Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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आराध्य से मिलन की भाव भूमिका
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आराध्य के चरणों में भगवती की प्रीति दृढ़ हो चली थी। उनके हृदय में भक्ति की अन्तर्धारा प्रवाहित होती रहती। ध्यान साधना में अपने विगत जन्मों की कथा स्पष्ट हो जाने के बाद उनमें एक भाव परिवर्तन हो गया था। वह पहले भी शान्त रहा करती थीं। अब यह शान्ति और भी सघन हो गयी थी। इन दिनों वह सर्वथा शान्त-अचंचल रहकर अपने दैनिक क्रिया-कलापों में संलग्न रहती। बड़ी भाभी के घर-गृहस्थी के कामों में सहयोग, रामायण, महाभारत आदि धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय, अपनी नियमित ध्यान साधना बस यही उनकी दिनचर्या के अनिवार्य तत्त्व थे। घर में सबसे छोटी होते हुए भी वह परिवार के अन्य सभी सदस्यों की देख-भाल किया करती थी। किसको, कब, क्या और कितनी जरूरत है, इस बात का उन्हें हमेशा ध्यान रहता।
उनके दोनों बड़े भाई दीनदयाल और सुनहरी लाल उनके गुणों से अभिभूत रहते थे। भाभी को तो उन पर नाज था। बड़ी बहिन ओमवती की शादी इस बीच हो चुकी थी। अब उनका घर में यदा-कदा ही आना-जाना हो पाता था। वह अपनी छोटी बहिन को चाहती बहुत थी। इसलिए वह भाभी से, पिताजी से कभी-कभी जिद करती कि लाली को थोड़े दिनों के लिए उनके साथ भेज दे। यहाँ तो कहीं आना-जाना हो नहीं पाता है। इस तरह मन बहल जाएगा। वह भी कुछ दिन और अपनी छोटी बहिन के साथ रह लेंगी। ओमवती की इस जिद पर जैसे-तैसे जसवन्तराव सहमत हो जाते। और भगवती थोड़े दिनों के लिए अपनी बड़ी बहिन की ससुराल हो आती। वहाँ भी उनकी दिनचर्या यथावत बनी रहती। बहिन को घर के कामों में सहयोग देने के साथ वह अपनी ध्यान साधना का क्रम बनाए रखती।
इन दिनों घर-परिवार के लोग उनके लिए सुयोग्य वर की खोज-बीन बड़े जोर-शोर से कर रहे थे। बड़े भाई दीनदयाल और पिता पं. जसवन्तराव के बीच इस सम्बन्ध में काफी चर्चाएँ हुआ करतीं। इस बार जब वह अपनी बड़ी बहिन ओमवती के यहाँ से लौटी तो देखा परिवार के एक बुजुर्ग रिश्तेदार किशनप्रसाद जी आए हुए हैं। यह रिश्ते में पं. जसवन्तराव के मामा लगते थे। वे इस समय किसी वर की चर्चा कर रहे थे। पं. जसवन्तराव एवं उनके बड़े बेटे-दीनदयाल बड़े धीरज और उत्सुकता के साथ उनकी बातें सुन रहे थे। उनकी बातों के कुछ शब्द भगवती के कानों में भी पड़े। वह कह रहे थे- “जसवन्त, मैं तो कहता हूँ कि ऐसा लड़का कहीं भी दुनिया भर में खोजे नहीं मिलेगा। वे लोग आँवलखेड़ा के रहने वाले हैं। आस-पास के गाँवों में उनकी बड़ी जमींदारी है। खानदानी रईस हैं।”
इन बातों के बीच में जसवन्तराव ने टोका, “आपने उन्हें मेरे बारे में सब कुछ सही-सही बता दिया कि नहीं?” प्रश्न के उत्तर में किशन प्रसाद कहने लगे, इसमें छुपाने की बात भी क्या है? मेरी लड़के के बड़े भाई रामप्रसाद से बात हुई। मैंने उनसे कह दिया- कि “जसवन्तराव के पुरखे अहमदपुर (खैर-अलीगढ़) के रहने वाले थे। वहीं उनका अपना घर और खेती थी। परदादा के जमाने में 12 जोत की जमींदारी थी। परिवार का बड़ा नाम था। लेकिन तुम्हारे पिता श्री परसादी लाल शर्मा के जमाने में बात बिगड़ गई। किसानों की खराब हालत के कारण परसादी लाल जी ने लगान लिया नहीं और धीरे-धीरे जमींदारी जाती रही।” किशन प्रसाद की इन बातों को सभी लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे। वह बता रहे थे कि “मैंने रामप्रसाद को यह भी बता दिया कि तुम लोग चार भाई हो- जसवन्त शर्मा, बलवन्त शर्मा, रामदयाल शर्मा और वासुदेव प्रसाद। इन चार भाइयों के बीच एक बहिन है- रामश्री। जो अब अपने घर-परिवार की है।”
