Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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उपासना की महत्ता व अनिवार्यता - मातृवाणी
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गताँक से आगे (उत्तरार्द्ध)
शक्तियाँ किनको मिलती हैं ? उनको मिलती हैं, जो अपना परिष्कार कर लेते हैं, जो अपना आत्मबल ऊँचा उठा लेते हैं। ऐसा व्यक्ति न तो कायर होता है और न बुज़दिल । उसके अंदर करुणा, दया भरी होती है। चाहे अपना परिवार हो, चाहे समाज हो और चाहे राष्ट्र हो, सबके प्रति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाता है। उसके लिए भरपूर कोशिश करता है। अपने व्यक्तिगत जीवन को तो वह ऊँचा उठाता ही है, साथ ही उससे जो जुड़े हुए है, चाहे वह उसकी पत्नी हों, वह सबकी सेवा-सुश्रूषा करता हुआ चला जाता है। वह माता-पिता से यह नहीं कहता कि तुमने जन्म दिया था तो क्या हमारे ऊपर अहसान किया था। पत्नी को प्रताड़ित नहीं करता, वरन् उसका सम्मान करता है। सम्मान का अर्थ आरती उतारना नहीं होता है। सम्मान का अर्थ यह होता है कि वह दूसरों के सामने उसको बेइज्जत नहीं करता, वरन् उसको समझाने की दृष्टि से प्यार से कहता है कि अमुक गलती थी, इसे सुधार लो तो ज्यादा अच्छा है। सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है। प्यार और सम्मान से बढ़कर दुनिया में दूसरी और कोई दौलत नहीं है।
बेटे गुरुजी का उदाहरण आप सबके सामने है। हम दोनों दो एक आत्म, एक ही सिद्धांत, एक ही मारी भावना है। हम दोनों एक-दूसरे के लिए समर्पित मिशन के लिए समर्पित, राष्ट्र के लिए समर्पित हैं। यदि उन्होंने मुझे नहीं बनाया होता, आगे नहीं बढ़ाया होता, तो आज मैं इस स्थिति में नहीं होती कि आप से दो बात भी कह सकती। उन्होंने बनाया और हमने बनने की कोशिश की। हमने पीछे हटने की कोशिश नहीं की। अच्छे काम में हमने अड़ंगा कभी नहीं लगाया। जब गुरुजी सन् 1971 में अज्ञातवास चले गए थे, तो राजस्थान के रहने वाली स्वामी केशवानंद मेरे पास आए। वे एक संत थे। उन्होंने कई विश्वविद्यालय स्थापित किए थे। कई बार एम.पी रह चुके थे। वे आए मुझ से लड़ने के लिए। उन्होंने मुझसे कहा कि माता जी आप ये बताइए कि आपने गुरुजी को जाने क्यों दिया ? देश को उनकी बहुत आवश्यकता है। हमने कहा कि उसी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए ही तो वे गए हैं। चूँकि यहाँ हर समय जंजाल में पड़ रहते थे, कभी मिलना-जुलना, तो कभी क्या, तो कभी क्या ? इसलिए वे एकाँत में अपनी उपासना करने के लिए, साधना करने के लिए, लेखन करने के लिए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं जाने देती, तो आपे ये कहते कि माताजी बड़ी स्वार्थी हो गई हैं और उनको आगे नहीं बढ़ने दिया। नहीं ये मेरा कर्त्तव्य नहीं है।
