Magazine - Year 2000 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अहंशून्य होने पर ही मिलती है गुरु-कृपा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भगवान कृष्ण की अनन्य भक्ति ही उनका जीवन बन गई थी। कृष्ण नाम में उनकी तल्लीनता-तन्मयता औरों को भी कृष्णप्रेम में विभोर कर देती । प्रभु से प्रेम करना उन्हें किसी ने सिखाया नहीं था। यह तो उनका अंतः स्फुरित भाव था, जो बचपन में ही जग पड़ा था। सौराष्ट्र के घोघावरर गाँव में जगदयाल एवं उनकी धर्मप्राण पत्नी शामबाई की वह लाड़ली संतान थे। माता-पिता ने उन्हें बहुत प्यार से पाला-पोसा। वे अपने पुत्र की हर इच्छा पूरी करने की कोशिश करते। परंतु वे तो जैसे किसी अन्य लोक में विचरते थे। कृष्ण-स्मरण में न तो उन्हें अपनी देह की सुधि रहती और न ही खाने-पीने की। उनके ये हाल देखकर उनके माता-पिता ने यह अनुमान लगा लिया कि उनके बालक के पूर्व जन्म के संस्कार उसे निर्दिष्ट दिशा में लिए जा रहे हैं। उन्होंने भी निश्चय किया कि वे अपने पुत्र की तप-साधना और ईश्वर प्रेम में बाधक नहीं बनेंगे।
उनके गाँव में एक दिन श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन हुआ। वे भी गए। कथावाचक महोदय कह रहे थे-कृष्ण -प्रेम तो अहंशून्य अंतर्चेतना में पनपता है और यह अहंशून्यता तो सद्गुरु के कृपाप्रसाद से मिलती है। उन्हें लगा मानो उन्हें जीवनदृष्टि मिल गई । अब उन्हें सद्गुरु की खोज थी। इसी खोज ने उन्हें जामनगर के संत मोरार साहब के पास पहुँचाया।
संत मोरार साहर जामनगर के राजा रणमल के राजगुरु विभूषित संत थे। वे महान तपस्वी, अंतःदृष्टि संपन्न एवं योग-ऐश्वर्य से विभूषित संत थे। पर वे एक बहुत बड़ी रियासत के राजगुरु थे, इसीलिए अनेक लोग, विशेष करके धर्माधिकारी उनकी ख्याति से मन-ही मन गहरी ईर्ष्या करते थे। इस ईर्ष्या ने उनकी मानसिक वृत्तियों को कलुषित एवं प्रदूषित कर दिया था। इसी दूषित मनोवृत्ति की वजह से वे सदा ही उनकी हत्या का प्रयास करते रहते थे। एक के बाद एक अनेक प्रयास करते, परंतु भगवत्कृपा से वे सभी असफल हो जाते और मोरार जी का बाल भी बाँका न होता। इन प्रयत्नों के लिए शायद यही कहना होगा कि धर्म का शुद्ध स्वरूप, धर्म के ध्वजा धारकों, ठेकेदारों को कभी पसंद नहीं आया।
लेकिन वे तो अपनी सच्ची श्रद्धा एवं निश्छल भक्ति को लेकर मोरार साहब के पास गए थे। मोरार साहब ने भी उनके बालक मन में ईश्वरप्रेम की सच्ची प्यास देखी थी। वे तो गुरु-भक्ति को ही ईश्वर भक्ति मान अपने सद्गुरु मोरारसाहब की सेवा किया करते । उन्हीं के साथ देवदर्शन करने जाते और गुरु की गायों को जंगल में चुराने ले जाते।
एक दिन ईर्ष्यालु धर्माधिकारी और उसके कुछ चाटुकारों ने मोरारसाहब के पूजा-पुष्पों में एक जहरीला नाग छिपा दिया। शाम के समय अनेक स्थानों से फूलों की टोकरियाँ सबेरे की पूजा के लिए आती थीं। मोरारसाहब भी प्रत्येक टोकरी में से थोड़े-थोड़े फूल लेकर देवमंदिर में चढ़ा आते थे।
उस दिन एक बड़ी सी टोकरी में चंपे का हार देखकर वे बोले, देख बेटा जीवण, यह हार कितना सुँदर है।
जीवण उस समय गायों को घास खिला रहा था। उसने वहीं से जवाब दिया, बहुत सुँदर है, महाराज ।
ले, सुँदर है तो तू ही इसे पहन ले। कहकर मोरारसाहब ने उनके गले में हार डाल दिया।
हार जब गले में आया, तब उन्हें पता चला, यह हार नहीं, बल्कि फूलों में छिपा हुआ नाग है। किंतु उनमें अपने गुरु के प्रति अपूर्व विश्वास था, उन्होंने सोचा कि गुरु ने प्रेम से जो पहना दिया, उसे निकाला कैसे जा सकता है।वे तो निर्भयतापूर्वक हार को पहने हुए गुरु के साथ मंदिर की ओर चल पड़े । मंदिर में दाखिल होकर जैसे ही उन्होंने शिवजी को दंडवत प्रणाम किया, नाग झटपट दौड़कर शिवलिंग से लिपट गया। जीवण मंत्रमुग्ध होकर प्रणामी मुद्रा में यह अद्भुत दृश्य देखते रह गए।