किशन प्रसाद की बातों का सिलसिला अपने पूरे वेग में था। अपनी बातों में वे शायद यह भी भूल चुके थे कि सभी लोग लड़के के बारे में जानने के लिए उत्सुक हैं। दीनदयाल के टोकने पर उन्हें ध्यान आया और उनकी बातों की दिशा बदली। वह कहने लगे- “अरे लड़के के बारे में क्या पूछते हो? पं. रूपकिशोर शर्मा का बेटा है। अब पं. रूपकिशोर के नाम को तो आस-पास के इलाके में सभी जानते हैं। उनके इस सुपुत्र का नाम श्रीराम है। तपस्या, साधना, पढ़ाई-लिखाई सब में अव्वल है। पहले कुछ दिन उसने यहीं आगरा में रहकर सैनिक अखबार में काम किया। आजकल मथुरा में रहकर खुद की पत्रिका निकालते हैं। बस काल देवता ने उनकी पहली पत्नी को उठा लिया। उसके तीन बच्चे हैं- ओमप्रकाश, दयावती और श्रद्धा। पर अपनी लाली तो इतनी गुणी है कि सब कुछ बड़ी आसानी से सम्भाल लेगी।”
किशन प्रसाद की इन बातों की घर में कई दिनों तक चर्चा होती रही। चिन्तन और चर्चा के अनेकों दौर चले। पहली पत्नी के मरने और उसके तीन बच्चों के होने की बात दीनदयाल को थोड़ा खटकी। इस पर उन्होंने अपने पिता पं. जसवन्तराव से काफी देर तक बातें की। बातों के बीच में उन्होंने यह भी पूछा- दादा, यह बताओ कि तुम्हारी ज्योतिष क्या कहती है? उत्तर में जसवन्तराव गम्भीर होकर कहने लगे- देखो, मेरी तो शुरू से मान्यता है कि अपनी लाली देवी का अंश है। इसका विवाह किसी आम व्यक्ति से नहीं निभ सकता। फिर वह चाहे कितना ही बड़ा धनवान क्यों न हो? अपनी लाली के सुयोग्य वर वही है, जो तपोनिष्ठ हो, अध्यात्म विद्या का ज्ञाता हो। मुझे तो यह लड़का सब तरह से लाली के लिए ठीक लगता है। पं. जसवन्तराव की बातें दीनदयाल को भी ठीक लगी। अन्त में पिता-पुत्र दोनों ने मिलकर यह तय किया कि कन्या की भाभी सारी बातें उसे बताकर उसके मन की बात लेने की कोशिश करे। जो कुछ होगा सो लाली की सहमति से होगा।
भाभी ने अपने पति और श्वसुर की आज्ञानुसार अपनी प्यारी ननद से सारी बातों की चर्चा की। वह सारी बातों को बड़े ही शान्त भाव से सुनती रहीं। बातों की समाप्ति पर उन्होंने एक पल के लिए अपनी अन्तर्चेतना को एकाग्र किया। इस एकाग्रता में सत्य उद्भासित हो गया। उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि इस समय जिनसे उनके विवाह की चर्चा की जा रही है, उन्हीं के कार्य में सहयोग के लिए उन्होंने देह धारण की है। उनके पिछले जन्मों में पति और मार्गदर्शक रहे उनके आराध्य ही इस बार उनके पति होने जा रहे हैं। अंतर्मन की इन सारी बातों को उन्होंने गोपन ही रखा। प्रत्यक्ष में उन्होंने बस केवल इतना कहा- “भाभी, दादा से कह देना कि मुझे उनकी सारी बातें स्वीकार है। वे जो कुछ करने जा रहे हैं- उसी से मेरे जीवन का कल्याण है।”
लाली की सहमति व स्वीकृति पाकर सारे परिवार में उत्साह का ज्वार उफन उठा। उल्लास की तरंगें घर के कोने-कोने में बिखरने लगीं। वर पक्ष के लोगों की सहमति भी आ गई। मंगल परिणय की तैयारियाँ होने लगीं। फाल्गुन सप्तमी वि.स. 1999, 10 मार्च 1943 का दिन विवाह के लिए निश्चित हुआ। विवाह का दिन तय होने के बाद से पं. जसवन्तराव के मन में खुशियों के साथ एक कसक भी घुल गयी। उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे कि जगदम्बा पार्वती ने पीहर छोड़कर भगवान् भोलेनाथ के साथ जा बसने का संकल्प ले लिया हो। अपनी इस कसक को दिल में लिए जसवन्तराव बेटी के विवाह की तैयारी में जुटे रहे। अरेला गाँव के ज्वालाप्रसाद इसमें उनके मुख्य सहयोगी बने। उन्हीं के माध्यम से सारी बातें बनी।
निश्चित तिथि पर विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह में बहुत सादगी थी। दिखावे-प्रदर्शन का तो जैसे कोई नामो-निशान भी न था। यह मनुष्यता के सामने जीवनादर्श को प्रस्तुत करने वाले ऋषियुग्म का मंगल परिणय था। यह तप और श्रद्धा का मिलन था। ज्ञान और भक्ति का अनोखा सायुज्य था। भगवती और श्रीराम इस शुभ घड़ी में अपने आदर्श पथ पर एक साथ चलने के लिए संकल्पित हुए थे। अपने आराध्य के चरणों के सामीप्य में भगवती के जीवन का एक सर्वथा नया आयाम उद्घाटित हुआ था। माँ का मातृत्व अभिव्यक्त हो रहा था। मातृत्व की सजल भावनाएँ अपना स्वरूप व आकार पाने की तैयारी में थीं।