Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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निंदक की भी सेवा करते हैं जीवनमुक्त देवमानव
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तब जीवराम भाई काठियावाड़ के एक छोटे से राज्य के पुलिस विभाग में नौकरी करते थे। काम तो उन्होंने बड़े मामूली ओहदे से शुरू किया था, पर तरक्की करते-करते उस समय तक वह फौजदार के पद पर पहुँच चुके थे। गाँव छोटा था, राज्य भी छोटा था अधिकारी थोड़े थे। जीवाराम भाई भी अपनी नौकरी में सुखी थे। ग्रामीणजनों के मन में उनके प्रति आदर था।उस जमाने में सत्तर पचहत्तर रुपये की छोटी सी नौकरी में भी उनके दिन आनंद से गुजर रहे थे। वह खुद को सुखी मानते थे।
यह मान्यता उनके अकेले की कहाँ थी ? दूसरे लोग भी उन्हें कुछ ज्यादा ही सुखी मानते और समझते थे।यह कुछ अच्छी बात न थी, क्योंकि दूसरों को ऐसा मानना उनके प्रति ईर्ष्या उपजाता था और ईर्ष्या का परिणाम अच्छा नहीं होता, यह तो सभी जानते हैं । ईर्ष्या करने वालों में खासतौर पर उनके ही विभाग में काम करने वाला एक काठियावाडी भाई था। उसका नाम था करमचंद भाई। फौजदार के गौरवमय पद की तनख्वाह थी-पचहत्तर रुपये । करमचंद भाई की सोच थी कि यह पद उन्हें मिल जाए तो ? तो ......... तो फिर स्वर्ग का राज्य भी पाया जा सकता है और यदि जीवाराम भाई की तरह रियासत के स्वामी की कृपादृष्टि भी मिल जाए तो फिर क्या कुछ ही किया जा सकता ।
पर यह सब हो कैसे ? करमचंद भाई हमेशा इसी उधेड़बुन में उलझे रहते । जीवाराम भाई यह पद छोड़े , तभी यह मुमकिन था। पर जीवाराम भाई ऐसा क्यों करते? वे जवान थे। हट्टे-कट्टे और कद-काठी से मजबूत थे। राजा और प्रजा दोनों के ही चहेते थे और सबसे बड़ी बात, अपने काम में होशियार थे। उन्हें भला पद छोड़ने के लिए कौन कह सकता था। फिर ऐसी बात कोई मानता भी क्यों और किस लिए ? बस एक ही तरीका था, उनसे पद छुड़वाने का कि वे किसी भी तरह राजा की नजर से गिर जाएँ।
क्रमचंद भाई भी जवान थे, शरीर से भी मजबूत थे। उनमें महत्वाकाँक्षा तो थी, पर मेहनत की भी कोई कमी न थी। जीवाराम भाई को राजा की नजर से गिराने के लिए हर संभव उपाय उन्होंने आजमा लिए। तरह-तरह की चालें .चलीं। अपनी खोटी बुद्धि की हर तिकड़म लड़ाई, पर उनमें किसी भी तरह से कोई सफलता न मिली। अपनी इन कोशों को करते-करते करमचंद भाई को साल दर साल गुजरते चले गए, लेकिन उनका हाल वही का वही रहा, बल्कि कई बार तो उन्हें खुद ही नीचा देखना पड़ा। जीवाराम भई का आसन तो ज्यों का त्यों ही रहा बल्कि शायद थोड़ा सा ऊपर ही उठ गया।
करमचंद भाई भी उनमें से नहीं थे, जो हार मानकर बैठ जाते हैं। उन्होंने भी आखिरकार एक मार्ग तलाश लिया । उनकी अपनी समझ में यह अंतिम और सुनिश्चित सफलता का मार्ग था।
गीगा उसी गाँव का रहने वाला था। अभी हाल ही में वह जेल से छूटकर आया था। बड़ा ही शातिर बदमाश था वह । सभी उससे डरते-दबते थे। जिधर से भी वह निकल जाता, लोग सहम जाते । इन दिनों सुना यही जा रहा था कि उससे अपराध कबूल करवाने के लिए उसे जेल में बड़ी बड़ी यातनाएं दी गई थी। उस पर लाठियों की बारिश करने वाले फौजदार जीवाराम भाई ही थे। गीगाराम को जेल में दी गई यातना के बारे में तरह-तरह की अनेक कहानियाँ लोगों में फैली हुई थी । करमचंद भाई को गीगा अपने काम के लिए सबसे उपयुक्त आदमी लगा । वह उससे जाकर मिले। उसे तरह-तरह से समझा-बुझाकर बहलाया-फुसलाया और कई तरह के लालच देने के साथ उसके मन के वैरभाव को जाग्रत किया।
