवं कीट-भृंगी के चौबीस घंटे बराबर हुए।
प्रतीत पर निर्भर समय की सत्ता का एक उदाहरण सुख-दुःख की अनुभूति के रूप में दिया जाता है। प्रिय परिस्थितियों से घिरे रहने पर समय पंख लगाकर उड़ता अनुभव होता है। क्षण, दिन, हफ्ते, महीने देखते-देखते बीत जाते हैं। इसके विपरीत दुःखद परिस्थितियों में समय काटे नहीं कटता। इस तथ्य को लोग मृत्यु की घटना से भी समझाते हैं। जिस घर से शाम को कोई मौत हुई हो, वहाँ की रात बहुत लंबी अनुभव होती है।
समय-सापेक्षता के सिद्धांत को चलताऊ भाषा में विद्वानों ने इस तरह भी समझाया है। उनके अनुसार गरम तवे पर क्षण भर के लिए रखा गया हाथ प्रतीति की दृष्टि से सुख में बिताए हजार क्षणों से भी ज्यादा भारी होता है। हाथ की जलन का क्षण प्रेयसी के साथ बिताए घंटों से भी ज्यादा लंबा हो जाता है। प्रतीति पर निर्भर होने के कारण ही समय को किसी परिभाषा में बाँधा नहीं जा सका, न ही उसकी व्याख्या हो पाई।
पल, निमिष, सेकेंड, मिनट, घंटे और दिन को विभाजन सुविधा के लिए है। वस्तुतः समय यह भी नहीं है। किसी घटना को स्मृति में अंकित करने के लिए यह एक काम चलाऊ व्यवस्था है। इन दिनों हम सेकेंड, मिनट और घंटों में समय को समझते हैं। किसी समय पल और विपल में गणना की जाती थी। यह प्रचलित मानदंडों से भी सूक्ष्म है। ज्योतिष का अध्ययन करते समय पल, घड़ी और नक्षत्र आदि का ही उपयोग किया जाता है। दिन और वर्ष की गणना के लिए भी विभिन्न पद्धतियां जाती हैं। मानवीय वर्ष से कई गुना बड़ा होता है देव वर्ष । दैव वर्ष से भी सौ गुना बड़ा होता है ब्रह्मा का वर्ष । उल्लेख मिलते हैं कि ब्रह्मा का एक दिन मनुष्य के एक हजार वर्ष के बराबर होता है। रात भी इतनी ही लंबी होती है। उनके एक दिन और रात में सृष्टि का जन्म और लय हो जाता है।यह अवधि एक कल्प कही जाती है। ब्रह्मा का एक कल्प पूरा होने पर सृष्टि का प्रलय हो जाता है। सृष्टि के उद्भव और विलय की अवधि को हजारों करोड़ों वर्ष में आँका गया है।
मनुष्य वर्ष, दैव वर्ष, ब्रह्मा का आहोरात्र, उनकी आयु और कल्प आदि का मान अकल्पनीय है। सामान्य बोलचाल में जब किसी संख्या को अगणित बताना हो तो उसे हजारों-करोड़ कहते हैं। असीम, असंख्य आकाश में तारों के बराबर जैसे पर्याय भी प्रचलित हैं। उनका आशय इतना ही है कि काल अथवा समय को अवधि में नहीं बाँधा जा सकता है। वह असीम और अनंत है। वेदाँतशास्त्र उसे भी विस्तार की भाँति ही भ्रम बताता है। दिशा अथवा स्थान की जैसे कोई सत्ता नहीं है।, उसी तरह समय की सत्ता भी वेदाँत ने ‘माया’ की ही प्रतीति मानी है।