गुरुजी ने हमेशा यही कहा कि तुम अगर मेरे जीवन में नहीं आई होती तो मैं इतना आगे नहीं बढ़ा होता और न इसे मिशन को इतना आगे बढ़ा पाता। मैंने कह कि नहीं, अगर आप मेरे जीवन में नहीं आए होते तो मैं बड़ी दुर्भाग्यशाली होती और जाने कहाँ होती। आपके चरणों में आकर मुझे अपार शाँति और अपार संतोष मिला । उन्होंने कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है तो क्या आपको कोई अभाव खटकता है ? मैंने कहा-नहीं मैंने यह कभी नहीं देखा कि आपके पास क्या नहीं है। आपके पास सब कुछ है। जमींदारी थी तो आपने अपनी सारी जमींदारी के बाँण्ड गायत्री तपोभूमि को दे दिए और जमीन आँवलखेड़ा में विद्यालय के लिए दी। माता-पिता की सारी संपत्ति जनकल्याण में लगा दी। मेरे लिए तो आप ही सर्वस्व हैं, आप ही मेरे भगवान हैं। मैंने भगवान नहीं देखा, लेकिन इनसान के रूप में मैंने भगवान को पा लिया है और वह भगवान मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है। हर समय मेरा भगवान मुझको प्रेरित करता रहता है, प्रेरणा देता रहता है। वह मेरे साथ सदा रहता है। मेरे आँसू में अपने आँसू बहाता है और मेरी मुस्कान पर मुस्कराता है। मरु भगवान मेरे आगे-पीछे व दायें-बांये हर समय रहता और रक्षा करता है। मुझे किसी का कुछ भी भय नहीं लगता। चिंता रहती है तो बस एक ही बात की रहती है कि जो पौधा वे मेरे हाथ में थमा गए हैं, इसे मैं किस तरह से विकसित करूं और फैलाऊँ। जो इतनी सारी संतानें मुझे दे गए हैं, उन्हें मैं कैसे अपने कलेजे से लगा पाऊँ और अपना सारा प्यार-दुलार, जो भी मेरे पास है, इनकी झोली में डाल दूँ। हर समय मो चिंतन और भावनाएं उमड़ती रहती हैं।
अपने भगवान् से मैं यही प्रार्थना करती रहती हूँ कि मेरा ऐसा कोई काम न होने पाए, जिससे कि आप मुझे धिक्कारें। वरन् मेरी पीठ को थपथपाते हुए चले जाएँ और मैं आगे बढ़ती हुई चली जाऊँ। इस बुढ़ापे में भी मैं कहाँ से कहाँ छलाँग लगाने की कोशिश करती हूँ, जबकि शरीर इतना साथ नहीं देता है, फिर भी हिम्मत के सहारे, उनकी शक्ति के सहारे मैं आपके हर अश्वमेध यज्ञ में जाने के लिए वचनबद्ध हो गई यहाँ भी और विदेशों में भी, जहाँ कहीं भी होता है,वहीं मैं पहुँच जाती हूँ, अपने शरीर को लेकर पहुँच जाती हूँ और दो शब्द जो कुछ आता है, कह देती हूँ। लेक्चर तो इनते बढ़िया से बढ़िया धुआँधार दिए जाते हैं-इंग्लिश में दिए जाते हैं, लेकिन न मैं इंग्लिश में बोली, न आपको श्लोक सुनाए, न चौपाई सुनाई । मैं तो जो अपने हृदय के उद्गार हैं, उन्हें ही अपने परिजनों को सुनाना चाहती हूँ और यह कहती हूँ कि देखो, यह जो चिंगारी सेवा की, साधना की, उपासना की हमारे अंदर जल रही है और जो गुरुजी के अंदर जल रही थी, उसमें से चिंगारी का एक कण छोटा सा आप भी लेकर जाइए, ताकि आप भी धन्य होते चले जाएँ।
