Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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पौधे भी समझते हैं अपनत्व व उपेक्षा की भाषा
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जीव-जंतुओं की ही तरह पेड़-पौधों में भी प्राणचेतना विद्यमान है। वे चलते-फिरते भले न हों, पर उनके अंदर भी भाव-संवेदनाएं हिलोरें मारती हैं। अपनी स्कूल बोध क्षमता के कारण मनुष्य भले ही उनकी मूक भाषा को न समझ सके, किंतु पौधे हमेशा अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। वे मानवीय क्रियाकलापों यहाँ तक कि उनके विचारों एवं भावतरंगों से भी प्रभावित होते हैं। प्राचीनकाल में भारतवासी ऋषि-महर्षिगण अपनी संवेदनशील एवं सूक्ष्मचेतना शक्ति द्वारा इस सत्य से अवगत थे। आज का वैज्ञानिक जगत् भी अपने प्रयोग-परीक्षणों द्वारा इस तथ्य को पुष्ट एवं प्रमाणित कर रहा है।
संयुक्त राज अमेरिका की संस्था सी आई.ऐ. के पूर्व पूछताछ एवं पॉलीग्राफ विशेषज्ञ क्लीव वेक्सटरने अपने कई प्रयोगों से यह निष्कर्ष पाया कि पौधे भी मनुष्य की ही तरह संवेदना व्यक्त करते हैं। एक प्रयोग के अंतर्गत इन्होंने एक ड्रेकाइना पौधे के पत्तों में पॉलीग्राफ के इलेक्ट्रोड लगाए। इसका उद्देश्य पौधे की जड़ों से पत्तों में बढ़ने वाली पानी की गति का मापन करना था। पॉलीग्राफ द्वारा मनुष्य में भावनात्मक परिवर्तन के कारण श्वास-रक्तचाप , नब्ज़ गति आदि में होने वाले बदलाव का मापन किया जाता है। इसे गैल्वैनिक स्किन रिसपान्स (जी.एस. आर.) के या साइको गैल्वैनिक रिफलेक्स ( पी.जी.आर.) के नाम से नापा जाता है। विषय की विद्युतीय हलचलों के अनुरूप पॉलीग्राफ के चार्ट पेपर पर एक पेन द्वारा रेखाएं अंकित होती हैं।
नियम के अनुसार जब पानी पौधे के पत्तों में पहुँचता है, तो प्रतिरोध कम हो जाता है और अनुरोखण ऊपर हो जाता है। लेकिन प्रयोग के तहत वेक्सटर ने इस नियम के विपरीत घटित होते देखा । चार्ट मानवीय भावनात्मक उद्वेलन के अनुयप् मापन दे रहा था। वेक्सटर को सहसा विश्वास नहीं हो पाया कि पौधा कैसे भावनात्मक जवाब दे रहा है। उन्होंने अपनी तीव्र जिज्ञासा के समाधान के लिए प्रयोग को आगे बढ़ाया। जिसके अंतर्गत पौधे को आग लगाकर डराया जाना था। वेक्सटर ने जैसे ही माचिस जलाने की बात सोची, पी.जी.आर में अद्भुत परिवर्तन आ गया। वह पौधे से कई फुट दूर था और माचिस जलाई तक नहीं थीं, किंतु पॉलीग्राफ चाट पर पौधे की क्रियाशीलता अंकित हो रही थी।
इसके बाद वेक्सटर ने समुद्री झींगे को वहीं पास ही में उबलते पानी में डाला। पुनः पौधे ने बहुत खीझ एवं रोष व्यक्त किया। वेक्सटर आश्चर्यचकित थे कि क्या कोशिकाएं दूसरी जीवित कोशिकाओं को तनाव के संकेत देने में समर्थ होती हैं? क्या पौधे पशुओं की भावनाओं से भी प्रभावित होते हैं ? किसी तरह की मानवीय त्रुटियों से बचने के लिए एक अन्य प्रयोग पूरी तरह याँत्रिक रूप से किया गया, जिसमें झींगे को निर्धारित समय पर मारना था। कोई भी मनुष्य इसके आसपास नहीं रहा। मारे जाने वाले झींगे से दूर तीन अलग-अलग पौधों को अलग अलग कमरों में इलेक्ट्रोड से युक्त किया गया। पॉलीग्राफ के चाट से पता चला कि तीनों पौधों ने झींगे की मृत्यु के समय अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की । इसी प्रयोग को वेक्सटर व अन्यों ने कई बार और अधिक संवेदनशील यंत्रों के माध्यम से किया, किंतु हर बार वही परिणाम सामने आए।
वेक्सटर ने पाया कि अपरिभाषित संवेदी तंत्र या कोशिका जीवन की बोध क्षमता को, विद्युतीय प्रवेश को रोकने वाली फाराडे स्क्रीन द्वारा भी नहीं रोका जा सकता। पौधों द्वारा प्रेषित संकेत इलेक्ट्रोडाइनैमिक स्पैकट्रम से परे की शक्ति द्वारा चलित थे। इन प्रयोगों से वेक्सटर की यह धारण बनी कि समस्त प्राणी कोशिकीय स्तर पर चेतना द्वारा जुड़े हैं। इतना ही नहीं, पौधे, मनुष्य एवं जीव-जंतु एक दूसरे से अब तक के ज्ञात दूर संवेदी संवाद के तरीकों से भी उच्चतर स्तर पर संवाद कर सकते हैं।