इस शती के आरंभ तक यह समझा जाता था कि समय दो घटनाओं के बीच की दूरी का माप है । घड़ी में सेकेंड की सुई, एक रेखा से दूसरों रेखा तक पहुँचने में जितनी गति करती है उसे सेकेंड कहते हैं। कल्पना कीजिए कि जिस समय घड़ी का आविष्कार हुआ होगा उस समय सुई की गति थोड़ी तेज होती तो सेकेंड का मान अबकी तुलना में छोटा होता ।सुई की गति कुछ धीमी होती तो सेकेंड का मान बड़ा हो जाता। सेकेंड को दिन के चौबीस घंटों की एक सूक्ष्म इकाई माना गया है। तत्व से बना होता है। विद्युत प्रवाह, बल, आघात और ऊर्जा की तरह यह भी स्थूल आँखों से नहीं दिखाई देता, लेकिन प्रभावी होता है। महत्व और शक्ति की दृष्टि से यह ठोस, तरल और वायवीय पदार्थों की तुलना में ज्यादा सूक्ष्म होता है। इसे अदृश्य पदार्थों या वायवी तत्वों से बना भी कह सकते हैं। खुली आँखों से इसे नहीं देखा जा सकता, कोई सूक्ष्मदर्शी यंत्र भी इसे नहीं पकड़ सकता। किर्लियन फोटोग्राफी जानने वाले विशेषज्ञों ने जरूर इसकी धुँधली आकृति अपने कैमरों में उतारी है। वे मनुष्य-शरीर ही नहीं, पेड़-पौधों और दूसरे जीवों के आभाशरीर को भी रील पर उतारने में सक्षम हुए हैं।
‘प्राणिक हीलिंक’ के जानकार बताते हैं। कि स्थूलशरीर में प्रकट होने से महीनों पहले आभाशरीर में लक्षण दिखाई देने लगते हैं रोग-बीमारियों के अनुसार, यह अवधि हफ्तों और कुछ दिनों पहले भी हो सकती है। जब आभाशरीर बीमार होता है। तो उसके विशेष भाग से प्राणशक्ति कम होने लगती है। पीड़ित अंग के पास ऊर्जा शरीर दो से पाँच सेंटीमीटर सिकुड़ जाता है। वहाँ का रंग भी बदलने लगता है। उदाहरण के लिए, आँखों में कोई तकलीफ पैदा होने के पहले आँखों के आसपास की आभा घटने लगती है। कुछ मामलों में पीड़ित अंग के आसपास की आभा घनीभूत भी हो जाती है। ‘प्राणिकक हीलर’ अपनी अंतःदृष्टि से आभाशरीर में आए विकारों को पकड़ लेता है। उस आधार पर वह बता देता है कि अमुक बीमारी आने वाली है। अंतःदृष्टि से समझने की कला प्रशिक्षण और अभ्यास द्वारा विकसित की जाती है। प्राणिक हीलिंग के क्षेत्र में इस कला को ‘स्कैनिंग‘ कहते हैं।
प्रशिक्षण और अभ्यास ‘हालर’ अथवा ‘उपचारक’ को मनः स्थिति ताड़ने में भी समर्थ बना देता है। नई दिल्ली में वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रही आशिमा सिंह का कहना है कि यह सिद्धि-वरदान नहीं है। मन को निर्मल और पूर्वाग्रहों से मुक्त कर एकाग्रता से कोई भी व्यक्ति अपने भीतर यह क्षमता विकसित कर सकता है। आशिमा सिंह सूक्ष्मशरीर में आए विकार और परिणामों का निदान आसानी से कर लेती है। उससे लाभान्वित होने की पुष्टि करने वाले ढेरों उदाहरण हैं । लाभ नहीं होने की शिकायतें भी कम नहीं हैं। कुल आए केसों में साठ प्रतिशत से ज्यादा लोग प्राणिक हीलिंग से लाभ मिलने की पुष्टि करते हैं। यह प्रतिशत किसी भी विद्या के कारगर होने का प्रमाण देने के लिए काफी है। मेडिकल साइंस भी एक स्थिति के बाद साठ-सत्तर प्रतिशत से ज्यादा कामयाब होने का दावा नहीं करता।