संत मोरारसहाब ने उन्हें उठाकर अपने सीने से लगा लिया और वे उनके साथ अपने निवास की ओर चल पड़े। चलते हुए गुरु और शिष्य दोनों के ही नेत्रों में भावबिंदु छलक रहे थे।
एक दिन सद्गुरु की प्रेरणा से जीवण ने आस-पास के पाँच गांवों की ओर से मिला हुआ पूजा का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। पर जब प्रस्थान का समय आया, तो अपने गुरुदेव को आराम से लेटे हुए देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। जब गुरुदेव खर्राटे लेने लगे, तब वे धैर्य खो बैठे और गुरुदेव की कीर्तरक्षा के लिए घोड़ी पर सवार होकर पास वाले गाँव में पहुँच गए।
गांव में पहुँचकर तो उनका आश्चर्य दुगना हो गया। वहाँ उन्होंने देखा कि उनके गुरुदेव एक खाट पर बैठे इकतारा बजा रहे थे। वह तुरंत वहाँ से दूसरे गाँव की ओर चल पड़े। इस दूसरे गाँव में पहुँचकर उनका आश्चर्य और बढ़ गया। यहाँ उनके सद्गुरु पूजा करने में लगे थे। इस अचरज से परेशान जीवण ने फिर से घोड़े की पीठ पर सवारी की और थोड़े ही समय में तीसरे गाँव पहुँच गए। नियत स्थान पर पहुँचने पर देखा कि उनके श्रद्धेय गुरु यहाँ भक्तों के साथ कीर्तन कर रहे थे।
अब तो उनका आश्चर्य सारी सीमाएं पार कर गया। फिर भी वह चौथे गाँव की ओर चल पड़े । यहाँ जब वे आमंत्रित स्थान पर पहुँचे तो देखा कि गुरुदेव श्रोताओं को भागवत कथा सुना रहे थे। अब पाँचवें स्थान की बारी थी। यहाँ पहुँचने पर उन्होंने देखा कि गुरुदेव श्रद्धालुओं के साथ भगवान की आरती कर रहे हैं। इस प्रकार पाँचों गाँवों का परिभ्रमण कर जब वह आश्चर्यचकित मन से जामनगर अपने गुरुदेव के निवासस्थान पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि गुरुदेव संत मोरारसाहब वहाँ पर भी प्रसाद का थाल लिए दरवाजे पर खड़े-खड़े स्नेह से उसे देख रहे हैं।
बहुत थक गया होगा, बेटा। जीवण को घोड़े से उतरते हुए देखकर मोरारसाहब कहने लगे-ले थोड़ा सा जलपान कर ले।
जीवण लज्जित होकर गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। वह अपने परम सद्गुरु के विराट स्वरूप को देखकर जहाँ भावविभोर थे वहीं उन्हें अपनी अज्ञानता पर लज्जा आ रही थी। वह उनसे हाथ जोड़कर क्षमायाचना करने लगे।
बेटा जीवण मोरारसाहब ने अपने शिष्य के माथे पर हाथ रखते हुए कहा, “तू परेशान क्यों है ? आखिर इतनी सारी भागदौड़ तूने मेरे ही काम के लिए की।”
“नहीं प्रभु “ जीवण श्रद्धा के अतिरेक में सिसकते हुए बोले, “शिष्य का सबसे बड़ा अपराध उसकी अहमन्यता तब होती है, जब वह यह समझ लेता है कि वह गुरु का महत्वपूर्ण काम कर रहा है अथवा उसके बिना गुरु का काम नहीं होगा। हे सद्गुरु। शिष्य तो गुरु के पास अहं शून्य होने के लिए आता है और मैं तो अपने अहं का पोषण करने लगा था।
मेरारसाहब जीवण की इस भक्ति से प्रसन्न हो गए, बोल, “बेटा जीवण तुम शोक न करो। तुम्हारी सभी परीक्षाएं पूरी हुईं। मेरे आशीष से तुम अबसे सर्वथा अहंशून्य होगे और तुम्हें प्रभु श्रीकृष्ण का निर्मल प्रेम प्राप्त होगा।” सद्गुरु के ये वाक्य उनके जीवन में पूरी तरह सार्थक हुए। उन्होंने भी अपनी सारी उपलब्धियों का श्रेय ‘गुरुकृपा’ को ही दिया। उनके प्रत्येक भजन की समाप्ति ‘गुरु प्रताप’ से ही होती है।उनका अनमोल वचन है, ‘गुरुकृपा’ ही शिष्य के जीवन में ईश्वरकृपा बनकर अवतरित होती है।