इसमें दूरी भी कोई बाधा नहीं है। एक मित्र के घर का पौधा वेक्सटर के पास छोड़ा गया। देखा गया कि यह उस समय बेहद उत्तेजित हो गया, जब इसका स्वामी चिंचिटी के हवाई अड्डे में उतरते समय तनाव की स्थिति में आ गया था। वेक्सटर जब भी न्यूयार्क स्थिति अपनी प्रयोगशाला से दूर होते थे तो उनके आश्चर्य, उत्तेजना व तनाव आदि के क्षण उनके पौधों के पॉलीग्राफ चार्ट से मेल खाते थे। चाहे वह कितनी भी दूर क्यों न हों ? जब वह अपनी प्रयोगशाला में आने की सोचते तो पौधे आवेग के साथ प्रतिक्रिया करने लगते। मजेदार बात यह भी है कि पौधे अपने स्वामी व देखभाल करने वालों के प्रति विश्वास तथा अपनत्व के भाव प्रदर्शित करते हैं। और अपरिचितों तथा नुकसान पहुँचाने वालों के प्रति भय व्यक्त करते हैं। वेक्सटर ने इस प्रयोग को कई बार स्वयं को एक अच्छे व्यक्ति की भूमिका में लाकर व अपने सहयोगी बाँब हनेसम को एक खलनायक की भूमिका में रखकर सत्यापित किया। जब कभी प्रयोगशाला में कार्य के दौरान वेक्सटर की उंगली कटती या उन्हें किसी तरह से चोट पहुँचती है तो पौधे अपनी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करते। संक्षेप में उन्होंने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया कि बिना स्नायुतंत्र के भी पौधे विश्वास, भय, दुःख और समझ जैसे भावों को व्यक्त करते हैं।
भारत के सुविख्यात वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में पौधों की संवेदनशीलता को प्रमाणित किया था। उनके अनुसार उत्प्रेरकों के प्रभाव से प्रेम, घृणा, भय, प्रसन्नता, दर्द विस्मय आदि संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएं पौधों में उतनी ही सार्वभौम हैं, जितनी कि पशुओं में । उत्तेजित प्रतिक्रियाओं के संप्रेषण की गति मापन करने वाले रेजोनेन्ट रिकार्डर और पौधों के कंपन रिकार्ड करने वाले आँपिलेटिंग रिकार्डर द्वारा बोस ने पौधों के आवेगों और पशुओं के हृदय धड़कने की साम्यता को सिद्ध किया।
‘आटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ में परमहंस योगानंद ने लिखा है कि उन्होंने डा. जगदीशचंद्र बसु के इन प्रयोगों को स्वयं देखा। ऐसे ही एक प्रयोग के दौरान उन्होंने डा. बोस को फर्न के एक हिस्से में एक तीखे यंत्र को चुभाते देखा। पेड़-पौधों की सूक्ष्म गतिविधियों को दस हजार गुना बढ़ाकर प्रदर्शित करने वाले क्रेस्कोग्राफ यंत्र की स्क्रीन पर फर्न की छाया देखकर उन्होंने पाया कि फर्न चोट के समय अनियमित ढंग से काँप रही थी और जब आचार्य बोस ने इसे काट दिया तो यंत्र ने मृत्यु की संवेदना का परिचय दिया। स्वामी योगानंद ने अपने मंतव्य को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि चेतना सर्वव्यापी है। जीव-जंतुओं के साथ वह अपने को पेड़-पौधों में भी अभिव्यक्ति करती है।
हमला होने पर पौधे अपना बचाव करते हैं। यह शोधनिष्कर्ष विज्ञानवेत्ता अनुराग अग्रवाल ने अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध पत्रिका ‘साइंस’ में स्पष्ट हुआ है कि पौधों में भी प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। पर यह असर तभी करती है जब कोई कीट उसकी पत्तियों को चबाना शुरू करता है। इस प्रवृत्ति को ‘इनड्यूस्ट रेजिस्टेन्स’ अर्थात् प्रेरित प्रतिरोध की संज्ञा दी गई है। शोध के अनुसार, जैसे ही कोई इल्ली पत्तियों को चबाना शुरू करती हैं, पौधों से जासमोनिक अम्ल निकलना शुरू होता है। इससे एक ऐसा रसायन बनता है, जिसका स्वाद कीट को नहीं भाता और वह पीछे हटने के लिए विवश होता है।