अपने अनुभव सुनाते हुए आशिमा सिंह ने कहा कि वर्षों पहले सूने घर में चोर घुसे। उस समय मैं बाहर गई हुई थी। परिवार के अन्य सदस्य भी शहर से बाहर थे। मेरे घर लौटने से पहले ही चोर घर में घुसकर छुप गए थे। शायद मेरे आने का इंतजार कर रहे थे। रात दस बजे के आसपास मैं घर लौटी तो दरवाजा खोलते ही उन्हें सामने खड़ा पाया। वे आक्रामक तेवर लिए हुए थे। उन्हें देखते ही मुझे ने जाने क्यों लगा कि कितने ही आक्रामक दीखें, पर वे मुझ पर हमला नहीं कर पाएंगे। उनके ऊर्जा शरीर से मुझे यह आभास हुआ। वे भीतर बुरी तरह काँप रहे थे। उनके ऊर्जा शरीर में पत्ते की तरह थरथराहट देखकर मुझे जोर की हंसी छूटी। मुझे हंसता देख उनके हाथों से हथियार गिर गए। वे माफी माँगने लगे और अपने आप बताने लगे कि उन्हें किसी ने पैसे देकर डाकेजनी के लिए भेजा है। वे पेशेवर बदमाश थे, लेकिन महानगर के एकाँत हिस्से में मुझ अकेली स्त्री को देखकर भी लूटपाट नहीं कर सके। उन्हें असमर्थ कर देने का श्रेय अपने भीतर विकसित हो गई प्राणऊर्जा को दिया जा सकता है। लेकिन मुझे उनके निस्तेज होने का आभास क्षणभर में ही संपन्न हो गई स्कैनिंग के कारण ही हुआ था।
राजधानी में कार्यरत एक पत्रकार के 1997 में एक दिन चेहरे पर छोटी-सी फुँसी उभरी। दूसरे दिन वहाँ तीन फुँसियाँ उठी और कमजोरी महसूस होने लगी। शरीर का तापमान भी बढ़ गया। रात सोने के बाद सुबह उठे तो चेहरे का दांया हिस्सा फुँसियों से भरा हुआ था। आशिमा सिंह ने दूर बैठे ही विश्लेषण (स्कैंनिग) कर बता दिया कि यह किसी ताँत्रिक प्रयोग का परिणाम है। वह प्रयोग किया किसी और के लिए गया था, लेकिन लक्ष्य चूक गया और पत्रकार चपेट में आ गए। दो सप्ताह में चार हीलिंग दी गईं। औषधि उपचार भी हुआ और रोग ठीक हो गया। उस बीमारी का निदान डाक्टर आखिर तक नहीं कर पाए थे।
आभाशरीर की जाँच या विश्लेषण ‘प्राणिक हीलिंग’ की अगली कक्षाओं में ही सीखी या सिद्ध की जा सकती है। इस कला में पारंगत होने के बाद हीलर दूर बैठकर भी व्यक्ति के रोग और स्वभाव को समझ सकता है। बहुत उपचारकों में यह सिद्धि प्राणिक हीलिंक का अभ्यास शुरू करने से पहले ही होती है। उसे पूर्व जन्म के संस्कारों का फल कहेंगे। आभाशरीर के बारे में चो कोक सुई ने लिखा है-”सामान्य शरीर में जिस तरह रक्त के संचार के लिए नाड़ियां या रक्त नलिकाएं होती हैं, इसी प्रकार आभाशरीर में भी न दिखाई देने वाली बारीक शिरोबिंदु या नाड़ियाँ होती हैं। इनके द्वारा प्राणशक्ति पूरे शरीर में प्रवाहित होती है।”
“आभाशरीर में कोई विकार या रोग प्रवेश करता है, तो संबंधित अंगों के आसपास की नाड़ियाँ आँशिक रूप से अवरुद्ध हो जाती हैं। प्राणऊर्जा उन अंगों में आसानी से न तो प्रवेश कर पाती है और न ही बाहर निकल पाती है। प्रभावित क्षेत्र हलके भूरे या गहरे भूरे रंग के दिखाई देते हैं।”
मास्टर चो ने आभाशरीर को स्थूलशरीर के रूपक से समझाया है। उसी तरह उपचार की विधियाँ भी दी हैं। योगविद्या की भाषा में उस उपचार को प्राणशक्ति का अनुदान देने, आशीर्वाद भेजने और संकल्प मात्र से व्यक्ति के शरीर, मन तथा स्थितियों में अभीष्ट परिवर्तन ले आने की कला कह सकते हैं। मास्टर चो मानते हैं कि प्राणिक हीलिंग में दक्षता के एक विशेष स्तर पर पहुँचे व्यक्ति में भी यही सामर्थ्य विकसित हो जाती हैं। लेकिन उस स्तर तक पहुँचने के लिए रुकना नहीं चाहिए।