मैं आशा करती हूँ कि आपकी यह उपासना सफल तभी होगी, जब आप पूरे मनोयोग से इस वातावरण का लाभ उठाएंगे। आप यहाँ कमियाँ मत देखिए। भोजन में कमियाँ मत देखिए। यह यहाँ का प्रसाद है। इस प्रसाद में आपकी माँ के हाथ का गंगाजल मिला हुआ है। इस प्रसाद को आप ग्रहण कीजिए। यदि आपके शरीर में कोई रोग है, तो इससे कम न हो जाए, तो यहाँ आकर के फिर हमसे कहना कि कम नहीं हुआ। आप भावनापूर्वक इस वातावरण का लाभ लीजिए, जिसे गुरुजी ने अपनी शक्ति से, अपनी उपासना से, अपनी साधना से बनाया है। इस वातावरण के लिए लोग तरसते हैं। आपको जो यहाँ नौ दिन की उपासना के लिए स्थान ही नहीं वरन् पिता और माता की छत्रछाया में आपको उपासना करने को मिली, इसका महत्व क्यों नहीं समझ रहे हैं आप ? आप वहाँ से पत्र डालते हैं कि माताजी हमारा दोष परिमार्जन कर देना, हम अनुष्ठान कर रहे हैं । तो जब आप यहाँ कर रहे हैं हमारे पास तो कितने भाग्यशाली हैं आप। इसे आप क्यों नहीं समझते । आप इसको समझिए। यह हमारी टकसाल है, इसमें व्यक्ति ढाले जाते हैं। हम उपासना के द्वारा आपको ढालना चाहते हैं । आपको हम तपाना चाहते हैं। इसी लिए हम आपसे हर काम स्वयं करने के लिए कहते हैं, जैसे कि अपनी थाली आप धोइये, झाडू अपने आप लगाइए। क्या मतलब है इसका ? इसका एक ही मतलब है कि आपको उसी तरह से तपाना है, जिस तरीके से आग में सोना तपता है, तो तरह-तरह के आभूषण बनते हुए चले जाते हैं।
हम चाहते हैं कि हमारे परिजन उपासना की भट्टी में तपते हुए चले जाएं और ऐसे कुँदन बन जाएँ जिनका कि कहना ही क्या। कहते हैं कि पारस को छूकर लोहा सोना बन जाता है। आप भी बन सकते हैं। उस मंत्र रूपी पारस को छूकर। इस गायत्री मंत्र से आप ऐसे बनते हुए चले जाएंगे जैसे कि एक संत थे। एक याचक ने उनसे कहा कि आप यह बताइए कि लोग कहते हैं कि पारस को छूकर सोना बन जाता है, तो क्या यह सच है ? उन्होंने कहा कि हाँ बिलकुल सच है। याचक ने कहा कि आपके यहाँ लोहे का एक डिब्बा रखा है, तो क्या मैं समझूँ कि यह भी पारस के स्पर्श से सोने का हो जाएगा ? उन्होंने कहा कि तुम्हें इसमें अगर भ्रम है तो डिब्बे को उठाकर मेरे पास लाओ। उन्होंने पारस को डिब्बे के अंदर रख दिया। फिर कहा कि डिब्बे को खोलो । डिब्बे के अंदर जहाँ पारस रखा हुआ था, उसके बीच में कपड़े की एक दीवार थी। उन्होंने कहा कि देखो इसके बीच में कुछ दिखाई पड़ रहा है क्या ? गहराई से देखो । उसने कहा-हाँ देख लिया। इसके बीच में एक दीवार है, जो पारस को लोहे से छूने नहीं दे रहा है और जिस कारण से वह सोना नहीं बन पा रहा है।
इसी तरह जीवात्मा पर कषाय-कल्मषों का परदा पड़ा हुआ है, इन्हें हटाइए। फिर आप देखना कि आप पारस को छूकर सोना बनते हैं कि नहीं। यदि आप हमसे जुड़े रहे तो हम आपको बनाकर ही छोड़ेंगे। फिर चाहे कैसी भी मिट्टी क्यों न हो आपकी। चिकनी मिट्टी होगी तो खिलौने अच्छे बन जाएंगे, पर मैं तो कहती हूँ कि ऊसरी मिट्टी ही क्यों न हो, उसमें भी हम मुल्तानी मिट्टी मिलाकर उससे भी सुँदर खिलौना बना देंगे, यदि आपने अपना मन हमारे हवाले कर दिया तो । आप अपने तन और मन हमारे हवाले कर दीजिए। धन की मैं नहीं कह रही हूँ। धन नहीं चाहिए। आपका धन आपको मुबारक हो, पर आप हमें अपना तन दीजिए, अपना श्रम दीजिए, अपना पसीना दीजिए और फिर देखिए कि हम आपको बनाते हैं कि नहीं।