वरिष्ठ शोध रसायनविद् डा. मार्कल वोगेल ने मनुष्य व पौधों के बीच ऊर्जा के हस्ताँतरण व संवाद विषय पर गहन शोध-अनुसंधान किया है। अपने प्रयोगों से वे यह सिद्ध कर चुके हैं कि मन के अच्छे भाव व विचारों द्वारा संप्रेषित ऊर्जा पौधे की प्राणशक्ति को सीधे प्रभावित करती है। इस प्रयोग के अंतर्गत तोड़े गए चिराबेल के पत्ते को चार सप्ताह तक हरा-भरा व जीवित रखा गया, जबकि उसी समय तोड़े गए अन्य पत्ते जल्दी ही सूखकर पीले पड़ गए।
वोगेल ने मनुष्य के साथ पौधों के संवाद के सही क्षणों को जानने का प्रयोग भी किया। इस प्रयोग के अंतर्गत उन्होंने गैल्वेनोमीटर फिट किया। इसी के साथ स्वयं को वृक्ष के सामने गहरी विश्रामावस्था में लाकर पौधे के प्रति अच्छे व सौहार्दपूर्ण विचारों को संप्रेषित किया, जैसा कि वे अपने मित्रों के साथ करते थे। प्रत्येक बार जब भी वोगेल ने यह प्रयोग किया, चार्ट पर पेनहोल्डर ने अपनी सक्रियता दर्ज कराई। वोगेल इन क्षणों में अपने हाथ की हथेलियों में पौधों से उमड़ता ऊर्जा प्रवाह अनुभव कर रहे थे। उन्होंने पाया कि पौधे भी सक्रियता एवं निष्क्रियता के दौर से गुजरते हैं। कभी तो वे बहुत ही ऊर्जा संपन्न होते हैं, तो कभी बहुत ही ढीले-ढाले एवं निस्तेज।
अपने इस प्रयोग में वोगेल को यह भी स्पष्ट हुआ कि चेतना की कुछ केंद्रित स्थितियों में पौधों को विशेष रूप से प्रभावित किया ज सकता है। पौधों को अच्छे, अपनत्व व प्रेम के तीव्र विचारों द्वारा उनींदेपन की स्थित से जगाया जा सकता है। अपने अनुसंधान के द्वारा वोगेल यह भी सिद्ध कर चुके हैं कि मनुष्य वनस्पति जीवन से संवाद कर सकता है। पेड़-पौधों में संवेदना कम नहीं हैं। भले ही वे भावों को समझने में पूरी तरह से सक्षम हैं। पौधे उस ऊर्जा को भी प्रसारित करते हैं , जो मनुष्य के लिए लाभदायक होती हैं।
अपने देश में वृक्षों व पौधों के इन ऊर्जामंडल का ज्ञान रहा है। तभी तो यहाँ अपनी ऊर्जा पूर्ति के लिए चीढ़ देवदार के वृक्ष को गले लगाने या पीठ सटाकर बैठने की लोकपरंपरा रही है। पहाड़ी इलाकों में यह लोकपरंपरा अभी भी देखी जा सकती है। न्यूयार्क के मनोचिकित्सक जान पियरकोस ने मनुष्य व पौधों के ऊर्जा-स्पंदनों का मापन किया है। उनके अनुसार स्प्रूस व देवदार के वृक्षों के इर्द-गिर्द स्पंदित ऊर्जा 19-22 इकाई प्रति मिनट होती है, जबकि यह मनुष्य में 14 से 14 स्पंदन प्रति मिनट। मनोवैज्ञानिक पियरकोस अपने रोगियों की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की जाँच व सुधार में पौधों की सहायता लेते हैं। रोगियों को जाने और बातचीत लिए बिना वे उनके घर पर रखे पौधों पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हैं। जिनकी प्रभामंडल के स्पंदन रोगियों के स्पंदन के अनुरूप घटते या बढ़ते हैं।
समस्त वैज्ञानिक शोध-निष्कर्ष अविकल रूप से पौधों की संवेदनशीलता एवं मानव के साथ उनके अभिन्न सहचरी जीवन को प्रमाणित करते हैं। अपने भारत देश में प्राचीन महर्षिगणों ने भी इसी सत्य को तथ्य रूप में प्रतिपादित किया था। लोकमानस में भी उनके उपदेशों के अनुरूप वृक्षों की पूजा एवं सम्मान के भावन पनपे। प्राचीन शास्त्रकारों ने तो यहाँ तक लिखा है-पेड़ पौधे तो स्वयं ही इस अपनेपन के बदले में अपने फल-फूल पत्तियाँ मनुष्य को अर्पित करने में हर्ष अनुभव करते हैं । हाँ, इतना अवश्य है कि अपने अजस्र अनुदानों के बदले वे भी हमसे प्यार चाहते हैं ये भी सुख-दुख, कष्ट -पीड़ा को अनुभव करते हैं। अपनत्व व उपेक्षा, अपमान की भाषा को समझते हैं । इनकी मूक चीत्कार या आशीर्वाद से प्रभावित हुए बिना हम नहीं रह सकते । पर्यावरण का वर्तमान असंतुलन इनकी मूक चीत्कार ही है, जबकि आवश्यकता इनके आशीर्वाद की है। हम अपने उत्कर्ष के साथ ही इनके संरक्षण व विकास पर भी समुचित ध्यान दें, तभी हम पर्यावरण व अपने जीवन को शुद्धता, शाँति व सात्विकता से भरा-पूरा बनाने की कल्पना को साकार कर सकेंगे।