किलनर ने लिखा है कि विशेषज्ञों की जरूरत जटिल समस्याओं और गुत्थियों के लिए ही पड़ती हैं। नब्बे प्रतिशत रोग सामान्य श्रेणी के होते हैं और मामूली उपचारों से ठीक हो जाते हैं। उनके लिए खास योग्यता नहीं चाहिए। प्राणिक हीलिंग के क्षेत्र में औसत प्रशिक्षण लेकर भी काम चलाया जा सकता है। भविष्य में इसी तरह के लोग ज्यादा होंगे। गली-मुहल्लों और कस्बों में साधारण वैद्य-हकीमों और फिजीशियन ही बस्ती का स्वास्थ्य-संतुलन बनाए रहते हैं। किलनर के अनुसार, अगले दिनों इसी तरह प्राणिक हीलर भी जगह-जगह होंगे और लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं को सूक्ष्म स्तर पर सुलझाएंगे।
प्राणिक हीलिंग ने स्वास्थ्य संबंधी प्रचलित धारणाओं में क्राँतिकारी उलट-फेर किए हैं। अब तक विज्ञान इसी सिद्धांत के समर्थन में खड़ा था कि शरीर में विजातीय तत्वों के बढ़ जाने से ही रोग होते हैं। दवाओं के जरिए अथवा शल्य चिकित्सा से विजातीय द्रव्यों का निष्कासन कर दिया जाए तो रोग ठीक हो जाते हैं। इस सिद्धांत पर काम करते हुए स्थूलशरीर को ही सब कुछ मानने वाली चिकित्सापद्धति चालीस-पचास प्रतिशत रोगों को ही ठीक कर पाती हैं। ‘प्राणिक’ के जरिये सत्तर प्रतिशत मामलों में आराम मिलता दिखाई देता है।
सिर्फ स्थूलशरीर और अंगों का ही उपचार करने पर ठीक हुए पचास प्रतिशत रोग भी वास्तव में जड़-मूल से नहीं मिटते । बीमारी में आराम मिलता जरूर दिखाई देता है। वह आराम एक भ्रम ही होता है। असल में औषधियों के दबाव से शरीर में रोग कुछ देर के लिए दब जाते हैं। उनकी पीड़ा कुछ समय के लिए शाँत हो जाती है। औषधि का प्रभाव दूर होते ही रोग फिर उभरने लगता है। प्राणिक विशेषज्ञों के अनुसार रोगों की जड़ें कहीं गहरी होती हैं। उन्हें वहीं से उखाड़ा जाए तभी संपूर्ण उपचार होता है।
मास्टर चो ने इन जड़ों को इंगित करते हुए लिखा है कि रोगों के बीज मनोभावों से अंकुरित होते और अपना विष फैलाते हैं। क्रोध, भय, लंबे समय तक बना रहने वाला चिड़चिड़ापन और कुँठा जैसे अनियंत्रित अथवा दबाए गए आवेग आभाशरीर पर अवाँछित प्रभाव डालते हैं। क्रोध और कुँठा से पेट के आसपास की प्राणशक्ति कम होने लगती है। हृदय-चक्र प्रभावित होता है। शरीर पर उसका पहला प्रभाव अपच और पेचिश के रूप में होता है। लंबे समय तक यह स्थिति बने रहने पर अल्सर या पित्ताशय की समस्या में बदल जाता है। दूसरे मामले में हृदय संबंधी समस्याएँ उत्पन्न होती है।
वासना का आवेग मानसिक और शरीर के उत्सर्जन अंगों से संबंधित बीमारियों को आमंत्रित करता है। ईर्ष्या का भाव देर तक बना रहे तो चर्म रोगों की आशंका बढ़ जाती है। किसी के निजी जीवन में बेवजह दखल आँख और कान संबंधी बीमारियों को जन्म देता है। ‘प्राणिक हीलिंग’ के पाठ्यक्रम में इस तरह की कई बारीकियाँ पढ़ाई जाती हैं। विद्यार्थियों को समझाया जाता है कि वे रोगी का इलाज करते हुए उसे अपने व्यवहार और मनोभावों पर संयम रखना भी सिखाएं। बहुत सी समस्याएँ तो आत्मशोधन और चित्त में उदार वृत्ति का विकास करने से ही दूर हो जाती है।