Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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परिवार ही नहीं, सबकी माताजी
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अखण्ड ज्योति संस्थान के आँगन में माता भगवती प्रायः सभी की माता जी बन गयीं। पास-पड़ोस के बच्चे ही नहीं, अखण्ड ज्योति कार्यालय में आने-जाने वाले लोग भी उन्हें ‘माताजी’ कहने लगे थे। यहाँ आते ही उन्होंने अनेकों जिम्मेदारियाँ एक साथ सम्भाल लीं। प्रेम, सदाशयता, सहिष्णुता और श्रमशीलता की प्रकाश-रश्मियों का पुञ्ज उनके व्यक्तित्व को और भी अधिक प्रकाशित करने लगा। यहाँ वह सबसे बाद में सोती और सबसे पहले जगती। उनके जगने का समय तो निश्चित था, पर सोने के समय के बारे में कोई ठिकाना नहीं था। क्योंकि हर दिन इतने तरह के नए-नए काम आ जाते थे, कि सोने में प्रायः देर हो ही जाती। और कुछ नहीं तो समय-कुसमय आने वाले आगन्तुकों के भोजन व्यवस्था में ही विलम्ब हो जाता। देर से सोने के के कारण व स्थिति कुछ भी हो, पर वह रात्रि 3 बजे बड़े ही नियम से जग जाया करती थीं।
जागरण के पश्चात् नित्यकर्म से निवृत्त होकर वह योग साधना के लिए बैठ जातीं। उनकी पूजावेदी पर सदा परम पूज्य गुरुदेव एवं गायत्री माता का चित्र प्रतिष्ठित रहता था। वही उनके जीवन सर्वस्व और आराध्य थे। अपने आराध्य में ही वे जगन्माता गायत्री की अनुभूति करती थीं। इस चित्र का पंचोपचार पूजन करके प्राणायाम की कुछ विशिष्ट प्रक्रियाएँ सम्पन्न करतीं। इसी के साथ गायत्री महामंत्र का जप उनकी अन्तर्चेतना में होने लगता। उनकी कठिन साधना से जाग्रत् एवं चैतन्य गायत्री महामंत्र के प्रत्येक बीजाक्षर का स्फोट उनके अस्तित्त्व के विभिन्न गुह्य केन्द्रों में होता रहता। यह उनके द्वारा किए जाने वाले गायत्री जप की अद्भुत प्रणाली थी। जप के अनन्तर वह ध्यानस्थ हो जातीं। ध्यान की भावदशा में वह अपने महाशक्ति के स्वरूप में परिपूर्णता से निमग्न होतीं। साधना का यह क्रम प्रायः सूर्योदय तक चलता रहता।
इसके बाद घर और कार्यालय के अन्य काम-काज शुरू हो जाते। इन कामों को भी वह किसी भी तरह योग साधना से कम नहीं मानती थीं। वह कहा करती थीं कि काम चाहे छोटा हो या बड़ा, यदि सच्चे भाव से भगवान् को अर्पित करके किया जाय तो वह योग साधना बन जाता है। उससे ध्यान और समाधि की ही तरह योग-विभूतियाँ प्रकट होती हैं। माताजी की इन बातों में कोरा शब्द विस्तार नहीं अनुभूति का सत्य समाया था। अपने कामों के द्वारा वह हर पल-हर क्षण साधना किया करती थीं। उनका कहना था कि स्वार्थ और अहंकार के तत्त्वों की विषाक्तता से प्रायः सभी कर्म कलुषित होते रहते हैं। इनके रहते हुए किसी भी कर्म का योग बनना सम्भव नहीं हो पाता। इनकी जगह यदि अपने आराध्य के प्रति निष्ठ और समर्पण की भावनाएँ कर्म में समाविष्ट हो जाय तो सब-कुछ बदल जाता है। कोई माने या न माने, फिर बर्तन माँजना, झाड़ू-पोछा करने जैसे हीन समझे जाने वाले काम भी ध्यान साधना का रूप ले लेते हैं।
उनका यह अनुभव सत्य उनके जीवन में रोज ही प्रकट होता था। झाड़ू-पोछा और बर्तन माँजने जैसे कामों से ही उनके कामकाजी दिन की शुरुआत होती थी। खाना-पकाना भी एक बड़ा काम था। परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त आने वालों की बड़ी संख्या हमेशा घर में बनी रहती। आने वालों की संख्या कोई ठीक-ठीक निश्चित नहीं थी। कभी तो ये पाँच-दस होते, तो कभी तीस-चालीस तक हो जाते। स्थिति जो भी होती, इन सभी के भोजन की उपयुक्त व्यवस्था माताजी को ही अन्नपूर्णा बनकर करनी पड़ती। अपने इस दायित्व को वह बड़े ही उत्साह के साथ निभातीं। भोजन करने वालों को, बनाए गए भोज्य पदार्थों के साथ माँ के प्यार का भी अलौकिक स्वाद मिलता। अथक परिश्रम वाले इस कार्य को करते हुए किसी ने कभी उनको चिड़चिड़ाते या परेशान होते हुए नहीं देखा। स्नेह स्मित बिखेरते हुए वह सदा काम में जुटी रहती थीं।