यहाँ से जरा-जरा से बच्चे क्षेत्रों में जाते हैं, विदेशों में जाते हैं और जाने कहाँ-कहाँ जाते हैं। वहाँ उनकी कैसी तारीफ होती है। तो क्या यह उनकी होती है ? नहीं उनकी नहीं होती है, गुरुजी की होती है, क्योंकि उन्होंने सिखाया है, उन्होंने मार्गदर्शन किया है। वे उनकी प्रेरणा से बना है। यहाँ हमारे परिवार में जो पाँच सौ बच्चे रहते हैं, वे किन के मार्गदर्शन में आए हैं ? नौकरी छोड़कर क्यों आए हैं? उन्हें क्या मिला यहाँ? कुछ नहीं मिला, पर सब कुछ मिल गया। उनको जो जिंदगी भर नहीं मिलना था, वो सबक उनको मिलता हुआ चला गया। उनको सम्मान मिलता हुआ चला गया। उनको श्रद्धा मिलती हुई चली गई, जिसके लिए लोग तरसते हैं। मैं लंदन गई थी, तो वहाँ लड़के आ रहे थे और हमारे बच्चों के पाँव छू रहे थे। उन्होंने कहा कि माताजी कुछ संत आए हैं, जो बाहर खड़े हैं । मैंने कहा कि उन्हें बुला ला, वे सब मेरे ही बेटे हैं।
अभी मैं अपना हवाला दे रही थी कि जुड़ने से कितना लाभ होता है। यदि वास्तविक लाभ लेना चाहते हैं तो उस परब्रह्म से हम जुड़ जाएँ। अभी हम पूरे मन से जुड़े नहीं हैं। इस संबंध में एक उदाहरण देकर मैं अपनी बात खत्म करूंगी कि जुड़ने पर व्यक्ति को कितना मिलता है। एक राजा थे और एक ब्राह्मण थे। ब्राह्मण ने एक सेठ को रुपया दिया हुआ था और कह रखा था कि जब मेरी लड़की की शादी होगी तब मैं आपसे ले जाऊँगा। समय बीतता गया। जब उनकी लड़की सयानी हो गई और उसकी शादी होने को थी तो ब्राह्मण देवता ने सेठ जी से अपना रुपया माँगा।सेठ जी ने मुनीम से कहा कि ‘जरा’ देखना मुनीम जी ? मुनीम जी जरा शब्द का मतलब समझ गए कि इसका अर्थ है-न। उन्होंने कहा-नहीं है सेठ जी, जरा भी नहीं।
ब्राह्मण देवता रोते हुए जा रहे थे , तो रास्ते में राजा की सवारी आती हुई मिली। राजा ने देखा कि एक व्यक्ति रोता हुआ जा रहा है, जबकि मेरे राज्य में कोई रोता नहीं। फिर यह व्यक्ति क्यों रो रहा है ? कोई दिक्कत अवश्य होगी इसे ? उन्होंने उसे अपने दरबार में बुलाया और उससे रोने का कारण पूछा। ब्राह्मण ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। राजा ने कहा कि अब ऐसा करना कि कल जब फिर से हमारी सवारी निकले, तब आप वहाँ खड़े मिलना, जहाँ सेठ जी की दुकान है। उन्होंने कहा-अच्छा खड़ा हो जाऊँगा।
ब्राह्मण देवता सोचने लगे कि वहाँ खड़ा होने और मेरे रुपयों से क्या संगति है ? कोई संगति नहीं दीखती। फिर भी वह वहाँ जा खड़े हुए। जब राजा की सवारी पहुँची, राजा उतरा। राजा ने कहा-अरे गुरुदेव । आपके लिए यह स्थान नहीं है। आप आइए, मेरे बराबर बैठिए और हाथी पर बिठाकर चल दिए। थोड़ी दूर जाकर ब्राह्मण को नीचे उतार दिया और कहा-जाइए अब आपका काम हो जाएगा। यह दृश्य देखकर सेठ जी के पेट में खलबली मची कि यह ब्राह्मण तो राजा के बराबर बैठा है। अगर इसके पैसे नहीं दिए तो सिर कलम हो जाएगा। दूसरे ही दिन उसे ब्राह्मण को बुलवाया और कहा कि महाराज जी। हम तो बिलकुल ही भूल गए । यह गलती मुनी की है। आप अपना धन लीजिए और पाँच सौ रुपये और ले जाइए मेरी ओर से कन्यादान कर देना।