आखिरकार वह अपने मकसद में सफल ही ही गए । गीगा जीवाराम भाई से बदला लेने को राजी हो गया उन्होंने गीगा को वचन दिया कि इस काम के बदले वह उसे पचास रुपये देंगे। ये पचास रुपये उन दिनों काफी बड़ी रकम होती थी। यदि उसे कुछ हो गया या वह जेल चला गया, तो उसके परिवार वालों का ध्यान रखेंगे। पाँच रुपये की परेशानी देकर, उन्होंने चैन की साँस ली।
गीगा इसके लिए तैयारी करने लगा ।वह अपने हथियार की धार तेज करता और करमचंद उसका उत्साह बढ़ाते अंत में एक दिन उनके मन की मुराद पूरी होने की रात आ पहुँची।
करमचंद भाई ने उसे अंतिम हिदायत दी, हिम्मत भी बढ़ाई, देखना गीगा, आखिरी वक्त पर डर मत जाना। गीगा बोला-आप निश्चिंत रहें करमचंद भाई । इस गीगा को कुछ भी बिताने-समझाने की जरूरत नहीं है। ज्यों ही रात घनी हुई, वह अपने काम के लिए निकल पड़े।
रात घनी और अंधेरी थी रास्ता सुनसान और वीरान था। किसी अपराध की जाँच करने गए हुए जीवाराम भाई का घोड़ा उन्हें लिए हुए अपने परिचित रास्तों से वापस लौट रहा था। गाँव अभी काफी दूर था । तभी किसी ने घोड़े को रोका। थके-माँदे जीवाराम भाई अचानक आई इस रुकावट से सावधान हो गए । एक चेतावनी उन्हें सुनाई दी-होशियार रहो, जिसकी कल्पना न करमचंद ने की थी और न ही जीवाराम भाई ने।
गीगा ने अपना उठाया हुआ हथियार जीवाराम भाई के हाथों में सौंप दिया। फौजदार साहब । आपका अहसान भूला तो मेरे रोम-रोम से कोढ़ फूट निकले, मेरे शरीरी से रक्त-पित्त बहे। मैं भला यह नीच कर्म किस तरह से करता । पर मैं अभागा यदि मना करता तो यह काम किसी दूसरे को सौंप दिया जाता और जरूर कुछ अनर्थ हो जाता । इसीलिए मैंने यह मनहूस जिम्मेदारी ले ली। आप अब सँभल जाएँ और मैं भागता हूँ। इतनी बात सुनाकर गीगा उस घने अंधेरे में गायब हो गया। सिर्फ जीवाराम भाई अभी भी भगवान की असीम कृपा को याद करते हुए आश्चर्य और आनंद से गदगद खड़े थे।
छोटे से काम का कितना बड़ा बदला भगवान कैसे देता है। जीवाराम भाई सोच रहे थे, गीगा पर किए गए उपकार में तो ऐसा कुछ कहने लायक था ही नहीं।
गीगा जब सरकारी जेल में बंद था, तब उस पर बड़े गंभीर आरोप और आक्षेप थे। ऊपर से सरकारी हुक्म था कि चाहे जैसे बन पड़े, उससे अपने अपराध कबूल करवाने हैं। वह बड़ा ही शातिर बदमाश हैं। सीधी तरह से न माने तो उसे डंडे का जोर दिखाओ। लेकिन बहुत देर तक दरियापत करने पर उन्हें कुछ ऐसा लगा कि शायद गीगा गुनहगार नहीं है, तो फिर मार-पीट से क्या होना ? लेकिन सरकारी हुक्म की अवमानना भी संभव नहीं थी। क्योंकि गीगा ने इस बार भले ही कोई जुर्म न किया हो, पर था तो वह नंबर एक का बदमाश ही। एक शातिर और नामचीन बदमाश के रूप में ही वह जाना जाता था। वह जो न कर गुजरे, वह थोड़ा था।
बहुत सोचने पर भी उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था । बार बार वे यही सोच रहे थे कि ऐसे स्वस्थ जवान इनसान को मार-मारकर भुरता बना दिया जाए, भला यह कहाँ तक ठीक है ? अचानक ही उन्हें एक रास्ता सूझ गया। उन्होंने गीगा से कहा कि सरकारी हुक्म के अनुसार बिना मारे छुटकारा नहीं है, लेकिन तुम भगवान को साक्षी मानकर वचन दो कि भविष्य में अपराध नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें बचा लूँगा।