काम जब बहुत ज्यादा बढ़ गया, तब परम पूज्य गुरुदेव ने घर के कामों के लिए एक सहयोगिनी महिला की व्यवस्था कर दी। यह मथुरा के ही बैरागपुरा मुहल्ले में रहने वाली एक गरीब विधवा थी। जो टूटी-फूटी कोठरी में एक छोटे से बालक के साथ बिना किसी सहारे, बिना किसी आर्थिक स्रोत के दिन काट रही थी। जिस समय उसे रखा गया उस समय उनकी उम्र 20-22 वर्ष रही होगी। लेकिन गरीबी की मार ने उसे असमय बूढ़ा कर दिया था। लम्बे कद की यह साँवली महिला जली लकड़ी सी लगती थी। उसके दुर्बलता के कारण उसके गालों में गड्ढे उभर आये थे, आँखें बैठ गयी थीं। उसका नाम था ‘गुलाबो’। हर बात में उसकी ‘ए जू’ कहने की आदत के कारण अखण्ड ज्योति संस्थान में उसका नाम ही ‘ए जू’ हो गया था। सभी लोग उसे इसी नाम से बुलाने लगे।
‘ए जू’ कुछ ही दिनों में माता जी की प्रिय सहयोगी बन गयी। माताजी द्वारा उसके स्वास्थ्य व खान-पान पर विशेष ध्यान दिए जाने के कारण थोड़े ही दिनों में वह दीन-दुर्बल के स्थान पर स्वस्थ, सुपुष्ट एवं सुन्दर दिखने लगी। गली-गली में मारे-मारे फिरने वाले उसके लड़के को माताजी ने स्कूल में दाखिल कराया। वह और उसका बालक दोनों ही निहाल हो गए। ‘ए जू’ के सहयोग से काम की गति तो बढ़ी पर माताजी की श्रमशीलता में जरा भी कमी नहीं आयी। वह घर के सामान्य काम-काज के अलावा अखण्ड ज्योति कार्यालय के कामों में भी हाथ बंटाया करती थी। परिजनों को भेजी जाने वाली अखण्ड ज्योति पत्रिका के रैपरों में वह टिकट चिपकाती, उन्हें भेजने की व्यवस्था करती।
पाठकों एवं परिजनों के जो पत्र कार्यालय में आते थे, उनके उत्तर लिखने में गुरुदेव की सहायता करना माताजी का प्रिय कार्य था। गुरुदेव के पास बैठकर वह अपने पास पत्रों का ढेर जमा कर लेती। इसके बाद एक-एक पत्र पढ़कर गुरुदेव को सुनाती जातीं और वे उत्तर लिखते जाते। पत्रोत्तर देने का यह कार्य बड़ी ही तीव्र गति से सम्पन्न होता। जितनी देर में माताजी पत्र पढ़तीं, उतनी देर में गुरुदेव उत्तर लिख देते। एक बैठक में कम से कम सौ पत्रों के जवाब देने का कार्य सम्पन्न होता। उन दिनों की याद करके माताजी बाद में बताया करती थीं कि गुरुदेव तो सारे दिन अति व्यस्त रहते थे। उनका रात्रिकाल भी प्रायः साधना और समाधि में गुजरता था। बस पत्र लिखने का ही समय ऐसा था, जब मुझे उनका संग-साथ मिल पाता था। इन्हीं क्षणों में कभी-कदार एक-आध घर-परिवार की बातें हो जातीं।
वैसे सामान्यतया घर-परिवार की बातों की तरफ से उन्होंने गुरुदेव को पूरी तरह से निश्चिन्त कर रखा था। रिश्ते-नातेदार, परिवार-सगे सम्बन्धी सभी की देख-भाल, आव-भगत का जिम्मा वही अकेली निभाती थीं। उनके प्यार भरे बर्ताव से सभी सम्बन्धी एवं कुटुम्बी प्रायः अभिभूत बने रहते थे। अखण्ड ज्योति संस्थान के निवास के इन्हीं प्रारम्भिक वर्षों में वह दो सन्तानों की जननी बनीं। उनकी पवित्र कोख से पहले मृत्युञ्जय शर्मा तथा बाद में शैलबाला का जन्म हुआ। धन्य हैं ये विशिष्ट विभूतियाँ जिन्हें विश्व जननी ने अपनी कोख में रखा। अपने इन बच्चों को उन्होंने घर में सतीश और शैलो बुलाना शुरू किया। पारिवारिक सदस्यों के बीच सदा ही इनका यही नाम रहा। अपने इन बच्चों के भाव विकास के साथ उनकी दैनन्दिन गतिविधियाँ यथावत चलती रही।
उन दिनों उनके काम-काज को देखकर आने-जाने वाले आगन्तुक, सगे-सम्बन्धी परिवार के सदस्य सभी हतप्रभ व हैरान रहते थे। उन्हें यह अचरज होता था कि माताजी इतना काम करती हैं, उन्हें थकान क्यों नहीं लगती है? कई बार तो वे ऐसे काम कर डालतीं, जिन्हें करना कई व्यक्तियों के सामूहिक श्रम से सम्भव होता।
‘ए जू’ यदा-कदा उनके इस तरह दिन-रात काम में लगे रहने के रहस्य के बारे में पूछ लेती थी। उसके सवाल पर कभी-कभी तो वह हंस देतीं और कभी थोड़ा गम्भीर होकर कहतीं- “मन में समर्पण की तीव्रता हो तो वज्र भी फूल हो जाया करता है। मेरे लिए हर काम चाहे वह बर्तन माँजना, झाड़ू लगाना हो या फिर आचार्य जी के पास बैठकर पत्र लिखने में मदद करना, अपने को उनके चरणों में उड़ेलने, समर्पित करने का माध्यम है। मैं जितना ज्यादा काम करती हूँ, मुझे उतना ही ज्यादा लगता है कि मैं अपने आपको उन्हें दे रही हूँ।” इस तरह के अनेक काम-काज के बीच उनके मातृत्व का विस्तार भी तीव्र गति से हो रहा था। उनकी वात्सल्य संवेदना सतत अपना विकास करती जा रही थी।