राजा से मिलकर जब इतना लाभ हो सकता है, तो उस महाशक्ति से मिलकर कितना लाभ होगा, इस तथ्य को आप समझिए। वह तो शरीरधारी था, किंतु जो सत्ता सारे जगत में समाई हुई हैं, उस सत्ता को हम यदि अपना समर्पण कर दें तब कोई घाटा रहेगा क्या? गुरुजी को कोई घाटा रहा क्या ? लोग एक-एक बच्चे के लिए मरे जाते हैं? और हमारे पास लाखों बच्चे हैं। कितनी बच्चियाँ हैं, इतनी तो यहीं देख लीजिए।ये कौन हैं ? हमारी बेटियाँ हैं। आप कौन हैं ? हमारे बेटे हैं। कितनी संख्या है साहब? लाखों की संख्या है। गुरुजी विनोद में कहा करते थे कि माताजी रानी मधुमक्खी हैं। इनकी संतानों को क्या कहना। हमारे कितनी संतानें हैं? अरे बेटे । गिनने में भी नहीं आएँगी।
और पैसा ? आपको बता देंगे तो आप निकाल ले जाएंगे, इसलिए हमने अपने पास पैसा रखा ही नहीं। हमारा बैंक बैलेन्स भी नहीं है, परंतु बैंक हमारी बहुत हैं। इतनी बैंकें जो आप सभी बैठे हैं, ये हमारी नहीं तो किसी हैं। आप सब हमारी बैंक हैं। जब चाहेंगे तभी हम आपकी जेब से निकाल लेंगे। करोड़ों-अरबों रुपये की तो चार हजार शक्तिपीठें बनी हैं। इनमें कितना पैसा लगा है कि नहीं और ब्रह्मवर्चस् में लगा है कि नहीं लगा है ? गायत्री तपोभूमि में लगा है, आँवलखेड़ा में लगा है। फिर कौन कहता है कि हमारे पास पैसा नहीं है। हमारे पास बहुत दौलत है।उस दौलत को हम जितना खरच करें, उतनी ही हमारी दौलत बढ़ती चली जाती हैं।वह दौलत हैं आप सबकी। आप सब हमारी दौलत हैं।
बेटे। हम आपको अपनी दौलत मानते हैं, इसलिए उस दौलत को हम खरच भी करते हैं और आपको कहते हैं कि चलिए समाजसेवा के लिए, राष्ट्र की सेवा के लिए आपकी बहुत जरूरत है। जब गुरुजी ने सारी जिंदगी सेवा की तो क्या आपको नहीं करनी चाहिए? करनी चाहिए। स्वतंत्रता आँदोलन में गुरुजी पौने चार साल जेल में रहे। वे केवल जेल में ही नहीं रहे, बल्कि उन्होंने आगरा जिले के जितने भी गाँव थे, उन सब किसानों की लगान माफ करा दी थी और जब कोतवाल उन्हें पकड़ने आया था तो वे सीना तानकर खड़े हो गए थे। आँवलखेड़ा में जितने भी स्वतंत्रता सेनानी थे, वे इधर-उधर छिप गए थे, किंतु वे छिपे नहीं। जब उसने उनसे कहा कि हम तो मत्त जी को ढूँढ़ने आए थे, तो बोले कि मैं ही नाचीन मत्त जी हूँ, जो आपके सामने खड़ा हूँ। गुरुजी को नाम मत्त जी तब रखा गया था जब उनके मुँह में दबा हुआ झंडा पाया गया था। वे तीन दिन बेहोश रहे थे, किंतु झंडे को नहीं छोड़ा । तब उनके जो सहयोगी थे, मित्र थे, जगन प्रसाद रावत जी थे आदि सबने मिलकर उनका नाम मत्त जी रख लिया था।