गीगा को यह बात पसंद आई । उसने फौरन ही मान लिया। बस फिर क्या था। अंधेरा होने के बाद उसकी कोठरी में डंडों की बौछार शुरू हो गई। गाली-गलौज की मूसलाधार बरसात भी होने लगी। गीगा की करुणा चीखों से पूरा वातावरण भर गया। सिर्फ गीगा को छोड़कर गाँव और जेल के हर आदमी को लगने लगा कि गीगा पर भारी मार पड़ रही है। मन ही मन हंसते जाते फौजदार साहब और चीख-पुकार मचाता गीगा ही जानते थे कि मार पड़ रही थी जरूर पर गीगा के शरीर पर नहीं ।
इस छोटे-से काम का बदला भगवान ने इस तरह जिंदगी बचाकर जीवाराम भाई को दिया। वे गदगद मन से सोच रहे थे कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बिलकुल सही कहा है-’6न हि कल्याणकृत्कश्चिददुर्गति तात गच्छति” (6/40) । यानि कि किसी भी भले काम को करने वालों को कभी दुर्गति नहीं होती।
हाँ, इस घटना के बाद उन्हें करमचंद भाई पर दया आने लगी। वह अपने घर पहुँचने के बाद भी बार-बार यही सोचते रहते कि देखो तो करमचंद भाई बेचारा कितनी छोटी-सी बात के लिए कितना बड़ा पाप करने के लिए तैयार हो गया। हालाँकि उन्होंने इस घटना का जिक्र कभी किसी से नहीं किया। जीवाराम भाई को इस बात का पता है या नहीं, करमचंद भाई ने इस सच्चाई को जानने के लिए कई कोशिशें जरूर कीं। लेकिन पहले की अपेक्षा अपने प्रति उनके आदर व्यवहार में मिठास और भी अधिक आ गई है, इसके सिवा उन्हें कुछ पता नहीं चला।
कुछ ही समय के बाद जीवाराम भाई ने यह नौकरी छोड़ दी। अपनी नौकरी छोड़ते समय उन्होंने रियासत के स्वामी से योग्यता का बखान करते हुए उन्होंने इस बात की सिफारिश और गुजारिश की कि हो सके तो यह फौजदार का ओहदा उन्हीं को दिया जाए। इसके बाद उन्होंने अपनी मित्र-मंडली और सारे गाँव से विदा ली, उतनी ही मधुरता से करमचंद भाई से भी।
राज्य के नौकर छोड़ने के बाद वह अपने वतन राजकोट आकर रहने लगे। आर्थिक तंगी का होना तो स्वाभाविक था ही। क्योंकि कमाई का और कोई साधन नहीं जुट पाया था। ऐसे में ही एक दिन करमचंद भाई का राजकोट आना हुआ। अब वह फौजदार थे और जीवाराम एक साधारण गरीब-गृहस्थ । जीवाराम भाई ने बड़े आनंद से उनका स्वागत-सत्कार किया और रसोई में जाकर पत्नी से बोले-आज हलुवा बनाना।
पत्नी ने काफी धीमी आवा में कहा, तुम हुक्म तो दे रहे हो, पर तुम्हें मालूम भी है, अपने घर में कत से घर नहीं है। आखिर कौन आया है, ऐसा, जिसके लिए इतना परेशान हो रहे हो।
अपने करमचंद भाई आए हैं।
अरे वह मुआ ? पत्नी ने कहा तो दबी आवाज में, पर उसके चेहरे में तीव्र कड़वाहट उभर आई । करमचंद भाई के पिछले कारनामे उसे अभी भी याद थे। वह कहने लगी-खानी होगी तो रोटी खा लेगा। उसने ऐसा क्या किया है जो................।
पागल हो गई हो तुम ............ जीवाराम भाई हँसे। इतने सालों तक मेरे साथ रहीं, फिर भी समझ नहीं पाईं । अरे, भलाई करने वाले की तो सभी सेवा करते हैं, पर बुराई करने वाले को जो प्यार से सेवा करता है, वही सच्चा मनुष्य है और ईश्वर का सच्चा भक्त भी। घी नहीं है तो कोई बात नहीं, पड़ोसी से उधार माँग लाओ। पर आज हलुवा ही बनाना। जीवाराम भाई इतने प्यार से समझाते थे कि तर्क की कोई गुँजाइश ही नहीं रहती थी। पत्नी ने मौन भाव से पति की बात मान ली।
घी से तर-ब-तर हलुवा और गरम-गरम पकौड़ियाँ जीवाराम भाई ने आग्रह कर-करके करमचंद भाई को खिलाईं। फिर आनंदपूर्वक बातें करके जब करमचंद भाई चले गए, “प्रभु जीवाराम भाई भगवान से प्रार्थना करते हुए बोले, “प्रभु मुझे अपना सच्चा भक्त बनाना, मेरे हाथों से कभी किसी को बुरा न हो। मुझे और कुछ नहीं चाहिए उनका समूचा जीवन लोकसेवा का पर्याय था। साधारण जीवनयापन करते हुए अहिर्निश लोकसेवा-यही उनके जीवन का मूल मंत्र बन गया।