कोतवाल को विश्वास नहीं हो रहा था कि इतना दुबला पतला आदमी ‘मत्त’ कैसे हो सकता है। बार-बार पूछने पर उन्होंने कहा कि मैं ही मत्त जी हूँ। और कोई दूसरा मत्त जी इस गाँव में नहीं है और न अन्यत्र कहीं है। उसने उन्हें छाती से लगा लिया और कहा कि वाह री।बुलंदी, तेरे अंदर कितनी बुलंदी है, कितना साहस है, जो डरा नहीं। उन्होंने कहा कि इनसान से डरना क्या ? डरना है तो उस भगवान से डरना है और ऐसा कोई काम नहीं करना है, जिससे हमारे दामन पर धब्बा लगे और भगवान भी हमें धिक्कारता रहे, उन्होंने जिंदगी भर कोई भी काम ऐसा नहीं किया । उन्होंने हर संभव वही कार्य किए, जिससे जनता को मानव जाति को प्रेरणा मिलती हो, साहस मिलता हो, बल मिलता हो। उन्होंने परदा प्रथा समाप्त कर दिया। लड़कियों के परदे, घूँघट हटवा दिए और कहा-परदा मत करो। लड़कों को भी धमकाया और उनसे कहा कि उनसे दासियों जैसा काम मत लो। इनको भी कुछ समाज सेवा करने दो। इनको भी कुछ नारी-जागरण का काम करने दो। इनको भी आगे बढ़ने दो। इनको अबला मत बनने दो। तुमने इन्हें अबला बना रखा है, भोग्या बना रखा है। नारी को भोग्या, कामिनी बनाकर घरों में मत रखो। इन्हें भी समाज सेवा, राष्ट्रसेवा के क्षेत्र में उतरने दो। इनके साथ बेइंसाफी मत करो, नहीं तो वे बदला लेंगी। आगे चलकर इनको बदला लेने की हिम्मत न आए, इसलिए इनको ऊँचा उठाओ। नारी को ऊँचा उठाने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किए हैं और आपको भी वही करना चाहिए।
आज नवरात्रि के पावन पर्व पर मैं आपसे एक ही निवेदन करने आई थी, मैंने कही तो अनेक बातें हैं-जैसे समाज-सुधार की बातें कहीं और भी बातें कहीं, लेकिन आपकी उपासना के बारे में मुझे कहना था कि इस नवरात्रि में आप नौ दिन तक यह मानकर चलिए कि आपका न कोई घर है, न गृहस्थी है, केवल आपमी माँ की गोद है। आप उस माँ की गोदी में खेल रहे हैं एक शिशु की भाँति। अपनी कोई भी मनोकामना नहीं है। मनोकामना को आप छोड़ दीजिए।यदि आपकी कोई मदद कर सकते होंगे तो हम अवश्य करेंगे।
आपने यह कहानी सुनी होगी कि एक कबूतर और एक कबूतरी थे। एक बहेलिया आया और उस पेड़ के नीचे भूखा लेट गया। वह कई दिनों से भूखा था। कबूतर और कबूतरी आपस में विचार करने लगे कि इसकी भूख को कैसे शाँत किया जाए ? दोनों ने आपस में विचार किया कि क्यों न हम इसका सहयोग करें? उनमें से एक गया और कहीं से माचिस की तीली ले आया। दूसरा गया कहीं से घास-फूस इकट्ठी करके ले आया। उसमें तीली लगा दी और दोनों उसमें जल गए। बहेलिया उठा और अपने भाग्य को सराहते हुए कहा कि ये मुझे भोजन मिल गया।
बेटा । हम कबूतर-कबूतरी तो नहीं जो जलकर तुम्हारी भूख मिटाएंगे, लेकिन वो चीज हम आपको खिलाएँगे कि आप निहाल हो जाएँगे, साथ ही आपका परिवार, आपके बच्चे भी निहाल होते चले जाएँगे। हम आपको वो संपत्ति देना चाहते हैं, ताकि जिससे आप और आपके परिवार वाले, आपके बच्चे, नाती, पोते, सब उस संपत्ति को खाते पीते रहें, उस संपत्ति को बिगाड़ें नहीं। वो संपत्ति है-ज्ञान की संपत्ति, वो संपत्ति हैं-प्रेरणा की। वे है उपासना की संपत्ति, वो है सेवा की संपत्ति, वो है साधना की संपत्ति वही हम आपको देना चाहते हैं। आप लोगों का नवरात्रि अनुष्ठान सफल हो, इसी कामना के साथ आज ही बात समाप्त।
॥ ॐ शाँतिः॥